जिस पानी को हम स्रोत नदी या जमीन के अंदर से निकालकर पीते और नाना प्रकार से उपयोग करते हैं, उसे क्या हम पैदा कर सकते हैं? यह सवाल जितने सरल शब्दों में किया जा सकता है, इसका उत्तर उतना ही कठिन है।
पानी को लाया या जमा किया जा सकता है लेकिन पैदा कैसे किया जा सकता है? शायद यही इसका सम्भावित उत्तर होगा। लेकिन यही सवाल अगर पौड़ी जिले के अन्तराल के इलाके में दो दशकों से कार्यरत संस्था दूधातोली लोक विकास संस्थान के संस्थापक सच्चिादानन्द भारती से पूछा जाता है तो उनका उत्तर होता है- हाँ, जरूर।
दूधातोली लोक विकास संस्थान, पौड़ी, चमोली और अल्मोड़ा जिले के केन्द्र में एक बहुत पिछड़े इलाके उफरैखाल में स्थित हैं। जिसे पहले ‘राठ’ कहा जाता था। राठ और पिछड़ापन शब्द कुछ वर्ष पहले तक मानो एक दूसरे से पर्याप्त थे।
संस्थान की स्थापना दशोली ग्राम स्वराज्य मंडल द्वारा चलाये गये चिपको और वन संवर्धन आन्दोलनों को इस क्षेत्र में फैलाने के लिए की गई थी। इसके संस्थापक सच्चिदानन्द भारती (ढौंढियाल) मण्डल के आन्दोलनों में काफी सक्रियता से जुड़े रहे थे।
इसलिए वहाँ से अपने गृह-क्षेत्र में अध्यापक बन जाने के बाद उन्होंने लोगों, विशेषकर महिलाओं को सक्रिय और संगठित करके वनों को बचाने तथा बढ़ाने के कार्यों को जनान्दोलन का स्वरूप देना आरम्भ किया।
उन्होंने सबसे पहले वन विभाग द्वारा निलाम पेड़ों को बचाने के लिये ग्रामीणों को एकजुट किया और फिर उफरैखाल के उस भूभाग को, जो कभी घना जंगल था, लेकिन तब बिलकुल बंजर हो गया था। हरियाली से पाटने का कार्यक्रम बनाया।
इस कार्य में राष्ट्रीय परती भूमि विकास बोर्ड ने दूधातोली संस्थान को सहारा दिया। उसे उस क्षेत्र के 10 गाँवों में दो लाख पौधे का एक प्रस्ताव स्वीकृत किया और उसके लिए वित्तीय संसाधन उपलब्ध करायें। फिर क्या था।
संस्थान ने पौधालय स्थापित किए और दो लाख के स्थान पर आठ लाख पौधे तैयार कर न केवल क्षेत्र दुगने पौधे रोपें बल्कि दो लाख पौधे जिला प्रशासन को बेच कर चार लाख रूपये भी कमाये और इससे अतिरिक्त कार्यों के संसाधन जुटाये।
उफरैखाल में गाडखर्क गाँव का जंगल है। गाँव से दो किमी ऊपर स्थित इस जंगल में कुछ झाड़ियाँ और कुछ छितरे पेड़ थे ‘जो बंजर के विस्तार को रोक नहीं पा रहे थे।’ सबसे पहले यहाँ पौधे रोपे गए। जिस दौर में यह कार्य हो रहा था, उस दौर में 1987 का वर्ष भी आया जो सबसे सूखे वाला वर्ष था। वर्षा होती नहीं थी।
पानी के रहे बचे स्रोत भी सूख गए थे। इसी के साथ सूख रही थी संस्थान की कोशिशें भी। लगाये गये पौधों में से ज्यादातर बिना पानी के सूख कर मरने लगे थे। काफी पेड़ सूख भी गए थे।
