हमारे जल संकट का एक पहलू यह भी है कि बाढ़ के समय काफी पानी बर्बाद हो जाता है और बाकी समय जलाभाव से जूझना पड़ता है। बाढ़ में चारों ओर पानी ही पानी दिखता है, लेकिन पीने के पानी की ऐसी किल्लत हो जाती है कि आदमी बूंद-बूंद को तरस जाता है।
पानी को लेकर संघर्ष और युद्ध की संभावनाएं बढ़ रही हैं। हाल में अमेरिका के एक रणनीतिक संस्थान ने दक्षिण एशिया और खासकर भारत में गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र घाटी में बड़े जल-संघर्षों की आशंका जताई है। ऐसे में हमें पानी के प्रबंधन पर गौर करना बेहद जरूरी हो गया है। पानी के प्रबंधन के बड़े ही नहीं छोटे उपायों को भी कारगर बनाने और बड़ी परियोजनाओं से अलग वैकल्पिक उपायों पर भी विचार करने की जरूरत है। हमारे जल संकट का एक पहलू यह भी है कि बाढ़ के समय काफी पानी बर्बाद हो जाता है और बाकी समय जलाभाव से जूझना पड़ता है। बाढ़ में चारों ओर पानी ही पानी दिखता है, लेकिन पीने के पानी की ऐसी किल्लत हो जाती है कि आदमी बूंद-बूंद को तरस जाता है। यह नजारा खासकर उत्तर बिहार में बड़े पैमाने पर दिखता है। उत्तर बिहार के पांच जिलों (सुपौल, सहरसा, खगडिय़ा, मधुबनी और पश्चिम चंपारण) में रहने वाले लाखों लोग हर साल बाढ़ की लगभग ऐसी विभीषिका झेलते हैं।बाढ़ से निबटने के सरकारी उपायों से अलग कुछ समय पहले बाढ़ के दौरान पीने के पानी की समस्या का हल तलाशने की एक कोशिश की शुरुआत कुछ लोगों की तरफ से हुई। बिहार के इन जिलों में काम करने वाले पांच अपेक्षाकृत छोटे स्वयंसेवी संगठनों ने मिलकर 'मेघ पाइन अभियान' नामक पहल की। स्थानीय भाषा में पानी को पाइन कहा जाता है। अभियान के पीछे मूल सोच यह थी कि स्थानीय समस्याओं के समाधान जरूरी नहीं कि बाहर से लाए जाएं! रास्ते वहीं से निकल सकते हैं। सबसे पहले 2005 में इस इलाके का सर्वेक्षण शुरू हुआ। करीब एक साल तक बाढ़पीड़ित इन इलाकों में घूमने पर पता चला कि 77 प्रतिशत से अधिक लोग पीने के पानी के लिए चापाकल (हैंडपंप) पर निर्भर हैं और बाढ़ के दौरान ज्यादातर चापाकल डूब जाते हैं, इसलिए पेयजल का संकट बढ़ जाता है।
इसके अलावा, लोग जो पानी पीते हैं, उनमें आयरन, आर्सेनिक और अमोनिया की प्रचुरता होती है जो हानिकारक है। पहली बार जब स्वयंसेवी संस्थाओं की टीम ने गांव वालों के सामने 'वैकल्पिक जल' और 'अस्थायी बारिश जल संचयन (रेन वाटर हार्वेस्टिंग)' के जरिए बारिश के जल के संरक्षण की बात की तो लोगों ने खास गंभीरता नहीं दिखाई लेकिन कहीं से यह बात फैल गई कि बारिश के पानी को पीने से पेट साफ होता है। यह बात जंगल में आग की तरह फैल गई। दरअसल वहां के भोजन में भी आयरन प्रचुर मात्रा में होता है। इसलिए कब्जियत वहां के लोगों के बीच एक आम समस्या है। इस खबर के फैलने से हमें उम्मीद जगी कि जो काम हमने शुरू किया, उस पर हम आगे बढ़ सकते हैं।
स्थानीय स्तर पर स्थानीय जरूरतों को ध्यान में रखते हुए किए गए अन्वेषण वक्त की जरूरत थी जिसने 'जल कोठी' और 'मटका फिल्टर' को जन्म दिया। हमने स्थानीय कुम्हारों की मदद से तीन किस्म के मटका फिल्टर बनवाने शुरू किए, जो दरअसल पानी में आयरन, बैक्टीरिया और आर्सेनिक की उपलब्धता के आधार पर बनाए जाते हैं। जैसा पानी वैसा मटका फिल्टर! हाल में मजबूती के लिए अब बांस और सीमेंट के मटके भी बनाए जाने लगे हैं, जिसमें नल छोड़कर सब कुछ स्थानीय स्तर पर निर्मित हैं।
स्वच्छ जल पर शोध कर रही प्रतिष्ठित संस्थाओं की मदद से हमारी टीम ने यह भी पाया कि वहां के कुएं के पानी में न आर्सेनिक और न ही आयरन था, जबकि पास के चापाकल में दोनों तत्व मौजूद थे। नतीजतन कुओं की सफाई और बाढ़ के दौरान कुओं के जल के इस्तेमाल को बढ़ावा देना शुरू हुआ। लोगों को यह भी बताया गया कि वे पीने के पानी में आयरन की मात्रा की जांच पानी में अमरूद के पेड़ के पत्ते को निचोड़ कर देख सकते हैं। अगर पानी का रंग गहरा बैगनी हो जाए तो समझिए उसमें आयरन की मात्रा काफी है।
वर्षा जल संग्रह के लिए 'जल कोठी' को बढ़ावा देने का इनका प्रयास विशेष रूप से इसलिए भी सफल रहा कि अन्न भंडारण के लिए मिट्टी और बांस से बनी 'कोठी' इन इलाकों में सामान्य तौर पर इस्तेमाल होता रहा है। स्थानीय तकनीक और संसाधनों की मदद से कोठी को जल कोठी का रूप देना सफल रहा, जिसे लोग इस्तेमाल कर रहे हैं और बाढ़ के संकट में भी थोड़ी राहत महसूस कर रहे हैं। हम आज इलाके के 22 पंचायतों में काम कर रहे हैं। हमारी कोशिश है कि मेघ पाइन अभियान को बड़े स्तर पर ले जाएं और इस पहल से ज्यादा से ज्यादा जरूरतमंद लोगों को जोड़ सकें।
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