क्या हम इतना भर कर सकते हैं कि इन तमाम पेड़ों को अपनी तरह मनुष्य समझें? यह मानें कि इनका होना हमारे सिर पर अपने किसी आत्मीय बुजुर्ग का साया जैसा है?
यदि आपको पता चले कि पेड़-पौधे भी सचमुच हमारी तरह सोच सकते हैं, तो आपको कैसा लगेगा? हममें से ज्यादातर लोग अपने घरों में पौधे लगाते हैं और जानते हैं कि पेड़-पौधों में भी जीवन होता है, लेकिन उनके प्रति हमारा व्यवहार प्राकृतिक सौंदर्य को शोभा की वस्तु बना देने तक ही सीमित रहता है। अपने पालतू पशुओं को जितना प्यार और दुलार हम देते हैं, उतना पेड़-पौधों को कहां दे पाते हैं? कल्पना कीजिए कि पेड़-पौधों को इसका बोध हो और वे सचमुच हमारी तरह सोचते हों, तो उन्हें कैसा लगेगा?
पर यह हमें कभी पता नहीं चल पाएगा, क्योंकि पेड़-पौधों के हमारी तरह आंख-कान और मस्तिष्क नहीं होते। उनकी बुद्धि और संवेदना का स्तर अलग है। लेकिन अगर बुद्धि का मतलब है, किसी समस्या को समझकर उसे सुलझा लेने की क्षमता तो पेड़-पौधे हमें काफी कुछ सिखा सकते हैं। आप जानते ही हैं कि हमारे महान वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बोस ने 1920 के दशक में यह स्थापना दी थी कि पेड़-पौधे अपने संसार की संवेदनात्मक पड़ताल करते रहते हैं और फिर एक बुद्धिमान जीव की तरह ही अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। लेकिन उस समय उनकी बात मजाक में उड़ा दी गई। अब वैज्ञानिकों को ऐसे सबूत मिले हैं, जो बोस की स्थापना को सही साबित करते हैं।
पिछले दिनों जगदीश चंद्र बोस की 150वीं जयंती के अवसर पर कोलकाता के बोस इंस्टिट्यूट में एक व्याख्यान आयोजित किया गया। इस व्याख्यान की रिपोर्ट 'द टेलीग्राफ' में विस्तार से छपी है। व्याख्यान दिया था, ऑस्ट्रेलिया के सिडनी विश्वविद्यालय की बायोफिजिसिस्ट प्रोफेसर वर्जीनिया शेफर्ड ने, जो सर जे.सी. बोस को अपना गुरु मानती हैं। उन्होंने अपने भाषण में कहा कि करीब सौ साल पहले जे.सी. बोस ने अपने एक प्रयोग से साबित किया था कि पौधों में भी मनुष्यों की तरह एक नर्वस सिस्टम (तंत्रिका प्रणाली) काम करता है, जो इंटेलिजेंस या विचारशक्ति का ही एक रूप है। यह भी कि, पौधे भी याद रखने और सीखने की क्षमता से संपन्न होते हैं। यह अलग बात है कि याद रखने और सीखने की उनकी यह क्षमता जीव-जंतुओं से अलग होती है।
प्रोफेसर शेफर्ड पिछले 16 बरसों से इस पहेली को हल करने में लगी हैं कि पौधों की कोशिकाएं आपस में कैसे संदेशों का आदान-प्रदान करती हैं, उन्हें किसी स्पर्श का कैसा अनुभव होता है और कैसे वे इलैक्ट्रिकल सिग्नल भेजती हैं? शायद आपने भी छुईमुई का वह छोटा-सा पौधा देखा हो, जिसकी एक पत्ती को छूने से उसकी नन्हीं डाली की सारी पत्तियां आपस में बंद होने लगती हैं। जाहिर है, इस पौधे में इलेक्ट्रिकल सिग्नल भेजने की किसी तरह की कोई प्रणाली काम करती होगी।
प्रोफेसर शेफर्ड का कहना था कि आज ऐसे अनेक शोध हो चुके हैं, जो बताते हैं कि पौधों में किस तरह एक सूचना-तंत्र काम करता है। उनके अनुसार, एक अद्भुत खोज यह हुई है कि डाडरवाइन नामक एक परजीवी पौधा कैसे अपने शिकार (टमाटर के पौधे) को अपने में जकड़कर मार देता है। इस पौधे के आसपास गेहूं और टमाटर के दो पौधे लगाए गए। उसने गेहूं के पौधे को तो छोड़ दिया लेकिन जैसे अजगर अपने शिकार को जकड़ लेता है, वैसे ही टमाटर के पौधे को जकड़कर उसे बर्बाद कर दिया। इस शोध की स्थापना यह है कि पेड़-पौधे भी अपने दोस्त, दुश्मन और भोजन को पहचानते हैं और उसी के अनुरूप व्यवहार करने की उनमें क्षमता होती है।
यानी आप मानें या न मानें, पेड़-पौधे भी सोचते हैं और प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। उनमें भी भावनाएं और संवेदनाएं हैं। अपने अच्छे-बुरे की पहचान है। एक तरह का प्यार और प्रतिकार भी है, जो हमें समझ में नहीं आता क्योंकि चीजों को देखने-समझने का हमारा आंतरिक उपकरण उनसे बिल्कुल अलग है। समझ के उनके तंत्र और हमारे तंत्र के स्तर और स्वरूप अलग-अलग हैं।
