पानी तय करेगा हमारा मानवीय होना

अब कोई अपने पानी को बांटना नहीं चाहता। वे भी नहीं जिनके पास अच्छा-खासा पानी है। मसलन, मुंबई की हाउसिंग सोसाइटी ये नियम बना रही हैं कि कोई बाहरी शख्स पानी को बाहर न ले जाए। असल में ये बाहरी भी अंदर के ही लोग हैं। ये हमारे घरों में काम करने वाले हैं। उनके बिना हमारी जिंदगी नहीं चल सकती। ये वे लोग हैं जो घरों में साफ-सफाई करते हैं, कपड़े धोते हैं, बर्तन मांजते हैं। ये उन घरों में काम करते हैं, जहां पानी पाइप के जरिए आता है। यहां काम करने के बाद वे अपने घरों को जाते हैं।

चार बाल्टी पानी से क्या आप पांच लोगों के परिवार का काम चला सकते हैं? यह ज्यादा से ज्यादा 80 लीटर दिन भर में हुआ। यानी 20 लीटर प्रति व्यक्ति हर रोज। यही नहीं कभी-कभी तो दिन भर में एक बूंद भी पानी नहीं। ये लाखों लोग इस चुनौती को किसी रेगिस्तान में नहीं झेल रहे हैं। ये मुंबई के लोग हैं, जहां हिंदुस्तान के किसी भी शहर से बेहतर पानी की व्यवस्था है। अगली पानी की लड़ाई देशों के बीच नहीं होगी। वह तो शहरों में दो वर्गो के बीच होगी। अगर लोग ऐसा कहते हैं, तो क्या गलत है।

असल में अगली लड़ाई गरीब और अमीर के बीच होनी है। यों अमीरों को भी पानी कटौती का सामना करना पड़ेगा। वह कटौती पहले ही शुरू हो गई है। लेकिन वे अपना काम चला लेते हैं। उनके पास पानी को बचा कर रखने की क्षमता होती है। फिर वे पानी खरीद भी सकते हैं। दूसरी ओर गरीबों को पहले से ही कम मिल रहे पानी का और भी कम हिस्सा मिलेगा। उनके रहने की जगह स्थायी तो होती नहीं, इसलिए उनकी पानी को बचा कर रखने की क्षमता भी नहीं होती। सो, गरीब और अमीर की खाई को पानी भी तय करेगा।

इस कमी से महिलाओं पर बोझ और बढ़ जाएगा। पानी का स्तर घट रहा है। पहाड़ों की बर्फ कम पिघल रही है। उसकी वजह से रेगिस्तान, पहाड़ों या शहर और गांवों में रहने वाली महिलाओं को पानी के लिए ज्यादा जूझना होता है। किसी तरह उन्हें रोजमर्रा के काम यानी नहाना, धोना, साफ-सफाई या खाना पकाना ही पड़ता है। उन्हें दो-तीन बाल्टी पानी तो चाहिए ही। उसके लिए चाहे उन्हें ज्यादा चल कर जाना पड़े या किसी से मांग कर काम चला लें।

पानी के इस संकट से कोसों दूर कुछ खास कॉलोनियां और ‘भविष्य के शहर’ हैं, जो जमीन के नीचे के हमारा साझा पानी का खुलकर दोहन कर रहे हैं। बिना यह सोचे कि उनके आसपास रहने वाले लोगों पर इसका क्या असर पड़ेगा? आखिर ये लोग इसी पानी के सहारे जी रहे हैं। इसी वजह से जिनके पास खूब पानी था। अब वे परेशान हो रहे हैं। लेकिन जिनके पास अपने शहरी द्वीप बनाने के लिए पैसा है, वे खुल्लमखुल्ला पानी की बर्बादी कर रहे हैं। और उस पानी को वे ‘अपना’ कहते हैं। उनके स्वीमिंग पूल और फव्वारे कभी नहीं सूखते। लेकिन उनके इर्द-गिर्द बसे गांव वाले हैरान होते हैं कि उनके कुओं का पानी क्यों सूखता जा रहा है?

पानी की कमी के इस दौर में एक दिक्कत साफ दिखाई दे रही है। अब कोई अपने पानी को बांटना नहीं चाहता। वे भी नहीं जिनके पास अच्छा-खासा पानी है। मसलन, मुंबई की हाउसिंग सोसाइटी ये नियम बना रही हैं कि कोई बाहरी शख्स पानी को बाहर न ले जाए। असल में ये बाहरी भी अंदर के ही लोग हैं। ये हमारे घरों में काम करने वाले हैं। उनके बिना हमारी जिंदगी नहीं चल सकती। ये वे लोग हैं जो घरों में साफ-सफाई करते हैं, कपड़े धोते हैं, बर्तन मांजते हैं। खाना पकाने का काम करते हैं। ये उन घरों में काम करते हैं, जहां पानी पाइप के जरिए आता है। यहां काम करने के बाद वे अपने घरों को जाते हैं। ये घर झोपड़पट्टी में होते हैं। वहां कई-कई दिनों तक पानी नहीं आता। इस हाल में भी हम उन्हें पानी नहीं लेने देते। दुनिया भर में कोई सभ्यता-संस्कृति नहीं है, जो जरूरतमंद या प्यासे को पानी देने से मना करती हो। लेकिन शहर का मध्य वर्ग यही कर रहा है।

