पारम्परिक कट्टा प्रणाली : जल संरक्षण का पालना

जल संरक्षण के इस तरह के प्रयास का इतिहास सैकड़ों साल पुराना है क्योंकि कट्टा में हिस्सेदारी के नियमन का उल्लेख करने वाले कई भूमि रिकार्ड उपलब्ध हैं। कर्नाटक के दक्षिण कन्नड़ और केरल के कासरगोड के किसान कट्टा की परम्परा का पालन करते हैं। हाल तक केरल में हर साल पाँच सौ छोटे-बड़े कट्टे का निर्माण किया जाता था। लेकिन इस संख्या में बड़े पैमाने पर कमी आई है और अब उसके एक चौथाई ही मौजूद हैं।कट्टा अस्थायी किस्म के अवरोधक हैं जो जलस्रोत के चारों तरफ बरसाती पानी का बहाव रोकने के लिये खड़े किये जाते हैं। यह संरचनाएँ मिट्टी और पत्थर से बनाई जाती हैं ताकि गर्मी के महीने में भी खेती और पीने के लिये पर्याप्त पानी सुनिश्चित हो सके।

बेरकादावू गाँव के पच्चासी साल के सीताराम भट्ट पिछले पच्चीस सालों से पारम्परिक कट्टा के निर्माण की देखभाल कर रहे हैं। वे कहते हैं, “बेरकादावू कट्टा इस इलाके का सबसे बड़ा कट्टा है। जब यह कट्टा भरा रहता है तो इसमें 12 करोड़ लीटर पानी जमा हो सकता है। अगर ऐसा न होता तो किसानों को पानी के गम्भीर संकट का सामना करना पड़ता और उनके पास पलायन करने के अलावा कोई चारा नहीं था।’’

कुदनगिला के कट्टा के मालिक पचहत्तर वर्षीय माधव भट्ट कहते हैं, “अगर कट्टा है तो चिन्ता की कोई बात नहीं है। हालांकि बोरवेल होते हैं लेकिन मैंने उसका इस्तेमाल नहीं किया क्योंकि मुझे कट्टा में पूरी तरह यकीन है।’’

जल संरक्षण के इस तरह के प्रयास का इतिहास सैकड़ों साल पुराना है क्योंकि कट्टा में हिस्सेदारी के नियमन का उल्लेख करने वाले कई भूमि रिकार्ड उपलब्ध हैं। कर्नाटक के दक्षिण कन्नड़ और केरल के कासरगोड के किसान कट्टा की परम्परा का पालन करते हैं। हाल तक केरल में हर साल पाँच सौ छोटे-बड़े कट्टे का निर्माण किया जाता था। लेकिन इस संख्या में बड़े पैमाने पर कमी आई है और अब उसके एक चौथाई ही मौजूद हैं।

कट्टा क्या है- कट्टा बहते पानी को रोकने के लिये नदियों, धाराओं और लघुधाराओं के आर पार खड़े किये गए अवरोधक हैं। कट्टा बनाने में सारा समुदाय जुटता है। स्थानीय स्तर पर उपलब्ध मिट्टी और पत्थरों के माध्यम से बनाए जाने वाले कट्टे महज गर्मी के तीन चार महीनों के लिये होते हैं।

कट्टे के माध्यम से रोके गए ढेर सारे पानी को धारा के दोनों तरफ की ज़मीन भी सोख लेती है। ज़मीन में धीरे-धीरे जाने वाली नमी अपने खेती के लिये बने पास के कुओं में प्रवाहित करती है। कट्टों की शृंखला नदियों में पानी का स्तर बनाए रखने का सबसे अच्छा तरीका है और यह किसानों की समृद्धि सुनिश्चित करने में अहम भूमिका निभाता है।

कंतप्पा बरकडी ने देखा कि पावुर के पास के कट्टे के पाँच-छह किलोमीटर के इर्द-गिर्द तालाब और कुओं का पानी बढ़ जाता है। कट्टा नदियों के दोनों तरफ के भूमिधारकों को सीधा लाभ देता है उसी के साथ यह परोक्ष रूप से गाँव और समुदाय को भी लाभ देता है। कट्टे में जमा पानी मिट्टी की परतों में पाई जाने वाली दरारों और छिद्रों से रिसता है और जल का स्तर बढ़ाता है।

केरल वाटर कारपोरेशन के मुख्य अभियन्ता श्री टीएनएन भट्टंतीपाद के अनुसार पानी धीरे-धीरे और लगातार ज़मीन के भीतर रिसता है और वह वहाँ तक जाता है जहाँ बोरिंग मशीन भी नहीं पहुँच सकती। ऊँचाई के जलस्रोत भी कट्टे पर निर्भर करते हैं।

