प्राचीन समय से ही भारतीय समाज पेड़-पौधों के माध्यम से विभिन्न रोगों का घरेलू उपचार करता रहा है। आज भी अनेक रोगों के उपचार में अनेक पेड़-पौधों एवं उनके विभिन्न उत्पादों का प्रयोग सर्वविदित है। इस लेख के माध्यम से ऐसे ही कुछ महत्त्वपूर्ण पेड़-पौधों की जानकारी दी जा रही है।भारतवर्ष में 45 हजार से भी अधिक पादप प्रजातियाँ पाई जाती हैं। भारतीय चिकित्सा शास्त्र की प्राचीन आयुर्वेदिक पद्धति मुख्यतः पेड़-पौधों पर ही आधारित है। चरक संहिता एवं सुश्रुत संहिता सहित अनेक आयुर्वेदिक ग्रन्थों में जहाँ एक ओर स्वस्थ जीवन जीने के लिए अनेक सुझाव दिए गए हैं वहीं दूसरी ओर विभिन्न पेड़-पौधों का उल्लेख भी किया गया है। आजकल एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति से निराश हो चुके लोग पुनः आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति को अपना रहे हैं। आज एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति दिन-प्रतिदिन विकास की ओर तो अग्रसर है लेकिन साथ ही साथ इस पद्धति के अनेक दुष्प्रभाव भी सामने आ रहे हैं। शायद इसीलिए विदेशों में भी बड़ी संख्या में लोग आयुर्वेदिक उपचार में अपनी रुचि दिखा रहे हैं।
प्राचीन समय से ही भारतीय समाज पेड़-पौधों के माध्यम से विभिन्न रोगों का घरेलू उपचार करता रहा है। आज भी अनेक रोगों के उपचार में नीम, नीम्बू, बेल, तुलसी, हल्दी, हींग, अदरक, लहसुन, जीरा, सौंफ एवं काली मिर्च सहित अनेक पेड़-पौधों एवं उनके विभिन्न उत्पादों का प्रयोग किया जाता है। लेकिन इनके अतिरिक्त भी अनेक पेड़-पौधों ऐसे हैं जिनके औषधीय गुणों की अधिक जानकारी आम जनता को नहीं है। लेख के माध्यम से ऐसे ही कुछ महत्त्वपूर्ण पेड़-पौधों की जानकारी दी जा रही है। इनमें से अनेक पेड़-पौधे तो हमारे आसपास ही मौजूद हैं।
यह वनस्पति जगत के एपोसाइनेसी कुल का सदस्य है तथा इसका वानस्पतिक नाम रौवांल्फिया सर्पेंटाइना है। यह पौधा भारत, मध्य एवं दक्षिणी अमेरिका, अफ्रीका, श्रीलंका, चीन, जापान, मलेशिया एवं जावा में मुख्य रूप से पाया जाता है। इसकी जड़ों से तैयार की गई विभिन्न औषधियों का प्रयोग उच्च रक्तचाप को कम करने, अनियमित हृदय गति को ठीक करने, विभिन्न चर्म रोगों, जैसे- छाले, खुजली, अधिक पसीना आना तथा अनिद्रा व मानसिक विकार को दूर करने के लिए किया जाता है। इसके अतिरिक्त इस पौधे की जड़ें विषैले कीट-पतंगों के काटने पर प्रतिविष के रूप में, ज्वरनाशी के रूप में एवं पेचिश में एक गुणकारी औषधि के रूप में भी उपयोगी सिद्ध हुई हैं।
यह पौधा सोलेनेसी कुल का सदस्य है तथा इसका वानस्पतिक नाम वीथेनिया सोमनीफेरा है। इस पौधे का उल्लेख लगभग सभी प्राचीन आयुर्वेदिक ग्रन्थों में मिलता है। इसके जंगली पौधों एवं उगाए गए पौधों के आकार-प्रकार में थोड़ा-बहुत अन्तर होता है। जंगली पौधा लगभग एक मीटर लम्बा होता है। अश्वगन्धा शारीरिक दुर्बलता को दूर कर शरीर को हृष्ट-पुष्ट एवं बलवान बनाता है। यह एक प्रमुख बाजीकरण औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है।
