सरकार को बुन्देलखण्ड में सूखे की समस्या से निपटने के लिये पुराने तालाबों व अन्य जल संग्रह माध्यमों का पुनरुद्धार करना चाहिए था लेकिन उसने नए जल संरक्षण ढाँचे बनाने में ही 15,000 करोड़ रुपए खर्च कर दिए।
![मध्य प्रदेश के उमरिया जिले के बाजाकुंड गाँव में खाई से पानी निकालती महिला](https://c2.staticflickr.com/9/8701/28259066361_d9c6601bc6.jpg)
मानवती मध्य भारत के बुन्देलखण्ड इलाके की अनेक महिलाओं में से एक हैं। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के 13 जिलों से मिलकर बने इस इलाके की महिलाओं को पानी के लिये रोज ऐसा ही संघर्ष करना होता है। उनका गाँव उत्तर प्रदेश के महोबा जिले में पड़ता है। यह इलाका हमेशा से पानी की कमी का शिकार रहा है लेकिन पिछले कुछ दशक में यहाँ हालात बद से बदतर हो चले हैं। मानवती का पति महोबा में दैनिक मजदूर का काम करता है। उनके ससुर लाल चतुर्वेदी के पास तीन हेक्टेयर जमीन है लेकिन पिछले दो साल से वहाँ खेती नहीं हो सकी है क्योंकि इसके लिये पर्याप्त पानी नहीं है। उन्होंने तीन साल पहले ट्रैक्टर खरीदने के लिये कर्ज लिया था लेकिन वह पिछले साल से एक लाख रुपये की सालाना किश्त नहीं जमा कर पाए हैं। बैंक ने उनके घर रिकवरी एजेंट भेजने शुरू कर दिए हैं जो बदतमीजी करते हैं। परिवार इस बात को लेकर चिंतित है कि कहीं चतुर्वेदी आत्महत्या न कर लें। आधिकारिक आँकड़ों के मुताबिक जून 2015 से मार्च 2016 के दरमियान 27 किसानों ने आत्महत्या की है।
![. .](https://c4.staticflickr.com/9/8574/28259066091_e71a48a431.jpg)
कबराई में ही रहने वाले एक सेवानिवृत्त बैंक अधिकारी यू. एन. तिवारी कहते हैं कि यहाँ जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत चलती है। पानी के टैंकर आते ही लूट लिये जाते हैं। पिछली बार तिवारी केवल तीन बाल्टी पानी हासिल कर सके थे, वह भी इसलिये क्योंकि पानी पुलिस के संरक्षण में बाँटा गया था। उनको पूरे चार दिन इन तीन बाल्टी पानी के दम पर काटने पड़े। उनकी पत्नी मॉनसून के आने तक अपने बच्चों के पास भोपाल चली गई हैं।
स्थायी संकट
पिछले 15 सालों में बुन्देलखण्ड में 13वीं बार सूखा पड़ा है लेकिन हालत हमेशा ऐसी नहीं थी। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक 18वीं और 19वीं सदी में इस क्षेत्र में 16 साल में एक बार सूखा पड़ता था। सन 1968 से 1992 के बीच सूखे की आवृत्ति बढ़ती चली गई। इस अवधि में हर पाँच साल में एक बार सूखा पड़ता गया। वर्ष 2004 और 2008 के बीच लगातार चार बार पड़े सूखे ने इस क्षेत्र को संकट में डाल दिया। वर्ष 2013 को छोड़ दिया जाए तो 2009 से 2015 के बीच हर साल मॉनसून कमजोर रहा है। महोबा स्थित गैर सरकारी संगठन ग्रामोन्नति संस्थान के परियोजना समन्वयक राजेंद्र निगम कहते हैं कि वर्ष 2013 में भी फरवरी में अतिरिक्त वर्षा हुई थी और भारी बारिश ने रबी और खरीफ की 60 फीसदी फसल नष्ट कर दी थी।
![पानी की कमी ने उत्तर प्रदेश के महोबा जिले में एक नए व्यवसाय को जन्म दे दिया है](https://c7.staticflickr.com/9/8647/28303755286_43eeeffa2a.jpg)
उत्तर प्रदेश के महोबा जिले में पानी की कमी ने एक नए कारोबार को जन्म दे दिया है। यहाँ कुएँ से पानी खींचकर घरों तक पहुँचाया जा रहा है।
