प्राकृतिक संसाधनों के समन्वित प्रबंधन के कारण सिंचाई के लिये पानी उपलब्ध हुआ है। कृषि विज्ञान केन्द्र द्वारा आयोजित प्रशिक्षण एवं फसल प्रदर्शन से किसानों के अंदर जागरूकता आई, आत्मविश्वास बढ़ा और अत्यधिक उत्पादन लेने की चेष्टा ने उर्वरकों के प्रयोग की तरफ ध्यान आकृष्ट किया। जहाँ पहले किसान नाम मात्र का उर्वरक प्रयोग करता था आज कृषि विज्ञान केन्द्र में मिट्टी परीक्षण के पश्चात विशेषज्ञों की सलाह पर इसका प्रयोग जैविक खादों के साथ-साथ करना शुरू कर दिया है।
मिट्टी पानी, वनस्पति, पशु और मानवीय संसाधन किसी भी क्षेत्र की उत्पादकता निर्धारित करने के लिये प्राकृतिक योगदानकर्ता हैं। इन प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से कल्पनातीत क्षति पहले ही हो चुकी है तथा भविष्य में भी मानव जाति के अस्तित्व के लिये गंभीर खतरा बनी हुई है। अतः विकास हेतु इनका समन्वित प्रबंधन अति आवश्यक है। जिससे उत्पादकता एवं परिस्थिति का संतुलन बना रहे। मध्य प्रदेश के अधिकांश जिले, वनों एवं अन्य प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर होते हुए भी प्रत्येक वर्ष माह जनवरी से वर्षा के पूर्व तक पेयजल संकट से प्रभावित हो जाते है। इस समस्या से सतना जिला भी परे नहीं रहा। पर्याप्त संसाधनों की उपलब्धता के बावजूद जिले के अधिकतर भाग अथवा क्षेत्रों में जलस्तर सामान्य से नीचे है, जो कि निरंतर नीचे की ओर ही भागता जा रहा है। जिसके कारण सिंचाई के साथ ही पेयजल का संकट बना हुआ है।वर्ष भर पेयजल की आपूर्ति के साथ ही सिंचाई हेतु पानी उपलब्ध हो सके इस आशय से दीनदयाल शोध संस्थान कृषि विज्ञान केन्द्र सतना (म.प्र.) द्वारा राजीव गांधी जलग्रहण क्षेत्र प्रबंधन मिशन के अंतर्गत मिली वाटरशेड मझगवाँ (कोड नं.2 सी 1 ए 3 सी.) का कठिन एवं चुनौतीपूर्ण कार्य अपने हाथ में लिया गया। भूमि एवं जल के समुचित प्रबंधन हेतु 18 ग्रामों की कुल 12536 हेक्टेयर भूमि की योजना-रचना ग्रामीणजनों की पूर्ण सहभागिता के आधार पर की गई।
इस मिली वाटरशेड का एक तिहाई भाग ऊँची-नीचे पहाड़ियों से घिरा हुआ है। जिसके कारण वर्षा का पानी अपवाह जल के रूप में छोटी-छोटी नालियों से होता हुआ बड़े नाले में मिलता है। जहाँ से बहता हुआ गाँव की सीमा रेखा से बाहर चला जाता है जो हमारे उपयोग से परे हो जाता है। परिणामस्वरूप पानी का संकट सदैव बना रहता है। हम जानते हैं कि अन्न का स्रोत है कृषि, कृषि ही ऐसा अनुपम कृत्य है जिस पर मानव का जीवन एवं भविष्य निर्भर है। कृषि से ही उदर भरण-पोषण एवं अन्य संबंधित आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकती हैं। हमारे प्राकृतिक संसाधन अर्थात भूमि एवं जल सीमित हैं। इन पर असीमित आबादी का बोझ बढ़ता जा रहा है। दो वक्त की रोटी का इंतजाम कृषि के द्वारा ही हो पाता है। यह तभी संभव है जबकि फसलों से अधिकाधिक उत्पादन प्राप्त हो। इस हेतु मिट्टी का कटाव रोकना होगा तथा सिंचाई हेतु पानी की व्यवस्था करनी होगी।
इस मिली वाटरशेड के अंतर्गत चयनित सभी ग्राम समस्याग्रस्त हैं जहाँ पीने का पानी भी पूरे वर्ष सहजता से उपलब्ध नहीं हो पाता था, वहाँ सिंचाई के पानी की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। चयनित 18 ग्रामों के जागरूक एवं साधन संपन्न किसान ही प्राकृतिक नालों से मात्र 66 हेक्टेयर क्षेत्र पर सीमित सिंचाई कर पाते थे। किसानों के स्वाभिमान पूर्ण जीवन-यापन के लिये यह आवश्यक है कि हमारे गाँव सुविधायुक्त हों जहाँ पर्याप्त पानी हो, लहलहाती फसलें हों, स्वस्थ सेहतमंद समाज हो, शिक्षा एवं स्वास्थ्य संबंधी सेवाओं की भी व्यवस्था हो। यह तभी संभव है जब सरकारें, स्वयंसेवी संस्थायें एवं पंचायतें परस्पर पूरकता के आधार पर कार्य करें।
