वैज्ञानिकों का मानना है कि उत्तराखण्ड में प्राकृतिक जलस्रोतों का सूखना, भूकम्प भी एक कारण हो सकता है। आये दिन छोटे-मोटे भूकम्प के झटके इस पहाड़ी राज्य की अब नियति बन चुकी है। भूकम्प के झटकों से जलस्रोत कभी बन्द हो जाते हैं और कभी कई रास्तों के जुड़ जाने से पानी अधिक हो जाता है, या पानी का मूल रास्ता बदल जाता है। यही नहीं वैज्ञानिकों के एक सर्वेक्षण में यह भी पुष्टि हुई कि जलवायु परिवर्तन के असर से झरनों में पानी कम हो रहा है।
वर्तमान में एक एजेंसी के सर्वे के अनुसार राज्य में 17577 मजरों के प्राकृतिक जलस्रोत सूख चुके हैं। जबकि राज्य में चार-चार पेयजल एजेंसियाँ काम कर रही हैं।
राज्य के लोगों की प्यास बुझाने को लेकर पेयजल निगम, जल संस्थान, स्वजल व एडीबी जैसी चार महत्त्वपूर्ण एजेंसियाँ वर्षों से काम कर रही हैं। बावजूद इसके राज्य में 17577 गाँवों के लाखों लोग आज भी पानी के संकट से जूझ रहे हैं। इन जिम्मेदार एजेंसियों की मानें तो अगले 20 वर्षों तक यह समस्या बनी रह सकती है, क्योंकि उनके पास हमेशा से ही बजट की कमी रहती है।
इधर पेयजल निगम का कहना है कि पेयजल योजनाओं के निर्माण के लिये प्रतिवर्ष 700 करोड़ रु. का बजट उन्हें मिलना चाहिए। जबकि उन्हें इस वित्तीय वर्ष में मात्र 70 करोड़ रुपए ही जारी किये गए हैं। ऐसे में ना तो वे किसी पेयजल योजना को पूर्ण कर पाते हैं और ना ही लोगों की प्यास बुझाने में सफल हो पाते हैं। निगम ने यह भी माना कि आये दिन राज्य के प्राकृतिक जलस्रोत लगातार सूख रहे हैं, ऐसे में पेयजल योजनाओं को अमलीजामा पहनाना और कठिन हो जाता है। इस तरह से बजट की कमी के चलते अगले 20 वर्षों तक इन क्षेत्रों में पानी की समस्या खत्म होने के आसार नहीं लग रहे हैं।
राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों की हालात देखें तो पेयजल को लेकर बड़ी ही डरावनी तस्वीर सामने आ रही है। मानक के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति को एक दिन में 40 लीटर पानी मिलना चाहिए था, लेकिन ये वे गाँव हैं जहाँ प्रति व्यक्ति को 20 लीटर प्रतिदिन नसीब नहीं होता। आँकड़े देखें तो सर्वाधिक पेयजल का संकट पौड़ी जिले में है। जहाँ 4732 गाँव पेयजल की किल्लत से जूझने के आदी हो गए हैं। यही हालात टिहरी जनपद के हैं वहाँ भी 3386 गाँव पानी की समस्या से त्रस्त हैं।
इस तरह जनपद अल्मोड़ा में 1843, पिथौरागढ़ में 1136, देहरादून में 1615, चमोली में 1627, रुद्रप्रयाग में 868, उत्तरकाशी में 617, बागेश्वर में 510, चम्पावत में 622, हरिद्वार में 311, नैनीताल में 358, उधमसिंहनगर में 52 गाँवों के प्राकृतिक जलस्रोत सूखने से लाखों लोग प्यासे हैं।
इधर केन्द्र सरकार ने इन गाँवों की पेयजल की समस्या को दूर करने के लिये इसकी जिममेदारी ‘पेयजल निगम’ को सौंपी है। साथ ही राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम के तहत बजट की व्यवस्था की जानी है। सो निगम हमेशा बजट का रोना रोता रहता है। इस तरह की हिलाहवाली के कारण लोग बजट और कागजी योजनाओं के बीच झूल रहे हैं। अब हालात इस कदर बन गई कि ना तो इन योजनाओं को समय पर बजट मिल रहा है और ना ही सूख रहे प्राकृतिक जलस्रोतो के रिचार्ज के लिये सरकारें कोई आवश्यक कदम उठा रही हैं।
वाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्थान के वरिष्ठ विज्ञानी डॉ. एसके बरतरिया का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के कारण मध्य हिमालयी क्षेत्र के पाँच फीसदी जलस्रोत पूरी तरह से सूख गए हैं और 70 फीसदी जलस्रोतों का पानी आधा रह गया है। उन्होंने बताया कि 1982 से अब तक एक अध्ययन से पता चलता है कि इस मध्य हिमालय में सैकड़ों छोटी नदियों में सिर्फ बारिश के दौरान पानी दिखता है। इन जलस्रोतों के सूखने की वजह जलवायु परिवर्तन के कारण बारिश में बदलाव, पेड़ों की कटान, चट्टानों का दरकना, भूस्खलन, भूकम्प आदि को माना जा रहा है।
शोधकर्ताओं के मुताबिक बारिश अब लगातार होने के बजाय एक बार में हो जाती है जिससे जलस्रोत रिचार्ज नहीं हो पा रहे हैं।
खास बात यह है कि हिमालयी रेंज के जलस्रोतों के रास्तों की संरचना बेहद उलझी हुई है। सूखे जलस्रोतों को रिचार्ज करने का ट्रीटमेंट फेल हो गया है। इससे घबराए पेयजल निगम ने हाथ खड़े कर लिये हैं। निगम अब पहाड़ों के झरनों और जलस्रोतों की अन्दरूनी संरचना पर शोध करवा रहा है। इसके लिये वाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्थान से मदद माँगी जा रही है।
पहाड़ों से पलायन के कारण खेती समाप्त होना भी जलस्रोत सूखने का एक बड़ा कारण माना जा रहा है। पेयजल निगम ने प्रदेश के सूखे जलस्रोतों का सर्वेक्षण कराया था, जहाँ पानी सूख गया था, वहाँ के जलस्रोतों का ट्रीटमेंट किया गया। इसके बाद भी वहाँ भूजल रिचार्ज नहीं हुआ। उत्तराखण्ड पेयजल निगम के एमडी भजन सिंह का कहना है कि चट्टानों की बनावट पता नहीं चलती। ट्रीटमेंट के बाद भी जलस्रोत रिचार्ज नहीं होते। उत्तराखण्ड जल संस्थान के महाप्रबन्धक एसके गुप्ता का कहना है कि खेती बन्द होने से जलस्रोत सूख जाते हैं। खेतों में पानी भरने से जलस्रोत रिचार्ज होते हैं। जिन स्थानों पर पलायन हुआ है और खेती नहीं होती, वहाँ जलस्रोत अधिक सूखे हैं। यही वजह है कि पौड़ी जनपद के सर्वाधिक जलस्रोत सूख चुके हैं। क्योंकि पौड़ी से राज्य में सर्वाधिक पलायन की खबरें आ रही हैं। खेती के लिये लोग ‘वर्षाजल संचयन’ भी किया करते थे, जो अब नहीं हो पा रहा है।
अतएव अधिकांश जलस्रोतों में 70 से 90 फीसदी तक पानी कम हो गया है। वैज्ञानिक इसका कारण जलवायु परिवर्तन और बीच-बीच में आ रहे भूकम्प के झटकों को बता रहे हैं। उत्तराखण्ड अन्तरिक्ष उपयोग केन्द्र (यूसैक) के सर्वेक्षण में इसकी पुष्टि हो रही है।
सरकारी आँकड़ों पर गौर करें तो प्राकृतिक जलस्रोत सूखने से तकरीबन 350 छोटी-बड़ी पेयजल परियोजनाएँ बन्द हो गई हैं। पेयजल किल्लत की यह स्थिति तो शुरुआती जाँच में उजागर हुई है, लेकिन स्थिति और विकराल हो सकती है। जलस्रोतों पर कार्य कर रहीं यूसैक की वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. आशा थपलियाल का कहना है कि देहरादून से 50 किमी के फासले पर स्थित कालसी के जलस्रोतों में 70 से 90 फीसदी तक पानी की कमी पाई गई है।
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