परिचय:
हम अपने दैनिक जीवन में लगभग हर रोज पेट्रोल-पंपों को आसपास देखते हैं। इन पेट्रोल-पंपों पर भिन्न-भिन्न प्रकार के पेट्रोकेमिकल पदार्थ जैसे पेट्रोल, डीजल, केरोसिन इत्यादि उपलब्ध होते हैं। इन पेट्रोकेमिकल पदार्थों को भूमिगत टैंक में संग्रहित (स्टोर) किया जाता है। देख-रेख के अभाव, भूकम्पीय कम्पन, और अन्य कई कारणों से समय के साथ इन टैंको से पेट्रोलियम पदार्थ का रिसाव होने लगता है। जैसे ही इन पेट्रोलियम पदार्थों का प्रवेश मिट्टी में होता है, ये एक प्रदूषक के रूप में अपनी यात्रा भूजल की ओर प्रारम्भ कर देते हैं और अन्ततः भूजल-प्रदूषण के कारण बनते जाते हैं।
पेट्रोलियम रिसाव के कारण होने वाली मिट्टी और भूजल प्रदूषण एक देशव्यापी समस्या है। इस लेख पत्र का उद्देश्य उन पेट्रोलियम पदार्थों के कारण होने वाले मृदा-भूजल प्रदूषण और साथ-ही-साथ उनके उपचार उपायों को प्रस्तुत करना है।
पेट्रोकेमिकल प्रदूषण के मुख्य स्रोत:
औद्योगिक एवं तेलशोधक कारखानों के तरल अपशिष्ट इत्यादि मुख्य स्रोत हैं। इसके अतिरिक्त घरों में प्रयोग की जाने वाली पेंट, पॉलीमर, गैसोलीन इत्यादि अन्य स्रोत हैं। यूनाइटेड स्टेट्स जियोलाजिकल सर्वे (यूएसजीएस) के अनुसार भूमिगत टैंक से पेट्रोलियम पदार्थ का रिसाव मुख्य एवं खतरनाक स्रोतों में से एक है। वर्षाकालीन समय में नगरपालिका ठोस और तरल अपशिष्ट से निकलने वाला गन्दा पानी भी इन प्रदूषकों का पूरक होता है।
भारतीय तटीय क्षेत्र में पेट्रोकेमिकल प्रदूषण
रासायिनक क्षेत्रों से जुड़ी बड़ी, छोटी और मध्यम दर्जे की कम्पनियों को समुद्र के पास की जगह इसलिये पसन्द है क्योंकि इनके बॉयलर को ठंडा करने हेतु पानी की आवश्यकता समुद्र से ही पूरी की जाती है। तेल का काम करने वाली कम्पनियों को तो समुद्र के पास वाली जगह इसलिये आवश्यक है क्योंकि कच्चा तेल समुद्र के रास्ते से ही आता है। यही कारण है कि एसपीएम को कम्पनियों ने समुद्र में विकसित किया है। इन एंकर वाले बोया जहाँ पर विदेश से कच्चा तेल, गैस इत्यादि जहाजों द्वारा लाकर उतारा जाता है उसे एसपीएम कहते हैं। यहाँ से कच्चा तेल पाइपलाइन द्वारा समुद्र तट पर बनी कम्पनियों (Refineries) में भेज कर शुद्धिकरण किया जाता है जिससे पेट्रोल, डीजल, गैस इत्यादि अलग-अलग कर प्रयोग में लाये जाते है। समुद्र तट पर अनेक रासायनिक कम्पनियाँ अपना निष्कासित जल आंशिक उपचार या बिना उपचार किये सतह पर ही छोड़ देती हैं जो अन्ततोगत्वा समुद्र-तटीय क्षेत्रों को प्रदूषित कर देते हैं। कई बार प्रदूषण इतना अधिक बढ़ जाता है कि समुद्री जल में ऑक्सीजन की मात्रा बहुत घट जाती है तथा यह बहुधा शून्य के बराबर हो जाती है। अतः समुद्र तट पर पेट्रोलियम तेल-प्रदूषण एक भीषण समस्या है। समुद्र तट पर जब पेट्रोलियम तेल-प्रदूषण होता है, तेल के घटक पेट्रोलियम हाइड्रोकार्बन की मात्रा मिट्टी-पानी में बढ़ जाती है। अब हम समझेंगे कि तेल रिसाव किन-किन कारणों से होता है या पेट्रोलियम तेल-प्रदूषण के स्रोत क्या हैं। तेल रिसाव के निम्न कारण हैं:
