‘विचार जो कामयाब रहे’ पुस्तक में भारत के बीस अग्रणी कामयाब लोगों की कहानियाँ हैं। बीस ऐसे लोगों का जो अपने जीवन में कामयाबी की एक बड़ा मुकाम हासिल किया और उनके इस कोशिश की वजह से देश और समाज को भी काफी फायदा हुआ। यह पुस्तक इन लोगों की आत्मकथ्य है। इस पुस्तक में डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम, आर.सी. सिन्हा, डॉ. आर.ए.माशेलकर, एन. चंद्रबाबू नायडू, डॉ. वर्गीस कुरियन, एन.आर. नारायण मूर्ति, राजेंद्र सिंह, जयंत नर्लीकर, मुकेश अंबानी, रतन नवल टाटा, इला भट्ट, ई. श्रीधरन, डॉ. एस. डाभोलकर, प्रो. एम.एस. स्वामीनाथन, अजीम एच. प्रेमजी, आलोक शर्मा, डॉ. बिंदेश्वर पाठक, एस.आर. राव, विलासराव सालुंखे और डॉ. राजेंद्र एस. पवार के आत्मकथ्य पुस्तक में शामिल हैं।
पुस्तक का एक अंश यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। पूरी पुस्तक संग्रहणीय है। इस पुस्तक का सजिल्द संस्करण प्रभात प्रकाशन ने और पेपरबैक संस्करण पेंग्विन बुक्स ने छापी है।
सामर्थ्यशील समुदाय द्वारा ग्रामीण विकास जरूरी है, भारत के लोगों का जीवन स्तर सुधारने के लिये। हमें सक्रिय होकर सम्बन्धित मुद्दों और चुनौतियों का हल करना चाहिए। यदि विकास के सामूहिक प्रयासों को सरकार और लोगों के बीच में क्रियान्वित किया जाए तो गम्भीर बदलाव की संभावनाएँ हैं।
मैं अपने विचार साझा करना चाहूँगा कि कैसे पानी पंचायत बनी और कैसे इस संकल्प को कार्य में बदला जा सकता है और नागरिक समाज और सरकार के सामूहिक प्रयास से कैसे भारत को आगे ले जा सकते हैं, विशेषकर योजना में वैकल्पिक प्रावधान करके अपनी विशाल और हमेशा बढ़ने वाली जनसंख्या के फायदे के लिये।चूँकि मैं 1960 से 1972 तक उन्नत इंजीनियरिंग में व्यस्त था, मुझे कम ही जानकारी थी ग्रामीण भारत की समस्याओं की। हालाँकि मैं ग्रामीण क्षेत्र से हूँ, लेकिन मैं पूरी तरह से शहरी था, क्योंकि मैं औद्योगिक शहर सूरत में रहा हूँ और यहीं मैंने काम किया। इस समय महाराष्ट्र ने बहुत बड़े सूखे का सामना किया। जिसमें 50 लाख लोग अपने जीवन-यापन के लिये रोजगार की तलाश में निकले, क्योंकि खरीफ और रबी, दोनों फसलें नष्ट हो गई थीं। राज्य सरकार ने इन लोगों को पत्थर तोड़ने के लिये रोजगार दिया और उन्हें 2 रूपए प्रतिदिन दिए। मैंने जब यह पुणे के बाहर देखा तो जिला कलेक्टर से पूछा, पत्थर तोड़ने का सूखे से क्या लेना-देना है, तो वह हँसा और उसने ईमानदारी से कहा, ‘अगर मुझे पता होता तो मैं उन्हें कुछ और काम देता।’
