पेयजल का घटता स्तर, बढ़ता दबाव

आज हम बिना सोचे-समझे प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करते जा रहे हैं और आवश्यकता से अधिक उनका इस्तेमाल कर रहे हैं, परन्तु यह नहीं सोच रहे हैं कि उनका भण्डार सीमित है। अगर हम जल के ही दृष्टिकोण से देखें तो उसका उपयोग निरन्तर बढ़ता ही जा रहा है। विश्व की लगभग 7 अरब जनसंख्या उपयोग करने योग्य कुल जल में से 54 प्रतिशत का उपयोग वर्तमान में कर रही है। अगर भविष्यगामी आँकड़ों पर गौर करें और माना जाए कि प्रति व्यक्ति जल की खपत भविष्य में भी ऐसी ही बनी रहेगी तो आगामी 20 वर्षों में सम्पूर्ण विश्व के सम्मुख भयानक जल संकट उत्पन्न होने की सम्भावना भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता।

जीवन के लिए जल का महत्व सर्वोपरि है इसलिए जल को जीवन की संज्ञा दी गई है। जल के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। जल प्रकृति द्वारा प्रदत्त एक ऐसा उपहार है जो न सिर्फ जीवन, बल्कि पर्यावरण के लिए भी अमूल्य है। जैवमण्डल की अनेक क्रियाएँ जल पर ही निर्भर करती हैं। अनेक विश्व प्रसिद्ध सभ्यताओं का उदय उन्हीं स्थानों पर हुआ जहाँ जल की उपलब्धता रही। प्राचीन सभ्यताएँ नदियों के किनारे ही विकसित हुई हैं। धर्म चाहे कोई भी हो, सभी धर्मों में जल की महत्ता को स्वीकारा गया है।

आज भारत ही नहीं तीसरी दुनिया के अनेक देश सूखा और जल संकट की पीड़ा से त्रस्त हैं। आज मनुष्य चन्द्रमा और मंगल ग्रह पर जल की खोज में लगा हुआ है लेकिन भारत सहित अनेक विकसित देशों के अनेक गाँवों में आज भी पीने योग्य शुद्ध जल उपलब्ध नहीं है। दुनिया के क्षेत्रफल का लगभग 70 प्रतिशत भाग जल से भरा हुआ है परन्तु पीने योग्य मीठा जल मात्र 3 प्रतिशत है। शेष भाग खारा जल है। इसमें से ही मात्र एक प्रतिशत मीठे जल का ही वास्तव में उपयोग कर पाते हैं। धरती पर उपलब्ध यह सम्पूर्ण जल निर्दिष्ट जलचक्र में चक्कर लगाता रहता है। सामान्यतः मीठे जल का 52 प्रतिशत झीलों और तालाबों में 38 प्रतिशत मृदा, 8 प्रतिशत वाष्प, एक प्रतिशत नदियों और एक प्रतिशत वनस्पति में निहित हैं।

आर्थिक विकास, औद्योगीकरण और जनसंख्या विस्फोट से जल का प्रदूषण एवं जल की खपत बढ़ने के कारण जलचक्र बिगड़ता जा रहा है। तीसरी दुनिया के देश इससे ज्यादा पीड़ित हैं। यह सच है कि विश्व में उपलब्ध कुल जल की मात्रा आज भी उतनी है जितनी कि 2000 वर्ष पूर्व थी। बस अन्तर सिर्फ इतना ही है कि उस समय पृथ्वी की जनसंख्या आज की तुलना में मात्र 3 प्रतिशत ही थी।

भारत में जल की उपलब्धता


देश का कुल क्षेत्रफल 3287263 वर्ग किलोमीट है। समूचे विश्व में जल उपभोग में भारत का दूसरा स्थान है। पहले स्थान पर चीन है। जल उपयोग के लिए हम वर्षा जल, भू-गर्भीय जल, नदियों व जल के अन्य परम्परागत स्रोतों पर निर्भर करते हैं।