पानी के इस संकट से कोसों दूर कुछ खास कॉलोनियां और ‘भविष्य के शहर’ हैं, जो जमीन के नीचे के हमारा साझा पानी का खुलकर दोहन कर रहे हैं। बिना यह सोचे कि उनके आसपास रहने वाले लोगों पर इसका क्या असर पड़ेगा? आखिर ये लोग इसी पानी के सहारे जी रहे हैं। इसी वजह से जिनके पास खूब पानी था। अब वे परेशान हो रहे हैं। लेकिन जिनके पास अपने शहरी द्वीप बनाने के लिए पैसा है, वे खुल्लमखुल्ला पानी की बर्बादी कर रहे हैं। और उस पानी को वे ‘अपना’ कहते हैं। उनके स्वीमिंग पूल और फव्वारे कभी नहीं सूखते। लेकिन उनके इर्द-गिर्द बसे गांव वाले हैरान होते हैं कि उनके कुओं का पानी क्यों सूखता जा रहा है?

अब समय आ गया है। हमें उन लोगों से सीखने की जरूरत है, जो बेहद कम पानी से काम चलाते रहे हैं। अपने यहां सदियों से ऐसे समाज रहे हैं, जो बेहद कम पानी से ही अपनी गुजर बसर करते रहे हैं। यह अलग बात है कि उनके अनुभव को हमने अपनी जिंदगी का हिस्सा नहीं बनाया। इस मसले पर दुनिया का एक समाज है, जो हमें सचमुच कुछ सीख दे सकता है। और बता सकता है कि पानी की किल्लत से कैसे जूझा जाए? ये समाज है कालाहारी डेजर्ट के बुशमैन।

हमारे यहां पानी की योजना बनाने वालों को एक किताब जरूर पढ़नी चाहिए। यह किताब जेम्स जी. वर्कमैन की लिखी ‘हार्ट ऑफ ड्राइनेस: हाउ द लास्ट बुशमैन कैन हेल्प अस ऐन्डय़ोर द कमिंग एज ऑफ पर्मानेंट ड्रॉट’ है। इसे न्यूयॉर्क की वॉकर पब्लिशिंग कंपनी ने पिछले साल ही छापा है। वर्कमैन पानी के मामलों के अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञ हैं। बोत्सवाना के कालाहारी डेजर्ट में बुशमैन की जिंदगी पर उन्होंने काम किया है। वर्कमैन ने वहां रह कर महसूस किया कि असली पानी के विशेषज्ञ तो ये लोग हैं। असल में जिस माहौल में बुशमैन रहते हैं, उसकी तो हम कल्पना भी नहीं कर सकते। लेकिन इतने खराब माहौल में भी वे जीते रहे। फिर बाहर के कुछ लोग आए और उन्होंने उनके पानी के सोतों को काट दिया। और वे वहां से जाने को मजबूर हो गए।

वर्कमैन ने बुशमैन की पानी को लेकर बनाई ‘आचार संहिता’ का भी जिक्र किया है। उसमें लोगों को यह अधिकार है कि वे अनौपचारिक तौर पर पानी के संसाधन को देखते हुए अपनी जरूरत तय करें। फिर उन लोगों से बातचीत करें जिनसे वे जरूरत के हिसाब से कम या ज्यादा पानी ले सकते हैं। और जरूरत पड़ने पर पानी को देखते हुए उसका कम या ज्यादा इस्तेमाल कर सकते हैं। ये लोग अपनी जरूरतों को कम करते हुए पानी की मात्र बढ़ा सकते हैं। इस तरह से मिल जुल कर वे पानी के मामले में अच्छे-खासे ‘खुशहाल’ हो जाते हैं।

ये लोग अपने पानी की ठोस व्यवस्था को सामाजिक खुशहाली की स्थिति कहते हैं। वे सचमुच अपने समाज को खुशहाल बना देते हैं। लेकिन हम जो अपने शहरों में देख रहे हैं, वह उससे बिल्कुल उलट है। दरअसल, हम ऐसा माहौल बना रहे हैं, जहां बांटने और देने दोनों से दूर होते जा रहे हैं। वर्कमैन तो बुशमैन के दीवाने हो गए। पानी के संकट से निपटने के लिए उनका कोई जवाब नहीं है। वह लिखते हैं, ‘कालाहारी के बुशमैन मानते हैं, ‘हमारा अपनी जलवायु या बादलों या बारिश वगैरह पर कोई नियंत्रण नहीं हो सकता। इसलिए हम पानी को नहीं चला सकते। लेकिन पानी हमें चलाता है।’ सचमुच पानी ही हमें चलाता है। फिर वही तय करेगा कि हम एक मानवीय समाज हैं भी या नहीं।

लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं

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