पेयजल की गुणवत्ता समस्या तथा मानव स्वास्थ्य (Drinking Water and Health in Hindi)


विश्व पर्यावरण दिवस 2003 का मुख्य विषय था: जल, जिसके लिये 2 बिलियन लोग मर रहे हैं। इससे टिकाऊ विकास में जल की केन्द्रीय भूमिका उजागर होती है। जिससे संयुक्त राष्ट्र संघ को वर्ष 2003 को स्वच्छ जल का अन्तरराष्ट्रीय वर्ष घोषित करना पड़ा।

भारत एशिया के जल संसाधन समृद्ध देशों में से एक है जहाँ एशिया के नवीकरणीय शुद्ध जलस्रोत का लगभग 14 प्रतिशत है और प्रतिवर्ष औसत 1150 मि.मी. वर्षा होती है।

विगत 20 वर्षों में 2.4 बिलियन से अधिक लोगों को सुरक्षित जल आपूर्ति हुई है और 600 मिलियन लोगों ने स्वच्छता सुधार किये हैं। फिर भी 6 लोगों में से एक को सुरक्षित पेयजल की नियमित आपूर्ति नहीं हो पाई। इसके दोगुने से अधिक (2.4 बिलियन) लोगों को पर्याप्त स्वच्छता सुविधाएँ मुहैया नहीं की जा सकी हैं।

अफ्रीका में 300 मिलियन लोग (आबादी का 40 प्रतिशत) मूलभूत सफाई के बिना रह रहे हैं और 1990 के बाद उनमें 70 मिलियन की वृद्धि हुई है। विकासशील देशों में 90 प्रतिशत व्यर्थ जल बिना किसी उपचार के नदियों में बहा दिया जाता है।

अस्वच्छ जल में परजीवियों, अमीबा तथा बैक्टीरिया का प्रजनन होता है जिनसे प्रतिवर्ष 1.2 बिलियन लोगों को हानि पहुँचती है।

विकासशील देशों में 80 प्रतिशत बीमारियाँ तथा मृत्यु जलवाहित रोगों के कारण होती हैं और प्रति आठ सेकेंड में एक बच्चे की मृत्यु होती रहती है।

विश्व के अस्पतालों के आधे बिस्तर जलवाहित रोगों से पीड़ित लोगों से भरे रहते हैं।

विश्व की लगभग 40 प्रतिशत जनसंख्या समुद्र तट से 60 कि.मी. दूरी के भीतर रही रही है। प्रदूषित तटीय जल से सम्बद्ध रोग तथा मृत्यु से प्रतिवर्ष 16 बिलियन डॉलर क्षति होती है।

दक्षिणी एशिया में 1990 तथा 2000 के बीच 220 मिलियन लोगों को सुधरे शुद्ध जल तथा स्वच्छता से लाभ मिला। इसी काल में जनसंख्या में 222 मिलियन की वृद्धि हुई जिससे जो लाभ हुआ था उसका सफाया हो गया।

इसी काल में पूर्वी अफ्रीका में स्वच्छता से रहित लोगों की संख्या दोगुनी होकर 19 मिलियन हो गई।

2025 तक विश्व के हर व्यक्ति को सुरक्षित जल तथा उचित सफाई उपलब्ध कराने में प्रतिवर्ष 180 बिलियन डॉलर व्यय होगा, जो वर्तमान निवेश का 2-3 गुना अधिक होगा।

भारत की जल समस्याएँ : पारिस्थितिक सुरक्षा के लिये गम्भीर खतरा


भारत में प्रतिवर्ष औसतन 4000 बिलियन घनमीटर के तुल्य वर्षा होती है। इस 4000 बिलियन घनमीटर उपलब्ध जल में से देश की नदियों में औसतन 1900 बिलियन घनमीटर जल बहता है। इनमें से केवल 690 बिलियन घनमीटर सतही जल के रूप में काम आता है जबकि पुनः भरणीय भूमिगत जल संसाधन लगभग 431.9 बिलियन घनमीटर है। आबादी में वृद्धि तथा विभिन्न उपयोगकर्ता सेक्टरों में वितरण के फलस्वरूप इस अमूल्य संसाधन पर अत्यधिक दबाव है।

ज्यों-ज्यों जनसंख्या दबाव बढ़ेगा और शहरों का विस्तार होगा, त्यों-त्यों पहले की अपेक्षा स्वच्छ जल की मांग और भी बढ़ेगी, भले ही यह जल पेस्टीसाइडों, भारी धातुओं तथा प्राकृतिक प्रदूषकों से अधिकाधिक संदूषित क्यों न हो।