वर्षा जल और हिमपात भारत में जल का प्रमुख स्रोत है। सालाना सकल वर्षा जल 4000 अरब घनमीटर है। वार्षिक वर्षा औसतन 1.170 मि. मी. है। हालाँकि क्षेत्रवार इसमें काफी असमानता है। जहा चेरापूँजी में 11000 मि. मी वार्षिक वर्षा होती है वहीं राजस्थान के जैसलमेर जैसे क्षेत्रों में वर्षा का वार्षिक औसत मात्र 100 से 120 मि. मी. के बीच ही रहता है। यह सच है कि वर्षा के रूप में मेघ हमें अच्छी मात्रा में जलराशि प्रदान करते हैं। हमारे यहाँ अमेरिका की औसत वर्षा से 6 गुना अधिक वर्षा होती है। तथापि इसके अनिश्चित वितरण और सही प्रबंधन न कर पाने के कारण हमें जल संकट से जूझना पड़ता है। जो जलराशि हमें एक वर्ष में वर्षा से मिलती है उसका मात्र 28 प्रतिशत ही हम इस्तेमाल कर पाते हैं। इस प्रकार मात्र 700 लाख हेक्टेयर मीठा सतही जल और 420 लाख हेक्टेयर मीटर भू-जल ही हमें मिल पाता है।

भारत में नदियाँ हमेशा जल की प्रमुख स्रोत रही हैं। यही कारण है कि प्राचीन नगरों व सभ्यताओं का विकास नदियों के तट पर हुआ। जहाँ कुछ जीवनदायिनी नदियाँ सदैव अपनी जलराशि से हमारी जरूरतों को पूरा करती हैं वहीं देश में 90 प्रतिशत से भी अधिक नदियाँ ऐसी हैं जिनमें बहाव रूपी जल की उपलब्धता मात्र 4 महीनों तक ही रहती है। देश के 15 मुख्य बेसिनों में जल के अप्रवाह का क्षेत्रफल 20000 वर्ग किलोमीटर से भी ज्यादा है। 45 मध्यम और 120 से भी ज्यादा ऐेसे लघु नदी क्षेत्र हैं जिनका जल प्रवाह क्षेत्रफल 2000 से 20000 वर्ग किलोमीटर है। देश की 12 प्रमुख नदियों के जलग्रहण क्षेत्र को अगर मिला दिया जाए तो यह लगभग 2528 लाख हेक्टेयर है। केन्द्रीय जल आयोग के आँकड़ों के अनुसार प्राकृतिक जल संसाधन के रूप में नदियों का सालाना अप्रवाह तकरीबन 1869 घन किलोमीटर है जिसमें से 690 घन किलोमीटर जल का ही उपयोग हम कर पाते हैं।

जल से जुड़ी समस्या दीन पर दिन विकराल होती जा रही है। न सिर्फ शहरी क्षेत्रों में बल्कि ग्रामीण अंचलों में भी जल संकट की समस्या बद से बदतर हुई है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और तमिलनाडु जैसे देश के अनेक राज्यों में पानी की किल्लत बढ़ती जा रही है। भूगर्भीय जल का अत्यन्त दोहन होने के कारण धरती की कोख सूख गई है। मीठे पानी का प्रतिशत कम हुआ है तथा जल की लवणीयता बढ़ने से समस्या और विकराल हुई है। जल के अन्धाधुँध दोहन से पारिस्थितिकीय असन्तुलन भी बढ़ा है।

लाख कोशिश के बावजूद भू-जल स्तर निरन्तर गिरता ही जा रहा है। भरपूर वर्षा होने पर भी पानी बहकर समुद्र में चला जाता है व भू-जल भण्डार रीते के रीते रह जाते हैं। महाराष्ट्र के रालेगाँव सिद्धि में अण्णा हजारे द्वारा किया गया सफल जल प्रबन्धन अनुकरणीय है। बावजूद इसके शासन व जनता द्वारा देश के वैज्ञानिकों एवं इंजीनियरों से भू-जल संवर्द्धन हेतु उन्नत एवं तीव्र प्रभावी तकनीक की ईजाद हेतु गुहार लगाई जाती है। क्या ऐसी उन्नत तकनीक हो सकती है!

भारत में 4525 बड़े बाँध हैं, जिसकी संग्रह क्षमता 220 खरब क्यूबिक मीटर है। इसमें जलसंग्रह के छोटे-छोटे स्रोत शामिल नहीं हैं, जिनकी क्षमता 610 खरब क्यूबिक मीटर है। फिर भी हमारी प्रति कैपिटा संग्रहण की क्षमता आस्ट्रेलिया, चीन, मोरक्को, दक्षिण अफ्रीका, स्पेन और अमेरिका से बहुत कम है। चूँकि वर्ष में एक निश्चित समय तक लगभग 100 दिन वर्षा होती है, इसलिए वर्ष के काफी सूखे दिनों के लिए पानी को संग्रहित करके रखना बहुत जरूरी बहुत जरूरी है। जो लोग बड़े बांधों के विरोधी हैं, उन्हें यह समझना चाहिए कि टैंक और रोधक बाँध समेत पानी के संग्रह के हर छोटे और बड़े स्रोत की किसी क्षेत्र के जल संकट को हल करने में अपनी भूमिका है और उसे दूसरों के प्रतियोगी या विकल्प के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए।

