पेयजल: निजीकरण से भी घातक है पीपीपी

इस अनुबंधन में वित्तीय, संचालन संबंधी, नियामक और जल संसाधनों के स्थाई, समतामूलक और न्यायपूर्ण उपयोग पर चिंताएं पैदा की है। यह पीपीपी अनुबंध निजीकरण से ज्यादा खतरनाक है क्योंकि यह सार्वजनिक धन से निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाने और उन्हें सामाजिक जवाबदेही और जोखिमों से बचाने की एक तिकड़म मात्र है और ऐसे अनुबंधों में बढ़ोतरी चिंता का विषय है। खंडवा की जल आवर्धन परियोजना के अनुभव अन्य स्थानों के लिए भी समान महत्व के हैं क्योंकि सरकार द्वारा बढ़ावा दिए जाने से देश भर में पीपीपी अनुबंधों की बाढ़ सी आ गई है।

पिछले दो दशकों से देश में उदारीकरण और निजीकरण की प्रक्रिया जारी है। बिजली क्षेत्र के बाद अब इसके प्रभाव जल क्षेत्र में दिखाई देने लगे हैं। मध्यप्रदेश के खंडवा में निजी कंपनी द्वारा निर्माणाधीन जल आवर्धन परियोजना से हालांकि अभी तक वितरण शुरु नहीं हो पाया है लेकिन परियोजना दस्तावेजों से स्पष्ट है कि इस राजनैतिक फैसले की कीमत खंडवा नगर की एक पूरी पीढ़ी को चुकानी पड़ेगी क्योंकि कंपनी के साथ हुआ यह अनुबंध पानी जैसी अत्यावश्यक सेवा से लम्बे समय तक मुनाफा कमाने की छूट देता है। खंडवा नगर निगम ने नगर में पेयजल प्रदाय हेतु निजी कंपनी विश्वा इंफ्रास्ट्रक्चर एंड सर्विसेस लिमिटेड से जन निजी भागीदारी या पीपीपी आधार पर एक अनुबंधन किया है। इसके तहत स्थानीय संसाधनों की उपेक्षा करते हुए 52 कि.मी. दूर इंदिरा (नर्मदा) सागर के जलाशय से पानी लाना प्रस्तावित है। 116 करोड़ रुपए की लागत की इस योजना का सालाना संचालन एवं संधारण खर्च साढ़े सात करोड़ रुपए से अधिक है। जबकि वर्तमान में निगम द्वारा संचालित जलप्रदाय विभाग का सालाना खर्च तीन करोड़ से भी कम है।

खंडवा की जलप्रदाय परियोजना का अध्ययन करने पर पीपीपी की इस पूरी प्रक्रिया पर कई प्रश्नचिन्ह लग जाते हैं। परियोजना निर्माण हेतु जारी किए गए निविदा पत्रों में एक के बाद एक अनेक फेरबदल किए गए। संभावित ठेकेदारों की नगर निगम के साथ हुई बैठकों के कार्यवृत्तों (मिनिट्स) से पता चलता है कि अनुबंध के अधिकांश बदलाव निजी कंपनियों के दबाव में तथा उन्हें फायदा पहुंचाने के लिए किए गए थे। निगम द्वारा पहले परियोजना को इसी आधार पर तर्कसंगत ठहराया जा रहा था कि इससे दिन-रात चैबीसों घंटे पानी मिलेगा लेकिन जब परियोजना अनुबंध पर हस्ताक्षर हुए तो पला चला कि 24x7 जलप्रदाय को घटाकर दिन में मात्र 6 घंटे कर दिया गया। इसके अलावा व्यक्तिगत नलों पर मीटर लगाने और शहर में जल वितरण की जिम्मेदारी से भी कंपनी को मुक्त कर दिया गया है। इतना ही नहीं विस्तृत परियोजना रपट (डीपीआर) तैयार करने और परियोजना के तकनीकी निरीक्षण हेतु इंदौर की फर्म मेहता एंड एसोसिएट्स को दिए गए करीब पौने दो करोड़ रुपए के ठेके की प्रक्रिया भी संदेहास्पद है।

परियोजना के दस्तावेज बताते हैं कि नवम्बर 2006 में मात्र साढ़े 34 करोड़ की लागत से इस परियोजना पर विचार शुरू हुआ और फरवरी 2009 में इसकी लागत बढ़कर 116 करोड़ तक पहुंच गई। हालांकि निर्माण सामग्री के भावों के बहाने लागत को 135-140 करोड़ तक बढ़ाने का इरादा था लेकिन केन्द्र सरकार द्वारा लागत को और अधिक बढ़ाने से इंकार कर दिया गया। बाद में ‘स्वीकृत मानक से कम स्तर’ की निर्माण सामग्री इस्तेमाल करने का निर्णय लिया गया। निर्माण सामग्री की गुणवत्ता में किए गए समझौते की कीमत भी शहर को ही भुगतनी पड़ेगी। जहां तक परियोजना में जोखिम का सवाल है निजी कंपनी को इससे मुक्त रखा गया है। परियोजना में 90 प्रतिशत से अधिक सार्वजनिक धन लगा है। निजी कंपनी प्रति किलो लीटर के हिसाब से निगम को पानी बेचेगी इसलिए उसका जोखिम कम से कम कर वर्षों तक उसके मुनाफे का पक्का प्रबंध कर दिया गया है। किसी उपभोक्ता के डिफाल्टर होने पर भी कंपनी को कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि अनुबंध के अनुसार संबंधित उपभोक्ता के बकाए का आधा निगम द्वारा तुरंत भुगतान कर दिया जाएगा। शेष राशि भी वसूली के बाद कंपनी के खाते में जमा करवा दी जाएगी।