इस परिकल्पना को साकार रूप प्रदान करने के आशय से दीनदयाल शोध संस्थान कृषि विज्ञान केन्द्र सतना द्वारा वर्ष 1997 से क्षेत्र की समस्याओं का आकलन एवं उसकी प्राथमिकता निर्धारण तथा कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में आवश्यक सहयोग एवं उपयोगी तकनीकी जानकारी, सतत उपलब्ध कराई जा रही है।
पानी प्रकृति प्रदत्त संसाधन है, जो सभी प्राणियों के प्राणों का आधार है। पानी ही मानव को हर दृष्टि से पानीदार बनाता है। पानी है तो जीवन है, फसलें हैं, हरियाली और खुशहाली है। बिन पानी कहीं कुछ भी नहीं।
गिरता हुआ भूजलस्तर:
आज सर्वाधिक गंभीर समस्या भूजलस्तर की है, जो अबाधगति से निरंतर नीचे की ओर ही भागता जा रहा है। जिसका मुख्य कारण वानस्पतिक आवरण के साथ मानव का निर्दयतापूर्ण व्यवहार रहा है। पशुओं की अनियंत्रित चराई एवं वनों की कटाई के कारण आज धरती नंगी होती जा रही है। नंगी धरती पर जब वर्षा की बूँदें प्रहार करती हैं तो मिट्टी का कटाव होता है बारिश का पानी जमीन में प्रवेश किये बिना ही अपने साथ उपजाऊ मिट्टी को बहाकर ले जाता है। इससे मैदानी क्षेत्रों में बाढ़ आ जाती है और जलाशयों में मिट्टी जमा होने से उनकी जलधारण क्षमता घट जाती है। एक तरफ तो धरती के सीने में छेद करके नलकूपों के माध्यम से पानी बाहर निकाला जा रहा है, दूसरी तरफ भूमिगत जलस्तर को बढ़ाने में सहायक वानस्पतिक आवरण व वनों के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। यही कारण है कि धरती का जलस्तर दिन प्रतिदिन गिरता ही जा रहा है। वनों की अंधाधुंध कटाई हुई जिसके कारण एक ओर तो वर्षा के परिमाप में कमी आई है तो दूसरी ओर वृक्षों की जड़ें जो जमीन को बाँधे रखती थीं, आज उनके अभाव में मिट्टी का कटाव होने लगा है।
वर्षा की स्थिति:
वर्ष | वर्षा की मात्रा (मिमी.) | वर्षा के दिन (संख्या) |
2003 | 1298 | 49 |
2004 | 824 | 44 |
2005 | 1003 | 43 |
2006 | 748 | 34 |
2007 | 635 | 24 |
2008 | 751 | 41 |
आंकड़ों को आधार मानें तो सतना जिले के मझगवां विकासखंड में पिछले कई वर्षों से लगातार वर्षा की मात्रा तथा वर्षा के दिनों में कमी आई है। ऐसी स्थिति में फसलों के आच्छादन क्षेत्र के साथ ही उत्पादन एवं उत्पादकता भी प्रभावित हुई है। खेती पर आश्रित परिवारों का जीवन कठिन एवं चुनौती-पूर्ण होता जा रहा है। कई गाँवों में पीने के पानी का संकट आहट देने लगा है।
जल संकट का कारण:
- ऊँची-नीची प्राकृतिक बनावट के कारण अत्यधिक भूमि क्षरण।
- पेड़ कट रहे हैं, जंगल घट रहे हैं।
- जानवर चारे की तलाश में चारागाह एवं वन रौंद रहे हैं।
- अनुपयुक्त सिंचाई एवं जल निकास प्रणाली।
- जनसंख्या में बेशुमार वृद्धि।
- वर्षा की मात्रा एवं दिनों की संख्या में कमी।
- बढ़ता हुआ औद्योगीकरण।
- बढ़ता हुआ शहरीकरण।
- अनुपयुक्त फसलों का चयन।
- बढ़ती हुई विलासितापूर्ण, भोगवादी प्रवृत्ति।
- पानी की अनावश्यक बर्बादी।
- परंपरागत जल स्रोतों पर अतिक्रमण एवं उपेक्षा।
- भूजल पर बढ़ती हुई आत्मनिर्भरता।
- पानी पर अधिकार और जिम्मेदारी में विषमता।