भू-जल या भूमिगत जल, पानी का एक समृद्ध भण्डार और महत्वपूर्ण स्रोत है। देश के ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल की 90 प्रतिशत आपूर्ति भू-जल पर टिकी है। इसी प्रकार फसलों की सिंचाई में भू-जल की हिस्सेदारी 40 प्रतिशत तक है। पिछले दिनों केन्द्रीय भू-जल प्राधिकरण ने धरती के भीतर उपलब्ध जल का सर्वेक्षण कराया। सर्वेक्षण के अनुसार 5,723 में से 839 ब्लाॅकों ने भू-जल का आवश्यकता से अधिक दोहन कर लिया है, इसलिए इन ब्लाॅकों में अब और कुएँ खोदने की अनुमति नहीं मिल सकती। दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, कर्नाटक और तमिलनाडु की स्थिति अत्यधिक गम्भीर है। गुडगाँव, दिल्ली, बंगलौर, तिरूवनंतपुरम, जालंधर और पोरबंदर जैसे शहरों में धरती से पानी निकालने पर रोक लगा दी गई है। सरकार ने 43 ब्लाॅकों में भू-जल के दोहन पर पाबंदी लगा दी है और कई ब्लॉकों की पहचान की जा रही है। जहाँ तत्काल रोक लगाने की जरूरत है।

भूमिगत जल के अत्यधिक दोहन से तटवर्ती क्षेत्रों में जमीन के अन्दर खारा पानी घुस जाता है जिससे खारेपन की समस्या बढ़ रही है। देश के बड़े हिस्से में भू-जल का स्तर नीचे जाने से जल संकट पैदा होने के साथ-साथ देश का पारिस्थितिकी तंत्र भी गड़बड़ा रहा है। देश के साढ़े चार लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में भू-जल स्तर इतना नीचे आ गया है कि उसके रिचार्ज के लिए कृत्रिम उपायों की जरूरत है। जल संसाधन मन्त्रालय ने सात संकटग्रस्त राज्यों को कुआँ खोदकर भू-जल रिचार्ज करने की योजना भेजी है। ये राज्य हैं- आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, राजस्थान, तमिलनाडु, गुजरात और मध्य प्रदेश। इन राज्यों को कहा गया कि वे खोदे गए कुओं को टिकाऊ बनाएँ। जल संसाधन विभाग के तहत एक भू-जल परामर्शदात्री समिति बनाई गई जिसमें वर्षा जल संचयन से संबंधित सभी मंत्रालयों, वित्तीय संस्थाओं, उद्योगों, सार्वजनिक निकायों तथा स्वयंसेवी संस्थाओं के प्रतिनिधि हैं।

विकाशशिल देशों में लगभग 50 प्रतिशत जनसंख्या प्रदूषित पानी का इस्तेमाल करती है तथा अनेक विकासशील देशों में पानी की गम्भीर समस्या है। बेहतर पेयजल के मामले में फिनलैंड का स्थान सबसे ऊपर है जो अपने नागरिकों को शुद्ध पेयजल उपलब्ध करा रहा है। इसके बाद कनाडा और न्यूजीलैंड का स्थान है। नागरिकों को असुरक्षित और दूषित पेयजल उपलब्ध कराने के मामले में बेल्जियम का स्थान प्रथम है।

भूमिगत जल की अन्धाधुंध निकासी से इसका जलस्तर लगातार नीचे खिसकता जा रहा है। जिन क्षेत्रों में जल के पुनर्भरण की समुचित व्यवस्था नहीं है, वहाँ कुएँ सूख गए हैं। हैंडपम्पों तथा नलकूपों ने जल की कमी से काम करना बंद कर दिया है। भारत में हरितक्रांति को सफल बनाने के लिए जिस तरह से सिंचाई के लिए आधिकारिक संख्या में नलकूप तथा पम्पिंग सेट्स लगाए गए उससे दिन-प्रतिदिन भूमिगत पानी की निकासी बढ़ती गई और जलस्तर नीचे गिरता गया। आज हालत यह है कि भूमिगत पानी की अतिनिकासी और जल पुनर्भरण की कोई व्यवस्था न होने से पंजाब के 12 तथा हरियाणा के तीन जिलों में भूमिगत जलस्तर खतरनाक स्तर तक नीचे चला गया। आगरा तथा आस-पास के क्षेत्रों में जलस्तर इतना अधिक नीचे चला गया है कि अब वहाँ के कृषक पम्पिंग सेट के बजाय सबमर्सिबल पम्पों का प्रयोग करने लगे हैं। उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र के सभी जिलों में, पश्चिमी तथा मध्य उत्तर प्रदेश के जिलों एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई जिलों में भूमिगत जलस्तर काफी नीचे चला गया है।

