पानी पर पटकथा

न तो पानी से साहित्य बच सकता है और न साहित्य से पानी। फिर भी साहित्य में पानी होना चाहिए और पानी में साहित्य। यदि साहित्य से पानी बचता तो इतना विपुल साहित्य रचे जाने के बावजूद आज हमें ऐसा जल संकट क्यों झेलना पड़ता। सच है कि पानी के बिना जीवन नहीं चल सकता तो जीवन के बिना पानी भी नहीं चल सकता।
जल को ही विधाता की आद्यासृष्टि माना गया है। जब सृष्टि में और कुछ नहीं रहता तब भी जल ही रहता है और सृष्टि में सब कुछ रहता है तो भी जल के ही कारण रहता है। इस पृथ्वी के नीचे भी जल ही है और जिस पृथ्वी के ऊपर यह जीवन है, उसके ऊपर के जलद पर्जन्य से ही जीवन अस्तित्व में है। पानी के दो पाटों के बीच ही जीवन का उद्भव और विकास होता है। अतः जीवन के लिए जल ही मौलिक तत्व है। किंतु इस जल को कथमपि बनाया नहीं जा सकता, इसे सिर्फ बचाया जा सकता है। हवा में मुक्का मारने पर लिखा जा चुका है, आसमां में सुराख करने पर लिखा जा चुका है, हथेली पर बाल उगाने पर लिखा जा चुका है, समय की शिला पर लिखने के प्रयास किए जा चुके हैं, बिना लिखे ही कोरे कागज को प्रिय के पास प्रेषित करने की भी परंपरा रही है, लेकिन हाहंत! आज मुझे पानी पर लिखना पड़ रहा है। उपर्युक्त परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखते हुए लिखने को तो पानी पर भी लिखा जा सकता है, लेकिन यदि पानी ही कागज, बोर्ड या कैनवास हो तो आप अलबेले से अलबेले लेखक की विवशता को समझ सकते हैं। फिर चाहे गुरुमुखी का ज्ञाता हो या ब्राह्मी का, खरोष्ठी में पारंगत हो या देवनागरी में, रोमन में धाराप्रवाह लिखता हो या फारसी में, आशुलिपिवाला हो या टंकणवाला, कंप्यूटरवाला हो या इंटरनेटवाला अथवा पुरानी मान्यताओं के सुरतरुवरशाखा लेखनी और सात समुद्रों की मसि बनाने वाले लेखक ही क्यों न रहे हों, इस पानी पर कोई भी लिपि टिक नहीं सकती। अंततः इस पानी पर लिखना पानी पीटना ही साबित होगा।

पानी ही नहीं रहा तो उबर नहीं सकते। सूख जाओगे और अंततः मर जाओगे। भला मरना कौन चाहता है? हारना ही मरना है। जो हारे हुए मन का होता है वह निम्न श्रेणी का मनुष्य विघ्न पड़ने के भय से काम का श्रीगणेश ही नहीं करता, मध्यम श्रेणी का मनुष्य बीच में व्यवधान आ जाने से हारकर काम बंद कर देता है, लेकिन जो उत्तम जन हैं वे पुनः-पुनः विघ्न पड़ने पर भी हार नहीं मानते। नरोत्तमों या पुरुषोत्तमों की महिमा तो किसी से छिपी नहीं रहती। फिर भी चलिए, प्रारंभ करने की प्रेरणा तो पहले लिखी गई एक सूक्ति से मिली।

पानी पर लिखने वालों की भी कमी नहीं रही है। वाल्मीकि, कालिदास, भारवि ही नहीं बल्कि संस्कृत साहित्य का सबसे प्रचालित और लोकप्रिय उपमान कमल भी तो पानी की ही उपज है। वाल्मीकि ने शरन्नद्यों के बहते जल को जघन देशसे सरकता हुआ दुकूल बताया है तो कालिदास को महावराह द्वारा समुद्र में डूबी पृथ्वी को दांतों से उभारने पर उसके स्वच्छ जल में पृथ्वी के घूंघट बन जाने का भ्रम हुआ है। प्रसाद जी का तो महाकाव्य ही जल-प्लावन पर आधारित है। किंतु ये सभी उदाहरण कल्पना प्रसूत माने जाते हैं। लोग मानते हैं कि पूर्ववर्ती साहित्य में वायवीय कल्पना और अव्यावहारिक आदर्श कुछ अधिक हैं। अतः यथार्थ पर आना पड़ेगा।