अश्वगन्धा का उपयोग गठिया के दर्द, जोड़ों की सूजन एवं फालिज के उपचार में भी किया जाता है। इस पेड़ की पत्तियाँ शीघ्र घाव भरने एवं त्वचा सम्बन्धी रोगों को ठीक करने में अपनी प्रमुख भूमिका निभाती हैं। इसके अतिरिक्त अनेक मानसिक रोगों की औषधियाँ बनाने में भी अश्वगन्धा का प्रयोग किया जाता है।
इस पौधे का अंग्रेजी नाम क्यूनीन एवं वानस्पतिक नाम सिनकोना केलीसाया है। यह रूबिएसी कुल का सदस्य है। भारत में यह पौधा मुख्य रूप से पश्चिम बंगाल, दक्षिण भारत, सिक्किम, मध्य प्रदेश तथा कुछ पर्वतीय क्षेत्रों में पाया जाता है। कुनैन मलेरिया के उपचार हेतु एक जानी-मानी औषधि है। हालाँकि इस पौधे को हिन्दी में कुनैन एवं अंग्रेजी में क्यूनीन कहते हैं लेकिन इस पौधे की छाल से निकलने वाले सफेद एवं दानेदार पदार्थ को भी क्यूनीन ही कहा जाता है। क्यूनीन नामक इस सफेद एवं दानेदार पदार्थ का उपयोग ही मलेरिया की औषधि बनाने में किया जाता है। इसके अतिरिक्त इस पौधे की छाल से लगभग 29 एल्केलाइड्स निकाले जाते हैं। इन एल्केलाइड्स का प्रयोग विभिन्न औषधियों के निर्माण में किया जाता है।
यह पेड़ मुख्य रूप से उत्तर एवं दक्षिण भारत में पाया जाता है। इसका वानस्पतिक नाम माइमूसोप्स इलंगी है। यह वनस्पति जगत के सेपोटेसी कुल का सदस्य है। इसकी छाल स्तम्भक एवं बलवर्धक है। इसका काढ़ा नजला, जुकाम, दाँतों एवं मूत्राशय सम्बन्धी रोगों के लिए लाभदायक है। इसका उपयोग बुखार के उपचार में भी किया जाता है।
आमतौर पर लोग इस वृक्ष को एक सजावटी वृक्ष के रूप में जानते हैं। लेकिन इस पौधे के औषधीय गुण भी कुछ कम नहीं हैं। इस वृक्ष का वानस्पतिक नाम सारेका इण्डिका है। यह सीजलपीनिएसी कुल का सदस्य है। इसकी छाल का उपयोग स्तंभक के रूप में किया जाता है। इसका काढ़ा मुख्य रूप से पेचिश, बवासीर, अतिरजःस्राव एवं श्वेतप्रदर में लाभदायक है। इसके सूखे हुए फूल मधुमेह के रोगियों के लिए लाभदायक हैं। केरल में इसके सूखे हुए फूलों का उपयोग मुख्य रूप से किया जाता है।
यह वनस्पति जगत के कोम्ब्रीटेसी कुल का सदस्य है। इसका वानस्पतिक नाम टरमीनेलिया अर्जुन है। अर्जुन हृदय रोग की एक अचूक औषधि है। अर्जुन की छाल हृदय रोगों के साथ-साथ बुखार एवं घाव भरने में भी लाभदायक है। इसके काढ़े से घाव को साफ किया जाता है। इसके अतिरिक्त अर्जुन की छाल पथरी को गलाने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।
घीक्वार सम्पूर्ण भारतवर्ष में पाया जाता है। यह लिलिएसी कुल का सदस्य है तथा इसका वानस्पतिक नाम एलोय बारबिडेंसीस है। घीक्वार, मुख्यतः बुखार, जिगर एवं प्लीहा के बढ़ने, त्वचा सम्बन्धी रोगों, कब्ज, बवासीर, पीलिया, सूजाक, मासिक धर्म सम्बन्धी रोगों, गठिया तथा जलोदर में अत्यन्त लाभकारी है। जिगर एवं प्लीहा सम्बन्धी रोगों में पत्तियों के गूदे को काले नमक तथा अदरक के साथ मिलाकर रोगी को दिया जाता है। इसकी पत्तियों के रस को शहद के साथ मिलाकर लेने से सर्दी एवं जुकाम में शीघ्र लाभ होता है। यदि बच्चों के पेट में कीड़े हों तो भी इसकी पत्तियों का रस लाभदायक होता है।
