पेरिस जलवायु सम्मेलन का हासिल


जलवायु परिवर्तन से मंडरा रहे खतरों को कम करने के लिये फ्रांस की राजधानी पेरिस में इकट्ठा हुए दुनिया के सभी 196 देश दो हफ्ते तक चली मैराथन बैठकों के बाद आखिरकार एक कानूनी बाध्यकारी सहमति पर पहुँच ही गए। ये पहली बार है, जब जलवायु परिवर्तन पर समझौते में कार्बन उत्सर्जन में कटौती पर सभी देशों में सहमति बनी है। ‘पेरिस समझौते’ नाम के 31 पन्नों वाले अंतिम मसौदे को फ्रांस के विदेश मंत्री लॉरेंट फेबियस ने पेश किया। जो फाइनल मसौदा पेश किया गया है, उसके मुताबिक सभी देशों को आने वाले दिनों में अपने-अपने यहाँ ऐसे उपायों को शामिल करना होगा ताकि धरती का तापमान 2 डिग्री सेल्सियस से किसी हाल में आगे न बढ़े।

इसके अलावा सभी देशों को 2020 के बाद घरेलू स्तर पर कार्बन कटौती के उपाय भी करने होंगे। समझौता कानूनी रूप से बाध्यकारी होगा। अमीर देशों को अपनी जीवन शैली पर नजर रखनी होगी। पारदर्शिता और निगरानी के मुद्दे पर सबको बराबर काम करना होगा। इस समझौते का सबसे अहम पहलू यह है कि साल 2020 से विकासशील और गरीब देशों को पर्यावरण संकट से निपटने के लिये आर्थिक सहायता मिलेगी। यानी समझौता लागू होने के पाँच साल बाद हर साल उन्हें 100 अरब डॉलर की मदद मिलेगी। दस साल बाद यह मदद और भी ज्यादा बढ़ाई जा सकती है। कुल मिलाकर देखा जाए तो यह एक संतुलित मसौदा है।

समझौता, पर्यावरण न्याय की धारणा के मुताबिक है और यह देशों की अलग-अलग जिम्मेदारियों और उनकी अलग-अलग क्षमताओं पर अलग-अलग देशों की स्थितियों के परिप्रेक्ष्य में गौर करता है। बीते 30 नवंबर को जब जलवायु परिवर्तन पर 21वां शिखर सम्मेलन शुरू हुआ तो इसका एकमात्र लक्ष्य पिछले 20 से भी अधिक साल में पहली बार जलवायु परिवर्तन पर एक ऐसा दीर्घकालीन कानूनी बाध्यकारी और सार्वभौम समझौता करना था, जो सभी को मंजूर हो।

बहरहाल, सम्मेलन से पहले जिस तरह से दुनियाभर के 160 देशों ने एच्छिक राष्ट्रीय प्रतिबद्धता सहयोग जताया, उससे यह उम्मीद जाग उठी थी कि पेरिस जलवायु सम्मेलन पहले के जलवायु सम्मेलनों के बनिस्बत ज्यादा फायदेमंद साबित होगा और सभी देश एक बेहतर नतीजे पर पहुँच पाएँगे। और यही हुआ, सभी देश वैश्विक तापमान को दो डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने को तैयार हो गए हैं। बहरहाल, पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते पर सभी देश अगले साल 22 अप्रैल यानी पृथ्वी दिवस के मौके पर औपचारिक रूप से हस्ताक्षर करेंगे और इसके बाद यह समझौता अमल में आ जाएगा।

समझौते के दो हिस्से हैं। पहला, निर्णय पाठ और दूसरा समझौता पाठ। निर्णय पाठ में लिखी शर्तें कानूनन बाध्यकारी नहीं होंगी, लेकिन समझौता पाठ (समझौता लागू होने के साथ ही) सबको मानना पड़ेगा। अलबत्ता विकासशील व गरीब देशों को इसमें कुछ रियायत दी गई हैं। उन्हें न्यूनतम अन्तरराष्ट्रीय मानकों को ही पूरा करना होगा। समझौते के मुताबिक, वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित कर देने के लक्ष्य के लिये अब सबसे ज्यादा भागीदारी विकसित देशों को करनी होगी। इसके लिये उन्हें अपने उत्सर्जनों में भारी कटौती करनी होगी। वहीं विकासशील देशों को दी जाने वाली आर्थिक मदद में भी इजाफा करना होगा।