यथार्थवादी होने के लिए सोच-विचार और दृष्टि का वैज्ञानिक होना आवश्यक है। अतः दिए गए विषय को केवल साहित्य के चश्मे से नहीं देखा जा सकता। तो पानी पर लिखो। अपनी परंपरा में पानी पर लिखने के दृष्टांत भी मौजूद हैं, रहीम की चेतावनी भी है कि हर हाल में पानी को रखना और रखाना है, किंतु एक व्यक्तिगत कठिनाई सामने है, वह यह कि विषय दे दिया गया है और डिमांडेड राइटिंग से मन भागने लगता है। लेकिन इस विषय में ऐसा कौन-सा आमंत्रण है कि सारी अकड़ और विद्रोह भाव के बावजूद मन में एक तरह की पिपासा जगा रहा है? अतः पानी को हाथ में लेकर संकल्प लेना पड़ रहा है कि इस पर लिखूंगा। यह जानते हुए भी कि न तो पानी से साहित्य बच सकता है और न साहित्य से पानी। फिर भी साहित्य में पानी होना चाहिए और पानी में साहित्य। यदि साहित्य से पानी बचता तो इतना विपुल साहित्य रचे जाने के बावजूद आज हमें ऐसा जल संकट क्यों झेलना पड़ता और इसे विषय ही क्यों बनाना पड़ता? सच है, पानी के बिना जीवन नहीं चल सकता तो जीवन के बिना पानी भी नहीं चल सकता होगा।

विज्ञानियों ने द्रव्य को जिन तीन अवस्थाओं में बांटा है उनमें बीच की अवस्था को द्रव बताया है और द्रव का नाम लेते ही जिसकी कनिष्ठिका पर पानी नहीं आ जाता उसके मनुष्य होने में संदेह है। पानी ही वह विचित्र द्रव है जो द्रव्य की तीनों ही अवस्थाओं में रह सकता है। कहते हैं कि द्रव का कोई निश्चित आकार नहीं होता बल्कि पात्रतानुसार वह आकार ग्रहण करता है। जीवन का भी कोई निश्चित आकार नहीं होता। वह भी पात्रतानुसारी ही होता है। पानी ही वह द्रव है जो एक निश्चित तापमान के बीच तरल और गतिशील होता है। उस तापमान से नीचे हिमांक पर आकर वह ठोस बर्फ में बदल जाता है और उससे बहुत अधिक वाष्पांक पर पहुंचकर गैसीय अवस्था में वाष्पवीय हो जाता है। उसी प्रकार जीवन भी इतना वस्तुपरक यथार्थ नहीं कि बर्फ बन जाए। और कल्पना की ऐसी उड़ान भी नहीं कि वाष्पवत हो जाए। यह भी कहा जाता है कि जल एक रंगहीन, स्वादहीन और गंधहीन तरल द्रव है, किंतु जल के बीना न तो रंग संभव है, न स्वाद, न गंध। यदि जीवन में जल इतना अनिवार्य है तो जल में जीवन अनिवार्यतः होगा।

जिस जीवन में जल नहीं होगा उसका निर्जलीकरण हो जाएगा और वह रवे में रूपांतरित हो जाएगा। पानी की ही भांति शायद जीवन भी रंगहीन, गंधहीन और स्वादहीन नहीं होता। यदि पानी और जीवन में कोई अंतर हो सकता है तो केवल यही एक। किंतु जो लोग जीवन को रंगीन बनाने के लिए पोतड़ा लपेटते घूमते हैं, महकने के लिए हिरनों, जुगनुओं, तितलियों, भौरों और सांभरों की हत्या पर उतारू रहते हैं, और स्वाद चटकारने के लिए जिनकी इंद्रियां हमेशा बाहर निकली हुई दिखाई देती हैं, ऐसे जीवधारी हिंसक डायनासोर हैं। वह जीवन जीवन नहीं जो दूसरों को केवल खाद-पानी ही समझता हो। अगर वास्तव में कोई जीवन पानी की तरह रंगहीन, स्वादहीन और गंधहीन बन जाता है तो वह गांधी हो जाता है। विज्ञान ने इसका भी अनुसंधान कर लिया है कि जल की संरचना हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के संयोग से हुई है। लेकिन ज्ञान मात्र से सब कुछ सृजित नहीं किया जा सकता।