इताड़का-लोगों की भागीदारी का विशिष्ट उदाहरण


इताड़का कर्नाटक और केरल की सीमा पर स्थित कासरगोड जिले का एक छोटा सा कस्बा है। ऊँचे नीचे परिदृश्य के बावजूद ज्यादातर ज़मीन बलुई है और लाल लैटराइट मिट्टी से बनी है। सिरीहोल की धारा कस्बे के चारों तरफ से बहती है और इस धारा में कई कट्टे खड़े किए गए हैं।

कट्टे एक के पीछे एक करके धारावाहिक तौर पर बनाए जाते हैं और इसके कारण एक कट्टे में जमा पानी पीछे पाले कट्टे के बाँध से सटा रहता है। ये कट्टे इताड़का की रीढ़ हैं। हर साल कस्बे के पाँच-छह किलोमीटर के इलाके में 24 कट्टा बनाने के लिये 200 परिवार काम करते हैं। एक कट्टे के निर्माण में 25000 रुपए की लागत लगती है इसलिये इस खर्च को उठाने के लिये हिस्सेदारी की कई योजनाएँ बनाई जाती हैं ताकि संरक्षित पानी का अधिकतम फायदा उठाया जा सके।

इसका वितरण एकड़ के हिसाब से तय किया जाता है। कट्टों का निर्माण स्थानीय सामग्री से किया जाता है लेकिन चूँकि वे अस्थायी संरचना हैं इसलिये उनका निर्माण हर साल किया जाता है। पत्तर की दीवार खड़ा करने और मिट्टी लाने और मिट्टी को बाँधने के काम में तकरीबन 200 मजदूर लगते हैं। कुशल मजदूरों को ज्यादा मजदूरी देनी पड़ती है।

इसके बावजूद स्थानीय लोग इस काम के लिये श्रमदान भी करते हैं क्योंकि इस प्रणाली में उनकी आन्तरिक विश्वास है। उनका सरकार की तरफ से बनाए गए खुले बाँधों में यकीन नहीं है क्योंकि उनमें से 90 प्रतिशत लीक करते हैं। उदाहरण के लिये कुम्बादाजे पंचायत में इताड़का के पास इस तरह के 11 बाँध बेकार पड़े हैं। इसकी वजह यह है कि उनके निर्माण में खराब किस्म का सामान लगाया गया।

कट्टा की प्रासंगिकता


केन्द्रीय बागान फसल शोध केन्द्र से सम्बद्ध कासरगोड कृषि विज्ञान केन्द्र के तकनीकी अधिकारी मनोज सैमुअल के अनुसार कम लागत पर पानी इकट्ठा करने के लिये पारम्परिक कट्टा एक आदर्श व्यवस्था है। इस प्रणाली के तहत 1000 लीटर पानी जमा करने के लिये महज 40 पैसा खर्च होता है। इताड़का का कट्टा कम खर्च पर जल संरक्षण के काम में मूल्यवान सबक देता है।

देर से आए इस अहसास ने न सिर्फ लोगों को पारम्परिक कट्टा प्रणाली को फिर से बनाने के लिये तैयार किया बल्कि उसमें सुधार के लिये विचार और मशविरे का अवसर भी दिया। उदाहरण के लिये कट्टा को मजबूत बनाने के लिये पत्थर और मिट्टी के बीच प्लास्टिक की चादरों को फँसाना और इस तरह के दूसरे तरीकों का प्रयोग भी किया गया। हालांकि किसानों की तरफ से उठाए गए सुधार के उपायों की जानकारियों को हमेशा साझा नहीं किया गया। इसलिये जहाँ एक तरफ नई तकनीकों का प्रयोग हुआ वहीं तमाम किसान अभी भी पारम्परिक डिज़ाइन पर ही काम करते हैं।यह जानना महत्त्वपूर्ण है कि मंगलूर विश्वविद्यालय और वाराणसी फ़ाउंडेशन और इसी तरह के दूसरे संगठनों ने कट्टा पर शोध शुरू करवा दिया है। कासरगोड और दक्षिण कन्नड़ के तटवर्ती जिलों में सालाना 3500 मिलीमीटर से 4000 मिलीमीटर तक बारिश होती है और यह वर्षा भी 20-25 दिनों के भीतर हो जाती है।