यह क्रेसुलेसी कुल का सदस्य है तथा इसका वानस्पतिक नाम ब्रायोफीलम पिन्नेटम है। यह पौधा भी सम्पूर्ण भारतवर्ष में पाया जाता है। इसकी पत्तियों का रस आँव, पेचिश, खूनी पेचिश, पथरी तथा हैजे में दिया जाता है। इसकी पत्तियाँ स्तम्भक तथा एण्टीसेप्टिक होती हैं। इसकी पत्तियाँ जलने, कटने, जहरीले कीट-पतंगों के काटने तथा विभिन्न प्रकार के घावों के लिए बहुत ही उपयोगी हैं। गरम एवं भूनी हुई पत्तियों को प्रभावित स्थान पर लगाने से सूजन, दर्द एवं जलन कम होती है एवं घाव शीघ्र भरता है।
पीले फूलों वाला यह पेड़ सम्पूर्ण भारतवर्ष में पाया जाता है। इसमें फूल मुख्यतः अप्रैल-मई महीने के आसपास खिलते हैं। इस समय अमलतास का सम्पूर्ण वृक्ष फूलों से लद जाता है। यह सीजलपीनिएसी कुल का सदस्य है तथा इसका वानस्पतिक नाम केसिआ फिसटूला है। इसकी फली में अनेक औषधीय गुण मौजूद हैं। यह एक सुरक्षित पेट साफ करने वाली औषधि है। यह मधुमेह में भी लाभदायक है। इसकी पत्तियों का रस दाद, गठिया एवं बाय में अत्यन्त उपयोगी है। इसकी जड़ ज्वररोधी टॉनिक का कार्य करती है।
यह पौधा भारतवर्ष के गर्म क्षेत्रों में पाया जाता है। कंघी मालवेसी कुल का सदस्य है तथा इसका वानस्पतिक नाम एब्यूटीलोन इण्डीकम है। इसकी पत्तियों का काढ़ा फेफड़ों की सूजन एवं सूजाक में लाभदायक है। खूनी बवासीर में इसकी पत्तियों को उबाल कर खाने से लाभ होता है। इस पौधे की जड़ें बुखार एवं कुष्ठ रोग में लाभदायक होती हैं। इसकी छाल स्तम्भक एवं मूत्रवर्धक है। कंघी के बीज जहाँ एक ओर कामोधीपक औषधि के रूप में कार्य करते हैं वहीं दूसरी ओर खाँसी में भी लाभदायक हैं।
आमतौर पर लोग सदाबहार को एक सजावटी पौधे के रूप में ही जानते हैं। लेकिन इस पौधे में अनेक औषधीय गुण भी मौजूद हैं। सदाबहार एपोसाइनेसी कुल का सदस्य है तथा इसका वानस्पतिक नाम केथेरेन्थस रोजियस है। इस पौधे में अनेक एल्केलाइड्स पाए जाते हैं। ये एल्केलाइड्स कुछ रोगों में जीवाणुरोधी की तरह कार्य करते हैं। यह पौधा दक्षिण अफ्रीका, श्रीलंका एवं भारत के कुछ भागों में मधुमेह की औषधि के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। जहरीले कीट-पतंगों के काटने पर सदाबहार की पत्तियों का रस लगाने से आराम मिलता है।
यह पौधा सम्पूर्ण भारतवर्ष में पाया जाता है। मकोय सोलेनेसी कुल का सदस्य है तथा इसका वानस्पतिक नाम सोलेनम निग्रम है। इसका काढ़ा जलोदर, लीवर के बढ़ने तथा पीलिया में लाभदायक है। यह कफ बाहर निकालने में भी सहायता करता है। इसकी पत्तियों का रस गुर्दे एवं मूत्राशय की सूजन, सूजाक, हृदय सम्बन्धी रोग, बवासीर एवं तिल्ली के बढ़ने में उपयोगी है। अण्डकोष की सूजन एवं दर्द में इसकी पत्तियों को गर्म करके लगाने से आराम मिलता है।
यह एमेरेन्थेसी कुल का सदस्य है तथा इसका वानस्पतिक नाम एकाइरेन्थस एस्पेरा है। चिरचिटा बवासीर, पेटदर्द एवं जले में लाभदायक है। यह पेट साफ करने तथा मूत्र लाने वाले औषधि के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है। इसकी जड़ें पायरिया, बुखार एवं खाँसी में भी लाभदायक हैं। चिरचिटा सड़कों के किनारे सम्पूर्ण भारतवर्ष में पाया जाता है।