बताया जाता है कि पानी की मूल प्रकृति सदैव ऊपर से नीचे की ओर बहने वाली है। आशय यह कि पानी सदैव मूल में ही रहने के लिए व्याकुल रहता है। जिसके मूल में यह पानी रहता है, वह हरा-भरा और पुष्पित-पल्लवित होता है किंतु यही पानी जिसके सिर के ऊपर चला जाता है उसका सूखना तय है। यदि हमें जीवन के अस्तित्व को बचाना है तो प्रकृति के प्रति स्वामीभाव नहीं, बल्कि सखाभाव अपनाना होगा।

मनुष्य चाहे समूचे ब्रह्मांड को प्रयोगशाला बना ले, किंतु पानी के आवयविक संगठन और तत्वों की समस्त जानकारी के बावजूद वह पानी बनाने में असमर्थ है। पानी की असली सामर्थ्य यही है कि पानी से ही सब कुछ बनता है, किंतु सब कुछ से पानी नहीं बनाया जा सकता। कहते हैं कि आग और पानी पर किसी का वश नहीं चलता। इसमें भी आग पर तो पानी का वश चल भी जाता है, किंतु पानी पर आग का भी वश नहीं चलता। अतः जो लोग पानी को इतना उपेक्षणीय और सस्ता मानते हैं कि उसे अपनी मुट्ठी या जेब की वस्तु समझते हैं वे वस्तुतः आग ही मूतते हैं। वैसे तो पानी के अधिकारी सभी हैं, किंतु सच्चाई यह है कि पानी ही सबका अधिकारी है। जीव-जंतु, पशु-पक्षी, प्रकृति-वनस्पति सबका। जिसने भी पानी की अवहेलना की उसे ही जीवन से हाथ धोना पड़ा।

जल को ही विधाता की आद्यासृष्टि माना गया है। जब सृष्टि में और कुछ नहीं रहता तब भी जल ही रहता है और सृष्टि में सब कुछ रहता है तो भी जल के ही कारण रहता है। इस पृथ्वी के नीचे भी जल ही है और जिस पृथ्वी के ऊपर यह जीवन है, उसके ऊपर के जलद पर्जन्य से ही जीवन अस्तित्व में है। अर्थात् पानी के दो पाटों के बीच ही जीवन का उद्भव और विकास होता है। अतः जीवन के लिए जल ही मौलिक तत्व है। किंतु इस जल को कथमपि बनाया नहीं जा सकता, इसे सिर्फ बचाया जा सकता है। जल से ही जीवन बनता भी है और बचता भी है। जीवन को बनाने में जितने जल की जरूरत होती है, उससे अधिक जरूरत है जल की जीवन को बचाने में। इस जल को जल नहीं बचा सकता। उसे जीवन ही बचा सकता है। अतएव जो जीवन के सच्चे शुभचिंतक और हितैषी हों उन्हें सर्वप्रथम जल-संरक्षण पर ही अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए। आज का आदमी केवल अपना जीवन बचाने के चक्कर में योग्यतम की उत्तरजीविता के विकासवाद की अंधी दौड़ में शामिल हो गया है और जैव – विकास की स्वाभाविक संरचना को जैव-विनाश के आत्मघाती उद्यम में बदल देने पर तुला हुआ है।