1. तेल रिसाव, तेलवाहक पाइपलाइन के फटने से होता है।
2. तेल रिसाव, दो जहाजों के आपसी टक्कर से होता है।
3. तेल रिसाव, तेल वाहक जहाज (Oil tankers) के दुर्घटना से होता है।
4. तेल जहाज के साफ-सफाई व धोने से फैलता है।
5. जहाज के इंजनों के तेल बदलने से पानी में जाता है।
6. तेल, वाहनों से निकले धुएँ, वर्षा के कारण सतह पर पहुँचता है।
7. तेल रिसाव तेल कुएँ के प्रयोग से होता है।
8. तेल कम्पनियों द्वारा निष्कासित पानी जिसमें तेल की मात्रा होती है।
9. भूकम्पीय कम्पन और अन्य कई कारणों से समय के साथ इन टैंकों से पेट्रोलियम पदार्थ का रिसाव होने लगता है।
अत: हम समझ सकते हैं कि पेट्रोलियम तेल-प्रदूषण पर्यावरण के लिये एक गम्भीर समस्या है।
पेट्रोकेमिकल प्रदूषक के पर्यावरणीय एवं मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव
भूजल, पीने योग्य पानी का सबसे बड़ा स्रोत है और मानव सभ्यता के विकास का एक महत्त्वपूर्ण स्तम्भ रहा है। प्रदूषित पानी के पीने से मानव को कई शारीरिक विकारों का सामना विगत समय में भी करना पड़ा है और आने वाले समय में भी करना पड़ेगा। कई राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय वैज्ञानिक एवं अनुसन्धान संस्थान ने पेट्रोकेमिकल प्रदूषित पानी को स्वास्थ्य के लिये घातक प्रमाणित किया है। मुख्यतः पेट्रोकेमिकल प्रदूषित पानी से कैंसर के होने का प्रमाण मिला है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पेट्रोकेमिकल को प्रदूषक घोषित कर, पेयजल में इनकी मात्रा कितनी होनी चाहिए इसके लिये एक दिशा-निर्देश दिया है। उदाहरण स्वरूप, टोल्यूनि (एक प्रकार का पेट्रोकेमिकल) की मात्रा पेयजल में 0.7 मिली ग्राम प्रति लीटर से कम होनी चाहिए।
पेट्रोलियम प्रदूषक का पारिस्थितिक (इकोलॉजिकल) प्रभाव भी अति घातक है। जैसे ही ये प्रदूषक मिट्टी में प्रवेश करते हैं वहाँ के सूक्ष्म जीवों पर गहरा आघात होता है और विषैलापन के कारण मर जाते हैं। इस प्रकार सूक्ष्म जीवों के हनन से पर्यावरण के पोषक तत्व चक्र में धीरे-धीरे बदलाव आने लगता है और अन्ततः सम्पूर्ण पारिस्थितिक तंत्र नष्ट हो जाता है। पेट्रोलियम प्रदूषकों के कारण भूजल में घुले ऑक्सीजन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है और कई शोध घुले ऑक्सीजन के कमी को प्रमाणित किये हैं। कुछ शोध पत्रों के अनुसार, पेट्रोलियम प्रदूषकों के कारण अन्य कई प्रदूषकों की मात्रा में भी वृद्धि होने लगता है, उदाहरणस्वरूप भूजल में आर्सेनिक संग्रहण में वृद्धि इत्यादि।
मृदा और भूजल में पेट्रोकेमिकल प्रदूषक का परिवहन एवं प्रदूषण भार:
