कैसे हमारे पुराने तौर-तरीके पानी से जुड़े विवादों को सुलझाने में मददगार साबित हो सकते हैं
देश में 17 अन्तरराज्यीय नदियाँ हैं, इसलिये जल विवादों का होना असामान्य बात नहीं है। लेकिन जल बँटवारा को लेकर स्थायी समझ का नहीं होना विवाद की एक बड़ी वजह है
पिछले एक महीने में देश ने नदी जल के बँटवारे को लेकर असन्तोष झेला है। कर्नाटक में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद भारी विरोध शुरू हो गया था। इस फैसले में कावेरी जल को तमिलनाडु के साथ साझा करने का निर्देश दिया गया है। पूर्वी भारत के राज्य उड़ीसा में भी इसी तरह का विरोध चल रहा है। यह विरोध छत्तीसगढ़ द्वारा महानदी पर बनाए जा रहे बाँध के खिलाफ है। इनमें नागरिक समाज के कई समूह और राजनेता शामिल हैं। इनका मानना है कि अगर ये बाँध बना तो महानदी में जल का प्रवाह कम हो जाएगा। कर्नाटक, महाराष्ट्र और गोवा में पहले से ही महादयी नदी के जल बँटवारे को लेकर झगड़ा है।
देश की 18 प्रमुख नदियों में से 17 नदियाँ एक से अधिक राज्यों से होकर बहती हैं, इसलिये जल विवादों का होना कोई असामान्य बात नहीं है। लेकिन जल बँटवारे को लेकर किसी स्थाई समझ का न होना विवाद की एक बड़ी वजह है। हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि केन्द्र सरकार जल को अपने अधीन लेने के बारे में सोचने लगी है ताकि पानी से जुड़े अन्तरराज्यीय विवादों को सुलझाया जा सके। सवाल उठता है क्या भारत इन विवादों के समाधान के लिये अपने परम्परागत जल प्रबन्धकों के अलिखित तौर-तरीकों से कुछ सीख सकता है?
उड़ीसा से महाराष्ट्र और तमिलनाडु से लद्दाख तक भारत के अधिकांश राज्यों में जल से जुड़े विवादों को निपटाने के अपने पारम्परिक तरीके रहे हैं। इनको विभिन्न नाम से जाना जाता है। मसलन, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में इन्हें नीरकट्टी, गढ़वाल में कोल्लालुस, कुमायूँ की पहाड़ियों में चौकीदार या ठेकेदार, महाराष्ट्र में हवलदार या पटकरी और लद्दाख में इन्हें चुर्पुन कहा जाता है। पारम्परिक तौर पर जल प्रबन्धन इनका पारिवारिक पेशा होता है जो कई पीढ़ियों से चला आ रहा है। ये लोग जल से जुड़े किसी भी विवाद को सुलझाने के लिये बुलाए जाते रहे हैं और इनका फैसला सब लोग मान लिया करते थे। सन 1960 के दशक तक गाँवों में जल से जुड़े विवाद को यही लोग सुलझाते थे। आजादी के बाद देश में जल सम्बन्धी वातावरण में काफी परिवर्तन हुआ। बड़े बाँधों, नहरों और सिंचाई से सम्बन्धित विभागों ने इन पारम्परिक जल प्रबन्धकों की जगह ले ली। कुल मिलाकर, सिंचाई और जल प्रबन्धन से जुड़े मुद्दों में सरकारी नियन्त्रण और हस्तक्षेप बढ़ता गया। हालाँकि, इस बीच तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और लद्दाख जैसे राज्यों में जल विवादों को सुलझाने के पारम्परिक तरीकों को फिर से पुनर्जीवित करने के प्रयास भी हो रहे हैं।
आजकल देश में पानी से सम्बन्धित विवाद हल करने के दो ही तरीके हैं। एक तरीका वह है जिससे कावेरी नदी के विवाद को सुलझाया जा रहा है। तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे. जयललिता और कर्नाटक के मुख्यमन्त्री सिद्धारमैया के लिये कावेरी समस्याओं और विवादों की नदी बन गई है। उनका शायद एक भी दिन ऐसा नहीं गुजरता होगा जब दोनों कावेरी नदी पर अपने राज्यों के अधिकार को लेकर चिन्तित न हुए हों। दोनों राज्यों के लिये यह चार दशक पुराना संघर्ष है। समस्या जल के प्रवाह जैसी ही प्राकृतिक है। तमिलनाडु, जहाँ नदी का जल कर्नाटक के बाद आता है, का मानना है कि कर्नाटक में जल के इस्तेमाल को नियन्त्रित करने के लिये नियम बनाया जाना चाहिए। इसके जवाब में कर्नाटक का कहना है कि नदी चूँकि पहले कर्नाटक से गुजरती है इसलिये इसके जल पर उनका हक ज्यादा है। यह विवाद इतना गम्भीर है कि प्रधानमन्त्री कार्यालय की नजर हमेशा इस पर बनी रहती है। केन्द्र और राज्य सरकार के करीब 300 अधिकारी इस विवाद को सुलझाने में लगे हैं। कुछ साल पहले एक सरकारी अधिकारी ने कहा था, “हम नदी के बहाव को देखते हुए राज्यों की जगह तो बदल नहीं सकते!”