प्राकृतिक दोहन और जैविक विविधता की अनदेखी करने वाला आज का यह मनुष्य तथाकथित वैज्ञानिक पदार्थवाद का ऐसा अनुचर बनकर रह गया है जिसे अपनी वास्तविक सत्ता का आभास ही नहीं। जब मनुष्य में प्रकृति के प्रति सहजात संबंध और मैत्रीभाव का लोप हो जाता है, जब उसमें प्रकृति के प्रति विजेता भाव का अहंकार आ जाता है तो वह पेड़-पौधों पर नहीं बल्कि अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मारता है और इस भ्रम में रहता है कि उसका विजय अभियान जारी है। कब्र खोदने वाले को यह भी समझना चाहिए कि किसी दिन उसकी भी कब्र खोदी जाएगी। जो इतना भी नहीं समझ सकते वे उद्धत, अहंकारी और जीवनद्रोही हैं। अहंकार ऐसा कुत्ता है जो अपनी पहुंच की हर ऊंचाई पर पिछली टांग उठा देता है। पर प्रतिष्ठा और ऊंचाई ही इसके वैरी हैं। वह ऊंचाई से भी ऊंची कोई ऊंचाई तो निर्मित नहीं कर सकता, अतः ऊंचाई को अपमानित करके ही आत्मरति पाल लेता है कि वह कुछ और ऊंचा हो गया है। प्रकृति पर मनुष्य का यही पूर्वोक्त विजेता भाव बिना पानी के ही उसे ले डूबता है। चुल्लू भर तो वैसे ही बहुत है। बताया जाता है कि द्रव अर्थात् पानी की मूल प्रकृति सदैव ऊपर से नीचे की ओर बहने वाली है। आशय यह कि पानी सदैव मूल में रहने के लिए व्याकुल रहता है। जिसके मूल में यह पानी रहता है वह हरा-भरा और पुष्पित-पल्लवित होता है, किंतु यही पानी जिसके सिर के ऊपर चला जाता है उसका सूखना तय है।

यदि हमें जीवन के अस्तित्व को बचाना है तो प्रकृति के प्रति स्वामीभाव नहीं, बल्कि सखाभाव अपनाना होगा। उसके संरक्षण और संवर्द्धन के प्रति गंभीर होना होगा। क्या चिपको आंदोलन की संवेदना में निहित मर्म के उद्देश्य को हम ठीक से सुन-समझ रहे हैं? क्या वृक्षों – वनस्पतियों की अंधाधुंध कटान से मर्माहत उन लोगों के मन में हाहाकर का अनुभव हम कर पा रहे हैं जो कुल्हाड़ी का वार अपने शरीर पर झेलकर वृक्षों को बचाने के लिए उनसे चिपक जाना चाहते हैं? क्या हम वनों और वन्यों, जलाशयों और नदियों, पर्वतों और समुद्रों को अपने सुखोपभोग का साधन मात्र मानकर उन्हें खंडित, प्रदूषित और नष्ट नहीं कर रहे हैं? नष्ट होने के पहले बहुत कुछ बचाया भी जा सकता है। आशा एक ऐसी हल्की किरण है जिसका उजास हमारे झीने गवाक्ष से भीतर आकर कभी हमें बुझने और निराश नहीं होने देता। हम बार-बार दुःस्वपनों के भंवर से निकलकर अभीष्ट संसार में सकुशल वापस लौटे हैं। पश्चाताप और परिष्कार हमारे रक्त में है।

समय बहुत बदला है। हमें बदलते हुए समय का स्वागत भी करना है। पहले हम यह तो जानते थे कि हम पानी पीते हैं लेकिन इस गुमान में थे कि इसे खुदा भी नहीं जानता होगा। अब जब गले में आकर झांगा अटक गया है तो दुनिया बिना बताए ही जान गई है। पृथ्वी बचाओ सम्मेलन शुरू हो चुका है तो पानी को बचाए बिना पृथ्वी क्या एक दूब भी नहीं बच सकती। पहले हम पीते थे पानी लेकिन समझते थे कि शरीर में खून ही खून है। हमारा कोई क्या कर लेगा? हम कायनात पर कब्जा कर लेंगे। प्रकृति हमारी मुट्ठी में या उसके बाल हमारी लातों के नीचे होंगे। ‘कर्ज की पीते थे और सोचते थे कि मगर/रंग लाएगी हमारी फाकामस्ती एक दिन।’ अगर हम समय से सचेत न हुए, पानी की ऐसी ही अवहेलना करते रहे तो फाकामस्ती के दिन दूर नहीं। तब प्यास के तांडव के आगे जाम का लास्य भूल जाएगा और याद आएगी हुसेन की प्यास, जलप्लावन का मनु या सहारा का मरुस्थल। अब हम यह भी जान चुके हैं कि शरीर में केवल खून ही नहीं, बल्कि आधे से अधिक भाग पानी है। भीतर पानी रहने के लिए आवश्यक है कि बाहर उससे अधिक पानी हो। क्योंकि जल केवल जलचरों के लिए ही नहीं बल्कि थलचरों, नभचरों और यहां तक कि अचरों के लिए भी उनसे अधिक आवश्यक है। पानी ही चर और अचर दोनों है। जो इस चराचर को केवल अचर राशि समझते हैं उनकी बुद्धि हिमठोस है एवं जो इसे केवल चर मानते हैं उनकी सोच में भाप का वायु विकार होने के कारण वह वाष्पीय है। एक सरल और गतिशील जीवन का नाम ही पानी है। पानी में ही जीवन के गुण सूत्र हैं।