तुलनात्मक घनत्व के आधार पर पेट्रोकेमिकल प्रदूषकों को दो मुख्य भागों में वर्गीकृत किया गया है, जिसमें पानी से कम घनत्व वाले पेट्रोकेमिकल यौगिक को हल्का गैर-जलीय तरल (लाइट नॉन- एक्युवस फेज लिक्विड्स) और पानी से अधिक घनत्व वाले को भारी गैर-जलीय तरल (डेन्स नॉन- एक्युवस फेज लिक्विड्स)। जब पेट्रोकेमिकल प्रदूषक का (उप)-भूतल में रिसाव होता है, ये उपसतही पानी के साथ मिट्टी के माध्यम से नीचे की ओर प्रवाहित होने लगते हैं। उपसतह के आंशिक रूप से गीला होने के कारण मिट्टी के छिद्रों में हवा होती है और ये छिद्र एक दूसरे से जुड़े भी होते हैं। एक दूसरे से जुड़े छिद्रों से हवा, जल और प्रदूषकों का परिवहन उपसतह में एक जगह से दूसरे जगह होने लगता है। इसके प्रवाह के साथ, इन प्रदूषकों का घुले प्रदूषक के रूप में, वाष्प के रूप में और मृदा अवशोषण के रूप में पृथकीकरण भी आरम्भ हो जाता है। वाष्पित पेट्रोकेमिकल प्रदूषक का घनत्व वायु के घनत्व से कम होता है और इसीलिये प्रदूषित वायु ऊपर की ओर आने लगता है जिससे घरों के अन्दर प्रवेश करने की आशंका रहती है। प्रदूषकों का कुछ हिस्सा मिट्टी के छिद्रों में फँस जाते हैं और ये लम्बे समय तक एक विशेष स्रोत का काम करते हैं। मिट्टी के छिद्रों में फँसे इन प्रदूषकों का उपचार अति जटिल होता है और इसमें अत्यधिक लागत खर्च करने होते हैं। जब ये प्रदूषक भूजल सतह पर पहुँचते हैं, तो पानी से कम घनत्व वाले पेट्रोकेमिकल भूजल सतह पर तैरने लगते हैं जबकि पानी से अधिक घनत्व वाले निरन्तर नीचे की ओर परिवहन करते रहते हैं, जब तक कि कोई अभेद्य सतह नहीं मिलता है। चित्र 1 में पेट्रोकेमिकल प्रदूषक के परिवहन के रूपरेखा प्रस्तुत किया गया है। भूजल सतह पर तैरते हुए पेट्रोकेमिकल प्रदूषक भूजल में घुलने लगता है और बहाव के साथ दूर-दूर तक फैल जाता है और भूजल के विशाल भाग को प्रदूषित कर देता है। एक शोध पत्र के अनुसार यदि भूजल प्रवाह तेज हो तो अभिवहन एवं प्रसार के कारण अधिक क्षेत्र प्रदूषित हो जाता है जो कि कम गहराई वाले जलभृत (एक्यूफर) की उम्मीद की जाती है। साथ-ही-साथ भूजल सतह के अस्थिरता के कारण इन प्रदूषकों का परिवहन अधिक गहराई तक होता है। अतः शुद्ध पयेजल की पूर्ति हेतु इन प्रदूषकों का सही उपचार अति आवश्यक है।
पेट्रोकेमिकल प्रदूषित मृदा और भूजल का जैविक उपचार (बायोरेमिडिएशन):
जैविक विधि से प्रदूषित मृदा और भूजल का उपचार (ट्रीटमेंट) करना पर्यावरण के लिये हितकारी सिद्ध हुआ है साथ-ही-साथ कम लागत में किया जा सकता है। जैविक उपचार के कई कारगर तकनीक आज उपलब्ध हैं, जिसमें से उपयुक्त उपाय को प्रदूषक की मात्रा, पर्यावरणीय परिस्थिति और क्षेत्र विशेष के आधार पर प्रयोग किया जा सकता है। जैविक उपचार के इन तकनीकों को दो मुख्य समूहों में वर्गीकृत किया गया है- इन-सीटू और एक्स-सीटू । इन-सीटू जैविक उपचार प्रदूषित क्षेत्र में की जाने वाली तकनीक होती है जबकि एक्स-सीटू प्रदूषित भूजल को जलभृत से बाहर सतह पर निकाल कर की जाने वाली उपचार तकनीक होती है। एक्स-सीटू की अपेक्षा इन-सीटू समूह की तकनीक ज्यादा अच्छा होता है क्योंकि एक्स-सीटू तकनीक में अधिकतर खर्च पानी पम्प करने में हो जाती है और पुनः भूजल रिचार्ज करना मुश्किल होता है। अतः उपयुक्त तकनीक का चयन, जिससे पूर्ण रूप से प्रदूषक का नाश हो जाये, पर्यावरण पर भी कम प्रभाव पड़े और कम लागत के कार्य हो जाये एक सफल परियोजना के लिये अतिआवश्यक है। नीचे दिखाए गए चित्र में पेट्रोकेमिकल प्रदूषकों का सही उपचार के लिये उपयोग किये जाने वाले इन-सीटू तकनीकों को प्रस्तुत किया गया है।