यह यूफोरबिएसी कुल का सदस्य है तथा इसका वानस्पतिक नाम रिसिनस कोम्यूनिस है। अरण्ड के बीज से तेल निकाला जाता है। इस तेल में ही अनेक औषधीय गुण मौजूद होते हैं। यह पेचिश एवं कब्ज़ दोनों में समान रूप से उपयोगी है। अरण्ड का तेल आँख के रोगों में भी लाभदायक है। इसकी पत्तियों का लेप सिरदर्द एवं जले में उपयोगी होता है।
पान में भी अनेक औषधीय गुण मौजूद हैं। यह पाइपेरेसी कुल का सदस्य है तथा इसका वानस्पतिक नाम पाइपर बेटल है। शहद के साथ इसकी पत्तियों का रस बच्चों में अपच, पेट दर्द एवं पेचिश जैसे रोगों के लिए लाभकारी है। इसके अतिरिक्त पान की पत्तियों का रस आँख के रोगों, सर्दी, जुकाम एवं श्वास सम्बन्धी रोगों में भी उपयोगी है इसकी पत्तियाँ घाव एवं विभिन्न प्रकार के फफोलों को शीघ्र ठीक करती हैं।
यह पौधा मुख्य रूप से उत्तर भारत एवं आन्ध्र प्रदेश में पाया जाता है। आक एसक्लीपिएडेसी कुल का सदस्य है तथा इसका वानस्पतिक नाम केलोट्रोपिस प्रोसेरा है। जहाँ एक ओर इसकी पत्तियाँ जलोदर, दमे एवं खाँसी में लाभकारी हैं वहीं दूसरी ओर इसकी पत्तियों का रस चर्म रोगों में उपयोगी है। आक के पौधे से निकला लेटेक्स कोढ़ एवं गठिया जैसे रोग को ठीक करने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। इसके फूल पाचन क्रिया को तो ठीक करते ही हैं साथ ही सर्दी, जुकाम एवं दमे में भी उपयोगी हैं।
यह मुख्यतः ऑस्ट्रेलिया का पौधा है लेकिन यूकेलिप्टस के वृक्ष भारत में भी बड़ी संख्या में उगाए जाते हैं। यूकेलिप्टस माइरटेसी कुल का सदस्य है तथा इसका वानस्पतिक नाम यूकेलिप्टस गलोब्यूलस है। इसकी पत्तियों से एक प्रकार का तेल निकाला जाता है। यह तेल गठिया, जुकाम, दमा एवं अनेक श्वास सम्बन्धी रोगों में उपयोगी है। इसकी जड़ें पेट साफ करने वाली औषधि के रूप में प्रयोग की जाती हैं।
प्राचीन समय से ही भारतीय समाज पेड़-पौधों के माध्यम से विभिन्न रोगों का घरेलू उपचार करता रहा है। आज भी अनेक रोगों के उपचार में नीम, नीम्बू, बेल, तुलसी, हल्दी, हींग, अदरक, लहसुन, जीरा, सौंफ एवं काली मिर्च सहित अनेक पेड़-पौधों एवं उनके विभिन्न उत्पादों का प्रयोग किया जाता है। लेकिन इनके अतिरिक्त भी अनेक पेड़-पौधों ऐसे हैं जिनके औषधीय गुणों की अधिक जानकारी आम जनता को नहीं है। लेख के माध्यम से ऐसे ही कुछ महत्त्वपूर्ण पेड़-पौधों की जानकारी दी जा रही है। इनमें से अनेक पेड़-पौधे तो हमारे आसपास ही मौजूद हैं।
सर्पगन्धा
यह वनस्पति जगत के एपोसाइनेसी कुल का सदस्य है तथा इसका वानस्पतिक नाम रौवांल्फिया सर्पेंटाइना है। यह पौधा भारत, मध्य एवं दक्षिणी अमेरिका, अफ्रीका, श्रीलंका, चीन, जापान, मलेशिया एवं जावा में मुख्य रूप से पाया जाता है। इसकी जड़ों से तैयार की गई विभिन्न औषधियों का प्रयोग उच्च रक्तचाप को कम करने, अनियमित हृदय गति को ठीक करने, विभिन्न चर्म रोगों, जैसे- छाले, खुजली, अधिक पसीना आना तथा अनिद्रा व मानसिक विकार को दूर करने के लिए किया जाता है। इसके अतिरिक्त इस पौधे की जड़ें विषैले कीट-पतंगों के काटने पर प्रतिविष के रूप में, ज्वरनाशी के रूप में एवं पेचिश में एक गुणकारी औषधि के रूप में भी उपयोगी सिद्ध हुई हैं।
