पानी-रे-पानी तेरा रंग कैसा


पानी बचाने के हमारे तरीके कैसे-कैसे थे, इसका अहसास इस बात से भी होता है कि घरों में बड़े-बुजुर्ग यह कहते पाये जाते हैं कि पानी लक्ष्मी है। पानी की बर्बादी से लक्ष्मी की बर्बादी होती है। समाज ने जल-संरक्षण का अपना एक मैकेनिज्म विकसित कर लिया था जिसमें बरसात और बाढ़ के पानी को बचाने पर जोर था। आज स्थिति इसके ठीक उलट है। बचपन से ही सुनती आई थी कि मुम्बई में सात झील हैं। मुझे मुम्बई में रहते हुए पैंतीस साल हो गए। वर्षों से विहार, तुलसी, पवई, उपवन, बांद्रा तलाव, तलाव पाली आदि झीलों से यहाँ पानी की सप्लाई होती आ रही है। मोदक सागर और वैतरना डैमों में पानी संरक्षित किया जाता है। बीते कुछ सालों में इस महानगर की आबादी सवा करोड़ हो रही है।

इस दौरान बहुत से फ्लाईओवर, मेट्रो ट्रेन, लोकल ट्रेन आदि की सुविधाएँ बढ़ीं। मुझे लगता है, जिस अनुपात में आबादी बढ़ी और दूसरी सुविधाएँ बढ़ीं, उस अनुपात में पानी को संरक्षित करने के लिये जलाशय या सरोवर नहीं बनाए गए कि बारिश के पानी को इकट्ठा किया जा सके। हमारे देश में तो आज भी बारिश का पानी ज्यादातर वैसे ही बह जाता है।

दरअसल, अभी तक नैसर्गिक या आसानी से उपलब्ध संसाधनों का मूल्य हम लोग नहीं समझ पाये हैं। मुझे याद आता है, जब बचपन में गर्मी की छुट्टियों में हम नानी के घर आगरा जाते थे, तो वहाँ पानी की दिक्कतें होती थीं।

घर में जब सप्लाई का पानी आता था, तब नानी की कोशिश होती थी कि ज्यादा-से-ज्यादा बर्तनों में पानी भरकर रख लिया जाये या ज्यादा-से-ज्यादा घर का काम उस समय निपटा लिया जाये। ये दिक्कतें होती थीं। इन्हें हम सहज ही जी लेते हैं। उन दिनों एक बाल्टी पानी से ही पूरे घर में पोंछा लग जाया करता था।

इतना ही नहीं, बर्तन भी बाल्टी में पानी भरकर धोया जाता था, ताकि पानी कम खर्च हो। बहरहाल, अब मुझे महसूस होता है कि हम अपनी जिन्दगी की जरूरतों और सच्चाइयों से बावस्ता नहीं होना चाहते। हमारी दिलचस्पी इसमें नहीं कि हमारी कॉलोनी में पानी सप्लाई की पाइप टूटी हुई है या आज पानी की सप्लाई नहीं आई। बल्कि, इसके बजाय हमारी दिलचस्पी आईपीएल के मैच में होती है। जहाँ हजारों लीटर पानी पिच के ऊपर बहाया जाता है और हम ताली बजाकर खुश होते हैं।

मुझे याद आता है, अपने बचपन के समय की रेलगाड़ियों का वह सफर जब स्टेशनों पर ट्रेन रुकती थी और लोग पानी भरते थे। धीरे-धीरे वह चलन बन्द हो गया। अब लोग बोतलें खरीदकर पानी पीना पसन्द करते हैं। मारवाड़ी समाज पानी को लेकर काफी सचेत रहा है। ज्येष्ठ की एकादशी के दिन तो खासतौर पर पानी के दान को महत्वपूर्ण माना जाता है। जगह-जगह ये लोग अपने माता-पिता के नाम से प्याऊ लगवाते हैं। जिन दिनों में मुम्बई में शुरू-शुरू में आई थी, उन दिनों लोकल ट्रेनों में सफर करती थी, तब अक्सर, प्यास लगने पर उन प्याऊ की तरफ रुख हो जाता था।