इस पर चिन्ता के साथ चिन्तन भी होता रहा और इससे उबरने के लिये भारती जी ने एक उपाय ढूँढ़ निकाला। रोपे गए पौधे के समीप एक गड्ढा बनाया गया जिसमें वर्षा का पानी जमा होता और काफी दिनों तक पौधे को नमी देता रहता। यह तरकीब काफी कारगर रही। पौधों के सूखने का प्रतिशत कम होने लगा और गाडखर्क का जंगल बढ़ने लगा।
1990-91 तक गाडखर्क जंगल हरा-भरा हो गया। एक दशक बाद वह वन एक पूर्ण विकसित वन के रूप में है जिसमें बाँज, बुरांस, काफल, अंयार, चीड़, उतीस आदि स्थानीय प्रजातियों के अलावा बड़े पैमाने पर देवदार के पेड़ भी इस पूरे भूभाग को समृद्ध और सुदर्शन बना रहे हैं।
प्रकृति तो मनुष्य के सद्प्रयासों में मदद के लिए हमेशा तैयार रहती ही है। सो उसने भी अपने सामर्थ्य और वैभव का उदार प्रदर्शन किया है। आज कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि गाडखर्क का यह जंगल 15-16 वर्ष पहले इक्का-दुक्का पेड़ों और छितरी झाड़ियों वाला एक बंजर भूभाग मात्र था।
संस्थान तथा भारती जी द्वारा छोटे-छोटे गड्ढों को नमी से पेड़ों की जीवतंता की बात सुनकर पानी तथा तालाबों पर काफी काम चुके विचारक अनुपम मिश्र ने पर्वतीय क्षेत्रों की खालों और चालों पुनर्जीवित करने तथा छोटे तालाबों की शृंखलाएँ बनाने का सुझाव दिया और इसके लिये उन्हें राजस्थान की तालाब आधारित जल-व्यवस्था का प्रत्यक्ष अवलोकन करने का प्रबन्ध कर दिया।
राजस्थान के अलवर, जैसलमेर आदि जिलों के परम्परागत जल-प्रबन्धन तथा वर्तमान प्रयासों को देखने के बाद भारती ने गाडखर्क के जंगल में छोटे-छोटे तालाबों की एक श्रृंखला जनश्रम से तैयार की।
इस प्रयास ने तुरन्त ही अपना प्रभाव दिखाया और यह सूखा भूभाग, जिसके दोतरफा नालों को सूखी रोली (नाले) के नाम से जाना था, आज सदाबहार स्रोत के रूप में बदल गए हैं। इस सदाबहार नालों के संगम से एक नई गंगा का अवतरण हुआ है जिसका नाम रखा गया है- गाड गंगा।
गाडखर्क वन में अब नया नाम देने पर विचार चल रहा है, संस्थान द्वारा 1500 छोटे-बड़े तालाब बनाये गये हैं जिन्हें ‘जल तलाई’ नाम दिया गया है। ये आकार और अभियंत्रण की औपचारिकताओं से एकदम अलग है। तारीफ की बात यह है कि इसमें कोई बाहरी सामग्री नहीं लगाई गई है।
जहाँ पानी का ढाल देखा, वहीं पर खुदाई कर दी। खोदी गई मिट्टी से मेंड़ ऊँची कर दी और उस पर पेड़ तथा दूबड़ घास लगा दी। इन तलाइयों से पहाड़ी के शिखर से ही वर्षा जल का संग्रहण आरम्भ हो जाता है और उनका पानी रिस-रिस कर निचली तलाइयों से होता हुआ नालों में पहुँचता रहता है। नालों में ज्यादा पानी संग्रहीत हो इसके लिये पत्थर और सीमेन्ट के कुछ बाँध बनाये गये हैं लेकिन 1500 तलाइयों के साथ ऐसे चार-पाँच ही बंधे हैं।