लेकिन एक बात अब शायद ज्यादा यकीन के साथ कही जा सकती है कि जिस तरह हम और सारे जीव-जंतु अपना अस्तित्व बचाए रखने की कोशिश करते रहते हैं, उसी तरह पेड़-पौधे भी अपना अस्तित्व बचाए रखने के एक अंदरूनी बोध से परिचालित होते हैं। और चूंकि पेड़-पौधे हमारे मित्र, हितैषी बल्कि जीवन के आधार हैं, अत: हमारा भी उनके प्रति एक कर्तव्य बनता है।
इस निष्कर्ष पर पहुंचने के बाद हम कहना चाहेंगे कि पेड़-पौधों के साथ हमारा व्यवहार सचमुच में मानवीय होना चाहिए। आप कहेंगे, कैसी बेकार की बात है। जब इस दुनिया में एक ताकतवर आदमी कमजोर आदमी के साथ मानवीय व्यवहार नहीं करता तो एक आदमी पेड़ के साथ मानवीय व्यवहार कैसे करेगा। मनुष्य पेड़ पर कविता लिख सकता है, उसके सौंदर्य को किसी पेंटिंग में उतार सकता है, उसके मीठे फलों का स्वाद ले सकता है, उसके फूलों और लताओं के गीत गा सकता है या उसकी प्रतीकात्मक पूजा भी कर सकता है लेकिन उसके वध को नहीं रोक सकता। यह सभ्यता का तकाजा बना दिया गया है, पर अपने अस्तित्व के तर्क से ही मनुष्य को सुध आनी चाहिए।
आप सब जानते हैं कि पेड़ों से ही हमें प्राणवायु मिलती है और पेड़-पौधे ही सारे जीव-जंतुओं का प्रत्यक्ष या परोक्ष भोजन हैं। वे अपना भोजन खुद बनाते हैं, जबकि कोई भी दूसरा जीव ऐसा नहीं कर सकता। हर जीव या तो वनस्पतियों पर या फिर वनस्पतियों पर जीवित जीवों की एक लंबी विकसित फूड चेन पर - जिसमें एक जीव आगे चलकर किसी दूसरे जीव का भोजन बनता है - आश्रित रहता है। इसलिए जितनी जरूरत सभी प्रजातियों को बचाने की है, उससे कहीं बड़ी जरूरत संसार के सारे पेड़-पौधों और वनस्पतियों को बचाने की है।
आज हमारे जीवन का काम पेड़-पौधों के बिना नहीं चल सकता। कदम-कदम पर हमें अपने रहने, खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने के लिए उनकी जरूरत पड़ती है। वे हवा और पानी का संचालन करनेवाले जीवित यंत्र हैं। उन्हीं की वजह से हमारा अस्तित्व है। वे हमारे आदि पुरखे हैं। वे तब भी थे, जब पृथ्वी पर विशालकाय डायनासोरों का साम्राज्य था। उनकी कई प्रजातियां पेड़ों पर पलती थीं। उनकी जिजीविषा हतप्रभ करने वाली है। डायनासोरों का सफाया हो गया है, लेकिन वानस्पतिक दुनिया तमाम तरह के प्राणियों के साथ कायम है। इसलिए हमारे जीवन की शर्त है, पेड़-पौधों का बचा रहना। वनों और जंगलों का विस्तार। पेड़-पौधों और जंगलों के प्रति एक मानवीय दृष्टिकोण। प्रगति और विकास का पहिया तो नहीं रुकेगा, लेकिन अपने उपभोगवादी नज़रिए में कोई न कोई संतुलन तो हमें बनाना ही होगा।
जरा सोचिए, क्या हम वैसा कुछ कर पा रहे हैं? आज चंडीप्रसाद भट्ट और सुंदरलाल बहुगुणा का 'चिपको आंदोलन' बिखर गया है। पेड़ों के लिए जान की बाजी लगाने वाली राजस्थान और उत्तराखंड की अमृता देवी और गौरा देवी सरीखी महिलाओं का अनुसरण करनेवाले लोग नहीं हैं, जिन्होंने नारे दिए थे कि ये जंगल के पेड़ हमारे पुरखे हैं, हमारे मायके जैसे हैं, हम इन्हें कटने नहीं देंगे। इन पर कुल्हाड़ी चलानी है तो पहले हम पर चलाओ।
क्या हम इतना भर कर सकते हैं कि इन तमाम पेड़ों को अपनी तरह मनुष्य समझें? यह मानें कि इनका होना हमारे सिर पर अपने किसी आत्मीय बुजुर्ग का साया जैसा है? ये तो हमसे किसी तरह की संभाल की मांग भी नहीं करते। मिट्टी, पानी, हवा और धूप पर चुपचाप पलते रहते हैं, पृथ्वी पर हमारी तमाम नृशंसताओं के बीच हमें ढोते हुए। इसलिए आधुनिक जीवन के बीच हम इतना तो कर ही सकते हैं कि लोगों को यह बात समझाएं कि कोई पेड़ मरना नहीं चाहता।
उसे भी हमारी तरह ही जीने का अधिकार है। उसे मत मारो। उसे काटने से पहले दस बार, बीस बार, हजार बार सोचिए क्योंकि वह तो जिबह के लिए जाती किसी असहाय मुर्गी की तरह विलाप भी नहीं कर सकता।
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