किसी जमाने उतराखण्ड में वन संरक्षण के कामों के लिये यहाँ की ‘वन पंचायतें’ बड़ी विख्यात थीं। आज उनका अस्तित्व सरकारी ‘ग्राम वन पंचायत’ के रूप में है। वे वन संरक्षण के काम को तभी करेंगे जब वन विभाग का कोई आदेश उन्हें आ जाये। फिर भी राज्य के लोग और पर्यावरण कार्यकर्ता वन संरक्षण के प्रति संवेदनशील तो हैं ही। यही वजह है कि इतने घपले-घोटालों के बावजूद भी मौजूदा समय में राज्य के वनों की स्थिति 65 प्रतिशत से बढ़कर 71 प्रतिशत हो गई है।
मतलब साफ है कि देश भर सहित दुनिया के कार्बन को सोखने का काम उतराखण्ड के जंगल भी कर रहे हैं। मगर राज्यवासियों को इसके बदले ग्रीन बोनस के सिर्फ सुहावने सपने ही दिखाए जा रहे हैं। अब कुछ आस जगी है कि वन विभाग और भारतीय वानिकी अनुसन्धान परिषद के संयुक्त अध्ययन ने यह बताया कि उतराखण्ड के ये बढ़ते जंगल जलवायु परिवर्तन पर काफी हद तक काबू पा सकते हैं।
इधर एक वैज्ञानिक रिपोर्ट के अनुसार बताया गया कि उत्तराखण्ड की जमीं पर खड़े वृक्षों ने करोड़ों टन कार्बन अवशोषित कर लिया है। जलवायु परिवर्तन के लिये जिम्मेदार ये कार्बन सोखने के बदले उत्तराखण्ड को धन मिलने की सम्भावना प्रबल बनती है। बता दें कि इस दौरान वन विभाग और भारतीय वानिकी अनुसन्धान परिषद ने संयुक्त रूप से नैनीताल जिले के पहाड़पानी क्षेत्र में हजारों हेक्टेयर के वनों में कितना कार्बन जमा है, उसका अध्ययन अब पूरा कर लिया गया है।
अध्ययन की रिपोर्ट में सिफारिश की गई कि यदि कुछ औपचारिकताओं को पूरा कर लिया जाये तो हमारे जंगल में जमा कार्बन को विकसित देशों को बेचकर (कार्बन उत्सर्जन करने वाले) राज्य को इसका हर्जाने के रूप में एक विशेष फंड मिलने की प्रबल सम्भावनाएँ बनती हैं। इस राशि का इस्तेमाल वन पंचायतों के माध्यम से वन संरक्षण और दूसरे कामों में किया जा सकेगा। अध्ययन रिपोर्ट की संस्तुतियाँ बता रही है कि राज्य के वनों ने मौजूदा समय में यानि जलवायु परिवर्तन के दौर में करोड़ों का कार्बन सोखा है। बताया जा रहा है कि एक अनुमान के मुताबिक हम कार्बन बेचकर लगभग 54 करोड़ रुपए तक की आय वनों से कर सकते हैं।
उल्लेखनीय यह है कि हरियाली संरक्षण में उत्तराखण्ड प्रदेश की अहम भूमिका रही है। इसकी कीमत भी यहाँ के लोगों ने चुकाई है। चूँकि इसके बदले राज्य को कड़े वन कानून के सिवाय और कुछ नहीं मिला। ऐसे में लोग सवाल खड़े कर रहे हैं कि उन्होंने एक तरफ वन संरक्षण के कार्य को जमीनी रूप दिया और दूसरी तरफ लोगों को इस काम के एवज में कठोर वन कानूनों से गुजरना पड़ रहा है। कठोर वन कानूनों के कारण राज्य में विकास के काम भी अवरोध हो रहे हैं।
लोगों का मानना है कि जब वैज्ञानिक संस्थाएँ ऐसा प्रमाणित कर रही हैं कि वन संरक्षण में राज्य के लोगों की अहम भूमिका है तो लम्बे समय से हो रही ग्रीन बोनस की माँग भी लाजमी है। वन विभाग और भारतीय वानिकी अनुसन्धान परिषद द्वारा प्रस्तुत अध्ययन रिपोर्ट यह संकेत कर रही है कि आने वाले समय में लोगों को ग्रीन बोनस के रूप में कुछ-न-कुछ फंड सरकार द्वारा दिया जाना चाहिए। अर्थात कुछ इसी तरह पेड़ों में कार्बन सोखने के बदले फंड लेने की दिशा में कदम बढ़ गया है।
