सारांश - विकास की ओर तेजी से बढ़ रहे भारतीय समाज में जल संरक्षण के प्रति जागरूकता भी बढ़ रही है। विभिन्न जल संरक्षण अभियानों के माध्यम से जल को बचाने के प्रयास हो रहे हैं। इन प्रयासों में मास मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण है। मास मीडिया पानी-पर्यावरण के बारे में सही शिक्षण लाकर मानवीय समाज को जल संरक्षण के लक्ष्य तक पहुंचा जा सकता है।
‘जल ही जीवन है’ जल के बिना मनुष्य अधूरा है। पर्यावरण में जल को महत्व दिया जाता है। जल जीवमंडल यह नदियों और मीठे पानी की झीलों और अवमृदा में समाविष्ट है। जलचक्र में पेडों का बड़ा योगदान है। वर्षा के पानी को बाढ़ के रूप लेने से बचाने में पेड़ों की जड़ों का बहुत बड़ा योगदान होता है। इन्हीं बातों को संचार मीडिया द्वारा पानी-पर्यावरण शिक्षण के बारे में मानवीय चेतना पैदा करना आवश्यक है। ऑक्सीजन यह मानवी जीवन को सुरक्षित रखने वाला घटक है। पर्यावरण संतुलन से इस घटक की रक्षा जरूरी है। स्वयं मनुष्य, प्राणी और वन्यजीव प्राणियों के जिन्दा रहने के लिए ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है। कार्बन डायऑक्साइड यह पेड़ों और पौधों के लिए जरूरी है यह दोनों प्रक्रिया पर्यावरण में चलती रहती है इसके बारे में जनमीडिया द्वारा आम आदमी को जानकारी एवं सूचनाएँ आवश्यक है।
पानी-पर्यावरण शिक्षण की परिभाषा एवं पानी-पर्यावरण शिक्षण का महत्व
पर्यावरण एवं शाश्वत विकास हेतु पानी-पर्यावरण शिक्षण का महत्व है जल संरक्षण की जन जागरूकता के लिए अनूठे अभियान ‘जल है तो कल है’ यह मानवीय समाज को सोचना होगा। कृषि एवं जल संरक्षण के बारे में जनमीडिया प्रमुखता से पर्यावरण संरक्षण के लिए जल की परिभाषा एवं महत्व को विशद करे। जौन अनुश्री के अनुसार ‘पृथ्वी जल, आकाश, वायु व अग्नि इन पाँच मूलतत्त्वों से इस विश्व की निर्मिती हुई है, ऐसा माना जाता है। जल मानवीय विकास एवं संचार के लिए आवश्यक है। मनुष्य के शाश्वत विकास के लिए पानी-पर्यावरण शिक्षण में जन मीडिया की अहम भूमिका है। जनमीडिया ने पानी-पर्यावरण शिक्षण के महत्व के बारे में जन जागरूकता अभियान चलाना चाहिए। इससे जल-हिंसा पर रोकथाम लग सकती है। भारत में जल भविष्य उज्ज्वल रहने के लिए मास मीडिया निर्णायक भूमिका निभाता है। जल के महत्व के बारे में एस.टी. कोलरीज कहते हैं कि ‘पृथ्वी तल पर जल की मात्रा बहुत उपलब्ध है, मगर पीने लायक पानी बहुत कम है।’ इसलिए पानी-पर्यावरण शिक्षण का महत्व आम आदमी तक पहुंचना चाहिए।
प्रकृति मनुष्य की जरूरत पूरी कर सकती है। मानव स्वभाव के कारण पर्यावरण प्रदूषण एवं जल प्रदूषण हुआ है। पानी-पर्यावरण शिक्षण निर्माण में मास मीडिया की भूमिका निर्णायक हो सकती है। भारत में उपलब्ध भूमि में से 2.45 हिस्सा जमीन का है। 16 प्रतिशत जनसंख्या विश्व की निवास करती है और 4 प्रतिशत जल संसाधन उपलब्ध हैं। पानी-पर्यावरण शिक्षण पर विचार विमर्श एवं संवाद की प्रक्रिया गतिमान करना आवश्यक है। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर पानी-पर्यावरण शिक्षण की गतिविधियाँ प्रारम्भ हो चुकी हैं। इस सन्दर्भ में श्री बुतरस घाली कहते है कि ‘तीसरा विश्वयुद्ध जलविवाद के कारण लड़ा जायेगा।’ यह आन्तरराष्ट्रीय समस्याएँ हैं। (पानी-पर्यावरण शिक्षण के बारे में केन्द्र एवं राज्य सरकार नागरिकों में पानी-पर्यावरण शिक्षण अभियान करने में शासन, मीडिया, जनता में समन्वय आवश्यक है।) पानी बचत और पर्यावरण संकट के बारे में जनमत निर्माण करें, ‘पानी बचाओ, जल बचाओ’ यह संदेश मास मीडिया द्वारा जन जागरूकता अभियान चलाना होगा।
