मध्य प्रदेश के गांव में पानी और समाज की प्रेम कहानियों के अनेक किस्से आपको कहीँ नहरोँ की जीर्ण-शीर्ण अवस्था में, कहीं टूटी दीवारों में, कहीं चौपड़ों, बावड़ियों, चड़स के निशानों, ओढ़ी की कुंडियों, कुइयां, जल मंदिरों, किलों के पास बने कुंओं से लगाकर, तो कहीं रानी साहिबाओं के लिए बने स्नानागारों तक में है।पानी का संचय करने के मामले में सदियों से मध्यप्रदेश का पुरातन समाज अनेक समृद्ध परंपराओं को आजमाता रहा है, पहले जब अखबार, टीवी और रेडियो जैसे जनसंचार माध्यम नहीं हुआ करते थे, रियासत के राजा पानी संचय परंपरा को प्रोत्साहन देने के लिए विशेष प्रकार के सिक्के जारी किया करते थे। इसमें तालाब, नहरें, मछलियां, खेती और वृक्ष चिन्हित रहते थे, इसका मकसद साफ था। ‘समृद्धि और विकास के लिए पानी संचय हेतु वृक्ष लगाएं और तालाब बनाएं’ उज्जैन जिले में शिप्रा नदी में 2300 से 2600 साल पुराने इस तरह के सिक्के देखे जा सकते हैं।
जब संचय परंपराओं में मध्यप्रदेश कई मामलों में भारत में अपना अलग स्थान रखता है, दसवीं और ग्यारहवीं सदी के दरमियान राजा भोज ने दीवारें बनाकर एशिया की सबसे बड़ी झील बना दी थी। आज के इंजीनियरों को भी अचंभित करने वाली इस झील की क्षतिग्रस्त दीवारें अभी भी देखी जा सकती हैं। तब के इंजीनियरों की सक्षमता किसी विश्वविद्यालय से न मिलकर प्रकृति ने ही उपलब्ध कराई थी। इस दीवार का नाम भोजपाल था और भोपाल शहर का नाम भी पानी संचय की इस परंपरा के कारण ही पड़ा, इसी के कारण मशहूर कहावत- ‘तालो में ताल भोपाल का बाकी सब तलैया’ का जन्म हुआ। प्रेम के खंडहर मांडव में पानी और समाज की कई प्रेम कहानियां आपको सदियों पुराने गीतों के साथ सुनाई देंगी यहाँ आज का बहुचर्चित रुफ वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम सैकड़ों साल पहले मांडव के शासक आजमा चुके थे।
मध्य प्रदेश का मांडव जो जल संचय परंपराओं की दुनिया में इसलिए अहम स्थान रखता है, क्योंकि तत्कालीन समाज ने आज के इस तथ्य को झुठला दिया था की सभ्यताएं नदी के किनारे ही बस्ती हैं। मांडव में कोई नदी नहीं बहती है। लेकिन सात सौ सीढ़ी रानी रुपमती का महल, जहाज महल, सूरजकुंड भुज सागर, तवेली महल, बाजबहादुर का महल, रेवाकुंड, सागर तालाब से लेकर तो नीलकंठेश्वर महादेव सहित जर्रे-जर्रे में वर्षा जल को संचित करने की परंपरा तत्कालीन समाज को आदाब करने की प्रेरणा देती है। मध्यप्रदेश में पानी संचय और प्रबंधन की परंपराओं के अनेक कौतूहल वाले प्रयोग भी यहां के पूर्वजों ने किए हैं। उज्जैन का कालियादेह महल इसकी जीवंत मिसाल है। जहां शिप्रा नदी को दो भागों में बांट कर एक भाग में बांध बनाया गया। यहां से नदी को महल में प्रवेश कराया गया। 52 कुंडों में इस पानी का सुहाना सफ़र आज भी दूर-दूर से आने वाले पर्यटकों का मन मोह लेता है। सदियों पुरानें किले भी एक खास तरह से पहले पानी चड़स के माध्यम से ऊपर बने हौज में एकत्रित होता था। इसके बाद वह सुंदर शैली में महल के बीच में बने कुंडों में ले जाया जाता था। जहां माण्डव व कालिया दाह महल शैली की परंपराओं के दर्शन होते हैं।