इन जल तलाइयों में से कुछ में चार-पांच माह के अवर्षण के बाद भी पानी मौजूद है और नमी तो सभी तलाइयों के आस-पास प्रचुर मात्रा में है जिससे गाडखर्क वन का जीवन पूरी तरह जीवंत बना हुआ है। अवर्षण का इतना लम्बा कालखंड उसे माथे पर सलवटें डालने में असफल रहा है।
संस्थान ने इस व्यावहारिक विज्ञान को न केवल समझा है, बल्कि व्यवहार में उतारा भी है। लोगों को पानी और वन चाहिए। वनों के लिए पानी और मिट्टी चाहिए। पानी के लिये वन चाहिए। इसलिए वन के संरक्षण-संवर्धन के लिए पानी और मिट्टी के संरक्षण का भी उपाय करना होगा। संस्थान ने गाडखर्क के वन को इस संरक्षणत्रयी का अभिनव केन्द्र बनाया है। वहाँ वन हैं, जो पानी का संग्रहण करता है।
वर्षा के पानी के तीव्र प्रवाह से धरती की मिट्टी का तेज क्षरण होता था। उसे तलाइयाँ बनाकर नियन्त्रित करने के साथ ही इन तलाइयों में जल का संग्रह होता है। ये वर्षा के बाद अपने बूँद-बूँद के रिसाव के द्वारा जल वाहिकाओं को जल प्रदान करती हैं। साथ ही लम्बे समय तक नमी के संरक्षण के द्वारा वृक्षों-वनस्पतियों का पोषण करती है।
तलाइयों के किनारे नये पौधों और घासों के रोपण के द्वारा ईंधन और चारा की समस्या का समाधान हो सकता है। इस प्रकार वन के व्यावहारिक विज्ञान को जल संग्रहण व मृदा क्षरण के नियन्त्रण के द्वारा लोक व्यवहार में उतारा गया है।
अधिक जानकारी हेतु श्री सच्चिदानन्द भारती, दूधातोली विकास संस्थान उफरैखाल, पौड़ी-गढ़वाल से सम्पर्क करें।
साभार: परती भूमि समाचार अंग 1, जनवरी-मार्च 2002
पानी को लाया या जमा किया जा सकता है लेकिन पैदा कैसे किया जा सकता है? शायद यही इसका सम्भावित उत्तर होगा। लेकिन यही सवाल अगर पौड़ी जिले के अन्तराल के इलाके में दो दशकों से कार्यरत संस्था दूधातोली लोक विकास संस्थान के संस्थापक सच्चिादानन्द भारती से पूछा जाता है तो उनका उत्तर होता है- हाँ, जरूर।
दूधातोली लोक विकास संस्थान, पौड़ी, चमोली और अल्मोड़ा जिले के केन्द्र में एक बहुत पिछड़े इलाके उफरैखाल में स्थित हैं। जिसे पहले ‘राठ’ कहा जाता था। राठ और पिछड़ापन शब्द कुछ वर्ष पहले तक मानो एक दूसरे से पर्याप्त थे।
संस्थान की स्थापना दशोली ग्राम स्वराज्य मंडल द्वारा चलाये गये चिपको और वन संवर्धन आन्दोलनों को इस क्षेत्र में फैलाने के लिए की गई थी। इसके संस्थापक सच्चिदानन्द भारती (ढौंढियाल) मण्डल के आन्दोलनों में काफी सक्रियता से जुड़े रहे थे।
इसलिए वहाँ से अपने गृह-क्षेत्र में अध्यापक बन जाने के बाद उन्होंने लोगों, विशेषकर महिलाओं को सक्रिय और संगठित करके वनों को बचाने तथा बढ़ाने के कार्यों को जनान्दोलन का स्वरूप देना आरम्भ किया।
उन्होंने सबसे पहले वन विभाग द्वारा निलाम पेड़ों को बचाने के लिये ग्रामीणों को एकजुट किया और फिर उफरैखाल के उस भूभाग को, जो कभी घना जंगल था, लेकिन तब बिलकुल बंजर हो गया था। हरियाली से पाटने का कार्यक्रम बनाया।