सत्तर के दशक की बात है, उन दिनों मैं आकाशवाणी मथुरा में उद्घोषिका की नौकरी करती थी। प्रसारण की शुरुआत सुबह छह बजे होती थी। इसके लिये मैं सुबह साढ़े चार बजे रिक्शा लेकर घर से निकलती। ताकि, साढ़े पाँच बजे तक वहाँ पहुँचकर अपनी ड्यूटी कर सकूँ। रोजाना की तरह उस सुबह भी मैं रिक्शा लेकर घर से निकली। आधे रास्ते तक पहुँची तो रिक्शा रुक गया। रिक्शे वाले ने कहा कि- ‘बोट खड़ी है।’ पता चला कि वहाँ बाढ़ आ गई है, क्योंकि किसी डैम से पानी छोड़ा गया था। मैं किसी तरह ऊँचाई पर बने आकाशवाणी के स्टेशन पर बोट से पहुँची। जब वहाँ पहुँची तो मेरे सामने दिक्कत थी कि टेप की लाइब्रेरी बन्द।

समस्या सामने कि अब क्या करूँ? मुझे कहा गया कि ताला तोड़ दीजिए, फिर, मैंने ताला तोड़कर टेप निकाला। उस सुबह के प्रोग्राम में सबसे पहले गाना बजाया- ‘पानी-रे-पानी तेरा रंग कैसा।’ वह मुझे आज भी नहीं भूलता। पानी का वही विकराल रूप 2005 की बाढ़ में मुम्बई में देखा। उस रोज फिल्म सिटी में फिल्म ‘बाबुल’ की शूटिंग चल रही थी। पूरी फिल्म सिटी डूब गई थी। बहुत से लोगों ने कारों में ही अपनी रात बिताई थी। सच तो यह है कि पानी जीवनदायिनी है, इसलिये यह माँ का स्वरूप है, तभी तो हमारे यहाँ नदियों को ‘गंगा माँ’ या ‘यमुना माँ’ कहा जाता है।

माँ अक्सर कहतीं थीं कि पानी लक्ष्मी होती हैं। इसे बेवजह बर्बाद नहीं करना चाहिए। इसे नष्ट करने से जलदेवता नाराज हो जाते हैं। यह एक तरह का मनोवैज्ञानिक दबाव मानस में सुन-सुनकर अंकित हो जाता था। क्योंकि, परिवार में कई पीढ़ियाँ जब साथ रहती हैं, तब बहुत-सी व्यावहारिक बातें आप यूँ ही सीख लेते हैं। आज मेरे घर में कहीं भी थोड़ी-सी लीकेज होती हैं, तो मैं तुरन्त प्लम्बर बुलाकर ठीक करवाती हूँ।

मेरे श्वसुर एलपी नागरजी के लिये मथुरा में लोग कहते थे- ‘भागीरथ गंगा लाए, नागरजी आए यमुना लाए।’ वे हरिद्वार के ज्वालापुर से मथुरा आ गए थे। उन्होंने यमुना के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विश्राम घाट का निर्माण करवाया था। इस घाट के बारे में कथा है कि यम द्वितीया के दिन भाई-बहन यम-यमुना का मिलना होता था। घाट से यमुना दूर हो गई थी। तब दादाजी ने नहर खोदना शुरू किया, विश्राम घाट को यमुना से जोड़ने के लिये। उन्होंने खुदाई शुरू की तो आसपास के और लोग जुड़ गए। इस तरह समाज ने श्रमदान के जरिए वह काम किया, तब से आज तक यमुना घाट से दूर नहीं हुई। वास्तव में, आज लोग अपने आसपास कि फिक्र नहीं करते, वे सिर्फ अपने घर, बेडरूम, टीवी, मोबाइल तक सीमित हो गए हैं।

वास्तव में, जल जीवन है। जल नहीं तो हम अपने जीवन की परिकल्पना नहीं कर सकते। हमारे जीवन में पानी, जल देने वाली वर्षा ऋतु लेकर आती है। वसन्त की सारी छटा इस ऋतु पर निर्भर है। अगर समय पर पानी नहीं हो, तो फिर कहाँ वसन्त और कहाँ उसकी वासन्ती छटा? हमारे कृषि प्रधान देश में चाहे कितना भी विकास हो जाये किसान का जीवन तो काले बादलों की आशा में बीतता है। वह उसकी राह ताकता है। इस बारिश और उसके पानी की राह निहारते हुए ही शायद कवि हरिश्चन्द्र ने लिखा है-‘अगर बरसात का मौसम हो, खाट टूटी हुई हो, छप्पर चू रहा हो और उस समय प्रिय से मिलन हो तो सारे दुख, सुख में बदल जाते हैं।’

(लेखिका प्रसिद्ध पटकथा लेखिका हैं)

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Post By: RuralWater
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