पानीदारी के लिये रवायतों का सहारा


चोहड़े, पहाड़ी नालों पर चेकडैम, तालाबों की मेड़बंदी के प्रयासों के बावजूद दूर नजर आ रही मंजिल तक पहुँचने के लिये एक टोली ने बुंदेली रवायतों को फिर बढ़ावा देने का प्रयास शुरू किया है। जिसमें प्रसूता से ‘कुआँ पूजा’ और वधू की विदा के समय पानीदार कुओं में ताम्बे का सिक्का डालने और राह में मिलने वाली नदी की पूजा अर्चना शामिल है। मक्सद, कुआँ, नदी के प्रति आस्था पैदा कर जल संरक्षण के लिये प्रेरित करना है और इसमें कामयाबी भी मिल रही है।

बुन्देलखण्ड में पानी का हमेशा संकट रहा है। यही वजह है कि पानी की दुश्वारी पर जितने गीत इस क्षेत्र में लिखे गए, उतने गीतों की नजीर राज्य के दूसरे हिस्सों में नहीं मिलती। कहा जाता है कि तत्कालीन मनीषियों ने जल संरक्षण जागरूकता के लिये मांगलिक कार्यों के दौरान कुआँ, नदी पूजा की परम्परा शुरू की थी। लोगों में तार्किक क्षमता के विस्तार के साथ ही ऐसी परम्परा पर विराम लगना शुरू हो गया। जालौन, ललितपुर, मऊरानीपुर, झांसी में जल संरक्षण के प्रति जागरूकता अभियान चला रही ‘परमार्थ’ के सचिव संजय सिंह कहते हैं कि क्षेत्रीय लोगों को एकजुट होकर जल संरक्षण का अभियान चलाया गया।

जलपुरुष राजेन्द्र सिंह के साथ मिलकर 'जल सहेलियों' का गठन किया। उन्हें राजस्थान के अलवर ले जाकर जल संरक्षण का प्रशिक्षण दिलाया और ‘पानी पंचायत’ का गठन किया गया। प्रत्येक पंचायत में 15 से 25 महिलाओं को स्थान दिया गया। इससे लोगों में जल संरक्षण का भाव तो पैदा हुआ लेकिन लक्ष्य दूर था। लिहाजा जल सहेलियों को बरसों पुरानी रवायतों के जरिये जल संरक्षण का अभियान तेज करने का प्रयास किया जा रहा है। वह बताते हैं कि प्रसूति के बाद कामकाज के लिये घर से बाहर निकलने से पहले कुआँ पूजन सैकड़ों साल पुरानी रवायत रही है, इसे फिर जिंदा करने का प्रयास किया जा रहा है। कुआँ पूजा के लिये जाने वाली प्रसूता के साथ महिलाएँ, बच्चे भी गीत गाते हुए जाते हैं। इन गीतों में ही जल संरक्षण के प्रति जागरूकता के गीत भी शामिल करने का प्रयास होगा।

बुन्देलखण्ड में वधू को विदा कराकर जाते समय जलदार कुएँ में ताम्बे के सिक्के डालने की परम्परा है। वैज्ञानिक तथ्यों से स्पष्ट है कि ताम्बे के सिक्के से पानी शुद्ध होता है। जब हम बेटे की शादी करते हैं और बहू को घर लाते हैं उस दौरान जो नदी मिलती है नदी को पूजते हैं और नारियल चढ़ाते हैं।

नदियों के प्रति सम्मान की इसी धरोहर को संजोने का अभियान छेड़ा गया है। वह कहते हैं कि इस अभियान के लिये वह कोई सरकारी मदद नहीं लेते हैं। अभियान में जनता व निजी क्षेत्र के लोगों की ही मदद ले रहे हैं। वह कहते हैं कि अगर बरसों पुरानी परम्परा ने फिर रफ्तार पकड़ी तो निश्चित रूप से लोगों में जल संरक्षण के प्रति चेतना बढ़ेगी और बुन्देलखण्ड को एक बार फिर पानीदार बनाने में मदद मिलेगी।

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