पाँच साल बाद फिर लौटा अकाल

सामान्य से कम वर्षा होने के चलते राजस्थान एक बार फिर सूखे की चपेट में है। दलहनी फसलों की बुआई कम हुई और खेत में खड़ी फसल बर्बाद हो गई। इसी साल शुरुआत में ओलावृष्टि और अब सूखे ने किसानों की कमर तोड़ दी है।

राजस्थान से मॉनसून विदा हो चुका है। लौटते मानसून ने प्रदेश के कुछ हिस्सों में इतना ही पानी बरसाया जिससे वहाँ के लोगों को चालीस डिग्री तापमान से बस राहत मिल पाई। पहले दौर में 484.35 मि.मी. वर्षा होने के बाद के 27 दिनों तक बारिश नहीं हुई। नतीजा, प्रदेश के 33 में से 15 जिलों में सूखे और अकाल की विकट स्थिति पैदा हो गई है। हालाँकि राज्य सरकार ने सूखे से सम्भावित नुकसान का अनुमान लगाने के लिये गिरदावरी शुरू करा दी है। लेकिन इस बार सूखे की स्थिति इसलिए ज्यादा गम्भीर है कि इसी साल मार्च में बेमौसम बरसात व ओलावृष्टि से रबी की अस्सी प्रतिशत से अधिक फसल तबाह हो चुकी है। उस हादसे से प्रभावित किसान अभी ठीक से उबर भी नहीं पाए कि उन्हें अब उनके सामने खरीफ की फसल बर्बाद होने का संकट खड़ा हो गया है।

जो संकेत सामने आ रहे हैं उससे वर्ष 2009 में पड़े अकाल जैसे हालात इस बार भी बन सकते हैं। प्रदेश के 22 से अधिक जिलों में पानी की समस्या खड़ी हो गई है। पानी आपूर्ति के लिए जलप्रदाय विभाग अभी से रेलगाड़ियों का इन्तजाम करने में लग गया है। राज्य की 75 प्रतिशत खेती वर्षा पर निर्भर रहती है। राज्य के अधिकांश क्षेत्रों में सिंचाई कुँओं से होती है। कम वर्षा के समय अक्सर कुएँ सूख जाते हैं। उनका जलस्तर नीचे चला जाता है। इसका सीधा असर आगामी फसल पर पड़ता है।

शुरुआती सूखे का सबसे अधिक असर बाजरे की उपज पर पड़ा है। क्योंकि पहले चरण में अच्छी बारिश होती देख किसानों ने बाजरे की जमकर बुआई कर दी। लेकिन बाद में पानी न बरसने से बाजरे में दाना भी नहीं निकल पाया। जो फसल पूरी तरह नहीं पनपी उसे चारे के रूप में उपयोग किया गया। एक अनुमान के अनुसार बाजरे की फसल को 50 से 80 प्रतिशत का नुकसान हुआ है। पूर्वी राजस्थान में सामान्य से कम बारिश होने से खेत में खड़ी फसलें सूख गई हैं। कोटा संभाग में भी सोयाबीन को नुकसान हुआ है। बीकानेर संभाग में कपास की फसल को कीट से नुकसान पहुँचा है। वहीं प्रदेश के अन्य हिस्सों में ग्वार की फसल को भारी नुकसान पहुँचा है। भरतपुर व जयपुर संभाग में सरसों की पैदावार घटने का असर जल्दी ही तेल मीलों पर पड़ने लगेगा।