प्रकृति के प्रति जैसी संवेदनशीलता कालिदास के काव्य में है, वैसी अनन्य और दुर्लभ संवेदना और कहीं नहीं दिखाई देती। कहने वालों ने उन्हें उपमाओं का कवि माना है किंतु वास्तव में वे पानी के कवि हैं। भला मेघदूत लिखने वाला कवि ‘किमिव हि मधुराणाम् मज्जनम नानकृतीनाम्’ लिखने वाला कवि अलंकारवादी कैसे हो सकता है? शकुंतला की विदाई के समय या लंका से वापस अयोध्या आते समय शकुंतला और सीता के वृक्षसेचन को ही कालिदास प्रथम वरीयता से याद करते हैं।

जल ही हमारा रक्षक है। पानी से ही प्रारंभ भी है और प्रारब्ध भी। इस धरती की जन्मपत्री पानी से ही लिखी है और इसका भविष्यफल इसी पर निर्भर है। इस जन्मपत्री को बांचने के लिए न तो किसी सौर ऊर्जा की जरूरत है, न नक्षत्र विज्ञानी की न किसी भविष्यवक्ता की जरूरत है, न लेखक की क्योंकि इसके केंद्र में ही जीवन है और जीवन की यह कुंडली। स्पष्ट है कि इस धरती का हर नागरिक इसे आसानी से पढ़ और समझ सकता है। तो अपनी प्यास से अधिक हमें वृक्षों की, वनस्पतियों की, जीव-जंतुओं की प्यास का ज्वलंत अनुभव करना पड़ेगा। वृक्षारोपण का नाटक करते हुए फोटो खिंचवाने से काम नहीं चलने वाला। कार्य के लिए कारण पर सम्यक विचार करना होगा अन्यथा हम अपने ही अहंकार की भेंट चढ़ जाएंगे। अपने इस जगदगुरु देश में धर्म और अध्यात्म के लिए जलवायु बड़ी ही अनुकूल है। इस क्षेत्र में सदैव लक्ष्य से अधिक पैदावार होती है। चीनी उद्योग बंद हो रहे हैं, वस्त्र और कागज उद्योग बंद हो रहे हैं किंतु आध्यात्मिक उद्योग लगातार खुल रहे हैं। अध्यात्म के प्रति प्यास जगाने वाले संत-महापुरुष पहले हमारे मन में सारे सांसारिक संबंधों के प्रति एक प्रकार की वितृष्णा उत्पन्न करके मरुभूमि बनाते हैं और फिर हमारी उत्कट प्यास बुझाने के लिए अपना मिनरल वाटर बेचकर सदा-सदा के लिए हमें साष्टांगी बना लेते हैं ताकि हम जल्द से जल्द ईश्वर को प्यारे हो सकें। ऐसे नए-नए आश्रम वाले संतों से भी सामाजिक पर्यावरण को कम खतरा नहीं। इसी प्रकार अहंकार को दूर करने का प्रशिक्षण देने वाले तथाकथित महात्मा भी कम अहंकारी नहीं।