जब सरकारी कोशिशें नाकाम हो रही हैं तो जल विवादों को सुलझाने के लिये हमें पारम्परिक जल प्रबन्धकों की तरफ रुख करना चाहिए। राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय जलवार्ता पर काफी लिखा जा रहा है। लेकिन एक विशेष ज्ञान अभी तक हमें उपलब्ध नहीं है। वह है जल विवादों के समाधान का पारम्परिक ज्ञान। इसलिये अब हमें परम्परागत जल प्रबन्धकों के अनुभवों को जानने-समझने की आवश्यकता है। शायद यह अनुभव नदियों पर हो रहे विवादों को हल करने में कारगर साबित हो सके।
जल विवाद सुलझाने के पारम्परिक तरीकों और अलिखित नियमों को आधुनिक कानून की कसौटी पर परखा जाना चाहिए। इससे हमें बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। जल प्रबन्धन के पारम्परिक तरीके मूलतः चार सिद्धान्तों पर आधारित हैं। ये सिद्धान्त जल विवादों के समाधान के प्रयासों में संजीवनी साबित हो सकते हैं। इनके मुख्य सबक हैं-
1. पानी का बँटवारा समय के आधार पर हो, न कि मात्रा के आधार पर : जल प्रबन्धन के इस सिद्धान्त के अनुसार, पानी का बँटवारा मात्रा के हिसाब से न होकर समय के हिसाब से होता है। जिससे लोग पानी का इस्तेमाल अपनी जरूरत के हिसाब से काफी सोच-समझकर करने लगते हैं। यानी इस तरीका से समुदाय को कुशल जल प्रबन्धक बना देता है। ऐसा करने के लिये बाँध या जलाशय बनाने की जरूरत भी नहीं पड़ती। जबकि आजकल के जल समझौते पानी की मात्रा के आधार पर होते हैं। ऐसे में तब कठिन स्थिति पैदा हो जाती है। जब नदी में पानी नहीं होता लेकिन समझौते के हिसाब से कोई राज्य अपने हिस्से के पानी की माँग करने लगता है। ऐसे में ये माँग अपने आप में विवाद का एक कारण बन जाती है।
2. जल बँटवारे से पहले स्थानीय जरूरतों और प्राथमिकताओं का निर्धारण : यह तरीका जल संकट के समय उपयोगी साबित हो सकता है। इस सिद्धान्त के तहत पारम्परिक जल प्रबन्धक पानी की कुल उपलब्धता और माँग का अनुमान लगाते थे। उसी के मुताबिक वे ग्राम सभा में प्रति-व्यक्ति जल की उपलब्धता के आधार पर फसल पद्धति में परिवर्तन की सलाह भी दिया करते थे। मौजूदा अन्तरराज्यीय जल समझौतों में ऐसा कोई प्रावधान नहीं होता जो संकट के समय इस तरह का कोई रास्ता सुझा सके।
3. न्यायसंगत प्रवाह और अल्पसंख्यकों के अधिकारों के लिये मजबूत तन्त्र : यह सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू है। परम्परागत तरीकों में किसी भूमि को जल की उपलब्धता या आवंटन उसकी भौगोलिक स्थिति के आधार पर निर्धारित किया जाता था। इसमें ढलान में स्थित भूमि को पानी के आवंटन में प्राथमिकता दी जाती थी। लेकिन पानी के बँटवारे में किसी के साथ भी भेदभाव के बगैर। मौजूदा समझौतों में इस तरह का कोई प्रावधान नहीं है, यहाँ बँटवारे का आधार जल की मात्रा होता है न कि बहाव की भौगोलिक स्थिति। इसके अलावा पानी की जरूरत का कोई समकालीन मूल्यांकन न होना एक सबसे बड़ी समस्या है। इसकी वजह से भी जल का न्यायपूर्ण बँटवारा नहीं हो पाता।
4. विवाद के समाधान का वैकल्पिक तन्त्र : भारतीय संघीय ढाँचे में जल विवाद को केवल संसदीय अनुमोदन के बाद किसी अधिकृत न्यायाधिकरण के जरिये ही सुलझाया जा सकता है। ये अदालतें काफी समय लेती हैं और निर्धारित नियमों के अनुसार ही निर्णय करती हैं। ऐसे में किसी नए विचार को अपनाने की गुंजाईश बहुत कम बचती है।
आज भी भारत में नदियों से जुड़े फैसले औपनिवेशिक काल में हुए समझौतों के आधार पर हो रहा है। ये समझौते मुख्यतः ब्रिटिश सरकार और रियासतों के बीच राजनीतिक और सैन्य जरूरतों के हिसाब से हुए थे इसलिये इनमें लचीलेपन का अभाव है। बदली हुई परिस्थितियों में ये पुराने कानून और इनसे जुड़े संस्थाएँ वर्तमान चुनौतियों को सुलझाने में नाकाम साबित हो रही हैं। आजादी के बाद करीब सात दशक गुजर चुके हैं लेकिन देश में किसी भी राज्य को पानी के स्रोतों को लेकर पूरी छूट नहीं दी गई है। आजादी भी हमारी संस्थाओं को नई पहल करने की दिशा में प्रेरित नहीं कर पाई है।
ऐसी स्थिति में जब नदी जल बँटवारे को लेकर अन्तरराज्यीय विवाद सुलझ नहीं रहे हैं तो यह उचित ही होगा कि हम अपने परम्परागत ज्ञान की मदद लें। वह ज्ञान जो हमने पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचित किया और जिन पद्धतियों की मदद से अभी सात दशक पहले तक हम अपने जल सम्बन्धी विवादों को सफलतापूर्वक सुलझा लिया करते थे।
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