लोग स्वयं में ज्यादा दूरंदेशी थे, उन्होंने सुझाव दिया कि पानी की कमी और मॉनसून के उलटफेर की वजह से उन्हें अपनी शक्ति पानी को बचाने और भू-जलस्तर की उपलब्धता को बढ़ाने में लगानी चाहिए। उन स्थानों को सूखा रहित और उनकी सामान्य समस्या को कम करना चाहिए। इस आश्चर्य में कि क्यों प्रशासन ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया जोकि एक साधारण व्यक्ति के लिये इतना स्वाभाविक था, मैंने अनुभव किया कि हमारी सब योजनाएँ ऊपर से नीचे और बड़े स्तर की हैं और उनका फोकस एक बड़ी तस्वीर का होता है। लोगों की मुख्य समस्या पानी की थी। लेकिन अधिकारी बड़े जल संसाधन जैसे बड़े बाँध, बड़े प्रोजेक्ट के द्वारा समस्या के निदान की कोशिश कर रहे थे। मैं इन बड़े बाँधों या बड़े प्रोजेक्ट के विरोध में नहीं हूँ जोकि बड़ी जगहों के लिये उपयुक्त हैं। यद्यपि छोटे क्षेत्रों के लिये, हमें क्षेत्रीय जल सुरक्षा के लिये छोटे सिंचाई के स्रोतों की व्यवस्था करनी चाहिए। एक महीने के अंदर मैंने कलेक्टर को छोटे पानी के संचयन के कार्य को दस या पंद्रह गाँवों में लेने के लिये आश्वस्त किया। कलेक्टर सहमत हो गए, क्योंकि लोग यही चाहते थे। हमने तीन महीनों में ही बहुत कुछ हासिल किया जब बारिश आई हम कुछ पानी जमा कर सकें।
शुरूआती सफलता ने मुझे उत्साहित किया और मुझे इस विषय को और खोजने के लिये प्रेरित किया यहाँ तक कि जब सूखा खत्म हो गया, प्रशासन और लोग निश्चिंत हुए, हमारा नए गाँव के अंदर प्रोजेक्ट संरक्षण का काम जारी रहा। जब हम जल संरक्षण के लिये निर्माण में व्यस्त थे तब कुछ अन्य व्यक्ति अपने पास में ही कुएँ खोद रहे थे। यह देखना रुचिकर था कि संरक्षण कार्य पूरा होने से पहले ही किसी ने कुएँ खोदना भी शुरू कर दिया था, क्योंकि वह जानता था कि संरक्षित जल के पास खोदने से उसको भी फायदा होगा। यद्यपि वह पूरे समुदाय के लिये नहीं सोच रहा था कि वह सब जो इस योजना पर कार्य कर रहे हैं, वह भी इस पानी को बाँटेंगे। हम ऐसी परिस्थितियों का सामना करते हैं। कुछ व्यक्ति कुछ कार्य ऐसे संघर्ष में अपने विकास के लिये करे बिना अपने समुदाय के बारे में सोचें। यह सामाजिक सच्चाई है।
नए गाँव प्रोजेक्ट में हमारे पास चालीस एकड़़ की साझा जमीन थी, काम करने के लिये। हम उसको जोड़ने वाली सड़क, पानी और मानव शक्ति को प्रयोग में लाना चाहते थे। एक लाभदायक रोजगार की तरह जो न केवल खेती से काफी आमदनी और अन्य गतिविधि देगा, वरन आगे के लिये भी जोड़ेगा। इस सिद्धान्त को जाँचने के लिये इससे पहले कि लोगों को दें, हमने एक छोटा सा जाँच बाँध एक छोटे से जलाशय के पास बनाया। इस तरह पानी का संचयन करके हम दोनों रबी और खरीफ फसलों के लिये सुरक्षित सिंचाई दे सकते थे। सिंचाई सहयोग से पैदावार 10 क्विंटल से 100 क्विंटल हो गई, यहाँ तक कि बिना किसी आधुनिक तकनीकी जैसे हाइब्रिड बीजों और रासायनिक खादों के। चार परिवारों को सालभर रोजगार दिया गया। स्थानीय सर्वेक्षकों ने हमें बताया, हालाँकि वे खेती के बारे में बहुत कुछ जानते थे, लेकिन अपनी पैदावार पानी की कमी से बढ़ा नहीं सके। जबकि पानी के टैंक गाँवों में थे, लेकिन उनका उपयोग उन्हीं लोगों ने किया, जिनके खेत नीचे थे।
