विपक्ष विहीन बिहार में मिस्टर सुशासन उर्फ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जनविरोधी नीतियाँ अब एक-एक कर जनता के सामने आने लगी हैं। पहले बिजली के बाजारीकरण का खेल शुरू हुआ। खेल खत्म होने से पहले ही पानी के बाजारीकरण का खेल भी शुरू हो गया है। पक्की खबर है कि सूबे में अब लोगों को अपनी जमीन से पीने के लिए पानी निकालने पर नीतीश सरकार को 'जजिया कर' (टैक्स) देना होगा। यही नहीं जो जितना अधिक पानी का प्रयोग करेगा उसे उतना ही अधिक टैक्स देना होगा। यानी पानी अब पराया हो गया है।
जल पर जन का अधिकार नहीं होगा। वैसे मिस्टर सुशासन का तर्क है कि इससे भू-जल की बर्बादी नियंत्रित होगी। सूबे के सभी नगर निगमों और पंचायती राज संस्थाओं के पास इस बाबत तुगलकी फरमान भेज दिए गए हैं। कई जगह अखबार वालों ने 'गुड न्यूज' 'खास खबर' और जल संरक्षण की दिशा में राज्य सरकार द्वारा उठाए गए एक महत्वपूर्ण कदम जैसे भाव के साथ इस खबर को परोसा है। सूबे के किसी भी अखबार ने इसे जनविरोधी बताने की जुर्रत नहीं की है।
करीब दो साल पहले बिहार विधानसभा में नीतीश कुमार की सरकार ने इस विधेयक को पास कराया था। तब किसी भी विपक्षी दल (राजद-लोजपा-वामदल) या विधायकों ने विरोध नहीं जताया था। अखबारों में भी छोटी-छोटी खबरें प्रकाशित हुई थीं। दरअसल, यह विधेयक कितना जनविरोधी है उस समय कोई ठीक से समझ ही नहीं पाया। और भला समझता भी कैसे? उसके लिए दिमाग जो चाहिए।
खैर, बिहार में अक्सर ऐसा होता आया है कि विधेयक पारित होते समय विधानमंडल में कोई प्रतिरोध नहीं होता। जब विधेयक लागू होने की बारी आती है तो जनता और पार्टियां सड़क पर उतरने लगती हैं। शायद इस बार भी ऐसा ही होता, लेकिन आसार नहीं दिख रहे हैं। क्योंकि इस बार तो विपक्ष सिरे से ही गायब है। आखिर मुंह खोलेगा कौन? मीडिया से तो उम्मीद ही बेमानी है। वह तो मुख्यमंत्री के मुखपत्र की भूमिका निभा रहा है। मुझे अच्छी तरह याद है जब विधेयक पास हुआ था तो मैंने मुजफ्फरपुर में भाकपा माले के कुछ साथियों से विरोध जताने की अपील की थी, लेकिन उन्होंने भी गंभीरता से नहीं लिया।
यों तो देश में पानी के बाजारीकरण का खेल वर्ष 1990-91 में नई अर्थव्यवस्था को अपनाने के साथ ही शुरू हो गई थी। लेकिन बिहार में यह नीतीश कुमार के शासनकाल से दिखाई दे रहा है। मुख्यमंत्री बनने के बाद नीतीश कुमार वर्ल्ड बैंक के एजेंट की भूमिका निभाने लगे हैं। ठीक उसी तरह जैसे आंध्र प्रदेश में कभी चंद्रबाबू नायडू निभाया करते थे। उन्होंने भी अपने यहां भू-जल पर टैक्स लगा रखा है। ऐसे में भला नीतीश कुमार पीछे कैसे रह सकते थे। इन्होंने भी आंध्र प्रदेश का माडल बिहार में चुपके चुपके लांच कर दिया।
नीतीश कुमार के विकास का माडल हर तरह से वर्ल्ड बैंक को मालदार बनाने वाला है। पूंजीपतियों व विदेशी कंपनियों को फायदा पहुंचाने वाला है। आम आदमी को इससे कोई फायदा नहीं होगा। करीब 20-25 वर्षों के बाद बिहार का हर आदमी अप्रत्यक्ष रूप से वर्ल्ड बैंक को कर्जा चुकाते नजर आएगा। इतना ही नहीं सूबे के गरीब और गरीब हो जायेंगे। बुनियादी संसाधनों पर से उनका हक धीरे-धीरे छिन जाएगा। जल, जंगल और जमीन जैसी जन-जायदाद पर वर्ल्ड बैंक गिद्ध की तरह नजर गड़ाए हुए है। अगर नीतीश जैसे एजेंटों का विरोध नहीं हुआ तो देश गुलाम हो जाएगा।