इस किले की दूसरी विशेषता यह है कि सुरक्षा व जल संरक्षण की दृष्टि से यहां नहरें व बांध बनाकर किले को चारो ओर से पानी से घेरा गया। इसे ‘कृत्रिम नदी’ भी कहा जा सकता है बडवानी जिले के संधवा और महिदपुर के किले में भी जल प्रबंधन की यही परंपरा रही है। उज्जैन जिले के महिदपुर में खजुरिया मंसूर व टिकरिया की तीन पहाड़ियों पर एक के बाद एक बने पुराने तालाबों को वर्तमान समाज ने फिर आबाद किया है। बडनगर के पालसोडा के पास बसे गलाबखेड़ी में विशाल पहाड़ों पर सात तलइयां आज भी आपको मिल जाएंगी। इसी तर्ज पर उमरिया जिले के बांधवगढ नेशनल पार्क में भी पहाड़ों पर तालाब बनाए गए थे। शीर्ष पर पानी को रोककर तलाई में बसा समाज उसको प्रसाद स्वरूप ग्रहण करता रहा है।
पहाड़ पर पानी की यह परंपरा देश के अनेक भागों में पाई जाती है। लेकिन पश्चिमी मध्यप्रदेश के आदिवासी क्षेत्र के समाज का पानी के प्रति अनुराग यूं झलकता है कि ये नीचे बहने वाले पानी को बिना किसी इंजिन या मोटर से पहाड़ों पर ले जाते हैं। इसे यहां पाट पद्धति का नाम दिया गया है। इससे व पहाड़ी क्षेत्र में रबी की फसल ले लेते हैं मदिदपुर क्षेत्र में चौपड़े जल संचय की खास पहचान रहे हैं। इनमें तीन ओर से उतरने के रास्ते होते है और एक ओर से पानी लिया जाता है। यहां के इंदौर व बपैया में भी पानी की विशिष्ट परंपरा रही है। बपैया में तो बिना इंजिन मोटर और यहां तक कि चड़स के बिना भी स्वनियंत्रित पद्धति से सिंचाई होती रहती है।
विदिशा के हैदरगढ़ में मोतिया तालाब में एकत्रित बूंदों को ढाई किलोमीटर से सफ़र के बाद किले में बने दो कुंडों में एकत्रित किया जाता था। इन्हें डोयले कहते हैैं इसमें तत्कालीन समाज ने नहर प्रणाली का उपयोग किया था। इसी तरह उज्जैन के लेकोड़ा में एक हजार साल पुराने श्रृंखलाबद्ध तालाब आज भी मौजूद हैं, यह बुंदेलखंड के चंदेल राजाओं की शैली में तैयार किए गए थे। बौद्धकालीन सांची से स्तूपों में नाली संरचना के साथ पहाड़ी पर आए बूंदों को एकत्रित किया जाता रहा बरहानपुर का खूनी भंडार भारत में ही नहीँ दुनिया की पानी संचय प्रणालीयों में मध्यप्रदेश की विशिष्ट पहचान रखता है यहां पहाड़ियोँ की रीसन को कवि रहीम ने भंडारा में एकत्रित कर शहर में वितरित करवाने की प्रणाली विकसित की थी आसीरगड की पहाड़ी पर बने किले में भी तालाब में नालियोँ के माध्यम से पानी एकत्रित किया जाता है।
प्रदेश की व्यवसायिक राजधानी इंदौर कभी बावड़ियों के शहर के रुप में पहचाना जाता था। यहां लगभग सौ बावड़ियां थी। इस शहर में नदी को पाल बांधकर रोका जाता था। यहां सिरपुर, बिलावली, पिपल्यापाला तालाब जल प्रणाली के मूल रहे हैं, नीमच में नालों को जिंदा कर पुरानी परंपराओं की ओर लौटने की सफल कोशिश की जा रही है, देवास में माता टेकरी पर आई बूंदों को देवीसागर, भवानीसागर, मेंढकी तालाब और मीरा तालाब में रोका जाता था। राजगढ़ के नरसिंहगढ़ की पहाड़ियोँ पर आए पानी को झील बनाकर रोका गया। यहां के कोटरा में तो गुफाओं के पीछे अदृश्य तालाब के किस्से आज भी सच लगते हैं यहां के किला अमरगढ़ को गोमुख सदियों से पानी की अविरल धारा दे रहा है।
मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड, बघेलखंड और महाकौशल क्षेत्र भी पानी की विशिष्ट परंपराओं के कारण आज भी जाने जाते हैं, जबलपुर में पाटन क्षेत्र में पानी की हवेलियां आज भी देखी जा सकती हैं यहां के रानीताल, संग्राम सागर, गंगासागर, भंवरताल, महानदी तालाब के साथ जुड़े किस्से आज भी यहां का समाज बड़े चाव से सुनाता है इस शहर में बावन तालाब हैं, जो हमारे प्रदेश की समृद्ध रही पानी संचय परंपरा की श्रेष्ठ मिसाल हैं। पन्ना में पानी सुरंगें पाई जाती हैं यहां के कलदा पठार के गांव मुरकुछू में तराई में बने प्राचीन तालाब को गरीबी हटाओ योजना के जिला समन्वयक डी.पी. सिंह ने समाज के साथ मिलकर पुनः जिंदा किया है, जो अपनी परंपरा के अनुसार क्षेत्र के आर्थिक जीवन को बदल रहा है ओरछा के बावन किले और बावन बावड़ियां तथा सागर, टीकमगढ़ और खजुराहो के तालाब की प्रसिद्धि को कौन नहीं जानता है।
रीवा जिले में 6 हजार तालाब हुआ करते थे जिनमें से आज अनेक अतिक्रमण की भेंट चढ़ चुके हैं। सतना, रीवा सहित विंध्य में पानी रोकने की संरचनाओं को बंधियों और बांध के नाम से जाना जाता है। सीधी जिले में घोंघा बहुतायत में मिलते हैं, सतना जिले के गोरसरी में तो ढाई सौ साल पुरानी उस पानी परंपरा को आज भी देखा जा सकता है जिसे आज के पानी तकनीशियन रीज टू वैली के नाम से जानते हैं।
मध्य प्रदेश के गांव में पानी और समाज की प्रेम कहानियों के अनेक किस्से आपको कहीँ नहरोँ की जीर्ण-शीर्ण अवस्था में, कहीं टूटी दीवारों में, कहीं चौपड़ों, बावड़ियों, चड़स के निशानों, ओढ़ी की कुंडियों, कुइयां, जल मंदिरों, किलों के पास बने कुंओं से लगाकर, तो कहीं रानी साहिबाओं के लिए बने स्नानागारों तक में है। इतिहास के सुनहरे अध्याय दिखाते मिल जाएंगे प्रदेश की पहचान में यदि आज एक छोर पर बने प्रेम में मंदिर खजुराहो और दूसरे छोर पर मौजूद प्रेम के खंडहर मांडव विशिष्ट तौर पर शामिल हैं तो कमोबेश हर क्षेत्र में खोजने पर आपको एक-एक कहानी पानी और पुरातन समाज के प्रेम की भी मिल जाएगी।
जब संचय परंपराओं में मध्यप्रदेश कई मामलों में भारत में अपना अलग स्थान रखता है, दसवीं और ग्यारहवीं सदी के दरमियान राजा भोज ने दीवारें बनाकर एशिया की सबसे बड़ी झील बना दी थी। आज के इंजीनियरों को भी अचंभित करने वाली इस झील की क्षतिग्रस्त दीवारें अभी भी देखी जा सकती हैं। तब के इंजीनियरों की सक्षमता किसी विश्वविद्यालय से न मिलकर प्रकृति ने ही उपलब्ध कराई थी। इस दीवार का नाम भोजपाल था और भोपाल शहर का नाम भी पानी संचय की इस परंपरा के कारण ही पड़ा, इसी के कारण मशहूर कहावत- ‘तालो में ताल भोपाल का बाकी सब तलैया’ का जन्म हुआ। प्रेम के खंडहर मांडव में पानी और समाज की कई प्रेम कहानियां आपको सदियों पुराने गीतों के साथ सुनाई देंगी यहाँ आज का बहुचर्चित रुफ वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम सैकड़ों साल पहले मांडव के शासक आजमा चुके थे।