समझौते में शामिल एमआरवी यानी कि ‘मेकेनिज्म ऑफ वेरिफिकेशन एंड रिव्यू’ के तहत हर पाँच साल में पुरानी योजनाओं की समीक्षा और मूल्यांकन होगा। सभी देशों को बताना होगा कि अपने यहाँ कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिये उन्होंने क्या कदम उठाए? इन कदमों की निगरानी अन्तरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार अन्तरराष्ट्रीय कमेटी करेगी। पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते का जो अंतिम मसौदा सामने आया, उसमें भारत की एक अहम भूमिका रही। मसौदे में भारत की चिन्ताओं को उचित जगह मिली। पेरिस जलवायु सम्मेलन शुरू होने से पहले ही भारत ने विकसित देशों से अपनी यह माँग रखी थी कि वे अल्प विकसित देशों में विकास के लिये सहायता सम्बन्धी अपनी प्रतिबद्धताएं पूरी करने के लिये आगे आएं। अल्प विकसित और गरीब देशों में गरीबी उन्मूलन के प्रयास सामाजिक न्याय व समता के सिद्धांतों पर आधारित होने चाहिए।

समझौते के मुताबिक, वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित कर देने के लक्ष्य के लिये अब सबसे ज्यादा भागीदारी विकसित देशों को करनी होगी। इसके लिये उन्हें अपने उत्सर्जनों में भारी कटौती करनी होगी। वहीं विकासशील देशों को दी जाने वाली आर्थिक मदद में भी इजाफा करना होगा। समझौते में शामिल एमआरवी के तहत हर पाँच साल में पुरानी योजनाओं की समीक्षा और मूल्यांकन होगा। सभी देशों को बताना होगा कि अपने यहाँ कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिये उन्होंने क्या कदम उठाए?...

भारत का इस बारे में कहना था कि वैश्विक समाज में वैश्वीकरण और तकनीक से काफी लाभ हुआ है, लेकिन वैश्विक प्रक्रियाओं में समता के अभाव के कारण देशों के बीच डिजिटल अंतर बढ़ने के साथ ही असमानता बढ़ी है। विकसित देशों की ऐतिहासिक जिम्मेदारियों को कम करके या प्रदूषकों और पीड़ितों को समान स्तर पर लाकर पेरिस में कोई स्थाई समझौता तैयार नहीं किया जा सकता। अच्छी बात यह है कि भारत की इन सभी न्यायपूर्ण बिंदुओं का सभी देशों ने समर्थन किया और जब अंतिम मसौदा सामने निकलकर आया तो उसमें उसके सभी बिंदु शामिल थे। इन सब बातों के अलावा भारत द्वारा सौर गठबंधन की पहल का भी सभी देशों ने स्वागत किया।

‘मिशन इनोवेशन’ का साझेदार बनना, भारत के लिये पेरिस जलवायु सम्मेलन की एक और उल्लेखनीय उपलब्धि रही। पर्यावरण विशेषज्ञ बीते दो दशकों से लगातार आगाह कर रहे हैं कि यदि कॉर्बन उत्सर्जन अभी भी नहीं घटाया, तो सारी दुनिया मुश्किल में फंस जाएगी। वैज्ञानिक अध्ययनों से आए प्रमाण यह बतलाते हैं कि तापमान में दो डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी होने भर से धरती का इतना हिस्सा डूब जाएगा, जिसमें वर्तमान में तकरीबन 28 करोड़ लोग रहते हैं। वैश्विक तापमान वृद्धि का असर फसलों पर भी पड़ेगा। ग्लेशियर पिघलेंगे तो समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा और द्वीप-तटों पर बसे देश या शहर डूब जाएँगे। वायु प्रदूषण भी बेकाबू हो जाएगा। सूरज की अल्ट्रावायलेट किरणें ज्यादा मात्रा में पृथ्वी तक आएंगी, जिससे स्वास्थ्य को गंभीर खतरा होगा। अगर यह बढ़ोतरी चार डिग्री सेल्सियस तक होती है तो साठ करोड़ लोग उसकी जद में आ जाएँगे।

