उत्तराखण्ड के अल्मोड़ा जिले में 25 परिवारों का छोटा सा गाँव है, गल्लाकोट। जहाँ रहते हैं 75 वर्षीय दयानन्द जोशी। अल्मोड़ा शहर से 32 किमी दूर, रानीखेत को जाने वाली रोड, गोविन्दपुर के पास पड़ता है दयानन्द का गाँव। वे लगभग 45 साल से सब्जी और फलों का उत्पादन कई कीर्तिमान स्थापित करते हुए कर रहे हैं। 15 किलो की मूली, 5 किलो की गड़री (अरबी की प्रजाति की सब्जी) के लिये उनको सम्मानित भी किया जा चुका है और मूली की इसी बीज को दयाकेसरी नाम रखने की प्रक्रिया भी चल रही है।
रोड से कुछ दूर पैदल ऊपर चढ़ने के बाद, लोगों से पूछते हुए मैं वहाँ पहुँचा। संयोगवश उनका बेटा रास्ते में घास काटते हुए मिल गया। रोड से थोड़े ऊँचाई पर उनका पुराने डिजाइन में बना घर था और चारों ओर खेत थे। उनसे मेरी पहली मुलाकात पॉलीहाउस में हुई, जहाँ झुकी हुई कमर से वे घास साफ कर रहे थे। मैंने प्रणाम किया ही था कि वे बोल पड़े, कुछ नहीं हो रहा है इस बार, पानी की कमी से सब सुख गया है, ऐसा कहते हुए वे मुझे खेत से आँगन में ले गए।
मेरे मन में उनके रंग-रूप और घर को लेकर अनेक जिज्ञासाएँ थीं, बड़े किसान हैं तो घर भी अच्छा ही होगा। घर की हालत और उनके परिवार की स्थिति देखकर निराशा हुई और मन में अनेक सवाल भी उपजे। पहाड़ी डिजाइन में बने घर में वे अपने बेटे और पोते के साथ रहते थे। पोता 11वीं में पढ़ता था, जिसे लेकर उनकी काफी शिकायतें थीं।
कोई खेती नहीं करना चाहता
इतनी उम्र होने के बाद भी वे खेती का सारा काम स्वयं ही करते हैं। वे कहते हैं कि खेती-किसानी आज के जमाने में गुजरे वक्त की बात हो गई है। गाँव के लड़के दिल्ली जैसे शहरों में जाकर सात-आठ हजार कमाते हैं लेकिन अपने खेतों में काम करके फल, सब्जी उगाना नहीं चाहते।
जब मैंने पूछा कि आप ये काम कब से करते आये हैं तो उन्होंने कहा कि जबसे मैंने होश सम्भाला तब से यही काम कर रहा हूँ। मेरे पास कोई डिग्री नहीं है बस मेरी जिज्ञासा, प्रयोगों एवं पिताजी के मार्गदर्शन से सिखता आया हूँ। वे आगे कहते हैं, 20-25 साल पहले यहाँ पास के कस्बों, दौलाघट और गोविन्दपुर में कोई दुकान नहीं थी, मैं सारी सब्जियाँ बेचने के लिये रानीखेत और सोमेश्वर की बाजार में जाता था। इतनी मेहनत करने के बाद भी यह लाभ का सौदा होता था। इस पूरे इलाके में मैंने पहली बार गोभी लगाई। वरना यहाँ के लोगों ने गोभी को बस दुकानों में ही रखे देखा था। जब मैंने उनसे पूछा कि आप तो सब्जियों के विशेषज्ञ हैं तो यहाँ सारे गाँव वाले सब्जी, फल का उत्पादन करते होंगे। वे बोले बेटा, उत्पादन तो दूर की बात ये लोग तो मुझे भी अच्छे से काम नहीं करने देते। इन्हीं लोगों की वजह से मैं पत्थर की दीवार लगा रहा हूँ, जिसमें भी इनको आपत्ति है इसलिये आजकल इसका काम रुका हुआ है।