‘वर्तमान में 2.4 अरब लोग, जिनके पास स्वच्छता कमी है। स्वच्छता यह विश्वस्तर पर सुधार हुआ है। हालांकि स्वच्छताहीन 750 लाख से अधिक लोग भारत में रहते हैं। 80 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्र में रहते हैं।’ भारत देश सूखा और जल संकट से त्रस्त है। विश्व में जल लगभग 70 प्रतिशत है। इसमें से पीने योग्य जल 3 प्रतिशत है। औद्योगिक विकास, औद्योगीकरण और जनसंख्या विस्फोट से जल प्रदूषण हो रहा है। पानी उपलब्ध करने के लिए स्वच्छता सेवाएँ जरूरी हैं। इंटरनेट मीडिया के ब्लॉग माध्यम से स्वच्छता के बारे में जन जागरूकता अभियान चलाना जारी रखना चाहिए। ‘जल है तो कल है’ यह मिशन सामने रखकर मीडिया इस दिशा में कार्यरत है। दैनिक भास्कर समूह द्वारा जल संरक्षण की जनजागृति के लिए एक अनूठे अभियान ‘जल है तो कल है’, चलाकर संदेश आम आदमी तक पहुँचाया है। जल संकट को देखते हुए जनमीडिया भी आगे आ रहा है। दै.लोकमत, दै.सकाळ, दै.दिव्य मराठी, दै.पुढारी आदि भाषाई समाचार पत्रों ने भी जल संकट के समाधान के लिए प्रयास किये हैं।
भारत में सरकारी एवं गैरसरकारी संगठन एवं पर्यावरण संगठन मौजूद हैं उनका लक्ष्य भारत में पानी-पर्यावरण शिक्षण निर्माण करना है और जल कुशल राष्ट्र बनाना है। छत से वर्षा का जल संचय करना और वृक्ष आधारित कृषि को महत्व देना, रेनवॉटर बोरवेल रिचार्जिंग आदि के बारे में जनता तक जानकारी देना, विश्व जल वार्ताओं को प्राथमिकता देना यह कार्य मीडिया द्वारा किया जा रहा है। मॅग्सेसे पुरस्कार विजेता जल विशेषज्ञ बाबा राजेंद्र सिंह कहते हैं कि ‘विश्व के अनेक देशों में जल संकट तेजी से बढ़ रहा है।’ भारत के कई राज्य जल संकट की त्रासदी भोग रहे हैं।
स्वतंत्रता के बाद बासठ सालों में देश में काफी वैज्ञानिक एवं तकनीकी प्रगति की है। देश सूचना प्रौद्योगिकी में अग्रणी बन गया है, लेकिन जल की व्यवस्था करने में काफी पीछे है। जल प्रदूषण के कारण भारत में कई बीमारियां फैल चुकी हैं इसको नियंत्रित करने के लिए जल प्रदूषण रोकना होगा। स्वच्छ भारत का निर्माण करने के लिए प्रतिबद्धता जरूरी है। स्वच्छता अभियान में मीडिया आम आदमी तक संदेश पहुंचाया जाए। पानी-पर्यावरण शिक्षण को प्राथमिकता दी जाए, जल संरक्षण कार्यक्रम तैयार करना जरूरी है। बाँधों का निर्माण करके विकास संचार को गति मिलती है। भावनगर जिले में खोपाला गांव के लोगों ने 210 छोटे-छोटे बांध बनाए हैं। हमारे देश में महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले रालेगण सिद्धि गांव के श्री अण्णा हजारे और हिवरे बाजार के मुखिया (सरपंच) पोपटराव पवार जिने ग्रामीण विकास एवं शाश्वत विकास यह पर्यावरण मूलक किया है।