लगातार पड़ रहे सूखे के कारण बहुत बड़ी आबादी यहाँ से दूसरे शहरों में चली गई है। कृषि से आजीविका सुनिश्चित न कर पाने के कारण किसान शहरों में मजदूरी करने पर मजबूर हैं। बांदा के स्वयंसेवी संगठन प्रवास से जुड़े आशीष सागर कहते हैं कि वर्ष 2015 के पोलियो उन्मूलन अभियान के दौरान लगाए गए सरकारी अनुमानों के मुताबिक पिछले 15 साल में करीब 62 लाख लोग बुन्देलखण्ड छोड़कर गए हैं। वह इस रिपोर्ट को तैयार करने की प्रक्रिया में शामिल रहे हैं।
लगातार पड़ रहे सूखे का एक और प्रभाव आवारा छोड़ दिए गए पशुओं के रूप में सामने आया है। चारा नहीं जुटा पाने के कारण किसान पशुओ को यूँ ही खुला छोड़ देते हैं। समूचे बुन्देलखण्ड क्षेत्र को लेकर कोई आँकड़ा तो उपलब्ध नहीं है लेकिन अकेले चित्रकूट में 3.6 लाख पालतू पशु आवारा घूम रहे हैं। यह पूरे क्षेत्र के पशुओं का 20 फीसदी है। महोबा के अजीमिका जिले की 38 वर्षीय भौरी देवी को श्रमिक के रूप में काम करना पड़ा क्योंकि इस वर्ष आवारा पशुओं ने उनकी फसल चौपट कर दी। उन्होंने चार हेक्टेयर में से आधे हेक्टेयर पर गेहूँ बोया था क्योंकि सिंचाई के लिये पर्याप्त पानी उपलब्ध नहीं है। वह कहती हैं कि खेती में 50,000 रुपये कर्ज लेकर लगाए थे जिसे अब चुकाना होगा। हालात इतने खराब हैं कि अजनार की ग्राम प्रधान सरोज द्विवेदी हालिया पंचायत चुनावों में इस वादे पर जीत गईं कि वे खेतों को आवारा पशुओं से बचाएंगी। इन इलाकों में जीत का अंतर प्राय: 50 वोट तक रहता है लेकिन वह 1600 वोट से जीतीं। इलाके की बड़ी काश्तकार सरोज कहती हैं,
“चुनाव प्रचार के दौरान ही मेरे पति ने ऐसे 500 पशुओं का ध्यान रखना शुरू कर दिया था और लोगों ने हमारे लिये जमकर मतदान किया।”
न भूलने वाली बर्बादी
![. .](https://c7.staticflickr.com/9/8640/28303755526_7e5d6786bc.jpg)
आखिर बुन्देलखण्ड सूखे से निपटने में क्यों नाकाम रहा इसका उत्तर उन जल संरक्षण ढाँचों में निहित है जो यहाँ बनाए गए। इनमेंं से अधिकांश या तो तकनीकी खामियों के शिकार हैं या परिस्थिति के अनुकूल नहीं हैं। उदाहरण के लिये साकरिया जलाशय की बात करें तो 40 हेक्टेयर में फैला यह जलाशय मध्य प्रदेश के पन्ना जिले के हीरापुर गाँव में 5.7 करोड़ रुपये की लागत से बना लेकिन यह नाकाम रहा क्योंकि यहाँ की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि पानी जलाशय की ओर आता ही नहीं। हीरापुर निवासी 65 वर्षीय शकरू गोंड कहते हैं कि उन्होंने छह साल पहले जिलाधिकारी से कई बार कहा था कि यह जलाशय कामयाब नहीं होगा क्योंकि पानी बहाव की ढाल दूसरी दिशा में है। यह दलील खारिज कर दी गई क्योंकि इंजीनियरों ने परियोजना को पारित कर दिया था। बहरहाल गाँव वालों की जानकारी ही सही साबित हुई। जलाशय का निर्माण बुन्देलखण्ड पैकेज के तहत किया गया था ताकि 380 हेक्टेयर इलाके में सिंचाई की जा सके। अब यह बेकार पड़ा है।
![मध्य प्रदेश के पन्ना जिले के सकरिया टैंक में पानी नहीं ठहर सकता था क्योंकि इसका डिजाइन दोषपूर्ण था](https://c4.staticflickr.com/8/7324/28259065051_f9e49770e4.jpg)