नदी तथा सतही जल के अति दोहन से देश जल संकट के कगार पर खड़ा है। पहले से भारत के एक तिहाई कृषि-जलवायविक मंडलों में प्रति व्यक्ति मांग तथा आपूर्ति के रूप में जल का अभाव है। यह अभाव तब उत्पन्न होता है जब प्रतिवर्ष प्रति व्यक्ति उपलब्धता 1000 घनमीटर से नीचे गिर जाती है।

सम्प्रति भारत के 20 नदी बेसिनों में से छह में जल की कमी है और जल के अतिदोहन को देखते हुए आशा की जाती है कि 2025 तक पाँच अन्य नदी बेसिनों में जल की कमी हो जावेगी। विशेषज्ञों का कहना है कि कम से कम एक लाख भारतीय गाँव भीषण जल अभाव का सामना कर रहे हैं।

देश के लगभग एक तिहाई राज्य राजस्थान, गुजरात, आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु तथा कर्नाटक पहले से ही सूखे की गिरफ्त में आते रहते हैं और देश के कुल क्षेत्रफल के लगभग 12 प्रतिशत सूखारोधन की आवश्यकता है।

यह स्थिति और भी भयावह बन जाती है यदि शुद्ध जल की बर्बादी और उसके संदूषण पर भी विचार किया जाय। ऐसा अनुमान है कि कृषि में जल आपूर्ति का 40 प्रतिशत और घरेलू जल आपूर्ति का 80 प्रतिशत व्यर्थ चला जाता है।

इससे भारतीय अर्थव्यवस्था को होने वाली भीषण क्षति प्रकाश में आती है। ताजे सरकारी आंकड़े बताते हैं कि भारतीय ग्रामीण आबादी के 70 प्रतिशत तथा शहरी आबादी के 14 प्रतिशत को स्वच्छ पीने का जल उपलब्ध नहीं हो पाता।

इस दबाव में विभिन्न सेक्टर के मध्य स्पर्द्धाएँ एवं विवाद उत्पन्न हुए हैं। भारत के शहरों को पीने वाले जल की आपूर्ति में पर्याप्त भिन्नता है। 299 प्रथम श्रेणी के शहरों में से केवल 77 शहरों को पर्याप्त जल आपूर्ति हो पाती है। प्रति व्यक्ति जल की आपूर्ति भी कम से कम 9 लीटर (तूतीकोरिन में) से लेकर 584 लीटर (तिरुवन्न मलाई में) है।

355 द्वितीय श्रेणी के कस्बों में से 203 में निम्न आपूर्ति यानी 100 लीटर प्रति-व्यक्ति से भी कम की जाती है।

सम्पूर्ण देश के समक्ष जो गम्भीर समस्याएँ हैं उनमें से कुछ हैं, जल का असमान वितरण, त्रुटिपूर्ण आपूर्ति तथा जल गुणवत्ता का घटते जाना।

पेयजल में आर्सेनिक


कुछ क्षेत्रों में स्थानीय शैलों से क्षरण के कारण भूमिगत जल में आर्सेनिक की सान्द्रता बढ़ जाती है।

कुछ क्षेत्रों में औद्योगिक बहिःस्राव भी जल में आर्सेनिक बढ़ाते हैं।

आर्सेनिक का उपयोग व्यापारिक रूप से सरस बनाने तथा काष्ठ परिरक्षकों में होता है।

पीने के पानी के माध्यम से दीर्घकाल तक आर्सेनिक के साथ संपर्क होने से त्वचा, फेफड़ों, मूत्राशय तथा वृक्क का कैंसर हो जाता है और त्वचा मोटी हो जाती है तथा उसमें वर्णकता (हाइपर कैरेटोसिस) उत्पन्न होती है।

यदि पीने के जल में 0.05 मिग्रा/ली. से कम आर्सेनिक हो तो फेफड़े तथा मूत्राशय कैंसर में बढ़ोत्तरी तथा आर्सेनिक से सम्बद्ध त्वचा क्षति देख जाते हैं।

त्वचा से होकर आर्सेनिक का शोषण न्यूनतम होता है अतः आर्सेनिक युक्त पानी से हाथ धोने, नहाने, कपड़ा धोने से मानव स्वास्थ्य के लिये कोई खतरा नहीं रहता।