हिमालय क्षेत्र के सुन्दरलाल बहुगुणा और राजस्थान के राजेंद्र सिंह जी ने जल संरक्षण एवं पानी-पर्यावरण शिक्षण अभियान पर जोर दिया है। इस विकास संचार मॉडल का ग्रामीण एवं शहरी विकास पर असर हुआ है। सकारात्मक पहलुओं से लोग विकास संचार को महत्व देने लगे है। केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री श्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा है कि ‘नदियों को जोड़ने की अवधारणा के विस्तार के अलावा नदियों का प्रदूषण रहित बनाने पर जोर दिया जाना चाहिए।’ दक्षिण और उत्तर की नदियां आपस में जोड़ना आवश्यक है। गोदावरी और कृष्णा नदियां जोड़ने से पानी की समस्याएं हल हो सकती हैं। पानी-पर्यावरण शिक्षण और प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा के लिए लोक जागरूकता सबसे ज्यादा जरूरी है। जल प्रदान करने संबंधी योजनाएं पहुंचानी आवश्यक है। जल संकट के कारण किसान आत्महत्या को विवश हैं। इसलिए जल संकट को गंभीरता से लेना होगा। इसलिए जल सुरक्षा और जलपरिवर्तन को और दीर्घकालिक विकास पर विचार करना यह राष्ट्रीय विकास हेतु जरूरी है।
स्वीडिश जल विशेषज्ञ फाल्कने मार्क ‘इन्होंने जल समस्याएं कुछ निर्देशांक बताया है।’ जल अभाव तथा जल तनाव का सामना करना पड़ेगा। भविष्य में विविध क्षेत्रों में माँग बढ़ने वाली है, इसलिए पानी-पर्यावरण शिक्षण आवश्यक है। राम अवतार के अनुसार ‘भारत में जल संकट के बढ़ते हुए संकट के अनेक कारण हैं।’ जिनमें बढ़ती जनसंख्या, भू-पृष्ठ और भूजल पर बढ़ता हुआ दबाव, सिंचाई के लिए आवश्यकता से अधिक जल उपयोग, परम्परागत जल संरक्षण स्त्रोतों के रख-रखाव का अभाव, जल की बर्बादी आधुनिक शौचालयों में आवश्यकता से अधिक जल का उपयोग, इसके लिए जलसाक्षरता द्वारा मीडिया जनजागरूकता निर्माण कर सकता है। पानी-पर्यावरण शिक्षण में प्रशासक और मीडिया, दोनों जनता के बीच का सेतु की भूमिका निभाते हैं।
पर्यावरण एवं जल आन्दोलन
भारत में पर्यावरण एवं जल आंदोलन का उद्भव जल, जंगल और जमीन को लेकर हुआ है। विकास संचार एवं शाश्वत विकास के लिए मानवी समुदाय और प्रशासनिक अधिकारियों में संघर्ष होता रहा है। इस पर्यावरण आंदोलन में गांधीवादी तकनीकी अहिंसा और सत्याग्रह का उपयोग किया गया। केवल पर्यावरण संरक्षण आधारित विकास परियोजनाओं को सामाजिक तथा मानवीय मूल्य आधारित बनाने का कार्य किया। भारतीय राज्यों में इस पर्यावरण एवं जल आंदोलन से विकास नीतियों पर प्रश्नचिन्ह निर्माण किये गये और चुनौतियां सामने आयी हैं।
पर्यावरण एवं जल का विनाश रोकने के लिए पर्यावरण आंदोलन ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। संक्षिप्त रूप से पर्यावरण एवं जल आन्दोलन पहलुओं पर निम्नलिखित प्रकाश डाला गया है।
टिहरी बांध विरोधी आंदोलन
भारत में टिहरी बांध यह उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में भागीरथी और भिलगना नदी पर बना है। एशिया का सबसे बड़ा बाँध एवं विश्व का पांचवा सर्वाधिक ऊँचा बाँध है। इस टिहरी बाँध की ऊँचाई 260.5 मीटर की है। इस बांध का मुख्य उद्देश्य जल संसाधनों का बेहतर उपयोग करना और विकास की प्रक्रिया को गतिमान करना है। इस परियोजना से 5200 हेक्टर भूमि जिसमें 1600 हेक्टर कृषि भूमि होगी, जो जलाशय से निमित्त होगी। भूकम्प रहित क्षेत्र में टिहरी बाँध आता है यदि भूकम्प आया तो टिहरी बांध टूट सकता है, इसलिए इस बाँध का विरोध किया गया। विद्युत निर्मिती के लिए इस परियोजना का निर्माण किया गया। टिहरी जलविद्युत परियोजना से प्रतिवर्ष 1000 मेगावॉट बिजली का उत्पादन हो रहा है। दिल्ली तथा उत्तर प्रदेश के कई क्षेत्रों के लोगों को बिजली तथा पेयजल की सुविधा उपलब्ध है। जल विद्युत का 2400 मेगावॉट उत्पादन हो रहा है। इस परियोजना का सुन्दरलाल बहुगुणा के नेतृत्व में विरोध किया गया। कई पर्यावरणविदों ने कड़ी आलोचना भी की है। ‘आसपास के 23 गांवों को पूर्ण रूप से तथा 72 अन्य गांव को आंशिक रूप से जलमय कर दिया गया है।’ जिसमें 85,600 लोग विस्थापित हो गये इस परियोजना में क्षेत्र के पर्यावरण, ग्रामीण जीवन शैली, कृषि तथा लोकसंस्कृती के तरफ लोगों का ध्यान आकर्षित किया और सकारात्मक प्रभाव स्थानीय पर्यावरण की रक्षा हेतु प्रयास किये गये विस्थापित लोगों का पुनर्वास किया गया और विकास संचार को गतिमान किया गया।