प्राकृतिक घट्न (नेचुरल अटेनुएशन)
ईपीए के अनुसार ‘नेचुरल अटेनुएशन’ एक प्रकार का भौतिक, रासायनिक एवं जैविक क्रिया है जिसमें मृदा-भूजल के प्रदूषक के विषैलापन, गतिशीलता, आयतन और एकाग्रता का घटक बिना किसी मानवीय हस्तक्षेप के होता है। पर कई शोध पत्रों ने इसे एक धीमी प्रक्रिया बताया है, खासकर जब प्रदूषक का रिसाव लगातार और अधिक मात्रा में हो। अधिकतर इस प्रक्रिया का अच्छा प्रभाव सरल हाइड्रोकार्बन प्रदूषक के घटक में देखा गया है। कम तापमान वाले और सूखे क्षेत्र के लिये उत्तम उपाय नहीं है क्यों सूक्ष्म जीव इन क्षेत्रों में अधिक सक्रिय नहीं होते अतः इन क्षेत्रों के लिये अन्य उपयों पर विचार करना चाहिए।।
प्रोत्साहित जैविक उपचार (बायोस्टिमुलेशन)
बायोस्टिमुलेशन महत्त्वपूर्ण तकनीकों में से एक है, जिसमें प्रदूषित क्षेत्रों में उपस्थित सूक्ष्म जीवों को उनके लिये अनुकूल वातावरण तैयार करना होता है ताकि सूक्ष्म जीवों के विकास से प्रदूषकों का अधिकतम घटन हो सके।। पर्यावरण के संशोधन के लिये मुख्यतः उपसतह में ऑक्सीजन की आपूर्ति की जाती है और साथ-ही-साथ सूक्ष्म जीवों के पोषक तत्वों की उचित पूर्ति की जाती है।
पेट्रोकेमिकल प्रदूषण के उपचार के लिये ‘बायोस्टिमुलेशन’ एक प्रभावी उपायों में से एक है क्योंकि यह देखा गया है कि मृदा में सामान्यतः पेट्रोकेमिकल घटन हेतु क्रियाशील सूक्ष्म जीव पाये जाते हैं। सफल क्रियान्वयन हेतु, अनुकूलित वातावरण को स्थापित करना एक महत्त्वपूर्ण चुनौती है, क्योंकि वातावरण के सभी घटकों जैसे तापमान, आर्द्रता, नमी इत्यादि में उतार-चढ़ाव समय के साथ होते रहता है। उदाहरणस्वरूप, मृदा-भूजल में पेट्रोकेमिकल प्रदूषण के उपचार के लिये 25-300C अनुकूलित तापमान और 80-100% अनुकूलित नमी होनी चाहिए।[1]
सूक्ष्म जीवों का सीडिंग (बायोऑगमेंटेशन)
अधिक और लगातार प्रदूषण के कारण उपसतह के सूक्ष्म जीवों की संख्या में कमी आ जाती है, अतः पूर्ण रूप से प्रदूषक का निवारण हेतु अतिरिक्त सूक्ष्म जीवों को अन्तःक्षेप किया जाता है, इस तकनीक को सूक्ष्म जीवों का सीडिंग (बायोऑगमेंटेशन) कहते हैं। पेट्रोकेमिकल प्रदूषण के उपचार के लिये ‘बायोऑगमेंटेशन’ एक कारगर तकनीक सिद्ध हुआ है। कुछ शोध पत्रों के अनुसार, 80-90% पेट्रोकेमिकल प्रदूषकों का निराकरण इस विधि से किया जा सकता है। अधिक प्रदूषित क्षेत्र में बायोऑगमेंटेशन के साथ-साथ बायोस्टिमुलेशन का प्रयोग प्रदूषकों के पूर्ण नाश के लिये महत्त्वपूर्ण है।[2]
पादप से उपचार (फयटॉरेमीडिएशन)