पानी निर्मल और निरहंकार है। निष्कलुष रहना और करना ही उसकी प्रकृति है। अतः जो पानी को प्रदूषित करते हैं वे जीवन को प्रदूषित करने के पापी हैं। जिनकी आंखों का पानी मर चुका है उनके लिए पानी की हत्या पेशेवर कर्म की तरह है। उनके लिए एक ही दंड है और वह है जल-समाधि। जिस मृत सागर का पहले जिक्र हुआ है, कहते हैं कि उसमें कोई डूबता ही नहीं। जो सागर स्वयं मरा है वह दूसरों को क्या डुबोएगा? उसका अपना ही घनत्व इतना अधिक है कि दूसरों को आत्मसात करने के लिए कोई अवकाश नहीं। इसी से उसका पानी अपेय है। जबकि पानी ऐसा पेय है जिसका कोई विकल्प नहीं। न दूध, न चाय, न तेल, न अलकोहल। महाशीतल पेयों की मारकता को तो हम बीते दिनों अपनी आंखों से ही देख चुके हैं। महा से कभी कोई संस्कृति या सभ्यता विकसित नहीं होती। चाहे वे महासागर हों या महाठंडा! संस्कृति और सभ्यता का सीधा संबंध बहते हुए नीर से है। पानी ठहर जाता है तो जीवन भी ठहर जाता है। जीवन प्रवाह वस्तुतः पानी का ही प्रवाह है। बहता पानी निर्मला।

वैदिक सभ्यता के ऋषियों ने अपस, पर्जन्य और नद्य सूक्तों के स्रोतों से इसी पानी की अभ्यर्थना की है क्योंकि इस सृष्टि का कुटुंब ऐसे घर में रहता है जिसका कुट्टिम और छत दोनों पानी का है। बादल, बूंदें, नहरें, नदियां, समुद्र सब उसी के प्रसार और विस्तार हैं।

आशय यह कि जल ही हमारा रक्षक है। पानी से ही प्रारंभ भी है और प्रारब्ध भी। इस धरती की जन्मपत्री पानी से ही लिखी है और इसका भविष्यफल इसी पर निर्भर है। इस जन्मपत्री को बांचने के लिए न तो किसी सौर ऊर्जा की जरूरत है, न नक्षत्र विज्ञानी की न किसी भविष्यवक्ता की जरूरत है, न लेखक की क्योंकि इसके केंद्र में ही जीवन है और जीवन की यह कुंडली स्पष्ट है कि इस धरती का हर नागरिक इसे आसानी से पढ़ और समझ सकता है – जो लोग इस जीवन को ज्योतिष के दिशा-निर्देशों से चलाना चाहते हैं उनकी आस्था मानवता से अधिक नक्षत्रों और ग्रहों में है एवं जो लोग इसे उपग्रहों से परिचालित समझते हैं, वे प्रकृति के सम्मुख अपना सिक्का चलाने के दंभ में चूर हैं। जबकि जीवन की कहानी पानी की कहानी है। वह न भाववादी है न यथार्थवादी, न अनकही, न नई कहानी। वास्तव में यह पानी की पानी के द्वारा और पानी के लिए है। आज पानी एक चिंता का प्रश्न है।

ईंधन के प्रश्न का हल खोजा जा सकता है और खोजा भी गया है, खाद्यान्न के प्रश्न का हल खोजा जा सकता है और खोजा भी गया है, आवास के प्रश्न के हल भी खोजे गये हैं क्योंकि ये बहुविकल्पीय प्रश्न हैं। पानी का प्रश्न अविकल्प है। यदि पानी कोई प्रश्न है तो इसका उत्तर भी पानी ही है। इस दीर्घ उत्तरीय प्रश्न पर सर्वाधिक अंक निर्धारित हैं। यदि यह प्रश्न गलत हो गया या छूट गया तो जीवन का पेपर खराब हो सकता है। यह परीक्षा की घड़ी है। निर्धारित अवधि में ही हमें प्रस्तावना, कारण, निवारण, उपाय और निष्कर्ष पर विचार करना होगा अन्यथा जीवन ऐसा जटिल प्रश्न बन जाएगा जिसका भाष्य पातंजलि, यास्क, सायण, मैक्समूलर या मैकडोनल किसी के वश का नहीं होगा। पानी का एकल अभिनय संसार का सबसे भयानक दुःस्वप्न होगा। अतः इस रूपक में जीवन की मुस्कान, हंसी, श्रम, रुदन, सिसकी सब शामिल होंगे। पानी के साथ ओस, पसीना, आंसू आदि की भूमिकाओं की अनदेखी करना किसी आत्मघात से कम नहीं।

(लेखक प्रसिद्ध कवि हैं)

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