चिलिका आंदोलन
चिलिका उडीसा राज्य में स्थित एशिया की सबसे बड़ी खारे पानी की झील हैं। ‘चिलिका यह एशिया का सबसे बड़ा जलाशय क्षेत्रफल लगभग 1000 वर्ग कि.मी.है जिसकी लम्बाई 72 कि.मी. तथा चौड़ाई 25 कि.मी. है। चिलिका 158 प्रकार के प्रवासी पक्षियों तथा चीते की व्यापारिक रूप से महत्वपूर्ण प्रजातियों का निवास स्थान है और माईग्रेटिंग पक्षियों का स्थल है।’ यह 192 गांवों की आजीविका का भी साधन है। 5000 से अधिक मछुआरे तथा दो लाख से अधिक जनसंख्या अपनी आजीविका के लिए चिलिका पर निर्भर है। मछली पालन का अधिकार ब्रिटिश काल से है। चिलिका का प्राचीन समय से मछली उत्पादन, सहकारिता तथा ग्रामीण लोकतंत्र का विशेष प्रेरक इतिहास है। सन 1977-78 यह भारत में विकास का दौर था। चिलिका का संघर्ष वर्ष 1991 में अधिक तीव्र हुआ। वर्ष 1989 में जनता दल के सत्ता एवं वर्ष 1991 तक जनता दल की सरकार थी। राजनीतिक दोहरी भूमिका के कारण यह आन्दोलन हुआ। लाखों लोगों के हितों के बारे में सरकार ने सोचा नहीं था 15 जनवरी 1992 में गोपीनाथ पुर गाँव में यह सघर्ष जन आंदोलन में रूपांतरित हुआ। चिलिका बचाओ आंदोलन ने इस विकास के प्रतिमान को चुनौती दी और स्थानीय पर्यावरण बल्कि लोगों ने परम्परागत अधिकारों की रक्षा की है।
साइलेंट घाटी आंदोलन -
केरल की शांत घाटी 89 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में है। जो अपनी घनी जैव विविधता के लिए प्रचलित है। 1980 में यहाँ कुतीपूंझ नदी पर कुदरेमुख परियोजना के अंतर्गत 200 मेगावाट बिजली निर्माण हेतु बांध का प्रस्ताव रखा गया। केरल सरकार इस परियोजना लिए इच्छुक थी। इस परियोजना का पर्यावरणविदों ने प्रखर विरोध किया है। इससे इस क्षेत्र के विशेष फूलों, पौधों तथा लुप्त होने वाली प्रजातियों को खतरा है। पश्चिमी घाट की कई सदियों पुरानी परिस्थितिकी को बड़ी मात्रा में नुकसान पहुंच सकता है। भूतपूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इस विवाद में मध्यस्थता की और संवाद स्थापित करके पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण संरक्षण हेतु महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस परियोजना को राज्य सरकार को स्थगित करना पड़ा। घाटी में पारिस्थितिकी संतुलन को बनाए रखने में यह मील का पत्थर साबित हुआ है।
अप्पिको आंदोलन
वनों और वृक्षों की रक्षा के सन्दर्भ में गढ़वाल हिमालयवासियों का चिपको आंदोलन का योगदान महत्वपूर्ण माना जाता है। भारत के अन्य भागों में अपना प्रभाव दिखाई दिया है यह चिपको आंदोलन दक्षिण में अप्पिको आंदोलन के रूप में सामने आया है। अप्पिको यह कन्नड भाषा का शब्द है। जो कन्नड़ में चिपको का पर्याय है। वर्ष 1983 में कर्नाटक के उत्तर कन्नड क्षेत्र में शुरू हुआ। यह आंदोलन अड़तीस दिन तक चला। पेड़ों की कटाई दिखायी जाती है। युवा वर्ग ने जोश से यह आंदोलन महिला के साथ चलाया। सन् 1983 में महिलाओं ने यह आंदोलन किया। 300 से ज्यादा महिलाएं एवं लोगों ने पेड़ों की कटाई का विरोध किया और जंगल कटाई रोकी और वनों की रक्षा पर्यावरण संतुलन के लिए जरूरी है। मानव अस्तित्व को पर्यावरण रक्षा से सुरक्षित रखा जा सकता है। यह संदेश पहुंचाया है। जंगलों तथा पर्यावरण संरक्षण का लक्ष्य समाज में यह जागरूकता से लाया जा सकता है।