वन विभाग और फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट ने साल 2014 में कार्बन ट्रेडिंग के तहत नैनीताल जिले के पहाड़पानी क्षेत्र में रिड्यूशिंग एमीशन फ्रॉम डिफॉरेस्ट्रेशन एंड फॉरेस्ट डिग्रेडेशन (आरईडीडी प्लस योजना के तहत) अध्ययन शुरू किया था। इसका उद्देश्य पेड़ों में कितना कार्बन जमा है, उसका आकलन करना था।
वन विभाग और फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट के इस अध्ययन प्रोजेक्ट से जुड़े आईसीएफआरई के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. वीआरएस रावत के अनुसार 40 हजार हेक्टेयर के मिश्रित जंगल को 128 सैम्पल का प्लाट बनाकर अध्ययन किया गया था। इसमें कितना कार्बन जमा है, यह पता कर लिया गया है। अब इस कार्बन को वॉलेंटरी कार्बन मार्केट के जरिए विकसित देशों को बेचा जाएगा।
ये वह देश हैं, जो कार्बन उत्सर्जन करते हैं और उसके बदले कार्बन स्टॉक करने के लिये ग्रीन कवर बढ़ाने, वनों का संरक्षण वाले देशों की आर्थिक मदद करते हैं। वन संरक्षक डॉ. धकाते के अनुसार कार्बन का मार्केट भी स्टॉक एक्सचेंज की तरह ऊपर-नीचे होता रहता है। एक प्रारम्भिक अनुमान है कि अगर रेट सही मिले तो इस कार्बन के बदले राज्य को 54 करोड़ तक का फंड मिल सकता है।
आरईडीडी प्लस योजना के नोडल अधिकारी व वन संरक्षक पश्चिमी वृत्त डॉ. पराग मधुकर धकाते ने बताया कि वन संरक्षण की यह एक बड़ी उपलब्धि है। इसके जरिए आगे और वन क्षेत्रों का अध्ययन करने, कार्बन बेचने और आर्थिक मदद लेने का रास्ता खुल सकेगा। उत्तराखण्ड देश का पहला राज्य होगा, जिसने इतने बड़े स्तर पर वनों में कार्बन स्टॉक का अध्ययन किया है। उन्होंने कहा कि भविष्य में कार्बन बेचकर जो राशि मिलेगी, उस पर स्थानीय लोगों का पूरा अधिकार होगा। राशि का इस्तेमाल वन पंचायतों के सुदृढ़ीकरण और संरक्षण से जुड़े कार्यों में किया जाएगा।
वन पंचायतों की दुनिया में तारीफ
प्रदेश में लगभग 13 हजार वन पंचायतें हैं। इन वन पंचायतों का वनों के संरक्षण में अहम भूमिका रही है। पेरिस सम्मेलन में उतराखण्ड राज्य के वन पंचायतों की भूमिका को वन विभाग के अधिकारियों ने अन्तरराष्ट्रीय फोरम पर रखा था। जंगल को बचाने में जनसमुदाय (वन पंचायतों) के इस फार्मूले की दुनिया में तारीफ हुई थी। कई देशों के प्रतिनिधियों ने हमारी वन पंचायतों को जानने में रुचि दिखाई थी। इतना भर नहीं बल्कि पेरिस कलाइमेंट चेंज एग्रीमेंट में भी कार्बन ट्रेडिंग का उल्लेख है।
वन सरंक्षण के लोक पर्व
उतराखण्ड की 13000 वन पंचायतों से लगभग दो लाख 35 हजार सक्रीय सदस्य सीधे तौर पर जुड़े हैं। यदि प्रति सदस्य प्रतिवर्ष एक पेड़ का संरक्षण करता है तो राज्य में प्रतिवर्ष दो लाख 35 हजार पेड़ सीधे तौर पर सुरक्षित होते हैं। इसी के साथ यदि वन विभाग, जलागम परियोजना, भूमि संरक्षण और अन्य शिक्षण संस्थानों के वृक्षारोपण को जोड़ देंगे तो यह आँकड़ा 50 लाख से ऊपर चला जाएगा। इस तरह लोग स्वस्फूर्त ही वन संरक्षण के काम से जुड़े हैं।
इस हेतु राज्य में बकायदा हरियाली का त्यौहार, बसन्त पंचमी, माला संक्राद जैसे वन, जल व कृषि संरक्षण के परम्परागत त्योहार आयोजित होते हैं। इस परम्परा का भी अपने आप में प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण में अहम भूमिका है। अर्थात ऐसा भी कह सकते हैं कि राज्य के लोग ब्रह्मा, विष्णु, महेश को जल, जंगल, जमीन के रूप में देखते हैं और उन्हें उसी तरह पूजते भी हैं।
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