इस संकट से निपटने के लिये यह आवश्यक है कि सरकारें एवं समाज एक साथ मिलकर योजना-रचना एवं उसका क्रियान्वयन करें तो इसका समाधान आसानी से निकाला जा सकता है। इसके लिये पहली जरूरत समाज को पानी के काम की जिम्मेदारी सौंपने की है। जहाँ पानी दौड़ता है, समाज उसे वहाँ चलना सिखायेगा, जहाँ पानी चलता है वहाँ उसे रेंगना सिखायेगा और जहाँ पानी रेंगने लगे वहीं उसे पकड़कर धरती के पेट में पहुँचा देना होगा। जहाँ वर्षा की बूँदें जमीन के संपर्क में आयेंगी वहीं उसे पकड़कर धरती के पेट में पहुँचाने की योजनानुसार कृषि विज्ञान केन्द्र सतना इस प्रकार कार्य संपन्न कराया गया है।
निर्मित सभी संरचनाएँ टिकाऊ एवं उपयोगी बनी रहें इस आशय से प्रत्येक संरचना के लिये उपयोगकर्ता दल का गठन किया गया है। जो इसकी देखरेख के दायित्वों का निर्वहन करते हुये समुचित उपयोग कर लाभान्वित हो रहे हैं। जीवन-यापन के लिये जंगलों पर निर्भर रहने वाले परिवार आज खेती के काम पर लगकर अच्छा उत्पादन प्राप्त कर रहे हैं। कुओं एवं हैण्डपंप के जलस्तर में वृद्धि हुई है। आज पूरे वर्ष पीने के पानी के साथ ही सिंचाई का भी पानी उपलब्ध हुआ है।
भूमि जलस्तर में वृद्धि
प्रकृतिक संसाधनों का प्रबंधन- टिकाऊ विकास:
प्राकृतिक संसाधनों के समन्वित प्रबंधन के कारण सिंचाई के लिये पानी उपलब्ध हुआ है। कृषि विज्ञान केन्द्र द्वारा आयोजित प्रशिक्षण एवं फसल प्रदर्शन से किसानों के अंदर जागरूकता आई, आत्मविश्वास बढ़ा और अत्यधिक उत्पादन लेने की चेष्टा ने उर्वरकों के प्रयोग की तरफ ध्यान आकृष्ट किया। जहाँ पहले किसान नाम मात्र का उर्वरक प्रयोग करता था आज कृषि विज्ञान केन्द्र में मिट्टी परीक्षण के पश्चात विशेषज्ञों की सलाह पर इसका प्रयोग जैविक खादों के साथ-साथ करना शुरू कर दिया है।
आजीविका का आधार हुआ सशक्त
मिली वाटरशेड कृषि विज्ञान केन्द्र मझगवां के अधीनस्थ 18 ग्रामों में जहाँ कभी पीने के पानी का संकट हुआ करता था, जानवरों को चारे व पानी की तलाश में मीलों भटकना पड़ता था, किसान वर्षाधारित मुश्किल से केवल एक ही फसल ले पाता था, दो जून की रोटी की व्यवस्था हेतु पलायन की नौबत तक आ जाती थी। आज वहाँ मिट्टी व पानी के संरक्षण तथा संवर्धन हेतु निर्मित संरचनाओं के प्रभाव के कारण सिंचित क्षेत्र में विस्तार हुआ है। किसान 3550 हेक्टेयर क्षेत्र पर सिंचाई कर वर्ष में दो-तीन सिंचित फसलें सफलतापूर्वक ले रहे हैं। सब्जी उत्पादन के क्षेत्र में भी विस्तार हुआ है। पशुओं के लिये चारा व पानी गाँव-गाँव में उपलब्ध हुआ है जिसके कारण पशुओं के स्वास्थ्य में सुधार होने के साथ ही दुग्ध उत्पादन में वृद्धि हुई है। ग्रामीणजनों को अपने ही गाँव में, खेतों पर कार्य का अवसर प्राप्त हुआ है। इस प्रकार पानी के प्रबंधन में ग्रामीणजनों की मेहनत रंग लाई और खुशहाल जीवन की कल्पना साकार होती चली गई।
निष्कर्ष:
वर्षाजल प्रबंधन कार्यों के परिणामस्वरूप ग्रामीणजनों को अपने ही गाँव में कार्य का अवसर प्राप्त हुआ है, वे अपने गाँव तथा खेतों पर कार्य करते हुए स्वावलंबन की ओर अग्रसर हो रहे हैं। जल प्रबंधन कार्यों से पूर्व परिवारों की औसत आय रु. 11760 प्रतिवर्ष हुआ करती थी। आज वे अपने-अपने श्रम से रु. 30540 प्रतिवर्ष अर्जित कर रहे हैं। जिसके कारण ग्रामीणों के रहन-सहन, खान-पान एवं व्यवहार में आश्चर्यजनक परिवर्तन परिलक्षित होने लगा है। अतः पानी ग्रामीणजनों के समृद्धि व स्वावलंबन का टिकाऊ आधार है। यह सदैव जीवंत बना रहे इस आशय से किसान कृषि विज्ञान केन्द्र से सतत तकनीकी मार्गदर्शन एवं समस्याओं के समाधान हेतु स्वयमेव संपर्क बनाये रखने में समर्थ हुए हैं।
लेखक परिचय
वेद प्रकाश सिंह, डॉ. एस.एन. सिंह
दीनदयाल शोध संस्थान, कृषि विज्ञान केन्द्र, मझगवाँ, सतना (म.प्र.) 485331
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