जल पर जन का अधिकार नहीं होगा। वैसे मिस्टर सुशासन का तर्क है कि इससे भू-जल की बर्बादी नियंत्रित होगी। सूबे के सभी नगर निगमों और पंचायती राज संस्थाओं के पास इस बाबत तुगलकी फरमान भेज दिए गए हैं। कई जगह अखबार वालों ने 'गुड न्यूज' 'खास खबर' और जल संरक्षण की दिशा में राज्य सरकार द्वारा उठाए गए एक महत्वपूर्ण कदम जैसे भाव के साथ इस खबर को परोसा है। सूबे के किसी भी अखबार ने इसे जनविरोधी बताने की जुर्रत नहीं की है।
पहले ही बन गई थी रणनीति
करीब दो साल पहले बिहार विधानसभा में नीतीश कुमार की सरकार ने इस विधेयक को पास कराया था। तब किसी भी विपक्षी दल (राजद-लोजपा-वामदल) या विधायकों ने विरोध नहीं जताया था। अखबारों में भी छोटी-छोटी खबरें प्रकाशित हुई थीं। दरअसल, यह विधेयक कितना जनविरोधी है उस समय कोई ठीक से समझ ही नहीं पाया। और भला समझता भी कैसे? उसके लिए दिमाग जो चाहिए।
खैर, बिहार में अक्सर ऐसा होता आया है कि विधेयक पारित होते समय विधानमंडल में कोई प्रतिरोध नहीं होता। जब विधेयक लागू होने की बारी आती है तो जनता और पार्टियां सड़क पर उतरने लगती हैं। शायद इस बार भी ऐसा ही होता, लेकिन आसार नहीं दिख रहे हैं। क्योंकि इस बार तो विपक्ष सिरे से ही गायब है। आखिर मुंह खोलेगा कौन? मीडिया से तो उम्मीद ही बेमानी है। वह तो मुख्यमंत्री के मुखपत्र की भूमिका निभा रहा है। मुझे अच्छी तरह याद है जब विधेयक पास हुआ था तो मैंने मुजफ्फरपुर में भाकपा माले के कुछ साथियों से विरोध जताने की अपील की थी, लेकिन उन्होंने भी गंभीरता से नहीं लिया।
किसने दिखाई नीतीश को राह
यों तो देश में पानी के बाजारीकरण का खेल वर्ष 1990-91 में नई अर्थव्यवस्था को अपनाने के साथ ही शुरू हो गई थी। लेकिन बिहार में यह नीतीश कुमार के शासनकाल से दिखाई दे रहा है। मुख्यमंत्री बनने के बाद नीतीश कुमार वर्ल्ड बैंक के एजेंट की भूमिका निभाने लगे हैं। ठीक उसी तरह जैसे आंध्र प्रदेश में कभी चंद्रबाबू नायडू निभाया करते थे। उन्होंने भी अपने यहां भू-जल पर टैक्स लगा रखा है। ऐसे में भला नीतीश कुमार पीछे कैसे रह सकते थे। इन्होंने भी आंध्र प्रदेश का माडल बिहार में चुपके चुपके लांच कर दिया।
क्यों जरूरी है नीतीश का विरोध
नीतीश कुमार के विकास का माडल हर तरह से वर्ल्ड बैंक को मालदार बनाने वाला है। पूंजीपतियों व विदेशी कंपनियों को फायदा पहुंचाने वाला है। आम आदमी को इससे कोई फायदा नहीं होगा। करीब 20-25 वर्षों के बाद बिहार का हर आदमी अप्रत्यक्ष रूप से वर्ल्ड बैंक को कर्जा चुकाते नजर आएगा। इतना ही नहीं सूबे के गरीब और गरीब हो जायेंगे। बुनियादी संसाधनों पर से उनका हक धीरे-धीरे छिन जाएगा। जल, जंगल और जमीन जैसी जन-जायदाद पर वर्ल्ड बैंक गिद्ध की तरह नजर गड़ाए हुए है। अगर नीतीश जैसे एजेंटों का विरोध नहीं हुआ तो देश गुलाम हो जाएगा।
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