वे निथारने वाले टैंक से अपने खेतों तक पानी ले जाने के लिये हमारी सहायता चाहते थे और उन्हें विश्वास था इससे उनकी पैदावार हमारी पैदावार से कहीं ज्यादा होगी। क्योंकि वे पेशेवर किसान थे। मैं उनके प्रस्ताव पर सहमत हो गया लेकिन सबको समान वितरण की महत्ता को ध्यान में रखा। मैंने किसानों से पूछा कि आपके परिवार को कृषि के लिये कितना खेत और पानी चाहिए। उनके पास बिना किसी क्षेत्रीय भेद-भाव के एक ही जवाब था दो एकड़। यदि किसान के पास दो एकड़ जमीन पानी की सुरक्षा के साथ थी, उसके पास काफी रोजगार और खाद्य सुरक्षा थे। इसने मुझे उत्साहित किया। यह सुझाव देने के लिये कि उपलब्ध पानी को बराबर बाँटा जाए, इस बात पर ध्यान देते हुए कि उस समय कितनी जमीन उनके पास है।
यह उस पारम्परिक सोच से अलग था, जहाँ पानी उतना ही उपलब्ध था, जितनी जमीन होती थी। लोगों ने पानी के इस राशन-व्यवस्था को स्वीकार किया।
पानी पंचायत के सिद्धान्त
बराबर और सामाजिक न्याय पर आधारित दर्शन के आधार पर, निम्नलिखित सिद्धान्तों को पानी पंचायत व्यवस्था लागू करने के लिये बनाया गया। इस नवनिर्मित जल प्रबंधन, जिसका विकास सूखाग्रस्त महाराष्ट्र के ग्राम गौरव प्रतिष्ठान ने किया और इसे यह लोकप्रिय नाम दिया।
1. यह सिंचाई स्कीम किसानों के समूह के लिये है, व्यक्ति के लिये नहीं, जिससे व्यक्ति दृष्टिकोण की जगह सामूहिक शक्ति को विकसित किया जा सके। पानी का बँटवारा परिवार के सदस्यों के अनुसार न होकर उपलब्ध जमीन के आधार पर हो। पाँच सदस्यों वाले परिवार को एक हेक्टेयर जमीन को सींचने के लिये पानी का प्रावधान किया गया।
2. फसल के तरीकों को कम पानी की जरूरत वाली मौसमी फसलों तक सीमित किया गया। वे फसल जो सालों रुके और जिसे बहुत पानी की जरूरत है, विशेषकर गन्ने को नहीं उगाया जाएगा।
3. पानी के अधिकार जमीन के अधिकार के साथ नहीं जुड़े हैं। यदि जमीन बेच दी जाती है, पानी के अधिकार समूह के पास ही रहेंगे।
4. समुदाय के सभी सदस्य यहाँ तक कि बिना जमीन वाले को पानी का अधिकार होगा जोकि एक सबका स्रोत है। पानी का अधिकार बिना जमीन वाले को देने का परिणाम यह हुआ कि सामुदायिक स्तर पर जमीन को बाँटने से उन्हें भी जमीन मिल गई।
5. सिंचाई स्कीम का फायदा उठाने वालों को कुल स्कीम के मूल्य का 20 प्रतिशत देना होगा। इसकी योजना बनाना उसको चलाना, लागू करना और स्कीम की व्यवस्था और उसे बराबर से सदस्यों में बाँटना यह सब भी उनकी जिम्मेदारी है।
यह स्कीम अंत में लोगों की अपनी है, क्योंकि वे इसकी योजना, लागू करना और इसको बनाए रखने के प्रबंधन में शामिल हैं। इसको लोगों के नेतृत्व में इन नियमों के निर्देशन में फलना-फूलना होगा, यह कहकर मैं चाहूँगा कि देश की वर्तमान पानी की स्थिति पर ध्यान देना, जहाँ और ज्यादा संख्या में गाँव पानी की कमी को झेल रहे हैं।
प्रति परिवार जल सुरक्षा, जमीन की जरूरत और अपेक्षित सालाना पारिवारिक आमदनी।