नर्मदा बचाओ आंदोलन
नर्मदा बचाओ आंदोलन भारत में चल रहे पर्यावरण आंदोलन की परिपक्वता का उदाहरण है। पहली बार पर्यावरण और विकास का संघर्ष राष्ट्रीय स्तर चर्चा का विषय बना, जिसमें विस्थापित लोगों का पुनर्वसन मुद्दा सामने आया है। जनता की भागीदारी इस परियोजना में महत्वपूर्ण मानी जाती है। सन 1961 में भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू जी ने नर्मदा सरोवर परियोजना का उद्घाटन किया। गुजरात, मध्य प्रदेश तथा राजस्थान के मध्य एक जल वितरण पर नीति बनाई जाए, लेकिन अभी तक जल वितरण नीति नहीं बनाई गई है। नर्मदा घाटी परियोजना ने जन्म लिया, जिसमें नर्मदा नदी दो विशाल बांधों का निर्माण किया जाएगा। सरदार सरोवर बाँध तथा मध्यप्रदेश में नर्मदा सागर बाँध, 26 मध्यम बाँध तथा 3000 जल परियोजनाओं का निर्माण सम्मिलित है। इस परियोजना निर्माण के लिए विश्वबैंक ने 450 करोड़ डॉलर का लोन दिया और राजस्थान के सूखाग्रस्त क्षेत्रों की 2.27 करोड़ हेक्टर भूमि को सिंचाई के लिए जल मिलेगा। वर्ष 1989 में मेधा पाटकर द्वारा नर्मदा बचाओ आंदोलन चलाया गया और विस्थापित लोगों की समस्याओं पर आवाज उठाई और पर्यावरण विनाश के साथ विस्थापन रोकना था और बाँधों की ऊँचाई की समीक्षा पर सर्वोच्च न्यायालय ने समीक्षा की। पर्यावरण सुरक्षा हेतु उपाय किए जाएं और लोगों के पुनर्वास के लिए दिशा-निर्देश बनाया जाए, सम्पूर्ण परिवेश देखा जाए तो यह आंदोलन सफल रहा है। बिजली का निर्माण होगा। पीने के लिए जल मिलेगा। इसमें तीन राज्यों की 37000 हेक्टर भूमि जलमय हो जाएगी और 248 गाँव के एक लाख लोग विस्थापित होंगे जिनमें 58 प्रतिशत लोग आदिवासी क्षेत्र के हैं। जिन लोगों ने अधिकारों को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में लड़ाई जारी रखी और पुनर्वास पर गुजरात सरकार को नीति बनानी पड़ी। देश के समक्ष पर्यावरण आधारित विकास का विकल्प पेश किया है इस विकास मॉडल को चुनौती मिली इसका श्रेय मेघा पाटकर और बाबा आमटे को जाता है।
चिपको आंदोलन
चिपको आंदोलन मूल रूप से उत्तराखण्ड के वनों की सुरक्षा को लेकर 1970 के दशक में हुआ। इसमें लोगों ने पेड़ों को गले लगाया, ताकि वृक्षों एवं पेड़ों को कोई काट न सके। यह आलिंगन दरअसल प्रकृति और मानव के बीच प्रेम का प्रतीक था। इसलिए इसे चिपको आंदोलन कहा गया है। चिपको आंदोलन के पीछे एक परिस्थितिकी और आर्थिक पृष्ठभूमि है। अलकनंदा वाली भूमि थी। सन 1962 में चमोली जिले के मुख्यालय गोपेश्वर में दर्शाली
ग्राम स्वराज्य संघ बनाया था। आंदोलन का मूल केन्द्र रेनीगांव (जिला चमोली) यह गाँव ऋषी गंगा और विष्णुगंगा के संगम पर बसा है। चंडी प्रसाद भट्ट के नेतृत्व में 14 फरवरी 1974 को चिपको आन्दोलन शुरू किया गया। रेनी जंगल की कटाई का विरोध किया गया। इसके साथ श्री गौरी देवी के नेतृत्व में महिलाओं ने चिपको आंदोलन में भाग लिया। इस प्रकार 26 मार्च 1974 को स्वतंत्र भारत के पर्यावरण आंदोलन ने नया अध्याय भारत के जनता के सामने रखा है। इसमें अल्पजीवी अर्थव्यवस्था के बारे में नारे लगाया गये
