भारतीय कृषि शोध संस्थान ने अपनी एक ताजा रपट में बताया है कि देश की कुल 14 करोड़ हैक्टेयर कृषि योग्य जमीन में से 12 करोड़ हैक्टेयर की उत्पादकता काफी घट चुकी है और इसमें से भी 84 लाख हैक्टेयर जमीन जलभराव और खारेपन की समस्या से ग्रस्त है। इस सरकारी शोध संस्थान ने अपनी 'विजन 2030' नामक रपट में इस तथ्य का खुलासा किया है। उधर संसद में बजट पेश होने से पूर्व पेश की गई एक रपट में केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने बताया था कि बीते दो दशक में देश की कुल कृषि योग्य जमीन में 28 लाख हैक्टेयर की कमी विभिन्न कारणों से आई है। एक तरफ ताजा जनगणना से प्राप्त आंकड़े कि देश की कुल आबादी सवा अरब के करीब हो गई है और दूसरी तरफ कृषि योग्य जमीन और उसकी उत्पादन क्षमता में हो रही निरन्तर कमी, ये स्थितियॉ आने वाले दिनों में खाद्यान्न संकट का कारण बन सकती हैं।
समाचार माध्यमों में एक ही मुद्दे पर जितने तरह के समाचार आते हैं वे वस्तुत: एक भ्रम की स्थिति बना देते हैं। मसलन एक तरफ ये खबर हैं कि कृषि योग्य जमीन और उत्पादकता दोनों घट रही है तो दूसरी तरफ ऐसी खबरें भी आ रही हैं कि पैदावार बहुत बम्पर हुई है और सरकार के पास उसे रखने की जगह तक नहीं है। कृषि मंत्री का यह भी दबाव है कि गेहूँ का काफी दिनों से बंद पड़ा निर्यात फिर से शुरु कर दिया जाय, हालाँकि बढ़ती खाद्य मुद्रा स्फीति को देखते हुए सरकार अभी इसके पक्ष में नहीं है। यहॉ यह जान लेना उचित होगा कि जिस प्रकार मानव उपभोग या उपयोग की बहुत सी वस्तुऐं एक ही स्थान या देश में उपलब्ध नहीं होती और जरुरतमंद देश उनका आयात-निर्यात करते रहते हैं, खाद्यान्न भी उसी श्रेणी में हैं। अविखंडित सोवियत रुस जैसे विशाल भौगोलिक क्षेत्रफल वाले देशों में भी कृषि योग्य जमीन बहुत कम थी और अपनी खाद्य जरुरतों के लिए वह भारत जैसे देशों पर निर्भर रहता था और विखंडन के बाद आज भी उसकी यही स्थिति है।
दुनिया में तमाम ऐसे देश हैं जहॉ औद्योगिक प्रगति तो बहुत ज्यादा है लेकिन कृषि वहाँ उनकी घरेलू जरुरत भर को भी नहीं है। ऐसे तमाम देश अपनी खाद्यान्न आवश्यकताओं के लिए भारत जैसे विशाल कृषि क्षेत्र वाले देशों पर आश्रित रहते हैं। यह अपनी जरुरत और भूमंडलीकरण का तकाजा है कि हम ऐसे देशों को खाद्यान्न देने से एकदम से इनकार नहीं कर सकते। मौजूदा दौर में जैसे-जैसे दुनिया की आबादी बढ़ती जा रही है, भारत और चीन जैसे विशाल कृषि क्षेत्र वाले देशों की तरफ पूरी दुनिया की निगाह लगी हुई है। तमाम विकसित देशों में उनके अपने धन से इस तरह की रिसर्च हो रही है कि भारत की जलवायु और मिट्टी में अधिकतम पैदावार कैसे ली जा सकती है! स्पष्ट है कि अनाज का कोई स्थायी विकल्प नहीं होता।
देश में आज कृषि के सामने सबसे बड़ी विडम्बना है- निरन्तर छोटी और अलाभकारी होती जा रही काश्त। ऊपर से उस पर भारी आबादी की निर्भरता। आज भी देश के कुल श्रमिकों में से आधे से अधिक यानी 58.2 प्रतिशत खेती पर निर्भर हैं। आज से साढ़े तीन दशक पूर्व जब देश में हरित क्रांति की शुरुआत की गई तब कृषि में रासायनिक खादों का प्रयोग यह सोचकर किया गया कि इससे पैदावार बढ़ेगी। लघु सिंचाई योजना और रासायनिक खादों पर भारी अनुदान ये दो ऐसे सरकारी कारक थे जिन्होंने खाद्यान्न के मामले में देश को न सिर्फ आत्मनिर्भर बनाया बल्कि शीघ्र ही हम निर्यातक भी बन गये। एक बार किसानों के सिर चढ़ चुका रासायनिक खाद का भूत फिर उतर नहीं सका और विषेशकर नेत्रजन यानी यूरिया का तो अंधाधुंधा इस्तेमाल आज तक हो रहा है। जैसे-जैसे किसान की जमीन घटती जा रही है, वह कम जमीन से अधिकतम पैदावार लेने के लिए आँख मूंदकर रासायनिक खादों का प्रयोग कर रहा है। आज तमाम कृषि विषेशज्ञ भले ही यह चेतावनी दे रहे हों कि हाईब्रिड सीड और यूरिया का असंतुलित प्रयोग खेती व स्वास्थ्य दोनों के लिए खतरनाक है, लेकिन उनकी सुनने वाला कोई है नहीं। एक छोटी सी काश्त पर निर्भर किसान परिवार पहले अपने पेट भरने का उपाय करे या कृषि-विज्ञान की जानकारी के लिए अपनी खेती को प्रयोगशाला बनाए? सरकार यूरिया पर सबसे ज्यादा छूट देती है और किसान भी यूरिया ही सबसे ज्यादा इस्तेमाल करता है। यही कारण है कि देश में बिकनेवाली समस्त रासायनिक खाद में से आधी मात्रा सिर्फ यूरिया की है!