आज हम बिना सोचे-समझे प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करते जा रहे हैं और आवश्यकता से अधिक उनका इस्तेमाल कर रहे हैं, परन्तु यह नहीं सोच रहे हैं कि उनका भण्डार सीमित है। अगर हम जल के ही दृष्टिकोण से देखें तो उसका उपयोग निरन्तर बढ़ता ही जा रहा है। विश्व की लगभग 7 अरब जनसंख्या उपयोग करने योग्य कुल जल में से 54 प्रतिशत का उपयोग वर्तमान में कर रही है। अगर भविष्यगामी आँकड़ों पर गौर करें और माना जाए कि प्रति व्यक्ति जल की खपत भविष्य में भी ऐसी ही बनी रहेगी तो आगामी 20 वर्षों में सम्पूर्ण विश्व के सम्मुख भयानक जलसंकट उत्पन्न होने की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता।

जल की खपत को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने जल प्रबंधन को बनाए रखने के लिए राष्ट्रीय जल नीति 2002 तैयार की पूर्व प्रधान मन्त्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी की अध्यक्षता में एक अप्रैल, 2002 को नई दिल्ली में राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद की पाँचवीं बैठक में राष्ट्रीय जल नीति 2002 को मंजूरी प्रदान की गई। नई स्वीकार की गई जलनीति वस्तुतः सन 1987 का संशोधन एवं परिवर्तित रूप है।

विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार 21 वीं सदी की सबसे बड़ी एवं विकराल समस्या पानी होगी। इसका विस्तार सम्पूर्ण विश्व में होगा तथा विश्व के सभी बड़े शहरों में पानी के लिए युद्ध जैसी स्थिति हो जाएगी। सयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा कुछ माह पूर्व वाटर फॉर पीपुल, वाटर फॉर लाइफ नामक रिपोर्ट का प्रकाशन किया गया। यह रिपोर्ट वर्ल्ड वाटर डेवलपमेंट द्वारा 122 देशों में किए गए सर्वे पर आधारित है। रिपोर्ट के अनुसार 60 देशों के लगभग 70 लाख लोग भविष्य में जल संकट का सामना करेंगे। रिपोर्ट के अनुसार दुनिया की सबसे अधिक प्रदूषित नदियाँ एशिया में हैं। इन नदियों में जीवाणुओं की संख्या सर्वाधिक है। विकाशशिल देशों में लगभग 50 प्रतिशत जनसंख्या प्रदूषित पानी का इस्तेमाल करती है तथा अनेक विकासशील देशों में पानी की गम्भीर समस्या है। बेहतर पेयजल के मामले में फिनलैंड का स्थान सबसे ऊपर है जो अपने नागरिकों को शुद्ध पेयजल उपलब्ध करा रहा है। इसके बाद कनाडा और न्यूजीलैंड का स्थान है। नागरिकों को असुरक्षित और दूषित पेयजल उपलब्ध कराने के मामले में बेल्जियम का स्थान प्रथम है। मोरक्को तथा भारत क्रमशः दूसरे और तीसरे स्थान पर है।