वास्तव में इनमें से भी 65 प्रतिशत पानी सात से दस दिनों के भीतर बरस जाता है। ज्यादातर पानी 24 घंटे के भीतर तेजी से समुद्र में बह जाता है। कट्टा पानी सोखने वाले एक बड़े तालाब के रूप में काम करता है और पानी को निर्बाध रूप से समुद्र में जाने से रोकता है। यह सुनिश्चित करता है कि गैर मानसून वाले समय में भी पानी खेती व पीने के लिये उपलब्ध रहे।

विस्मृत हो चुकी कट्टा प्रणाली का पुनरुद्धार


एक समय था जब कासरगोड के कुछ इलाकों में और दक्षिण कन्नड़ जिलों में सैकड़ों कट्टा बनाए जाते थे। एक अनुमान के अनुसार कासरगोड की दस पंचायतों को किसानों की तरफ से बनाए गए पाँच सौ कट्टों पर गर्व हुआ करता था। लेकिन धीरे-धीरे सहयोग और कोष की कमी और गाँव वालों के मुक्त व्यापार वाले नज़रिए के कारण यह संख्या कम होने लगी।

जब ज्यादा-से-ज्यादा लोग बोरिंग को अपनाने लगे तो कट्टा का पतन अवश्यम्भावी था। नतीजतन इताड़का और कासरगोड के आसपास के इलाके में 1983 में पानी की ज़बरदस्त कमी आई। नारियल, सुपारी, केला, काली मिर्च और धान जैसी यहाँ की मुख्य फसलें मुरझाने लगीं। इस सूखे से समुदाय को जो कड़ा सबक मिला वो यह कि उसे पारम्परिक कट्टा प्रणाली का महत्त्व फिर समझ में आ गया।

कई तरह के जल मेलों, सेमिनारों का आयोजन और मीडिया की तरफ से हुए अध्ययनों ने समय की कसौटी पर कसी कट्टा प्रणाली के फायदे के बारे में लोगों की आँखें खोल दीं। आदिके पत्रिके (एक किसान अखबार) के सर्वेक्षण ने आधुनिक बोरिंगों की निस्सारता को उजागर कर दिया।

देर से आए इस अहसास ने न सिर्फ लोगों को पारम्परिक कट्टा प्रणाली को फिर से बनाने के लिये तैयार किया बल्कि उसमें सुधार के लिये विचार और मशविरे का अवसर भी दिया। उदाहरण के लिये कट्टा को मजबूत बनाने के लिये पत्थर और मिट्टी के बीच प्लास्टिक की चादरों को फँसाना और इस तरह के दूसरे तरीकों का प्रयोग भी किया गया। हालांकि किसानों की तरफ से उठाए गए सुधार के उपायों की जानकारियों को हमेशा साझा नहीं किया गया। इसलिये जहाँ एक तरफ नई तकनीकों का प्रयोग हुआ वहीं तमाम किसान अभी भी पारम्परिक डिज़ाइन पर ही काम करते हैं।

वैसे अब कट्टा प्रणाली को नया जीवन मिल रहा है क्योंकि दक्षिण कन्नड़ के इडिकडू गाँव में कई नई संरचनाएँ बनाई गई हैं। डॉ. वाराणसी कृष्णमूर्ति के नेतृत्व में 4-5 कट्टा बनाए गए हैं। कदिंजे के वेंकटरमण भट्ट उस समय बेहद सन्तुष्ट दिखे जब 22 साल के अन्तराल के बाद एक कट्टा फिर से बनाया गया। उनका कहना है कि कट्टा स्थानीय संस्कृति का हिस्सा है और उनके जीर्णोंद्धार से पिछले जमाने की एकता और भागीदारी का अहसास फिर से जीवित हो रहा है।

जल विशेषज्ञ श्रीपद्रे के यह शब्द उन लोगों के लिये चेतावनी हैं जो कट्टा प्रणाली के महत्त्व की अनदेखी करते हैं, “साल के चार महीने पानी हमें इस घोषणा के साथ संकेत देता है कि बारिश के रूप में हम आसानी से उपलब्ध हैं और अगर आप को हमारी जरूरत है तो हमारा संग्रह कर लो। अगले चार महीने तक हमारी नदियाँ, नाले और दूसरे जल स्रोत हमें यह कहते हुए संकेत देते हैं, हम आप ही के हैं और अगर आप हमें चाहते हो तो बचा कर रखो। अगर आप हमारे इन दोनों सन्देशों की अहमियत नहीं समझोगे, तो अगले चार महीनों तक भारी कीमत अदा करनी होगी।’’

चन्द्रशेखर इताड़का एक कृषि विशेषज्ञ हैं और उन्होंने इताड़का गाँव की कट्टा प्रणाली पर व्यापक अध्ययन किया है। लेखन उनका शौक है।

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Post By: RuralWater
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