मैंने आसपास के कई लोगों को कहाँ कि मैं आपको बीज लाकर दूँगा और साथ ही बताऊँगा भी कि कैसे लगाना है। विडम्बना देखो भूटान, नेपाल, सिक्किम, दार्जिलिंग के लोग मेरी बात मानकर काम कर रहे हैं और गाँव वालों के लिये घर की मुर्गी दाल बराबर है। इसी दौरान वे मुझे परिसर घुमाने ले गए, जहाँ उन्होंने गोभी, प्याज, टमाटर, मूली के अतिरिक्त अमरूद, अखरोट के पेड़ दिखाए। इसके अलावा उनके पास केरल से लाई इलाइची, हिमाचल से लाए गए जापानी फल जैसे अनेक पेड़ थे, जो इस वातावरण में नहीं होते थे जिसे उन्होंने जिज्ञासा एवं प्रयोग के नाते लगाया था।
पानी की कमी विकट समस्या
पानी की कमी की बात को उन्होंने कई बार कहा कि पहले तो नियमित पानी रहता था, पर पिछले कुछ सालों से पानी कम आता है। दयानन्द जी ने अपने घर में पानी के दो कनेक्शन लिये हुए हैं। उन्होंने पानी की कमी के कारण ही अपने पैसों से 18 मीटर चौड़ा 15 मीटर लम्बा और 6 मीटर गहरा मजबूत कंकरीट का तालाब बनाया हुआ था। जो 2012 की आपदा के दौरान थोड़ा टूट गया था जिसके कारण उसमें अब पानी ज्यादा दिनों तक नहीं रुक पाता था।
विवेकानन्द पर्वतीय कृषि अनुसन्धान केन्द्र
जब मैंने सरकारी योजना एवं आर्थिक सहायता पर सवाल पूूछा तो वे उत्तेजित होकर बोले, जो मैंने कमाया था, सब इन खेतों में लगा दिया, कहीं से आर्थिक सहायता नहीं मिली। उनके खेत में लगे विवेकानन्द पर्वतीय कृषि अनुसन्धान केन्द्र के बोर्ड को देखकर मैंने पूछा कि क्या ये कुछ सहायता करते हैं?
अनुसन्धान केन्द्र के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक भट्ट का नाम लेकर बोले कि एक बार मैंने उनसे बीज माँगे और उनके रख-रखाव के लिये संस्थागत सहायता की बात कही लेकिन उनका कहना था कि हमारा काम अनुसन्धान करना है। बस एक मर्तबा यहाँ गोभी के विशेष बीजों को प्रयोग के तौर पर लगाया गया, तब नियमित अन्तराल में अनेक वैज्ञानिक आते थे और जब प्रयोग खत्म हुआ तो उनका आना और उनका सहयोग भी बन्द हो गया। पहले मैं उनकी मीटिंग में जाया करता था लेकिन समय और स्वास्थ के कारण अब नहीं जा पाता हूँ।
रानीखेत के एनजीओ, लोक चेतना मंच ने मेरा बहुत उपयोग किया। हालांकि मुझे सम्पूर्ण भारत के साथ भूटान की यात्रा भी कराई। वे मुझे विभिन्न जगहों में ले जाकर खेती की परम्परागत तरीकों पर बताने को कहते थे कि कैसे आसपास की चीजों से कीटाणुनाशक बनाया जा सकता है, कौन सी जगह पर क्या हो सकता है आदि आदि। पूरे साल भम्रण के बाद जब मैंने उनसे अपने खेतों की चारों ओर पत्थर की दीवार के लिये सहयोग करने को कहाँ तो उन्होंने मना कर दिया। तब से आज तक न वे यहाँ आये और न मैंने उनसे बात की। न जाने उन्होंने मुझसे कितने रुपए कमाए।
तमाम बातों के बाद जब मैंने उनसे कहा कि आखिर वे कौन सी वजह है कि आप 45 सालों के बाद भी इस व्यवसाय को आस-पास के लोगों तक नहीं पहुँचा सके? वे बोले ऐसा नहीं है कि कोई प्रेरित नहीं हुआ, जो व्यक्तिगत रूप से जुड़ा उसे मैंने सहयोग किया। लेकिन आसपास के गाँव का माहौल खेती के सकारात्मक नहीं हो पाया। इसकी सबसे बड़ी वजह सरकारी संस्थाओं का असहयोग है। जब वे मुझे प्रोत्साहन नहीं दे सकते हैं, तो वे एक नए किसान की क्या सहायता करेंगेे।
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