पानी का व्यवसायीकरण


जल संकट के चलते भारत में पानी से पैसा कमाने की होड़ बढ़ गई है। इस समय भारत में पानी का धंधा चोखा साबित हो रहा है। 1000 करोड़ से भी ज्यादा पानी का कारोबार इस समय हो रहा है जिसमें हर साल 40 से 50 प्रतिशत की दर से इजाफा हो रहा है। बिसलेरी जो कि भारत की सबसे पुरानी कम्पनी मानी जाती है सालाना 400 करोड़ रूपये का कारोबार कर रही है। पानी के बड़े बाजार के रूप में भारत और चीन को देखा जा रहा है। स्थिति यह है कि न सिर्फ शहरी क्षेत्रों में बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में भी बोतलबंद पानी का चलन बढ़ा है। इस कारोबार में मुनाफा काफी है। 10 रूपये की बोतल जो हम खरीदते हैं उसकी कच्चे माल की लागत मात्र 0.02 से 0.03 पैसे तक पड़ती है। बोतलबंद पानी के बढ़ते प्रयोग से पर्यावरण भी प्रभावित हो रहा है। इससे जल का संकट भी बढ़ रहा है। भारत में 100 से भी ज्यादा कम्पनियाँ पानी का धंधा कर रही है। 1200 संयंत्र काम कर रहे है ये कम्पनियाँ भू-जल के अनियंत्रित दोहन में आगे हैं। जनहित को ध्यान में रखकर सरकार इन्हें दूसरे देशों की तुलना में बहुत सस्ता पानी मुहैया कराती है मगर ये सरकार की आँखों में धूल झोंककर मनमानी वसूली जनता से करती हैं। भू-जल को रिवर्स आसमोसिस में डालकर शुद्ध किया जाता है। इस प्रक्रिया में जल की काफी बर्बादी होती है, क्योंकि बचे हुए जल को नालों में बहा दिया जाता है। लाखों लीटर पानी की बर्बादी शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराने वाले संयन्त्र रोज करते हैं। उदाहरण स्वरूप 20 लीटर में से मात्र 4 लीटर पानी काम में आता है। शेष 16 लीटर पानी बर्बादी की भेंट चढ़ जाता है। पानी का व्यवसायीकरण प्लास्टिक के कचरे को भी बढ़ा रहा है लिसे लेकर पर्यावरणविद चिन्तित हैं।

आज सम्पूर्ण विश्व की जनसंख्या अत्यन्त तीव्रता से बढ़ रही है। अतः जल की माँग का बढ़ना भी स्वाभाविक ही है, परन्तु हमें अपनी इस धारण को बदलना चाहिए कि जल का असीमित भण्डार है और वह खत्म नहीं होगा क्योंकि जल का भण्डार सीमित है और इसी का परिणाम है कि प्रत्येक वर्ष सम्पूर्ण विश्व का बहुत बड़ा भू-भाग रेगिस्तान व बंजर भूमि में तब्दील होता जा रहा है।

भारत सरकार ने ग्रामीण स्वच्छता और पेयजल आपूर्ति को सुनिश्चित करने हेतु समय-समय पर सकारात्मक दिशा में प्रयास भी किए हैं। इन प्रयासों के बावजूद अधिकतर गाँवों में स्वच्छता व्यवस्थाएँ आज भी दयनीय स्थिति में हैं। अनुमानित ग्रामीण घरों के मात्र 20 प्रतिशत की पहुँच में ही स्वच्छता सुविधाएँ व पेयजल आपूर्ति की उपलब्धता कही जा सकती है। सरकार ने इसी कारण एक सुधारात्मक कार्यक्रम के माध्यम से सम्पूर्ण देश के गाँवों को एक समान नीति के अन्तर्गत लाने की योजना बनाई है जिसे ‘समग्र स्वच्छता अभियान’ कहते हैं। सरकार तो सम्पूर्ण देश में स्वच्छता कार्यक्रमों को बढ़ावा देने व जल आपूर्ति को सुनिश्चित करने हेतु कृत संकल्प है और इस हेतु बजट में भी लक्ष्य को देखते हुए आवश्यक धन बढ़ोतरी निरन्तर की जाती रही है। सरकार तो ग्रामीण स्वच्छता और पेयजल आपूर्ति को सुनिश्चित करने हेतु प्रयासरत है और निरन्तर विकास भी इन दोनों मदों में देखने को मिलता है परन्तु अभी भी वह लक्ष्य दूर दिखाई देता है।

त्वरित ग्रामीण जलापूर्ति योजना


सभी गाँवों को सुरक्षित पेयजल उपलब्ध कराने की पहली विफलताओं को देखते हुए भारत सरकार ने 1972-73 में त्वरित ग्रामीण जलापूर्ति योजना शुरू की। इसमें अपने उद्देश्य पूर्ति हेतु कुछ निर्धारित मानदण्डों के अनुसार पेयजल की सुविधा के साथ ग्रामीण स्थानों को भौतिक रूप से सम्मिलित किए जाने पर ध्यान दिया गया तथा व्यावहारिकता को अपनाने पर बल दिया गया।