अश्वगन्धा
यह पौधा सोलेनेसी कुल का सदस्य है तथा इसका वानस्पतिक नाम वीथेनिया सोमनीफेरा है। इस पौधे का उल्लेख लगभग सभी प्राचीन आयुर्वेदिक ग्रन्थों में मिलता है। इसके जंगली पौधों एवं उगाए गए पौधों के आकार-प्रकार में थोड़ा-बहुत अन्तर होता है। जंगली पौधा लगभग एक मीटर लम्बा होता है। अश्वगन्धा शारीरिक दुर्बलता को दूर कर शरीर को हृष्ट-पुष्ट एवं बलवान बनाता है। यह एक प्रमुख बाजीकरण औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है।
अश्वगन्धा का उपयोग गठिया के दर्द, जोड़ों की सूजन एवं फालिज के उपचार में भी किया जाता है। इस पेड़ की पत्तियाँ शीघ्र घाव भरने एवं त्वचा सम्बन्धी रोगों को ठीक करने में अपनी प्रमुख भूमिका निभाती हैं। इसके अतिरिक्त अनेक मानसिक रोगों की औषधियाँ बनाने में भी अश्वगन्धा का प्रयोग किया जाता है।
कुनैन
इस पौधे का अंग्रेजी नाम क्यूनीन एवं वानस्पतिक नाम सिनकोना केलीसाया है। यह रूबिएसी कुल का सदस्य है। भारत में यह पौधा मुख्य रूप से पश्चिम बंगाल, दक्षिण भारत, सिक्किम, मध्य प्रदेश तथा कुछ पर्वतीय क्षेत्रों में पाया जाता है। कुनैन मलेरिया के उपचार हेतु एक जानी-मानी औषधि है। हालाँकि इस पौधे को हिन्दी में कुनैन एवं अंग्रेजी में क्यूनीन कहते हैं लेकिन इस पौधे की छाल से निकलने वाले सफेद एवं दानेदार पदार्थ को भी क्यूनीन ही कहा जाता है। क्यूनीन नामक इस सफेद एवं दानेदार पदार्थ का उपयोग ही मलेरिया की औषधि बनाने में किया जाता है। इसके अतिरिक्त इस पौधे की छाल से लगभग 29 एल्केलाइड्स निकाले जाते हैं। इन एल्केलाइड्स का प्रयोग विभिन्न औषधियों के निर्माण में किया जाता है।
मौलसरी
यह पेड़ मुख्य रूप से उत्तर एवं दक्षिण भारत में पाया जाता है। इसका वानस्पतिक नाम माइमूसोप्स इलंगी है। यह वनस्पति जगत के सेपोटेसी कुल का सदस्य है। इसकी छाल स्तम्भक एवं बलवर्धक है। इसका काढ़ा नजला, जुकाम, दाँतों एवं मूत्राशय सम्बन्धी रोगों के लिए लाभदायक है। इसका उपयोग बुखार के उपचार में भी किया जाता है।
अशोक
आमतौर पर लोग इस वृक्ष को एक सजावटी वृक्ष के रूप में जानते हैं। लेकिन इस पौधे के औषधीय गुण भी कुछ कम नहीं हैं। इस वृक्ष का वानस्पतिक नाम सारेका इण्डिका है। यह सीजलपीनिएसी कुल का सदस्य है। इसकी छाल का उपयोग स्तंभक के रूप में किया जाता है। इसका काढ़ा मुख्य रूप से पेचिश, बवासीर, अतिरजःस्राव एवं श्वेतप्रदर में लाभदायक है। इसके सूखे हुए फूल मधुमेह के रोगियों के लिए लाभदायक हैं। केरल में इसके सूखे हुए फूलों का उपयोग मुख्य रूप से किया जाता है।
अर्जुन