उपभोक्ता की बकाया राशि को उसके वेतन या धन-सम्पत्ति से वसूलने का भी प्रावधान किया गया है। परियोजना के बारे में निर्णय लेते समय न तो शहर की 40 प्रतिशत गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करने वाली आबादी की भुगतान क्षमता के बारे में कुछ सोच गया है और न हीं निगम के जलप्रदाय विभाग के कर्मचारियों के बारे में। नगर निगम द्वारा जारी निविदा प्रपत्र में दो प्रकार के ऑफर दिए गए थे। पहले ऑफर में निविदा हासिल करने वाली कंपनी से परियोजना निर्माण एवं 23 वर्षों तक संचालन के अलावा केवल ओवरहेड टंकियों तक जलप्रदाय करने की अपेक्षा की गई थी। दूसरे ऑफर में पहले ऑफर की शर्तों के साथ पूरे शहर में जल वितरण भी शामिल था। हालांकि निजी कंपनी ने दूसरा ऑफर स्वीकार किया है लेकिन अनुबंध की शर्तों में मनमाने बदलाव के बाद उसे पहले ऑफर से भी कमजोर बना दिया है। खंडवा की निजीकृत जल आवर्धन परियोजना में जल दर पुनरीक्षण की अपारदर्शी व्यवस्था, नियामक ढांचे की कमी, राजनैतिक आम सहमति, जनभागीदारी और निजी कंपनी की जवाबदेही की कमी स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं।

इस अनुबंधन में वित्तीय, संचालन संबंधी, नियामक और जल संसाधनों के स्थाई, समतामूलक और न्यायपूर्ण उपयोग पर चिंताएं पैदा की है। यह पीपीपी अनुबंध निजीकरण से ज्यादा खतरनाक है क्योंकि यह सार्वजनिक धन से निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाने और उन्हें सामाजिक जवाबदेही और जोखिमों से बचाने की एक तिकड़म मात्र है और ऐसे अनुबंधों में बढ़ोतरी चिंता का विषय है। खंडवा की जल आवर्धन परियोजना के अनुभव अन्य स्थानों के लिए भी समान महत्व के हैं क्योंकि सरकार द्वारा बढ़ावा दिए जाने से देश भर में पीपीपी अनुबंधों की बाढ़ सी आ गई है। अगस्त 2010 की स्थिति में यूआईडीएसएसएमटी में शमिल 640 नगर निकायों में से 501 पीपीपी अनुबंध के माध्यम से जलप्रदाय हेतु सहमत हो गए हैं जबकि 464 नगर निकायों ने तो जलप्रदाय हेतु पीपीपी अनुबंधों पर हस्ताक्षर कर भी दिए हैं। इनमें से बहुत से शहरों में खंडवा जैसी ही स्थिति होगी। सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि खंडवा में घोर जलसंकट भी नहीं है। नगर निगम के आंकड़ों के अनुसार यहां वर्ष के अधिकांश महीनों में कुल 19.5 एमएलडी जलप्रदाय किया जाता है जो हर रोज हर व्यक्ति के हिसाब से 97.5 लीटर होता है।

हालांकि गर्मी के दिनों में देश के प्रत्येक शहर की तरह यहां भी थोड़ा जलप्रदाय कम हो जाता है लेकिन फिर भी वार्षिक औसत 86 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन से कम नहीं होता है। मध्यप्रदेश के नगरीय प्रशासन एवं विकास विभाग की सेवा स्तर संबंधी रिपोर्ट के अनुसार खंडवा का प्रति व्यक्ति जलप्रदाय नर्मदा किनारे स्थित बड़वानी, बड़वाह, सनावद आदि शहरों से अधिक है, यहां तक कि प्रदेश की राजधानी भोपाल से भी अधिक है। फिर ऐसी क्या जरूरत पड़ गई थी कि शहर की जलप्रदाय व्यवस्था निजी कंपनी को सौंपना पड़ा? नगर निगम द्वारा इसके लिए नगर की जनता से संवाद कायम करने का प्रयास तक नहीं किया गया? इससे दुखद क्या हो सकता है कि लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित निगम परिषद द्वारा परियोजना को आगे बढ़ाने हेतु निगमों में मुख्य विपक्षी दल की राय को अनसुना कर महापौर परिषद का शार्टकट चुना गया। स्पष्ट है कि मुख्य मुद्दा जलप्रदाय व्यवस्था में सुधार न होकर जलप्रदाय व्यवस्था का निजीकरण मात्र था। निविदा प्रक्रिया में शामिल रहीं जसको, यूनिटी इन्फ्रा और अशोका बिल्डकॉन जैसी जल क्षेत्र की अनुभवी कंपनियों ने नर्मदा जैसे दूर के स्रोत से पानी लाने की योजना को अव्यवहारिक बताया था इसके बावजूद नगर निगम ने इस परियोजना को आगे बढ़ाया। इस पेयजल परियोजना हेतु आम जनता से संवाद करना तो दूर राजनैतिक आम सहमति बनाने का प्रयास तक नहीं किया गया।

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