‘पर्यावरण वाले मास्साब’ सुरईखेत क्षेत्र इलाके में उन्हें इसी नाम से जाना जाता है, उनका असली नाम ‘मोहन चन्द्र कांडपाल’ है और ‘आदर्श इंटर कॉलेज, सुरईखेत’ में रसायन शास्त्र पढ़ाते हैं। रसायन शास्त्र विभिन्न यौगिकों के सम्मिश्रण से उत्पन्न होने वाली प्रतिक्रियाओं के अध्ययन का विज्ञान है। लेकिन ‘पर्यावरण वाले मास्साब’ ने इन निरपेक्ष रसायनों पर कोई नया प्रयोग करने के बजाय समाज विज्ञान के क्लिष्ट यौगिकों की तलाश कर एक ऐसे प्रयोग की आधारशिला रखी है, जो उत्तराखंड जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर आश्रित समाज और योजनाकारों को नई दिशा देने वाला है।
‘पर्यावरण वाले मास्साब’ उत्तराखंड की ग्रामीण अर्थव्यवस्था की धूरी महिलाओं को केंद्र बनाकर प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन और सामाजिक जागरूकता का ऐसा अभियान संचालित कर रहे हैं जो अल्मोड़ा जिले के द्वाराहाट और भिकियासैंण विकास खंडों के 44 गांव में खासी लोकप्रियता हासिल कर चुका है। द्वाराहाट और भिकियासैंण के बिठोली, बजीना, कसखेत, सिलंग, कांडे, बेढूली, बाजन, बयेड़ा, मटेला, सनडे, ढुंगा, नौरी आदि 44 गांव में 13 साल पहले मोहन कांडपाल ने इस अभियान की नींव रखी।वे कहते हैं कि आमतौर पर गांवों से संबंधित समस्याओं और निर्णयों पर महिलाओं की कोई राय नहीं दी जाती। इस परंपरा को उलटने के लिए सुरईखेत के आस-पास के गांव में उनकी पहल पर महिला मंगल दलों के गठन का कार्य आरंभ हुआ। वह महिला मंगल दल आज इतने सशक्त बन चुके हैं, इनकी सहमति के बिना गांव से संबंधित कोई भी निर्णय नहीं लिया जाता।
महिलाओं की यह चेतना केवल राजनीतिक और सामाजिक जागरूकता के रूप में ही उजागर नहीं हो रही, बल्कि वनों के प्रबंधन, जल संरक्षण, शराबबंदी और त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था में भी महिलाएं बढ़-चढ़कर भागीदारी के रूप में भी सामने आ रही हैं। इस बार में पंचायत चुनाव में महिला मंगल दलों को खासी सफलता हाथ लगी है ग्राम प्रधान और क्षेत्र पंचायत सदस्यों के रूप में तो वे चुनी गई हैं। मंगल दलों की एकता ने ग्राम पंचायत चुनाव में मुख्य भूमिका निभाने वाली परंपरागत गुटबाजी और जातिवाद की हदें भी तोड़ दी और प्रत्येक गांव में महिलाओं का एक अलग धड़ा बनकर उभरा है।
महिला मंगल दलों की चेतना का सबसे उल्लेखनीय पक्ष प्राकृतिक संसाधनों के विवेकपूर्ण दोहन और संरक्षण के विधियां स्थापित करने के रूप में सामने आया है। सुरईखेत और जालली क्षेत्र में चारों ओर चीड़ का साम्राज्य है। चीड़ की प्रवृत्ति के अनुरूप वनों में घास, चारा प्रजाति के वृक्ष और झाड़ियों की अत्यधिक कमी है। जलस्रोत कम हैं और निरंतर छीजते जा रहे हैं। इन समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए गांव के वन क्षेत्र में उपलब्ध चारा तथा ईंधन की मात्रा और पानी की उपलब्धता के अनुरूप इनके उपयोग और संरक्षण के लिए महिला मंगल दलों ने आपसी सहमति से अनेक नियम बनाए हैं।