पन्ना जिले के गुनौर ब्लॉक में सकरिया से कुछ किलेामीटर दूर एक चकबाँध बनाया गया था। समस्या यह है कि बाँध समतल जमीन पर स्थित है इसलिये पानी कभी अपेक्षित गति हासिल नहीं कर पाता है। बाँध केवल एक बाधा बनकर रह गया है जिसकी वजह से पानी आस-पास के खेतों में फैल जाता है। पन्ना के अमानगंज ब्लॉक के जसवंतपुरा बाँध के साथ मामला एकदम उल्टा है। यह बाँध खराब सामग्री से बना और परिचालन शुरू होने के पहले ही वर्ष इसमेंं दरारें आ गईं। परिणामस्वरूप पानी वहाँ टिकता ही नहीं। अमानगंज ब्लॉक के एक सरकारी शिक्षक डीपी सिंह कहते हैं कि उस बाँध से पूरा पानी बह जाता है।
पन्ना का भितरी मुटमुरु बाँध भी ऐसा ही एक मामला है। वर्ष 2013 में इस बाँध की एक दीवार ढह गई। ऐसा निर्माण कार्य चलने के दौरान ही भारी बारिश के कारण हुआ। पन्ना के एक सामाजिक कार्यकर्ता सुदीप श्रीवास्तव कहते हैं, “जानकारी के मुताबिक तो कुछ लोग मर भी गए। वह मामला राज्य विधानसभा मेंं भी उठा था। बाँध की मरम्मत का काम गत वर्ष दोबारा शुरू हुआ।”
इस क्षेत्र के प्रत्येक जिले में ऐसी अनगिनत कहानियाँ बिखरी पड़ी हैं। गलत निर्माण ने सदियों पुराने तालाबों को भी नष्ट कर दिया जो कामयाब थे। ऐसा ही एक तालाब महोबा जिले के नागरडांग गाँव में स्थित है जिसका नाम है चाँद सागर। बुंदेल शासकों द्वारा बनवाया गया यह तालाब सरकार द्वारा आदर्श तालाब घोषित किए जाने के बाद मरणासन्न स्थिति में है। सरकार ने वर्ष 2012-13 में इसे आदर्श तालाब घोषित कर इसकी दशा सुधारने का निर्णय लिया। इसके तहत इसके चारों ओर दीवार बना दी गई और जल भराव क्षेत्र से आने वाला पानी रुक गया।
![उत्तर प्रदेश के हमीरपुर जिले के गोशियारी गाँव के राज मोहम्मद बंदूक लेकर गाँव के उस एकमात्र कुएँ की रखवाली करते हैं जहाँ महिलाएं स्नान करती हैं।](https://c2.staticflickr.com/8/7660/28337513065_59f374e235.jpg)
बांदा के सामाजिक कार्यकर्ता पुष्पेंद्र सिंह बुन्देलखण्ड क्षेत्र में सूखे से निपटने के लिये खेत तालाब बनाने का अभियान छेड़े हुए हैं।
उपयुक्त विकल्प
मध्ययुगीन समय से ही बुन्देलखण्ड के स्थानीय शासकों और राजाओं ने तालाब बनाए थे। उनमें से कुछ सदियों तक चले और अभी भी कामयाब हैं। पारंपरिक बुद्धिमता यही बताती है कि तालाब इस क्षेत्र के मौसम के लिहाज से बेहतरीन हैं। बांदा के सामाजिक कार्यकर्ता पुष्पेंद्र सिंह जल संरक्षण पर काम कर रहे हैं। वह भी इस बात से सहमति जताते हैं। सिंह ने वर्ष 2013 में चंद्रावल नदी के किनारे किनारे 1000 खेत तालाब बनाने का अभियान शुरू किया। बारिश के मौसम में जब नदी उफान पर होगी तो ये तालाब भर जाएंगे और वर्ष के बाकी समय मेंं खेतों को पानी उपलब्ध कराएंगे। सिंह को महोबा के तत्कालीन जिलाधिकारी अनुज झा का समर्थन मिला। इस पहल की शुरुआत वर्ष 2015 में मनरेगा के तहत की गई।
![महोबा का मदनसागर तालाब सूख रहा है क्योंकि इसके जलग्रहण क्षेत्र का अतिक्रमण किया गया है और अशोधित नाला में इसमें छोड़ दिया जाता है](https://c2.staticflickr.com/9/8776/28337514025_e91d29852a.jpg)