पानी पंचायत का सिद्धान्त इस विश्वास पर आधारित है कि पानी सभी जीवित प्राणियों का है-मानव, जानवरों, पक्षियों, पेड़ों और कीड़े-मकोड़े। हमें बने रहने वाली भूमि-जल समुदाय प्रबंधन को विकसित करना चाहिए, जिससे पाँच साल के अंदर भारत के सभी गाँव हरे हो जाएँ। पानी की सुरक्षा मूल जिंदगी की सुरक्षा और गरीबी हटाने का बीमा है।
पाँच सदस्यों के परिवार को-1000 मी3 प्रति व्यक्ति के हिसाब से 5000 मी3 होगी। इसके प्रयोग के लिये फसल पैदा करने योग्य जमीन एक हेक्टेयर होगी। एक औसत आमदनी इस खेती योग्य भूमि से परिवार को खेती से 30,000 रूपए होगी। खेती से जुड़े रोजगारों से साथ में पूरक आय (10,000 रूपए) तक और खेत जंगल और जंगल के सामान से (10,000 रूपए) कुल मिलाकर 50,000 रुपए होगी।पानी का उपयोग विभिन्न जीविकाओं के लिये प्रति व्यक्ति इस प्रकार होगा। अगर 1000 मी3 पानी की मात्रा हर व्यक्ति के लिये है और यदि वह कंजूसी से प्रयोग में लाता है तो 250 मी3 फसल के लिये उन फसलों जिनको पानी की जरूरत कम है जैसे- दालें और ज्वार-बाजरा, तेल के बीज, सब्जियाँ और हरे चारे के लिये उसको जरूरत 100 मी3 की होगी। रेशों वाली हरी खाद और जंगल आधारित खेती (एग्रोफोरेस्ट्री के लिये उसको अन्य 100 मी3 की आवश्यकता होगी। पीने का पानी और अन्य गृह-कार्यों के लिये 50 मी3 की जरूरत होगी। शेष बचे हुए 500 मी3 वह खेती उगाने के लिये जिसे वह बाजार में बेच सकता है। इस प्रकार कम से कम 1000 मी3 जल को सुरक्षित उपलब्ध कराया जाए।
यदि हम सरकारों द्वारा सिंचाई व्यवस्था वाले विभिन्न राज्यों को देखें तो इसमें पंजाब, हरियाणा, और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्से शीर्ष सूची में हैं। अन्य राज्यों में सिंचाई का प्रतिशत कम है। उसमें 60 प्रतिशत से ज्यादा खेती बरसात के पानी से पूरी होती है। कुल मिलाकर भारत की 38 प्रतिशत जमीन सिंचाई वाली है, लेकिन उसमें बहुत क्षेत्रीय असमानताएं हैं। एक तरफ जहाँ पंजाब में 100 प्रतिशत सिंचाई हैं, वहीं महाराष्ट्र में सबसे कम प्रतिशत सिंचाई है, जिसकी 85 प्रतिशत जमीन सुरक्षित जल संसाधन विकास के केन्द्र में रखी जमीन के बाहर है। मैं इस बात को फिर दोहराना चाहूँगा कि मैं बड़े संसाधनों द्वारा जल संसाधनों के विकास के विरोध में नहीं हूँ। फिर भी जरूरी है कि इस प्रोजेक्ट द्वारा संसाधनों के विकास को उनकी सीमा के बाहर के संसाधनों के संचयन को एक स्थायी जल सुरक्षा को बनाने के लिये जोड़ा जाए।
हम कहते हैं कि हमारी खाद्य (फूड) सुरक्षा और सम्पन्नता नहीं पा सकती थी बिना इन बड़े बाँधों द्वारा। यह सच है कि हरित क्रांति ने खाद्य उत्पादन 5 सौ लाख टन (एम.टी.) से 2 हजार लाख टन (एम.टी.) कर दिया, लेकिन अब उत्पादकता घट रही है, पानी का उपयोग बढ़ रहा है, और जमीन में नमक की मात्रा बढ़ रही है। 50 प्रतिशत से अधिक बच्चे पाँच वर्ष की आयु के अंदर ही नाटे हो रहे हैं। प्रोटीन और सूक्ष्म पोषक तत्वों (माइक्रो न्यूट्रियेन्ट) की कमी से, जिसको हम नीतियों को ठीक से लागू कर इस पर काबू पा सकते हैं।
