दुनिया में यह दौर सांस्कृतिक चेतना के उभार का है। इतिहास को फिर से टटोलने और अपने पुरखों की काबिलियत पर अभिमान का भी है। अपने अतीत में हम झांकते हैं, तो हमें पानी की अद्भुत विरासत भी मिलती है, बेहतरीन वास्तु, कला और कौशल से बनाए जलाशय भी, जिनके देश के हर इलाके में अलग-अलग नाम हैं। कहीं बावड़ी, कहीं बाओली, तो कहीं बाव। पानी को सहेजने के सैकड़ों साल पुराने इतने अद्भुत और वैज्ञानिक तरीके हैं कि हम अपनी आधुनिक यांत्रिकी-अभियांत्रिकी का इस्तेमाल करके भी उनकी बराबरी नहीं कर पाते। बल्कि जब भी संकट से घिर जाते हैं, तो फिर पुरानी पद्धतियों की ओर देखते हैं, और उन्हें अपने मूल स्वरूप में लौटाने की योजनाएं बनाते हैं।
सच यह भी है कि देश की जल-विरासत को संभाले ये पारंपरिक संरचनाएं और जल-स्रोत, देहात की देखरेख में ही बाकी बची रही हैं। 2023 में भारत में पहली 'जल-गणना' में सवा 24 लाख जल स्रोतों की गिनती हो पाई, जिनमें से 23 लाख तो गांवों की हिफाजत में ही हैं जबकि आर्थिक समृद्धि से चमचमाते शहरों ने पानी का इतना शोषण किया है कि उनके अपने हिस्से का जो कुछ था वह भी बाकी नहीं रहा। बड़े शहरों में जो कुछ है सब आसपास के बांधों, नहरों या नदियों से उधार का है। या फिर है भी तो औद्योगिक कचरे से इतना गंदा कि वो प्यास बुझाने लायक हैं ही नहीं। और बात सिर्फ पानी मौजूद होने न होने भर की ही नहीं है, बल्कि उसके इर्दगिर्द के पूरे जल-जीवन से हमारे जुड़ाव की भी है। पानी को खोकर, दूषित कर, सुखा कर, जरूरत से ज्यादा खींच कर और उसकी अनदेखी कर, हमने अपने ही अस्तित्व को खतरे में डाला है। समाज पर इसका दोष मढ़ा जा सकता है, लेकिन प्रजातंत्र में प्रतिनिधियों का भी दायित्व कम नहीं है।
घोषणापत्रों में पानी
पिछले लोक सभा चुनावों में दोनों मुख्य पार्टियों ने अपने घोषणापत्रों में जलवायु संकट का मुद्दा शामिल किया था लेकिन जल-संकट को लेकर जाहिर तौर पर कुछ सुनने को नहीं मिला। जल वैसे भी राज्यों का मुद्दा है, इसलिए राष्ट्रीय पार्टियां विधानसभा चुनावों में ही पानी को बड़ा मुद्दा बनाती हैं। खास तौर पर किसानी क्षेत्रों में ये मसले वोट की राजनीति पर असर भी डालते रहे हैं। पानी को लेकर राज्यों के आपसी विवाद भी चुनावी दौर में बड़े जोर-शोर से उठते रहे हैं। हाल के कर्नाटक चुनाव में पूर्व प्रधानमंत्री एवं जनता दल (एस) के मुखिया एचडी देवेगौड़ा ने वहां कावेरी और अरकावती नदी के संगम पर वन रहे मेकेदातु बांध को मुद्दा बनाया, जिस पर वग़ल के राज्य तमिलनाडु की डीएमके पार्टी के नेता स्टालिन ने तुरंत प्रतिक्रिया दी, और घोषणा की कि यह बांध नहीं बनने देंगे। तमिलनाडु के भाजपा प्रमुख एम अन्नामलाई ने भी कर्नाटक में बांध का विरोध किया है। दोनों राज्यों के बीच यह पुराने विवाद का विषय है, जिस पर पहले भी सियासत होती रही है।