मध्य प्रदेश का मांडव जो जल संचय परंपराओं की दुनिया में इसलिए अहम स्थान रखता है, क्योंकि तत्कालीन समाज ने आज के इस तथ्य को झुठला दिया था की सभ्यताएं नदी के किनारे ही बस्ती हैं। मांडव में कोई नदी नहीं बहती है। लेकिन सात सौ सीढ़ी रानी रुपमती का महल, जहाज महल, सूरजकुंड भुज सागर, तवेली महल, बाजबहादुर का महल, रेवाकुंड, सागर तालाब से लेकर तो नीलकंठेश्वर महादेव सहित जर्रे-जर्रे में वर्षा जल को संचित करने की परंपरा तत्कालीन समाज को आदाब करने की प्रेरणा देती है। मध्यप्रदेश में पानी संचय और प्रबंधन की परंपराओं के अनेक कौतूहल वाले प्रयोग भी यहां के पूर्वजों ने किए हैं। उज्जैन का कालियादेह महल इसकी जीवंत मिसाल है। जहां शिप्रा नदी को दो भागों में बांट कर एक भाग में बांध बनाया गया। यहां से नदी को महल में प्रवेश कराया गया। 52 कुंडों में इस पानी का सुहाना सफ़र आज भी दूर-दूर से आने वाले पर्यटकों का मन मोह लेता है। सदियों पुरानें किले भी एक खास तरह से पहले पानी चड़स के माध्यम से ऊपर बने हौज में एकत्रित होता था। इसके बाद वह सुंदर शैली में महल के बीच में बने कुंडों में ले जाया जाता था। जहां माण्डव व कालिया दाह महल शैली की परंपराओं के दर्शन होते हैं।
इस किले की दूसरी विशेषता यह है कि सुरक्षा व जल संरक्षण की दृष्टि से यहां नहरें व बांध बनाकर किले को चारो ओर से पानी से घेरा गया। इसे ‘कृत्रिम नदी’ भी कहा जा सकता है बडवानी जिले के संधवा और महिदपुर के किले में भी जल प्रबंधन की यही परंपरा रही है। उज्जैन जिले के महिदपुर में खजुरिया मंसूर व टिकरिया की तीन पहाड़ियों पर एक के बाद एक बने पुराने तालाबों को वर्तमान समाज ने फिर आबाद किया है। बडनगर के पालसोडा के पास बसे गलाबखेड़ी में विशाल पहाड़ों पर सात तलइयां आज भी आपको मिल जाएंगी। इसी तर्ज पर उमरिया जिले के बांधवगढ नेशनल पार्क में भी पहाड़ों पर तालाब बनाए गए थे। शीर्ष पर पानी को रोककर तलाई में बसा समाज उसको प्रसाद स्वरूप ग्रहण करता रहा है।
पहाड़ पर पानी की यह परंपरा देश के अनेक भागों में पाई जाती है। लेकिन पश्चिमी मध्यप्रदेश के आदिवासी क्षेत्र के समाज का पानी के प्रति अनुराग यूं झलकता है कि ये नीचे बहने वाले पानी को बिना किसी इंजिन या मोटर से पहाड़ों पर ले जाते हैं। इसे यहां पाट पद्धति का नाम दिया गया है। इससे व पहाड़ी क्षेत्र में रबी की फसल ले लेते हैं मदिदपुर क्षेत्र में चौपड़े जल संचय की खास पहचान रहे हैं। इनमें तीन ओर से उतरने के रास्ते होते है और एक ओर से पानी लिया जाता है। यहां के इंदौर व बपैया में भी पानी की विशिष्ट परंपरा रही है। बपैया में तो बिना इंजिन मोटर और यहां तक कि चड़स के बिना भी स्वनियंत्रित पद्धति से सिंचाई होती रहती है।
विदिशा के हैदरगढ़ में मोतिया तालाब में एकत्रित बूंदों को ढाई किलोमीटर से सफ़र के बाद किले में बने दो कुंडों में एकत्रित किया जाता था। इन्हें डोयले कहते हैैं इसमें तत्कालीन समाज ने नहर प्रणाली का उपयोग किया था। इसी तरह उज्जैन के लेकोड़ा में एक हजार साल पुराने श्रृंखलाबद्ध तालाब आज भी मौजूद हैं, यह बुंदेलखंड के चंदेल राजाओं की शैली में तैयार किए गए थे। बौद्धकालीन सांची से स्तूपों में नाली संरचना के साथ पहाड़ी पर आए बूंदों को एकत्रित किया जाता रहा बरहानपुर का खूनी भंडार भारत में ही नहीँ दुनिया की पानी संचय प्रणालीयों में मध्यप्रदेश की विशिष्ट पहचान रखता है यहां पहाड़ियोँ की रीसन को कवि रहीम ने भंडारा में एकत्रित कर शहर में वितरित करवाने की प्रणाली विकसित की थी आसीरगड की पहाड़ी पर बने किले में भी तालाब में नालियोँ के माध्यम से पानी एकत्रित किया जाता है।