दीर्घकाल तक अनुप्रभावन (Exposure) से सामान्यतया त्वचा में सर्वप्रथम कुछ परिवर्तन देखे जाते हैं यथा वर्णकता (रंग उभड़ना) और बाद हाइपन-कैरेटोसिस। कैंसर बाद में होता है क्योंकि इसके विकसित होने में 10 वर्ष से अधिक का समय लग जाता है।

पेयजल में फ्लोराइड


सारे जलों में प्राकृतिक रूप से कुछ न कुछ फ्लोराइड रहता है। फ्लोराइड पृथ्वी की पपड़ी में, अनेक पदार्थों में, ज्वालामुखियों तथा सागरों में प्राकृतिक रूप से रहता है। जल तथा मिट्टी में इसका सबसे बड़ा प्राकृतिक स्रोत शैलों के विच्छेदन के बाद व्यावन के द्वारा है। यद्यपि मानव स्वास्थ्य के लिये फ्लोराइड की अल्प मात्रा आवश्यक है किन्तु अधिक मात्रा होने पर यह हानिकारक है।

अधिकतम संदूषण स्तर से अधिक फ्लोराइड के स्तरों के साथ दीर्घकाल तथा अनुभावन से अस्थियाँ टेढ़ी हो जाती हैं। यदि बच्चे दीर्घकाल तक 2 मिग्रा/ली. से अधिक फ्लोराइड स्तर से अनुभावित होते हैं तो दाँतों का फ्लोरोसिस हो जाता है जिसमें उनके स्थायी दाँतों में भूरा रंग या फिर गड्ढे बन जाते हैं। दंत फ्लोराइड तभी होता है जब दाँत निकल रहे हों और उन्हें फ्लोराइड की उच्च मात्रा के सम्पर्क में आना पड़े।

इसके विपरीत यदि फ्लोराइड स्तर अति निम्न रहे तो अच्छा होगा कि दाँत के डाक्टर की सलाह लेकर इस रसायन के किसी वैकल्पिक स्रोत का इस्तेमाल किया जाय।

जल संरक्षण के कुछ प्रयास


जल प्रदूषण के मॉनीटरन तथा रोकथाम के लिये अनेक कार्यक्रम चालू किये हैं।

राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना


इसका शुभारम्भ 1995 में किया गया। यह ‘‘गंगा ऐक्शन प्लान’’ के अनुकरण पर देश के 10 राज्यों को 18 प्रमुख नदियों को सम्मिलित करने के लिये किया गया था। आन्ध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, पंजाब, राजस्थान तथा तमिलनाडु राज्यों के 46 नगरों में प्रदूषण को कम करने के लिये कार्य चालू है। इसका लक्ष्य प्रति दिन 1928 मिलियन लीटर मलजल को रोकना, मोड़ना तथा उपचार करना है। किन्तु ‘‘गंगा एक्शन प्लान’’ की उपलब्धि बहुत कुछ अधूरी है, इसका बहुत ही कम प्रभाव हुआ है।

प्रदूषण मॉनीटरन


सेन्ट्रल पॉल्यूशन बोर्ड ने राज्य परिषदों के साथ मिलकर एक जल गुणवत्ता मॉनीटरन संजाल स्थापित किया है जिसमें भारत भर में 480 नमूना लेने वाले केन्द्र हैं।

नेशनल लेक कंजर्वेशन प्लान


नम भूमियों, मैंग्रोवों तथा कोरलरीफों की नेशनल कमेटी की संस्तुतियों के आधार पर 21 शहरी झीलों के संरक्षण का कार्यक्रम बनाया गया। चुनिंदा शहरी झीलों, जो प्रदूषण, अतिक्रमण तथा आवास ह्रास के कारण अत्यधिक बिगड़ चुकी हैं, उनके संरक्षण हेतु बड़े पैमाने पर कार्य चल रहा है।

वाटरशेड प्रबन्धन


देश में जल निकास बेसिनों की पहचान करके उनको फिर से विकसित करने का प्रयास सरकारी एजेन्सियों द्वारा किया जा रहा है।

स्वजलधारा सशक्तिकरण समुदाय


स्वजलधारा सरकार द्वारा सहायतित तथा गैर-सरकारी संगठनों की सहभागिता से चलाया जाने वाला पीने के जल की आपूर्ति का कार्यक्रम है जिसे ग्राम पंचायत से जोड़ दिया गया है। पहले विश्व बैंक की आर्थिक मदद से चलाये जाने वाले सरकारी स्वजल का यह परिवर्तित रूप है। इसका उद्देश्य ग्रामीण जल आपूर्ति तथा स्वच्छता कार्यक्रम विकसित करना है।

साभार: विज्ञान पत्रिका

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