राजीव गाँधी राष्ट्रीय पेयजल मिशन


ग्रामीण क्षेत्रों को सुरक्षित पेयजल उलब्ध कराने की विशालकायिता और अनिवार्यता को पहचान कर त्वरित ग्रामीण जलापूर्ति योजना को राष्ट्रीय पेयजल मिशन 1986 का रूप दे दिया गया जिसको 1991 में नया नाम राजीव गाँधी राष्ट्रीय पेयजल मिशन दे दिया गया। इस मिशन के तहत पूर्ववर्ती योजनाओं को ध्यान में रखकर कुछ बड़े सुधार किए गए ताकि भारत में जल के क्षेत्र में सातत्य अर्थात निरन्तरता कायम की जा सके।

स्वजलधारा


भारत सरकार समुदाय आधारित ग्रामीण जल आपूर्ति कार्यक्रमों के प्रारम्भ करने की आवश्यकता पर जोर दे रही है तथा अब देश भर में ग्रामीण पेयजल आपूर्ति क्षेत्र में सुधार पहल करने का निर्णय लिया गया है। यह कार्यक्रम स्वजलधारा है। इस कार्यक्रम के मुख्य घटक हैं:-

1. माँग आधारित तथा समुदाय भागीदारी दृष्टिकोण।
2. पंचायतों/समुदायों द्वारा सभी पेयजल योजनाओं की आयोजना, कार्यान्वयन, संचालन। 3. रख-रखाव और प्रबन्ध।
4. समुदायों द्वारा नकदी के रूप में आंशिक पूँजी लागत को वहन करना।
5. ग्राम पंचायतो के साथ पेयजल परिसम्पत्तियों का पूर्ण स्वामित्व ।
6. प्रयोक्ताओं/पंचायतों द्वारा पूर्ण संचालन एवं रख-रखाव।

स्वजलधारा योजना केवल साधारण और मुख्य रूप से समुदाय उन्मुख योजनाओं को प्रारम्भ करने के लिए हैं। यह व्यापक पूँजी वाली, लाखों रूपये की परियोजना लागत वाली जटिल योजना नहीं है। ऐसी अधिक पूँजी वाली योजनाओं का संचालन एवं रख-रखाव ग्राम पंचायतों के साधन की सीमा से बाहर होगा। इससे योजना अपने आप असफल हो सकती है। सामन्य नियम के रूप में, किसी एक गाँव के लिए 25 लाख या उससे अधिक के पूँजी निवेश वाली योजनाओं को त्वरित ग्रामीण जल आपूर्ति कार्यक्रम के अन्तर्गत प्रारम्भ किया जा सकता है।

जल सम्बन्धी समस्याओं से निपटने तथा संबंधित नीतियों, कार्यक्रमों इत्यादि के क्रियान्वयन के लिए देश में व्यापक रूप से जागरूकता कार्यक्रम चलाने के उद्देश्य से वर्ष 2007 को ‘जल वर्ष’ घोषित किया गया था। केन्द्रीय मन्त्रिमंडल ने जनवरी 2007 को हुई बैठक में जल संसाधन के तत्वाधान में जल संरक्षण संबंधी कई कार्यक्रमों, योजनाओं, परियोजनाओं को स्वीकृति दी। बैठक में जल की हर बूँद से अधिकतम फसल नामक एजेंडा के अन्तर्गत 5000 गाँवों में कृषक सहभागिता कार्यवाही अनुसंधान कार्यक्रम की शुरूआत की गई। गाँवों में पंचायत स्तर पर पानी पंचायत का गठन किया गया जो जल-संरक्षण में जल कृषि हेतु जागरूकता कार्यक्रम का संचालन कर रहा है।

आज सम्पूर्ण विश्व की जनसंख्या अत्यन्त तीव्रता से बढ़ रही है। अतः जल की माँग का बढ़ना भी स्वाभाविक ही है, परन्तु हमें अपनी इस धारण को बदलना चाहिए कि जल का असीमित भण्डार है और वह खत्म नहीं होगा क्योंकि जल का भण्डार सीमित है और इसी का परिणाम है कि प्रत्येक वर्ष सम्पूर्ण विश्व का बहुत बड़ा भू-भाग रेगिस्तान व बंजर भूमि में तब्दील होता जा रहा है। आज सम्पूर्ण विश्व को एकजुट होकर जल संकट पर गहन आत्ममंथन करना चाहिए व प्रत्येक जागरूक इन्सान को इसे बचाने व अनावश्यक बर्बाद न करने का संकल्प लेना चाहिए।

(लेखक अतिथि विद्वान, अर्थशास्त्र विभाग, शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बीना, जिला सागर (म.प्र.), ईमेल- neeraj_gautam76@yahoo.co.in

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