बिठोली गांव में चारा, इंधन और पीने के पानी की घोर समस्या है। पानी की मांग को लेकर कई उग्र आंदोलन क्षेत्र में हो चुके हैं। मोहन कांडपाल बताते हैं कि ‘महीनों के आंदोलन से भी जब समस्या नहीं सुलझी तो उन्होंने गांव में उपलब्ध चारा, इंधन और पानी के विवेकपूर्ण इस्तेमाल और उपलब्धता बढ़ाने के प्रयासों के लिए महिलाओं को प्रेरित किया। आज बिठोली में मुक्त चराई पर रोक है। इनसे जंगल में घास की मात्रा और गुणवत्ता बड़ी है। अनुत्पादक मवेशियों की संख्या घटी है। जल स्रोतों में पानी की मात्रा बढ़ाने के लिए 210 खालों का निर्माण किया गया है। ग्राम पंचायत ने भी जवाहर रोजगार योजना के अंतर्गत खालों का निर्माण शुरू किया है। नौलों पर ताले लगा देते हैं, जो दिन में एक बार खुलते हैं और प्रत्येक परिवार को बराबर पानी बांटा जाता है। इसी प्रकार प्रत्येक परिवार से केवल एक व्यक्ति को चारा या ईंधन लेने जंगल जाने की इजाजत है। और वन क्षेत्र के प्रवेश द्वार पर तराजू लगाया गया है कि कोई भी निर्धारित मात्रा 30 किलो से अधिक घास और लकड़ी न ला सके। बिठोली जैसे ही नियम क्षेत्र के अन्य गांवों में भी अस्तित्व में हैं। जिन गांव में आवश्यकता से अधिक चारा और ईंधन है, उसे अन्य गांवों को बेचकर पैसा महिला मंगल दलों के खाते में जमा कर दिया जाता है। वन उत्पादों की उपलब्धता बढ़ाने के लिए महिला मंगल दलों द्वारा गांव के आसपास की वृक्षविहीन पहाड़ियों, वन पंचायत, ग्राम पंचायत और निजी भूमि पर बांज के जंगल उगाने के प्रयास किए जा रहे हैं।
मोहन कांडपाल बताते हैं कि क्षेत्र में 18 गांव में अब तक करीब 25 हजार पेड़ लगाए गए हैं। कितने पेड़ों की सुरक्षा और देखभाल संभव है, इसका आकलन करने के बाद ही नर्सरी में पौध तैयार की जाती हैं। बांज के अलावा अब भीमल, खड़िक, आंवला, बांस, बुरांश. काफल के पौधों का भी रोपण किए जाने लगा है। महिला मंगल दल शिलिंग की अध्यक्ष हीरा नेगी कहती हैं ‘अन्य पौधों का रोपण इसलिए किया जाए ताकि वह बांज के तैयार हो रहे वनों पर संभावित दबाव को कम किया जा सके।’ महिलाओं की यह मेहनत हरियाली के द्वीपों की तरह दूर से ही दिखाई देने लगती है।
आमतौर पर अध्यापक स्कूल की गतिविधियों तक ही सीमित रहते हैं लेकिन आपने सामाजिक कार्य कठिन रास्ता कैसे चुना? मोहन चन्द्र कांडपाल कहते हैं कि कानपुर में एमएससी करने के दौरान 1984 में छुट्टियां बिताने घर आया। उन दिनों ‘नशा नहीं रोजगार दो’ आंदोलन चरम पर था। मुझ पर इस आंदोलन का गहरा असर पड़ा। मुझे लगा कि कुछ करना चाहिए, पर क्या करना चाहिए, मैं तय नहीं कर पा रहा था। जब मैं ‘आदर्श इंटर कॉलेज, सुरईखेत” में अध्यापक नियुक्त होकर ‘उत्तराखंड सेवा निधि’ के संपर्क में आया, तब महिलाओं के संगठन तैयार करने का काम शुरू किया। धीरे-धीरे यह मुहिम वन और पानी के संरक्षण तक जा पहुंची। फिर एक दौर ऐसा भी आया जब महिलाएं शराबबंदी और गांव की समस्याओं के लिए खुद के दम पर आंदोलन करने लगीं। अब तो गांव में महिला मंगल दलों की सहमति के बिना कोई भी निर्णय नहीं लिया जाता। वे कहते हैं कि शुरू में पुरुषों को यह नागवार गुजरा। उन्होंने महिलाओं को हतोत्साहित भी किया। लेकिन जल्दी ही यह सच्चाई स्वीकार कर महिला मंगल दलों को भरपूर सहयोग दे रहे हैं। उनका लक्ष्य अपने कार्य क्षेत्र को एक मॉडल की तरह विकसित करने का है। ताकि उत्तराखंड के अन्य क्षेत्रों के लिए इलाका प्रेरणास्रोत का काम करें। राज्य के योजनाकर जमीनी प्रयोगों के आधार पर उत्तराखंड के लिए ऐसी योजनाएं बनाएं। जिनसे हरियाली का आवरण तो बढ़े ही, साथ ही स्थानीय लोगों को वनाधारित आजीविका भी बनी रहे।
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