राज्य सरकार को मौजूदा हालात में चारे के संकट की चिन्ता भी सता रही है। इससे पहले अकाल के वक्त पशु चारे की व्यवस्था में हरियाणा, पंजाब और मध्य प्रदेश आदि राज्यों से मदद मिलती रही है। लेकिन इस बार ये प्रदेश भी सूखे की मार झेल रहे हैं। इसे देखते हुए राज्य सरकार ने प्रदेश से चारे की निकासी व आवक पर लगे तमाम प्रतिबंध हटा लिये हैं। चारा जलाने पर रोक लगा दी है। कृषि विभाग के मुख्य सांख्यिकी अधिकारी एल.एन. बैरवा ने बताया कि खरीफ की फसल के लिए 6313 हेक्टेयर क्षेत्र में बिजायी का लक्ष्य था लेकिन करीब 548 हेक्टेयर क्षेत्र में कम बिजायी की गई। उन्होंने बताया कि दाल की पैदावार के लिए 8,823 हेक्टेयर क्षेत्र के लक्ष्य के मुकाबले 8,323 हेक्टेयर क्षेत्र में बीज डाले गये। बारिश कम होने के कारण करीब 1,000 हेक्टेयर क्षेत्र में बीज नहीं बोया जा सका। उन्होंने बताया कि प्रदेश में खरीफ की फसल के लिए 15,783 हेक्टेयर क्षेत्र में पैदावार के लक्ष्य तय किये गये थे लेकिन 14,783 हेक्टेयर क्षेत्र में ही बुवाई की गई।

राज्य के आपदा राहत मन्त्री गुलाब चन्द कटारिया का कहना है कि आपदा प्रबंधन के तहत फसल खराब होने पर सहायता देने के लिये मानदण्ड बदले गए हैं। अब 50 प्रतिशत के बजाय 33 प्रतिशत फसल खराब होने पर भी सहायता दी जाती है। कृषि मन्त्री प्रभुलाल सैनी ने बताया कि प्रारम्भिक आँकलन के मुताबिक बारानी क्षेत्र (असिंचित) में बाजरा, मक्का और ग्वार में 15 से 20 प्रतिशत और मूँगफली में 50 प्रतिशत फसल खराब होने की बात सामने आई है। सैनी ने बताया कि गिरदावरी में अगर 33 प्रतिशत से ज्यादा खराबी सामने आती है तो आपदा प्रबंधन के तहत सहायता के लिये केन्द्र सरकार को प्रस्ताव भिजवाया जाएगा।

बारिश न होने का सबसे ज्यादा नुकसान ग्वार की फसल में देखने को मिल रहा है। अब तक इसमें 70 से 80 प्रतिशत फसल खराब होने का अनुमान है। जबकि राजस्थान ग्वार का प्रमुख उत्पादक राज्य है। बाजरा और ग्वार के उत्पादन में गिरावट होने से प्रदेश में चारे की उपलब्धता भी कम होगी।

वैसे राजस्थान में अकाल का चोली-दामन का साथ रहा है। कुछ सालों को छोड़ दिया जाए तो 1959 से लेकर प्रदेश की जनता ने सूखे और अकाल का लगातार सामना किया है। अकाल पर राजनीति भी जमकर होती रही है। बीस साल पहले तक तो चुनावों में कई सरकारें महज अकाल के कारण सत्ता से बेदखल होती रही।

वर्ष 2002-03 के भीषण अकाल से प्रदेश के काश्तकारों की कमर टूट गई। उस वक्त प्रदेश के करीब 41 हजार गाँव जबरदस्त सूखे की चपेट में आये थे। इस अकाल के चलते कांग्रेस की अशोक गहलोत सरकार को जाना पड़ा था। इससे पहले 1998 में भैरोंसिंह शेखावत सरकार भी अकाल का शिकार हुई थी।

अकाल पर राजनीति फिर शुरू हो गई है। पूर्व मुख्यमन्त्री अशोक गहलोत ने राज्य सरकार पर सूखे की स्थिति से निपटने के लिए पुख्ता व्यवस्था न किए जाने का आरोप लगाया है। गहलोत का कहना है कि भयंकर अकाल व सूखे के चलते लाखों किसानों के सामने जीवनयापन का संकट खड़ा हो गया है, लेकिन सरकारें इसे समझ नहीं पा रही हैं। मनरेगा के कारण सरकारों पर से अकाल-सूखे से निपटने का दबाव कम हो गया है। हकीकत में इसे गम्भीरता से लिया जाना चाहिए।

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