इस कार्य में राष्ट्रीय परती भूमि विकास बोर्ड ने दूधातोली संस्थान को सहारा दिया। उसे उस क्षेत्र के 10 गाँवों में दो लाख पौधे का एक प्रस्ताव स्वीकृत किया और उसके लिए वित्तीय संसाधन उपलब्ध करायें। फिर क्या था।
संस्थान ने पौधालय स्थापित किए और दो लाख के स्थान पर आठ लाख पौधे तैयार कर न केवल क्षेत्र दुगने पौधे रोपें बल्कि दो लाख पौधे जिला प्रशासन को बेच कर चार लाख रूपये भी कमाये और इससे अतिरिक्त कार्यों के संसाधन जुटाये।
बंजर बना सुदर्शन
उफरैखाल में गाडखर्क गाँव का जंगल है। गाँव से दो किमी ऊपर स्थित इस जंगल में कुछ झाड़ियाँ और कुछ छितरे पेड़ थे ‘जो बंजर के विस्तार को रोक नहीं पा रहे थे।’ सबसे पहले यहाँ पौधे रोपे गए। जिस दौर में यह कार्य हो रहा था, उस दौर में 1987 का वर्ष भी आया जो सबसे सूखे वाला वर्ष था। वर्षा होती नहीं थी।
पानी के रहे बचे स्रोत भी सूख गए थे। इसी के साथ सूख रही थी संस्थान की कोशिशें भी। लगाये गये पौधों में से ज्यादातर बिना पानी के सूख कर मरने लगे थे। काफी पेड़ सूख भी गए थे।
इस पर चिन्ता के साथ चिन्तन भी होता रहा और इससे उबरने के लिये भारती जी ने एक उपाय ढूँढ़ निकाला। रोपे गए पौधे के समीप एक गड्ढा बनाया गया जिसमें वर्षा का पानी जमा होता और काफी दिनों तक पौधे को नमी देता रहता। यह तरकीब काफी कारगर रही। पौधों के सूखने का प्रतिशत कम होने लगा और गाडखर्क का जंगल बढ़ने लगा।
1990-91 तक गाडखर्क जंगल हरा-भरा हो गया। एक दशक बाद वह वन एक पूर्ण विकसित वन के रूप में है जिसमें बाँज, बुरांस, काफल, अंयार, चीड़, उतीस आदि स्थानीय प्रजातियों के अलावा बड़े पैमाने पर देवदार के पेड़ भी इस पूरे भूभाग को समृद्ध और सुदर्शन बना रहे हैं।
प्रकृति तो मनुष्य के सद्प्रयासों में मदद के लिए हमेशा तैयार रहती ही है। सो उसने भी अपने सामर्थ्य और वैभव का उदार प्रदर्शन किया है। आज कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि गाडखर्क का यह जंगल 15-16 वर्ष पहले इक्का-दुक्का पेड़ों और छितरी झाड़ियों वाला एक बंजर भूभाग मात्र था।
जल श्रृंखला
संस्थान तथा भारती जी द्वारा छोटे-छोटे गड्ढों को नमी से पेड़ों की जीवतंता की बात सुनकर पानी तथा तालाबों पर काफी काम चुके विचारक अनुपम मिश्र ने पर्वतीय क्षेत्रों की खालों और चालों पुनर्जीवित करने तथा छोटे तालाबों की शृंखलाएँ बनाने का सुझाव दिया और इसके लिये उन्हें राजस्थान की तालाब आधारित जल-व्यवस्था का प्रत्यक्ष अवलोकन करने का प्रबन्ध कर दिया।
राजस्थान के अलवर, जैसलमेर आदि जिलों के परम्परागत जल-प्रबन्धन तथा वर्तमान प्रयासों को देखने के बाद भारती ने गाडखर्क के जंगल में छोटे-छोटे तालाबों की एक श्रृंखला जनश्रम से तैयार की।