‘क्या है जंगल के उपकार, लीसा, लकड़ी और व्यापार’ को चुनौती देते हुए पर्यावरण संरक्षण का सन्देश दिया
‘क्या है जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार, मिट्टी पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार’।
गोपेश्वर में वन की कटाई को सफलता से रोका गया और चिपको आन्दोलन तीव्र किया गया। पर्यावरणविद् श्री. सुंदरलाल बहुगुणा के नेतृत्व में पर्यावरण पदयात्रा निकाली गई। यह आंदोलन तेजी से पहाड़ी क्षेत्र में फैला। इस आंदोलन के परिणाम एवं प्रभाव के कारण सफल हुआ। जनमीडिया के पत्राकारों एवं वैज्ञानिकों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा। पर्यावरणविदों की आवाज पूरे विश्व में गूंजी।
उत्तर प्रदेश सरकार ने चिपको आंदोलन कर्ताओं की मांग स्वीकार कर ली। 13,371 हेक्टर की वन कटाई की योजना समाप्त की गई। यह चिपको आंदोलन की बहुत बडी उपलब्धि थी और महत्वपूर्ण हिस्सों में वनरोपण का कार्य युद्धस्तर पर किया गया।
जैव संपदा एवं वन्यजीव संपदा का रक्षण के बारे में राष्ट्रीय नीति का स्वरूप बनाया जाए। यह विचार इस चिपको आन्दोलन से सामने आया है। चिपको आंदोलन यह महिला का आंदोलन के रूप में जाना जाता है। सारी दुनिया में बीबीसी, दूरदर्शन और प्रिंट मीडिया ने पर्यावरण आंदोलन का कवरेज किया। इस माध्यम से पर्यावरण संरक्षण हेतु मानवीय चेतना एवं जागरूकता निर्माण में योगदान दिया है। इसमें कोई संदेह नहीं है।
पानी-पर्यावरण शिक्षण में मीडिया की भूमिका
भारतीय संसद द्वारा जलनिती का निर्माण किया गया, इसलिए जल नीति निर्धारण करते समय सांसद एवं सांसद सदस्य की क्या भूमिका रही है इसका विश्लेषण महत्वपूर्ण होता है। प्रिंट मीडिया द्वारा जनता तक जल का महत्व एवं जल के प्रति संवेदनशीलता पहुंचाई जाती है। जलनीति सन 1987, 2002, 2012 यह तीन जलनीतियां अधिनियम पारित किये गये हैं। प्रिंट मीडिया ने इस पर बहस की है, लेकिन समीक्षा एवं यांत्रिकी पहलुओं पर विचार-विमर्श नहीं हुआ है। जल नीति निर्धारण के बाद नीति का क्रियान्वयन करना प्रशासन का काम होता है। जनता और सांसद इन दोनों में समन्वय एवं संवाद स्थापित करता है, लेकिन समन्वय का अभाव है। पानी-पर्यावरण शिक्षण में सरकारी मीडिया अपशस्वी रहा है, लेकिन जल भ्रष्टाचार उजागर करने में जनमीडिया ने अपना लक्षणीय योगदान दिया है। महाराष्ट्र के खानदेश का शिरपूर पॅटर्न, विदर्भ में मलकापूर पॅटर्न, कार्यान्वित करने के लिए प्रशासकों ने पानी-पर्यावरण शिक्षण के बारे में उल्लेखनीय कार्य किया है। ‘गाँव करे सा राव क्या करे’ इस उक्ति से जनसहभाग प्रयासों से हुए रालेगन सिद्धि एवं हिवारे बाजार के पानी-पर्यावरण शिक्षण आदर्श महाराष्ट्र के ग्रामीण कस्बों तक पहुंचाया है इसमें जनमीडिया ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है। पानी-पर्यावरण शिक्षण निर्माण करने वाले जल योद्धा डॉ. राजेंद्र सिंह और जल विशेषज्ञ डॉ.माधवराव चितळे जी ने राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर जल क्षेत्र में पानी-पर्यावरण शिक्षण के बारे अभियान चलाया है इस अभियान को जनमीडिया ने प्रसिद्धि दी है। ग्रामीण एवं शहरी प्रदेशों में जनसहभाग से जल संवर्धन के उपक्रमों को गति मिली है। इसका पूरा श्रेय भारतीय मीडिया को जाता है। महाराष्ट्र में भाषाई समाचार पत्र दै.