पेड़ पौधों के क्रियात्मक गुणों का प्रयोग कर प्रदूषकों का उपचार करने की विधि को फयटॉरेमीडिएशन कहते हैं, जिसमें फयटॉस्टिमुलेशन और वेटलैंड ट्रीटमेंट मुख्य है। पेड़-पौधों के जड़ों से ऑक्सीजन का प्रवाह उपसतह में होता है, जिससे उपसतह में ऑक्सीजन की मात्रा बरकरार रहती है। साथ-ही-साथ जड़ों से निकलने वाले एंजाइम और सड़े हुए जड़ न्यूट्रिएंट की तरह काम करते हैं। वेटलैंड ट्रीटमेंट, एक संयुक्त विधि है, जिसमें गन्दे पानी जो कि पूरी तरह से न्यूट्रिएंट युक्ति होती है, का प्रयोग वेटलैंड के लगाए गए पेड़-पौधों को विकसित करने के लिये किया जाता है। फयटॉरेमीडिएशन की मुख्य विशेषता यह है कि इस प्रक्रिया में सूक्ष्म जीवों का विकास अधिक तीव्रता से होता है क्योंकि ये पेड़-पौधों जड़ों से संलग्नित रहते हैं। फयटॉरेमीडिएशन का प्रयोग कम प्रभावित क्षेत्र के लिये अत्यधिक प्रभावशाली होता है, अधिक प्रदूषित क्षेत्र में इसके साथ-साथ बायोऑगमेंटेशन और बायोस्टिमुलेशन भी किया जाता है।
सारांश
पेट्रोकेमिकल पदार्थ को भूमिगत टैंक में संग्रहित (स्टोर) किया जाता है। देख-रेख के अभाव, भूकम्पीय कम्पन, और अन्य कई कारणों से समय के साथ इन टैंकों से पेट्रोलियम पदार्थ का रिसाव होने लगता है। जब पेट्रोकेमिकल प्रदूषक का (उप)-भूतल में रिसाव होता है, ये उपसतहीय पानी के साथ मिट्टी के माध्यम से नीचे की ओर प्रवाहित होने लगते हैं, ये एक प्रदूषक के रूप में अपनी यात्रा भूजल की ओर प्रारम्भ कर देते हैं और अन्ततः भूजल के प्रदूषण के कारण बन जाते हैं। पेट्रोलियम रिसाव के कारण होने वाली मिट्टी और भूजल प्रदूषण एक देशव्यापी समस्या है। अतः शुद्ध पेयजल के पूर्ति हेतु इन प्रदूषकों का सही उपचार अतिआवश्यक है। जैविक विधि से प्रदूषित मृदा और भूजल का उपचार (ट्रीटमेंट) करना पर्यावरण के लिये हितकारी सिद्ध हुआ है साथ-ही-साथ कम लागत में किया जा सकता है।
बायोस्टिमुलेशन महत्त्वपूर्ण तकनीकों में से एक है, जिसमे प्रदूषित क्षेत्रों में उपस्थित सूक्ष्म जीवों को उनके लिये अनुकूल वातावरण तैयार करना होता है ताकि सूक्ष्म जीवों के विकास से प्रदूषकों का अधिकतम घटन हो सके। पूर्ण रूप से प्रदूषक का निवारण हेतु अतिरिक्त सूक्ष्म जीवों को अन्तःक्षेप किया जाता है, इस तकनीक को सूक्ष्म जीवों का सीडिंग (बायोऑगमेंटेशन) कहते हैं। पेट्रोकेमिकल प्रदूषण के उपचार के लिये ‘बायोऑगमेंटेशन’ एक कारगर तकनीक सिद्ध हुआ है।
फयटॉरेमीडिएशन का प्रयोग कम प्रभावित क्षेत्र के लिये अत्यधिक प्रभावशाली होता है, अधिक प्रदूषित क्षेत्र में इसके साथ-साथ बायोऑगमेंटेशन और बायोस्टिमुलेशन भी किया जाता है।
सन्दर्भ:
1. बृजेश कुमार यादव एंड एस. माजिद हसनजादेह (2011) “एन ओवर व्यू ऑफ बायो डिग्रेडेशन ऑफ एलएनएपीएल इन कोस्टल (सेमी)-एरिड एनवायरनमेंट” वाटर एयर सॉइल पॉल्यूशन, पेज 220:225-239.
2. पंकज कुमार गुप्ता एंड बृजेश कुमार यादव (2017) “बायो रेमेडिएशन ऑफ नॉन एकोयूएस फेज लिक्विड्स पॉलूटेड सॉइल वाटर रिसोर्सेज” एनवायरनमेंटल पॉलुटेंट्स एंड बायो रेमेडिएशन अप्प्रोअचएस, 1स्ट एडिशन, चैप्टर 08, पेज 233-248.
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