हरित क्रांति में अनाज जैसे चावल और गेहूँ के उत्पादन और सफेद क्रांति ने भारत को विश्व का सबसे बड़ा दूध उत्पादक बनाया, मगर किसी भी पोषण के कारण को सहायता नहीं मिली, क्योंकि सही माइक्रो न्यूट्रियेन्ट (सूक्ष्म पोषक तत्वों) माँ और बच्चे तक सही समय में नहीं पहुँच सके। भारत को जरूरत है इंद्रधनुष क्रांति की, जिससे ज्वार, बाजरा, दालें और मोटे अनाज के उत्पादन की कमी को पूरा किया जा सके। जो चावल और गेहूँ के उत्पादन पर जोर देने से कम हो गए हैं। सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी यानी आयरन और आयोडीन की कमी को बढ़ाते हैं। इस प्रकार मानसिक विकास में रूकावट पड़ रही है।
नेशनल न्यूट्रीशियन मॉनिटरिंग ब्यूरो इस बात की पुष्टि करता है कि प्रतिदिन जरूरी खाने को लेने का प्रतिशत प्रस्तावित लेने वाले भोजन से बहुत कम है और भारत की ग्रामीण जनसंख्या का 40 प्रतिशत और शहरी जनसंख्या का 30 प्रतिशत इसकी चपेट में है, क्योंकि वे गरीबी रेखा के नीचे हैं।
दुर्भाग्य से हमने हमेशा बाहर के सिद्धान्त अपनाए हैं। उदाहरण के लिये गेहूँ भारत का पेट भरने वाला अनाज नहीं है। पंजाब जो गेहूँ और चावल उगाता है उसका पारम्परिक खाना मक्का और बाजरा है। हरित क्रांति के शुरू होने से गेहूँ और चावल खाद्य उत्पादन की मुख्य फसलें हैं। 1957 से ही खाद्य उपलब्धता प्रति व्यक्ति स्थिर रही है। 400-438 ग्राम। हालाँकि खाद्य उत्पादन बढ़ गया है। जनसंख्या भी बढ़ रही है। ध्यान देने का मुद्दा यह है कि ज्वार-बाजरा की उपलब्धता जो इतने प्रकारों में उगाया जा रहा है, उसका उत्पादन कम हो रहा है और वह प्रति व्यक्ति 287 ग्राम हो गया है। अफसोस की बात है कि दालों की उपलब्धता प्रति व्यक्ति आधी हो गई है। जबकि तथ्य यह है कि हमारे लिये प्रोटीन उपलब्ध कराते हैं। हमारे वर्तमान खाद्य उत्पादन से लोगों की कैलोरी की जरूरतें पूरी होती हैं। पौष्टिक तत्वों की भरपाई नहीं हो पाती। यदि हम निर्देशित जल नीति का पालन करें तो प्रत्येक गाँव को पौष्टिक तत्वों की कमी नहीं होगी। यह राष्ट्रीय स्तर पर खाद्यान्न की उत्पादकता से बेहतर रहेगा जो अन्न को विभिन्न क्षेत्रों में भेजता है। इस प्रकार स्थानीय समुदायों को रोजगार और आत्मनिर्भरता से वंचित करता है।
मैं कहूँगा कि हम ढेर सारे जल संसाधन की तकनीक को विकसित करने में सफल हो गए, मगर उनको सामाजिक और आर्थिक पहलुओं पर लागू करने में असफल रहे। गेहूँ और चावल सबसे ज्यादा उपलब्ध पानी को खत्म करते हैं, जबकि ज्वार एक मुख्य आधार दक्षिण भारत का था। बाजरा मुश्किल से 1300 मी3 पानी प्रति किलो जबकि गेहूँ 2600 मी3, चावल 5000 मी3 और गन्ना 3400 मी3 एक किलो चीनी पैदा करने के लिये पानी प्रयोग में लाता है। इस प्रकार हमारे जल संसाधन जिनका विकास जनता के बल पर हुआ है, उसे हमारी नकदी फसल (कैश क्रॉप) वाली खेती खत्म कर देती है। महाराष्ट्र के तटीय क्षेत्र 3000 मिमि सालाना बारिश पाते हैं, जबकि सूखा ग्रस्त इलाके