सकाल, दै.लोकसत्ता, दै.लोकमत समाचार आदि पत्रों ने जलदूत एवं पानी-पर्यावरण शिक्षण पर आधारित शोध पत्र एवं शोध लेखों, स्तंभो को प्राथमिकता देकर प्रसिद्धि दी है हिन्दी भाषाई पत्रों दै.जागरण, दै.भास्कर, दै. अमर उजाला, दै.राजस्थान पत्रिका, नवभारत टाईम्स, जनसत्ता आदि पत्रों ने जल का महत्व विशद किया है और अंग्रेजी पत्रों ने भी जल समस्या एवं समाधान पर विस्तृत विश्लेषण किया है। किसानों की आत्महत्या और पर्यावरण एवं शेती-विषयक समस्याओं पर द हिन्दू पत्र ने विस्तृत समाचार प्रस्तुत किए हैं।
पानी-पर्यावरण शिक्षण और विज्ञापन मीडिया
सूचना प्रौद्योगिकी के युग में मानवीय जीवन में पर्यावरण का बहुत महत्व है। विज्ञापन मीडिया द्वारा पर्यावरण चेतना एवं जनजागरूकता जरूरी हो गयी है। शेल्डन के अनुसार ‘विज्ञापन वह व्यावसायिक शक्ति है, जिसके अंतर्गत मुद्रित शब्दों द्वारा विक्रय वृद्धि में सहायता मिलती है। ख्याति का निर्माण होता है एवं साख बढ़ती है।
Mass-Media वास्तव में बोलचाल की भाषा है। लेखन एवं चित्रों के माध्यम से सूचनाओं का आदान-प्रदान किया जाता है। पर्यावरण संचार में विज्ञापन को महत्व प्राप्त हुआ है। ‘जिद करो दुनिया बदलो’ नामक पंचलाइन दै.भास्कर ने दिया है और लोगों में जल संकट के बारे में जानकारी दी। स्कूल बच्चों के लिए पोस्टर बनाए गए और जल बचाओ यह महत्व, जन मीडिया ने जनता तक पहुंचाया है। जल है तो जीवन है हम यह बात बचपन से ही सुनते जा रहे है। लेकिन बहुत कम ही लोग पानी हमारे जीवन के बारे में जानते हैं, जल संरक्षण के प्रति जन-जागरूकता करने के लिए विश्व के सभी राष्ट्र प्रयास कर रहे है इस जनजागरूकता के विज्ञापन मीडिया एवं सोशल मीडिया का उपयोग करने लगे हैं। ‘जल बचाए अपना जीवन बचाएं,’ ‘सेव वाटर सेव लाइफ’ यह सूत्रा मानवी जीवन विकास के लिए लाभदायी है। विज्ञापन एवं न्यू मीडिया द्वारा पानी-पर्यावरण शिक्षण को महत्व दिया जा रहा है। न्यू मीडिया और विज्ञापन मीडिया यह आज के सूचना युग में प्रभावी मीडिया है। ‘पानी की रक्षा है देश की सुरक्षा’, ‘पानी बिना जग है सूना’, ‘पानी बचाओंगे अब आप दौगुना’, ‘बिना पानी जीवन बदहाली’, ‘पानी से है हरियाली’, ‘बूंद-बूंद से भरती है गागर, गागरों से बनता है महासागर’, ‘जल है तो हम हैं’ और ‘जल है तो कल है’। ‘जल बचाने का करो जतन, जीवन का है अमूल्य रत्न’, ‘जब जल रहेगा तभी तो हमारा कल रहेगा’, इसी तरह स्लोगन के द्वारा सन्देश विज्ञापन मीडिया द्वारा पहुंचाया गया है। न्यू मीडिया द्वारा पर्यावरण एवं पानी-पर्यावरण शिक्षण के बारे में युवा पीढ़ी में जन जागरूकता निर्माण करने का प्रयास शुरू है।
पानी-पर्यावरण शिक्षण के सुझाव
प्रस्तुत अध्ययन में पानी-पर्यावरण शिक्षण को गति मिले इसके लिए जनमीडिया को निम्नलिखित सुझाव दिए हैं।
- 1. भारत सरकार की राष्ट्रीय जल नीति को सरलता से जनमीडिया द्वारा प्रस्तुत करना चाहिए। प्राचीन काल की जल संचय प्रणाली एवं प्रबंधन करना कितना उचित था, इसकी जानकारी नयी पीढ़ी को देना चाहिए और मराठवाड़ा प्रदेश के औरंगाबाद की पान चक्की नहर का निर्माण यह पानी प्रबंधन एवं जल प्रबंधन का महत्वपूर्ण उदाहरण माना जाता है।
- 2. जल का संरक्षण करना है समाज में हर व्यक्ति को बचपन से स्कूलों में इसकी शिक्षा देना चाहिए। जल, जमीन और जंगल से रिश्तों का पर्यावरण संचार का संबंध विकसित करना होगा। जल संवर्धन एवं संरक्षण कार्य हेतु जनमीडिया का उपयोग करना चाहिए।