इस प्रयास ने तुरन्त ही अपना प्रभाव दिखाया और यह सूखा भूभाग, जिसके दोतरफा नालों को सूखी रोली (नाले) के नाम से जाना था, आज सदाबहार स्रोत के रूप में बदल गए हैं। इस सदाबहार नालों के संगम से एक नई गंगा का अवतरण हुआ है जिसका नाम रखा गया है- गाड गंगा।
गाडखर्क वन में अब नया नाम देने पर विचार चल रहा है, संस्थान द्वारा 1500 छोटे-बड़े तालाब बनाये गये हैं जिन्हें ‘जल तलाई’ नाम दिया गया है। ये आकार और अभियंत्रण की औपचारिकताओं से एकदम अलग है। तारीफ की बात यह है कि इसमें कोई बाहरी सामग्री नहीं लगाई गई है।
जहाँ पानी का ढाल देखा, वहीं पर खुदाई कर दी। खोदी गई मिट्टी से मेंड़ ऊँची कर दी और उस पर पेड़ तथा दूबड़ घास लगा दी। इन तलाइयों से पहाड़ी के शिखर से ही वर्षा जल का संग्रहण आरम्भ हो जाता है और उनका पानी रिस-रिस कर निचली तलाइयों से होता हुआ नालों में पहुँचता रहता है। नालों में ज्यादा पानी संग्रहीत हो इसके लिये पत्थर और सीमेन्ट के कुछ बाँध बनाये गये हैं लेकिन 1500 तलाइयों के साथ ऐसे चार-पाँच ही बंधे हैं।
इन जल तलाइयों में से कुछ में चार-पांच माह के अवर्षण के बाद भी पानी मौजूद है और नमी तो सभी तलाइयों के आस-पास प्रचुर मात्रा में है जिससे गाडखर्क वन का जीवन पूरी तरह जीवंत बना हुआ है। अवर्षण का इतना लम्बा कालखंड उसे माथे पर सलवटें डालने में असफल रहा है।
संस्थान ने इस व्यावहारिक विज्ञान को न केवल समझा है, बल्कि व्यवहार में उतारा भी है। लोगों को पानी और वन चाहिए। वनों के लिए पानी और मिट्टी चाहिए। पानी के लिये वन चाहिए। इसलिए वन के संरक्षण-संवर्धन के लिए पानी और मिट्टी के संरक्षण का भी उपाय करना होगा। संस्थान ने गाडखर्क के वन को इस संरक्षणत्रयी का अभिनव केन्द्र बनाया है। वहाँ वन हैं, जो पानी का संग्रहण करता है।
वर्षा के पानी के तीव्र प्रवाह से धरती की मिट्टी का तेज क्षरण होता था। उसे तलाइयाँ बनाकर नियन्त्रित करने के साथ ही इन तलाइयों में जल का संग्रह होता है। ये वर्षा के बाद अपने बूँद-बूँद के रिसाव के द्वारा जल वाहिकाओं को जल प्रदान करती हैं। साथ ही लम्बे समय तक नमी के संरक्षण के द्वारा वृक्षों-वनस्पतियों का पोषण करती है।
तलाइयों के किनारे नये पौधों और घासों के रोपण के द्वारा ईंधन और चारा की समस्या का समाधान हो सकता है। इस प्रकार वन के व्यावहारिक विज्ञान को जल संग्रहण व मृदा क्षरण के नियन्त्रण के द्वारा लोक व्यवहार में उतारा गया है।
अधिक जानकारी हेतु श्री सच्चिदानन्द भारती, दूधातोली विकास संस्थान उफरैखाल, पौड़ी-गढ़वाल से सम्पर्क करें।
साभार: परती भूमि समाचार अंग 1, जनवरी-मार्च 2002
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