केवल 300 मिमी, अन्य खेती योग्य क्षेत्रीय इलाकों को 800-1500 मिमी मिलती है। महाराष्ट्र की खेती योग्य भूमि में 15 प्रतिशत की सिंचाई होती है। फिर वहाँ क्षेत्रीय विभिन्नता है, तटीय क्षेत्रों में यहाँ तक कि 2 प्रतिशत से ज्यादा सिंचाई नहीं होती है। पूर्वी क्षेत्र में जहाँ 1500 मिमी. बारिश निश्चित तौर पर होती है, उसको 6 प्रतिशत से ज्यादा सिंचाई नहीं मिलती, जबकि कम बारिश वाले क्षेत्र, सभी बड़ी विकास वाली योजनाओं का पूरा पानी खत्म कर देते हैं। एक गन्ने की खेती योग्य भूमि के 3 प्रतिशत क्षेत्र में 70 प्रतिशत पानी का उपयोग होता है।
मजे की बात यह है कि पुणे में हमने पूरे महाराष्ट्र का दसवाँ हिस्सा जल संसाधन का बनाया है। हम पूरे विश्व को बता सकते हैं कैसे सूखाग्रस्त क्षेत्र में गन्ना उगाया जा सकता है।
पुणे जिले के हर ब्लॉक में कम से कम एक चीनी कारखाना है। इसका कुल परिणाम यह है कि इस क्षेत्र का 20 प्रतिशत जिसमें सिंचाई होती है वह 80 प्रतिशत पानी गन्ने की फसल के उपयोग में लाता है जोकि कृषि योग्य भूमि का 2-3 प्रतिशत है। शेष 80 प्रतिशत जमीन और जनसंख्या जोकि 1,500 गाँवों में रहती है, वह वर्षा की दया पर निर्भर है। यह राज्य की स्थिति है। खाद्य की समस्या और अन्य जरूरतों के अलावा हमें चारे की भी समस्या है और हम इसे दूसरे राज्यों से लेने की सोच रहे हैं।
लोगों को सामर्थ्यवान बनाना
मैंने भारत के सिंचाई परिदृश्य के क्षेत्रीय और राज्य स्तर के साथ ही राज्यों के आपसी असंतुलन पर प्रकाश डाला है। जल भराव प्रबंधन, जल संचयन, बराबर मात्रा में पानी का बँटवारा और समुदायों द्वारा पानी का कुशलता से उपयोग की महत्ता।
पानी पंचायत के इन प्रयोगों की सफलता के बाद वे फैल नहीं सकते क्योंकि यह व्यक्तियों द्वारा चलाए गए प्रयोग हैं और इसको शुरू करने वाले के साथ ही खत्म हो सकते हैं। दुर्भाग्य से पिछले पचास साल की योजना में सरकार ने प्रमुख भूमिका ले ली है, इस तरह लोगों की हैसियत दान लेने वालों की बनी है। अब समय आ गया है कि हम एक ऐसी विचार प्रणाली विकसित करें जहाँ विकास को स्वयं लोग चलाएँ। किसी ऊपर से नीचे की योजना द्वारा नहीं जो लोगों को अलग रखता है। संसाधनों को खत्म करता है और अपने को संभालने वाला नहीं बना पाता।
भारतीय संविधान का 73वां संशोधन जिसे 1993 में पास किया गया, वह हर ग्राम को अपने प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित विकास की योजना बनाने के लिये आदेश देता है। ग्यारहवीं सूची जमीन, पानी, सिंचाई और सामाजिक क्षेत्र की गतिविधियों-जैसे शिक्षा और स्वास्थ्य पर प्रकाश डालती है। राज्य को पंचायतों को सीधे आर्थिक सहायता उपलब्ध करानी है। यह आवश्यक है कि लोग अपनी जरूरतों के हिसाब से अपनी समस्याओं और उनके संभावित बेहतर हल की समझ रखें। इस सामर्थ्य शक्ति को गति देने के लिये स्वैच्छिक संस्थाओं को सरकार और व्यक्तियों के बीच बातचीत स्थापित कराने