यह वनस्पति जगत के कोम्ब्रीटेसी कुल का सदस्य है। इसका वानस्पतिक नाम टरमीनेलिया अर्जुन है। अर्जुन हृदय रोग की एक अचूक औषधि है। अर्जुन की छाल हृदय रोगों के साथ-साथ बुखार एवं घाव भरने में भी लाभदायक है। इसके काढ़े से घाव को साफ किया जाता है। इसके अतिरिक्त अर्जुन की छाल पथरी को गलाने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।
घीक्वार
घीक्वार सम्पूर्ण भारतवर्ष में पाया जाता है। यह लिलिएसी कुल का सदस्य है तथा इसका वानस्पतिक नाम एलोय बारबिडेंसीस है। घीक्वार, मुख्यतः बुखार, जिगर एवं प्लीहा के बढ़ने, त्वचा सम्बन्धी रोगों, कब्ज, बवासीर, पीलिया, सूजाक, मासिक धर्म सम्बन्धी रोगों, गठिया तथा जलोदर में अत्यन्त लाभकारी है। जिगर एवं प्लीहा सम्बन्धी रोगों में पत्तियों के गूदे को काले नमक तथा अदरक के साथ मिलाकर रोगी को दिया जाता है। इसकी पत्तियों के रस को शहद के साथ मिलाकर लेने से सर्दी एवं जुकाम में शीघ्र लाभ होता है। यदि बच्चों के पेट में कीड़े हों तो भी इसकी पत्तियों का रस लाभदायक होता है।
ब्रायोफीलम
यह क्रेसुलेसी कुल का सदस्य है तथा इसका वानस्पतिक नाम ब्रायोफीलम पिन्नेटम है। यह पौधा भी सम्पूर्ण भारतवर्ष में पाया जाता है। इसकी पत्तियों का रस आँव, पेचिश, खूनी पेचिश, पथरी तथा हैजे में दिया जाता है। इसकी पत्तियाँ स्तम्भक तथा एण्टीसेप्टिक होती हैं। इसकी पत्तियाँ जलने, कटने, जहरीले कीट-पतंगों के काटने तथा विभिन्न प्रकार के घावों के लिए बहुत ही उपयोगी हैं। गरम एवं भूनी हुई पत्तियों को प्रभावित स्थान पर लगाने से सूजन, दर्द एवं जलन कम होती है एवं घाव शीघ्र भरता है।
अमलतास
पीले फूलों वाला यह पेड़ सम्पूर्ण भारतवर्ष में पाया जाता है। इसमें फूल मुख्यतः अप्रैल-मई महीने के आसपास खिलते हैं। इस समय अमलतास का सम्पूर्ण वृक्ष फूलों से लद जाता है। यह सीजलपीनिएसी कुल का सदस्य है तथा इसका वानस्पतिक नाम केसिआ फिसटूला है। इसकी फली में अनेक औषधीय गुण मौजूद हैं। यह एक सुरक्षित पेट साफ करने वाली औषधि है। यह मधुमेह में भी लाभदायक है। इसकी पत्तियों का रस दाद, गठिया एवं बाय में अत्यन्त उपयोगी है। इसकी जड़ ज्वररोधी टॉनिक का कार्य करती है।
कंघी
यह पौधा भारतवर्ष के गर्म क्षेत्रों में पाया जाता है। कंघी मालवेसी कुल का सदस्य है तथा इसका वानस्पतिक नाम एब्यूटीलोन इण्डीकम है। इसकी पत्तियों का काढ़ा फेफड़ों की सूजन एवं सूजाक में लाभदायक है। खूनी बवासीर में इसकी पत्तियों को उबाल कर खाने से लाभ होता है। इस पौधे की जड़ें बुखार एवं कुष्ठ रोग में लाभदायक होती हैं। इसकी छाल स्तम्भक एवं मूत्रवर्धक है। कंघी के बीज जहाँ एक ओर कामोधीपक औषधि के रूप में कार्य करते हैं वहीं दूसरी ओर खाँसी में भी लाभदायक हैं।
सदाबहार
आमतौर पर लोग सदाबहार को एक सजावटी पौधे के रूप में ही जानते हैं। लेकिन इस पौधे में अनेक औषधीय गुण भी मौजूद हैं। सदाबहार एपोसाइनेसी कुल का सदस्य है तथा इसका वानस्पतिक नाम केथेरेन्थस रोजियस है। इस पौधे में अनेक एल्केलाइड्स पाए जाते हैं। ये एल्केलाइड्स कुछ रोगों में जीवाणुरोधी की तरह कार्य करते हैं। यह पौधा दक्षिण अफ्रीका, श्रीलंका एवं भारत के कुछ भागों में मधुमेह की औषधि के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। जहरीले कीट-पतंगों के काटने पर सदाबहार की पत्तियों का रस लगाने से आराम मिलता है।