अब कन्नौज के जिलाधिकारी बन चुके अनुज झा कहते हैं, “बाँध बनाने के लिये जगह का चुनाव मनमाने ढंग से नहीं किया जा सकता है।” वहीं केंद्रीय भूजल बोर्ड की बांदा इकाई में इंजीनियर अनिल मिश्रा कहते हैं, “जगह चयन की खातिर अध्ययन हेतु हमसे कभी संपर्क नहीं किया गया। जबकि बाँध बनाने के पहले स्थान विशेष पर पानी के बहाव की पूरी जानकारी होनी चाहिए। नियम के मुताबिक कुल पानी का 35 प्रतिशत चेकडैम से होकर गुजरना ही चाहिए ताकि नदी सदाबहार बनी रहे। शेष 65 फीसदी पानी का प्रयोग किया जा सकता है।” मिश्रा सिंचाई विभाग के इंजीनियरों पर आरोप लगाते हुए कहते हैं, “वे अपनी अलग योजनाएं बनाते हैं और उनको अमल में लाते हैं जबकि क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति के मुताबिक तालाब अधिक उपयुक्त हैं।”
उत्तर प्रदेश के हमीरपुर जिले के गोशियारी गाँव के राज मोहम्मद गाँव के इकलौते जल स्रोत की रखवाली बंदूक के सहारे कर रहे हैं, यहाँ महिलाएं स्नान करती हैं।
हमीरपुर जिले के अतगर गाँव का हीरा तालाब ऐसा ही एक तालाब है। 120 हेक्टेयर में फैले इस तालाब के जल भराव क्षेत्र का अतिक्रमण नहीं किया गया है। नतीजा यह कि यह तालाब सदियों से फलफूल रहा है। गाँव के एक निवासी पंचम अराख (58 वर्ष) कहते हैं, “हम नहीं जानते यह कितना पुराना है लेकिन यह कभी नहीं सूखता। यहाँ तक कि इस साल जैसे भीषण सूखे में भी यह बचा रहा।”
सीधा संबंध
![. .](https://c4.staticflickr.com/9/8650/28259066171_47538558ea.jpg)
किसान सिंचाई के लिये अन्य तरीकों का रुख करने लगे और पारंपरिक जल स्रोतों की अनदेखी की जाने लगी जिससे वे बेकार हो गए। सन 1983 मेंं मध्य प्रदेश के बुन्देलखण्ड विकास प्राधिकरण की एक रिपोर्ट मेंं कहा गया कि इस इलाके मेंं 9,407 तालाब हैं। बांदा के गैर सरकारी संगठन विज्ञान संचार संस्थान की रिपोर्ट मेंं कहा गया कि सन 1990 तक बुन्देलखण्ड के उत्तर प्रदेश में आने वाले इलाके मेंं 11,000 तालाब थे जो अब बमुश्किल 5500 बचे हैं। सिंह कहते हैं कि बुन्देलखण्ड मेंं बढ़ते जल संकट और जलाशयों की कमी मेंं सीधा संबंध है।
महोबा का मदन सागर ताल मृतप्राय हो रहा है क्योंकि इसके जल भराव क्षेत्र का अतिक्रमण कर लिया गया है। इतना ही नहीं इसमेंं तमाम जगह की गंदगी भी आकर मिलती है।
झांसी के भूविज्ञानी नरेंद्र गोस्वामी कहते हैं कि इस इलाके की भौगोलिक बनावट कुछ इस प्रकार की है कि यह बहुत जल्दी पानी को अवशोषित भी करता है व इसकी निकासी भी तेज होती है। यही वजह है कि तालाब यहाँ जल संरक्षण के लिये बहुत अच्छा जरिया हैं। यहाँ भूजल का दोहन कतई मददगार नहीं हो सकता। झांसी के सामाजिक कार्यकर्ता कृष्ण गाँधी ने लोकोद्यम संस्थान की शुरुआत की थी। वे कहते हैं कि बुन्देलखण्ड मेंं भूजल स्रोत बहुत कम हैं क्योंकि यहाँ ग्रेनाइट व शैल चट्टानें हैं जो बहुत सख्त होती हैं। इनके कारण पानी रिस नहीं पाता। वहीं, दूसरी तरफ बुन्देलखण्ड मेंं सतह के नीचे मौजूद स्फटिक की लहरदार चट्टानें तालाब बनाने के लिये उपयुक्त माहौल देती हैं। उनका संस्थान क्षेत्र मेंं जल संरक्षण के लिये काम करता है। गाँधी कहते हैं कि करीब 1000 साल पहले चंदेल शासकों ने इन चट्टानों के बीच जो तालाब बनाए थे वे आज भी देखे जा सकते हैं। दिल्ली के पत्रकार पंकज चतुर्वेदी जिन्होंने बुन्देलखण्ड मेंं पारंपरिक जल संरक्षण साधनों पर दो पुस्तकें लिखी हैं, वह कहते हैं कि जब तक यह नहीं होता तब तक यह इलाका सूखे से निपटने के लिये तैयार नहीं होगा।
Path Alias
/articles/paayaa-kama-khaoyaa-jayaadaa
Post By: Hindi