कर्नाटक में पिछले सालों में बारिश की कमी, उपभोग वाली जीवनशैली और आबादी के दबाव में पानी का संकट गहरा गया है। वहां के 236 में से 223 तालुका डार्क जोन में हैं यानी उनका पानी खाली है। कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु में कभी डेढ़ हजार से ज्यादा झीलें हुआ करती थीं, अब दो सौ भी नहीं बचीं। पिछले सालों में चेन्नई का अपना पानी खत्म होने की बात सुर्खियां बनी थीं और देखते-देखते 22 राज्यों का यही हाल हो गया। और अब बेंगलुरु में पानी की किल्लत ने सबका ध्यान खींचा है, जहां के 40% बोरवेल सूख चुके हैं। कर्नाटक सहित दक्षिण के राज्य उसी तरह के संकट से गुजर रहे हैं, जिसके लिए कभी मराठवाड़ा देश के नक्शे पर आया था। वहां के हालात भी कितने बदले हैं, इसका अंदाज इस वात से लगेगा कि महाराष्ट्र के इस इलाके के 8 जिलों में हाल में यानी 2023 में अनेक किसानों ने आत्महत्या की है।
पानी-खेती-कमाई के संकट को लेकर एनसीपी के नेता शरद पवार ने इस चुनाव में भाजपा को घेरा है, तो 10 पार्टियों के गठबंधन वाले महा विकास अघाड़ी ने भी जल-संकट के मुद्दे पर चुनावी सभाएं की हैं। महाराष्ट्र की 142 तहसीलें सूखे से जूझ रही हैं, सोलह जिलों में पानी का स्तर गिर गया है। लोकसभा में 48 सीटों की हिस्सेदारी वाले इस राज्य सहित सभी राज्यों में पानी की तकलीफें अलग-अलग हैं, लेकिन देशव्यापी चर्चाओं में यह अब भी पीछे ही धकेला हुआ मुद्दा है।
कुछ सुनी, कुछ अनसुनी
राजस्थान के विधानसभा चुनावों में 13 जिलों पर असर डालने वाली पूर्वी नहर परियोजना ने सियासी रंग अपनाया और नई सरकार ने इसे लागू कर बरसों की छूटी हुई बात पर अमल किया। वर्षों से अटके यमुना जल समझौते पर भी राजस्थान ने हरियाणा से सहमति बना ली है। इस लोक सभा चुनाव में भी यहां कई क्षेत्र ऐसे हैं, जहां सिंचाई और पीने के पानी पर सियासत होगी। पार्टी के राष्ट्रीय घोषणापत्र के बजाय कुछ प्रत्याशी खुद पानी के संकट की बात जोर-शोर से कर रहे हैं। राजस्थान के जैसलमेर-वाड़मेर वाले पश्चिमी इलाके से लोक सभा चुनाव में दमखम दिखा रहे हाल ही चुने गए सबसे युवा विधायक रवींद्र सिंह भाटी पानी सहित मूलभूत सुविधाओं की बात शिद्दत से उठा रहे हैं। उनके अपने चुनावी उद्घोष में पाकिस्तान की सरहद से सटे गांवों के पिछड़ेपन को दूर करने की बात वार-वार सुनाई दे रही है। वो रेगिस्तान के बड़े भू-भाग को नेशनल पार्क कहे जाने और इस बहाने बड़ी इंसानी आबादी को पानी-बिजली-सड़क- स्कूल-अस्पताल-रोजगार से दूर रखने की नीतिगत गलतियों को दुरुस्त करने की बात कर रहे हैं।