इसमें दक्षिण एशिया के घनी आबादी वाले इलाके शामिल हैं। आश्चर्य नहीं कि कई छोटे द्वीपीय राष्ट्रों का अस्तित्व हमेशा के लिये खत्म हो जाएगा। जलवायु सम्मेलनों में अक्सर विकसित देशों खासकर अमेरिका का दवाब बना रहता है। किसी भी अन्तरराष्ट्रीय समझौते के प्रति उसका नजरिया यह है कि बिना उसकी मौजूदगी और सहमति के कोई समझौता न हो और कोई समझौता उस पर बाध्यकारी न हो। यही वजह है कि अभी तलक कार्बन उत्सर्जन की ऐतिहासिक जिम्मेदारी को ध्यान में रखते हुए बराबरी की कोई व्यवस्था नहीं बन पाती थी। पेरिस जलवायु सम्मेलन इस मायने में कामयाब माना जा सकता है कि इस बार अमेरिका न सिर्फ बाध्यकारी समझौते के लिये राजी हो गया, बल्कि कार्बन उत्सर्जन के मामले में भी उसने कटौती करने का वादा किया है।

पेरिस जलवायु सम्मेलन से निकला प्रस्तावित जलवायु दस्तावेज पहली ही नजर में न्यायोचित, ठोस और कानूनी रूप से बाध्यकारी दिखाई देता है, लेकिन इसकी कामयाबी इस बात पर निर्भर करती है कि कार्बन उत्सर्जन के लिये सबसे ज्यादा जिम्मेदार कम से कम 55 बड़े देश इस समझौते पर हस्ताक्षर कर दें। क्योंकि इनके हस्ताक्षर करने के बाद ही यह प्रभावी माना जाएगा। पेरिस जलवायु समझौते में ऐसे और भी कई बिंदु हैं, जो पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हैं। मसलन वैश्विक तापमान को कम करने व प्रभावित गरीब देशों की मदद के लिये कहने को हरित पर्यावरण कोष में 100 अरब डॉलर इकट्ठा करने की बात समझौते में कही गई है, लेकिन इस बात को प्रस्तावना में ही रखा गया है, बाध्यकारी हिस्से में नहीं।

इसके अलावा एक बात और, फंड जुटाना बाध्यकारी है, लेकिन रकम कितनी दें, इसकी कोई बाध्यता नहीं है। लिहाजा इस बात का भी शक है कि विकसित देश इस फंड में अपनी उचित भागीदारी करेंगे? फिर हर देश अपनी जिम्मेदारी सही ढंग से निभा रहा है या नहीं, इसकी निगरानी कैसे होगी? एक बात और, नया समझौता साल 2020 से अमल में आएगा, तब तक किसी भी देश के लिये कार्बन उत्सर्जन की कटौती अनिवार्य नहीं होगी। इन तमाम अस्पष्टताओं और आशंकाओं के बावजूद पेरिस जलवायु सम्मेलन इस मायने में कामयाब माना जा सकता है कि सम्मेलन में शामिल सभी 196 देश अपने-अपने यहाँ कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिये राजी हो गए हैं। जबकि यही एक ऐसा बिंदु था, जिस पर सबसे ज्यादा मतभेद थे। पेरिस जलवायु सम्मेलन में जो लक्ष्य तय किए गए हैं, उन्हें हासिल करने के लिये यदि सभी देश मिलजुलकर अपने-अपने यहाँ ईमानदारी से काम करें तो वाकई धरती और पूरी मानवता को वैश्विक तापमान वृद्धि के खतरों से बचाया जा सकता है।

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