प्रदेश की व्यवसायिक राजधानी इंदौर कभी बावड़ियों के शहर के रुप में पहचाना जाता था। यहां लगभग सौ बावड़ियां थी। इस शहर में नदी को पाल बांधकर रोका जाता था। यहां सिरपुर, बिलावली, पिपल्यापाला तालाब जल प्रणाली के मूल रहे हैं, नीमच में नालों को जिंदा कर पुरानी परंपराओं की ओर लौटने की सफल कोशिश की जा रही है, देवास में माता टेकरी पर आई बूंदों को देवीसागर, भवानीसागर, मेंढकी तालाब और मीरा तालाब में रोका जाता था। राजगढ़ के नरसिंहगढ़ की पहाड़ियोँ पर आए पानी को झील बनाकर रोका गया। यहां के कोटरा में तो गुफाओं के पीछे अदृश्य तालाब के किस्से आज भी सच लगते हैं यहां के किला अमरगढ़ को गोमुख सदियों से पानी की अविरल धारा दे रहा है।
मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड, बघेलखंड और महाकौशल क्षेत्र भी पानी की विशिष्ट परंपराओं के कारण आज भी जाने जाते हैं, जबलपुर में पाटन क्षेत्र में पानी की हवेलियां आज भी देखी जा सकती हैं यहां के रानीताल, संग्राम सागर, गंगासागर, भंवरताल, महानदी तालाब के साथ जुड़े किस्से आज भी यहां का समाज बड़े चाव से सुनाता है इस शहर में बावन तालाब हैं, जो हमारे प्रदेश की समृद्ध रही पानी संचय परंपरा की श्रेष्ठ मिसाल हैं। पन्ना में पानी सुरंगें पाई जाती हैं यहां के कलदा पठार के गांव मुरकुछू में तराई में बने प्राचीन तालाब को गरीबी हटाओ योजना के जिला समन्वयक डी.पी. सिंह ने समाज के साथ मिलकर पुनः जिंदा किया है, जो अपनी परंपरा के अनुसार क्षेत्र के आर्थिक जीवन को बदल रहा है ओरछा के बावन किले और बावन बावड़ियां तथा सागर, टीकमगढ़ और खजुराहो के तालाब की प्रसिद्धि को कौन नहीं जानता है।
रीवा जिले में 6 हजार तालाब हुआ करते थे जिनमें से आज अनेक अतिक्रमण की भेंट चढ़ चुके हैं। सतना, रीवा सहित विंध्य में पानी रोकने की संरचनाओं को बंधियों और बांध के नाम से जाना जाता है। सीधी जिले में घोंघा बहुतायत में मिलते हैं, सतना जिले के गोरसरी में तो ढाई सौ साल पुरानी उस पानी परंपरा को आज भी देखा जा सकता है जिसे आज के पानी तकनीशियन रीज टू वैली के नाम से जानते हैं।
मध्य प्रदेश के गांव में पानी और समाज की प्रेम कहानियों के अनेक किस्से आपको कहीँ नहरोँ की जीर्ण-शीर्ण अवस्था में, कहीं टूटी दीवारों में, कहीं चौपड़ों, बावड़ियों, चड़स के निशानों, ओढ़ी की कुंडियों, कुइयां, जल मंदिरों, किलों के पास बने कुंओं से लगाकर, तो कहीं रानी साहिबाओं के लिए बने स्नानागारों तक में है। इतिहास के सुनहरे अध्याय दिखाते मिल जाएंगे प्रदेश की पहचान में यदि आज एक छोर पर बने प्रेम में मंदिर खजुराहो और दूसरे छोर पर मौजूद प्रेम के खंडहर मांडव विशिष्ट तौर पर शामिल हैं तो कमोबेश हर क्षेत्र में खोजने पर आपको एक-एक कहानी पानी और पुरातन समाज के प्रेम की भी मिल जाएगी।
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