मकोय
यह पौधा सम्पूर्ण भारतवर्ष में पाया जाता है। मकोय सोलेनेसी कुल का सदस्य है तथा इसका वानस्पतिक नाम सोलेनम निग्रम है। इसका काढ़ा जलोदर, लीवर के बढ़ने तथा पीलिया में लाभदायक है। यह कफ बाहर निकालने में भी सहायता करता है। इसकी पत्तियों का रस गुर्दे एवं मूत्राशय की सूजन, सूजाक, हृदय सम्बन्धी रोग, बवासीर एवं तिल्ली के बढ़ने में उपयोगी है। अण्डकोष की सूजन एवं दर्द में इसकी पत्तियों को गर्म करके लगाने से आराम मिलता है।
चिरचिटा
यह एमेरेन्थेसी कुल का सदस्य है तथा इसका वानस्पतिक नाम एकाइरेन्थस एस्पेरा है। चिरचिटा बवासीर, पेटदर्द एवं जले में लाभदायक है। यह पेट साफ करने तथा मूत्र लाने वाले औषधि के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है। इसकी जड़ें पायरिया, बुखार एवं खाँसी में भी लाभदायक हैं। चिरचिटा सड़कों के किनारे सम्पूर्ण भारतवर्ष में पाया जाता है।
अरण्ड
यह यूफोरबिएसी कुल का सदस्य है तथा इसका वानस्पतिक नाम रिसिनस कोम्यूनिस है। अरण्ड के बीज से तेल निकाला जाता है। इस तेल में ही अनेक औषधीय गुण मौजूद होते हैं। यह पेचिश एवं कब्ज़ दोनों में समान रूप से उपयोगी है। अरण्ड का तेल आँख के रोगों में भी लाभदायक है। इसकी पत्तियों का लेप सिरदर्द एवं जले में उपयोगी होता है।
पान
पान में भी अनेक औषधीय गुण मौजूद हैं। यह पाइपेरेसी कुल का सदस्य है तथा इसका वानस्पतिक नाम पाइपर बेटल है। शहद के साथ इसकी पत्तियों का रस बच्चों में अपच, पेट दर्द एवं पेचिश जैसे रोगों के लिए लाभकारी है। इसके अतिरिक्त पान की पत्तियों का रस आँख के रोगों, सर्दी, जुकाम एवं श्वास सम्बन्धी रोगों में भी उपयोगी है इसकी पत्तियाँ घाव एवं विभिन्न प्रकार के फफोलों को शीघ्र ठीक करती हैं।
आक
यह पौधा मुख्य रूप से उत्तर भारत एवं आन्ध्र प्रदेश में पाया जाता है। आक एसक्लीपिएडेसी कुल का सदस्य है तथा इसका वानस्पतिक नाम केलोट्रोपिस प्रोसेरा है। जहाँ एक ओर इसकी पत्तियाँ जलोदर, दमे एवं खाँसी में लाभकारी हैं वहीं दूसरी ओर इसकी पत्तियों का रस चर्म रोगों में उपयोगी है। आक के पौधे से निकला लेटेक्स कोढ़ एवं गठिया जैसे रोग को ठीक करने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। इसके फूल पाचन क्रिया को तो ठीक करते ही हैं साथ ही सर्दी, जुकाम एवं दमे में भी उपयोगी हैं।
यूकेलिप्टस
यह मुख्यतः ऑस्ट्रेलिया का पौधा है लेकिन यूकेलिप्टस के वृक्ष भारत में भी बड़ी संख्या में उगाए जाते हैं। यूकेलिप्टस माइरटेसी कुल का सदस्य है तथा इसका वानस्पतिक नाम यूकेलिप्टस गलोब्यूलस है। इसकी पत्तियों से एक प्रकार का तेल निकाला जाता है। यह तेल गठिया, जुकाम, दमा एवं अनेक श्वास सम्बन्धी रोगों में उपयोगी है। इसकी जड़ें पेट साफ करने वाली औषधि के रूप में प्रयोग की जाती हैं।
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