अपनी संस्कृति-भाषा पर अभिमान करते हुए पानी पर्यावरण-आर्थिक समृद्धि के सामंजस्य की बात उठाने वाले अगर जीतकर देश की संसद में पहुंचते हैं, तो सैकड़ों गांवों की सुनवाई होने के साथ उनकी दुश्वारियों का सार्थक हल भी निकलेगा। जालोर लोक सभा के भाजपा प्रत्याशी लुंवाराम चौधरी खुलकर कह रहे हैं कि उनके इलाके में पानी की किल्लत दूर करना और किसानों को राहत दिलाना ही उनका चुनावी ध्येय है। यह इलाका ऐसा है जहां पर्यटकों की आवक खूब है और स्थानीय नेतृत्व में भाजपा का पलड़ा भारी होने के बावजूद पानी और पर्यावरण की हालत बद से बदतर ही हुई है। अब जमीन से जुड़े, इन जन-नेताओं के मैदान में उतरने से जाति और परिवार की राजनीति के बीच मुद्दों की जमीन मजबूत होती लग रही है।
संसद में उठाएं कड़े सवाल
अपनी संस्कृति, परंपरा और इतिहास के इस गौरवकाल में हमें अपनी खामियों के बारे में और मुखर होना चाहिए। नदियों का पूजन और महिमामंडन तो हम करते हैं, लेकिन वो दूषित न हों, यह सख्ती समाज और कानून, दोनों ही नहीं कर पा रहे। एक तरफ मंदिर-ओरण-गोचर का बखान हम करते हैं, लेकिन वहीं कुछ राज्यों में पशु-पक्षियों-समुदाय के हक की जमीनें, वन विभाग को देने के फैसले पर सभी पर्यावरण-सांस्कृतिक प्रकल्प चुप्पी साधे हैं।
देश के 19 राज्यों के करीब ढाई सौ जिलों की 14 हजार बस्तियां हैं, जहां के पानी में घुले फ्लोराइड, नाइट्रेट और आर्सेनिक नई-पुरानी सभी पीढ़ियों के स्वास्थ्य के लिए खतरा बने हुए हैं। ऑस्टियोआर्थराइटिस और फ्लोरोसिस की चपेट में आए बच्चे-युवक-युवतियां और बुजुर्ग कभी आपसे टकराएंगे तो आप सोचेंगे जरूर कि बेहद आसान वैज्ञानिक समाधान होने के बाद भी हम बेबस क्यों हैं?
राजस्थान और झारखंड के सांसदों ने खनन और उद्योग वाले इलाकों में पीने के पानी की गुणवत्ता और स्वास्थ्य पर उसके असर को लेकर सरकारी पहल पर सवाल पूछा तो कई जानकारियां सामने आईं। जनता भी बाकी के नेताओं से सवाल पूछती रही है कि हमने तो आपको चुना, अब आपने अपना धर्म निभाया कि नहीं? बिहार और असम की वाढ़ के स्थायी समाधान की बात कहीं सुनाई नहीं देती। कश्मीर घाटी की झीलों और दिल्ली की यमुना के प्रदूषण पर नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की आपत्तियों का जवाब किसी के पास नहीं?
परंपरागत जलस्रोतों को सहेजने के लिए समाज-सरकार और संगठन के समयबद्ध तालमेल से किसी को लेना देना नहीं? राज्यों के बीच जल- बंटवारे पर राजनीति-स्वार्थ से परे व्यावहारिक रवैया अपनाए जाने की मध्यस्थता करने वाला कौन है? इन सब सवालों के बीच औपनिवेशिक शासन की निशानियां रहे बड़े बांधों के बजाय, पर्यावरण-समाज हितैषी जल- प्रबंधन की ओर लौटने की वात नीतिगत पर्चों में आने लगी है। ऐसे में चिंतनशील और संवेदनशील नेताओं से ही उम्मीद है कि चुनाव और उसके बाद अपने पूरे कार्यकाल में, धरातल के मुद्दों को थामे रहें।
स्रोत : 06 अप्रैल 2024, हस्तक्षेप, राष्ट्रीय सहारा
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