- 3. नदियों और तालाबों को प्रदूषण मुक्त रखना चाहिए और स्वच्छता अभियान हेतु मीडिया की उपयोगिता ध्यान में रखकर रणनीतियाँ बनानी चाहिए। जनता में पानी-पर्यावरण शिक्षण के बारे में समझ निर्माण करने की आवश्यकता है।
- 4. भूजल में गिरावट को नियंत्रित करने हेतु कानून बनाना चाहिए। और जल संसाधनों पर आम आदमी का सामूहिक अधिकार है। इस भावना से पानी-पर्यावरण शिक्षण के द्वारा निर्माण करना होगा। इसके लिए जनमीडिया का जनहित को सामने रखकर उपयोग अनिवार्य है।
- 5. जल दिंडी वाटर कप जैसे साक्षरता निर्माण करने वाले स्वयंसेवी संगठन के उपक्रमों को जनमीडिया से निरन्तर प्रसिद्धि मिले और जल साहित्य को प्रसिद्धि मिलनी चाहिए। इस पर जनमीडिया विशेष ध्यान देकर पानी-पर्यावरण शिक्षण आंदोलन को गतिमान करे मानवी जीवन में जल का महत्व कितना है, यह मीडिया द्वारा पहुंचना चाहिए।
निष्कर्ष
पर्यावरण संचार जन जागरूकता एवं पानी-पर्यावरण शिक्षण अभियान में मास मीडिया का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। मानवी जीवन में ‘जल के बिना मनुष्य अधूरा’ है और ‘पानी बिना सूना है’ इसलिए पानी को प्राचीन काल से महत्व दिया गया है। जल है तो कल है पानी-पर्यावरण शिक्षण के आधार से मनुष्य शाश्वत विकास कर सकता है, यह पर्यावरण पूरक सन्देश जनमीडिया द्वारा जनता तक पहुॅचाना चाहिए और अपना जल भविष्य सुरक्षित रखना जरूरी है।
हमारी आने वाली पीढ़ी को पर्यावरण, जल संरक्षण, पानी-पर्यावरण शिक्षण आदि विषय स्कूलों में पढ़ाए जाना आवश्यक है। आज पर्यावरण एवं जल सबसे ज्वलंत व समसामायिक विषय है। इसे लेकर विश्व का हर देश चिंतित व जागरूक दिखाई देता है इसमें मीडिया की भी भूमिका निर्णायक रही है, इसमें कोई संदेह नहीं है।
संदर्भ सूची -
- 1. जौन अनुश्री- कम्पाउंडिंग द अरबन वॉटर क्राइसिस, आयजेपी क्वार्टरली, 2014, पृ. 105
- 2. प्रा. भालेराव संजय-संचार माध्यमों की पानी-पर्यावरण शिक्षण में भूमिकाः भारत के संदर्भ में, मीडिया रिसर्च जर्नल, अप्रैल 2017, पृ. 280
- 3. पारसनीस रवीन्द्र- जलते हुए पानी पर जल साहित्य का प्रभाव, दै.लोकमत 12 सितम्बर 2004,, पृ. 4
- 4. मेहरा वंदना- द वर्ल्ड बँक रिपोर्ट - भारत में शौचालय के बारे में नया दृष्टिकोण, दि. 2 मार्च 2017
- 5. बाबा राजेंद्र सिंह, जलसाक्षरता अभियान चलाने सख्य जरूरत, दै.रफ्तार, 5 जुलाई 2017
- 6. श्री प्रकाश जावडेकर- जल संरक्षण के लिए अभियान, पत्रसूचना कार्यालय, भारत सरकार, नई दिल्ली, 5 जुलाई 2017
- 7. शर्मा, राम अवतार- जल-कल, आज और कल, आकार बुक्स प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2005, पृ. 120
- 8. टिहरी बॉध आन्दोलन परियोजना, इकॉनॉमिक टाईम्स-नई दिल्ली संस्करण, 5 अप्रैल 2015
- 9. डॉ. तुकाराम दौड- पर्यावरण संवाद, वावर प्रकाशन, लातूर, प्रथम संस्करण, 2 अक्टूबर 2008, पृ. 64
- 10. डॉ. खेमसिंग डहेरिया-विज्ञापनर, स्त्री छवि अध्ययन, पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, नई दिल्ली, संस्करण 2011, पृ. 177
लेखक उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, के जनसंचार एवं पत्रकारिता विभाग में विभागाध्यक्ष तथा निदेशक हैं।
/articles/paanai-parayaavarana-saikasana-maen-maasa-maidaiyaa-kai-bhauumaikaa-role-mass-media-water