नेशनल सेम्पल सर्वे आर्गेनाइजेशन ने अपनी 2004-05 की रपट में बताया था कि देश के औसत किसान परिवार की मासिक आय महज 2115 रुपये है। आज भी इन परिस्थितियों में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आया है। हो सकता है कि अब यह आय जरा बढ़कर 2500 रुपये मासिक हो गयी हो। ध्यान रखें कि यह आय सकल परिवार की है न कि एक व्यक्ति की! इस प्रकार औसत दैनिक आय महज 85 रुपये ही हुई। यहॉ यह जानना जरुरी है कि जेल में बंद एक कैदी के भोजन पर सरकार लगभग 100 रुपये प्रतिदिन खर्च करती है! देश के तीन चौथाई किसान छोटी जोत वाले हैं। ये किसान अपनी उपलब्ध जमीन से हर हाल में अधिकतम पैदावार लेना चाहेंगें, इस बात की परवाह किये बगैर कि उनके द्वारा प्रयोग की जा रही रासायनिक खाद और कीटनाशक जमीन या पर्यावरण पर कितना बुरा असर डालेंगें। आज इस बात पर तमाम चिन्ताऐं प्रकट की जा रही हैं कि हमारे परम्परागत देसी बीज विलुप्त होते जा रहे हैं और उनका स्थान विदेशी हाईब्रिड बीज लेते जा रहे हैं। यह चिन्ता वाजिब है लेकिन क्या देसी बीज और तकनीक के भरोसे आज की विशाल आबादी का पेट भरा जा सकता है? क्या यह संभव है कि हम नीम की खली और पत्तियों का इस्तेमाल कर फसलों को कीटों के प्रकोप से बचा लें? इतनी मात्रा में क्या नीम के पेड़ उपलब्ध हैं देश में?
जिस प्रकार अब हम जेट युग को छोड़कर वापस बैलगाड़ी युग में नहीं जा सकते उसी प्रकार अब यह कल्पना करना कि किसान सावाँ, कोदौ, देसी गेहूँ और धान के बीज बोयेंगें तथा ढ़ेर सारे जानवर पालकर खेतों में गोबर की खाद डालेंगें, समय चक्र को वापस घुमाने सरीखा ही होगा। समाज के अन्य हिस्से की तरह खेती-किसानी में भी अब जो नई पीढ़ी आ गई है, वह पुरानी खेती को जानना-करना नहीं चाहती। जोत छोटी होने के कारण जानवर पालने की गुंजाइश पहले ही खत्म हो चुकी है और स्वास्थ्य संबन्धी कारणों से मेहनत करने की क्षमता में भी ह्रास हो रहा है। यही कारण है कि खेती में भी मशीनीकरण का विस्तार धीरे-धीरे होता जा रहा है। इसे रोकने के उपाय हो सकते हैं लेकिन उसके लिए खेती को पूरी तरह सरकारी संरक्षण की आवश्यकता होगी। मसलन कृषि उपज का दाम प्रभावी ढ़ंग से लाभकारी बनाकर तथा पशुपालन को प्रोत्साहित कर ज्यादा पैदावार हेतु रासायनिक खाद के अंधाधुंध इस्तेमाल को रोका जा सकता है, लेकिन यह कार्य इसलिए संभव नहीं क्योंकि तमाम अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाऐं विकासशील देशों की सरकारों को कृषि पर अनुदान देने से मना करती हैं। उनका लक्ष्य दूसरा है। वे ऐसे देशों की कृषि को पूरी तरह अलाभकारी और हानिकारक बनाने के बाद अपने देश की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को वहॉ ठेके पर खेती दिलाने की परिस्थितियॉ पैदा कर रही हैं।
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