में सहायता करनी चाहिए। जिससे लोग अपने विकास को स्वयं कर सकें और सरकार की भूमिका उसमें कम से कम हो जाएँ। एक आत्मनिर्भर ग्रामीण अर्थव्यवस्था अपनी स्वयं की जमीन और जल संसाधन विकसित कर सकेगी। और पुरानी कर्ज प्रणाली की जरूरत नहीं होगी। जोकि सरकार, बैंक या आर्थिक संस्थानों द्वारा दी जाती थी-जिन्होंने वाकई उनके विकास को रोका। उन्हें एक निश्चित स्तर का ढाँचागत विकास चाहिए और उन्हें स्वयं पानी के साथ चलना होगा जोकि एक तरह से जीवन-रेखा है। कुछ समय में यह जीवन-यापन वाली अर्थव्यवस्था अतिरिक्त अर्थव्यवस्था में बदल जाएगी। वास्तव में गाँव भी राज्य के संसाधनों को कुछ दे सकेंगे। उनकी क्षमता बढ़ जाएगी। यदि उन्हें अपने संसाधन विकसित करने की आजादी दी जाए।
पानी पंचायत की सोच कहीं भी दोहराई जा सकती है, यदि लोगों, सरकारी तंत्र और स्वैच्छिक संगठनों के बीच वार्ता स्थापित की जा सके। यदि सामाजिक इंजीनियरिंग को विकास में ढाला जाए तो बदलाव निश्चित है।
सबके लिये पानी
पानी पंचायत का सिद्धान्त इस विश्वास पर आधारित है कि पानी सभी जीवित प्राणियों का है-मानव, जानवरों, पक्षियों, पेड़ों और कीड़े-मकोड़े। हमें बने रहने वाली भूमि-जल समुदाय प्रबंधन को विकसित करना चाहिए, जिससे पाँच साल के अंदर भारत के सभी गाँव हरे हो जाएँ। पानी की सुरक्षा मूल जिंदगी की सुरक्षा और गरीबी हटाने का बीमा है। साथ ही समुदाय के लिये बहुमूल्य भूमि संसाधनों को बचाना है। यह सरकारी एजेंसियों, ग्रामीण पंचायतों और बिना किसी स्वार्थ के स्वैच्छिक शुरूआत जोकि समाज में जमे हुए हैं, के बीच करीबी सहयोग और भागीदारी की आवश्यकता है। यदि हम इसे प्राप्त कर सकें तो लम्बे समय तक गरीब देश नहीं रहेगा।
यदि हमें एक प्रेरणा प्रतिस्पर्धा या किसी उदाहरण की जरूरत है तो चीन को लिया जा सकता है। चीन का भू-क्षेत्र भले ही बड़ा हो लेकिन इसकी कृषि योग्य भूमि भारत का केवल दो तिहाई है। यह इस नजरिए से देखना चाहिए कि चीन की ग्रामीण जनसंख्या भारत की कुल जनसंख्या के बराबर है। यहाँ तक कि इतनी सीमित भूमि की उपलब्धता के बावजूद चीन ने आश्चर्यजनक रूप से पारिवारिक स्तर पर जल की सुरक्षा की है।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था की तुलनात्मक क्रमबद्ध गणना
1994-1995 की गणना के अनुसार चीन की जनसंख्या 1,238 मिलियन (एक अरब 23 करोड़ 80 लाख) थी। भारत के 931 (93 करोड़ 10 लाख) मिलियन की तुलना में, और महाराष्ट्र की 84 मिलियन (8.4 करोड़), चीन की ग्रामीण जनसंख्या 860 मिलियन (86 करोड़) और महाराष्ट्र की 50 मिलियन (5 करोड़) चीन में भूमि की उपलब्धता प्रति परिवार केवल 0.5 हेक्टेयर, भारत की 1.3 हेक्टेयर और 1.8 हेक्टेयर महाराष्ट्र की है। सिंचाई वाले क्षेत्र का प्रतिशत देखें तो चीन ने अपनी भूमि का 50 प्रतिशत सिंचाई के अंदर कर लिया है। बड़े मध्यम और छोटी योजनाओं और जल संचयन के द्वारा। भारत ने 35 प्रतिशत तक सिंचाई की व्यवस्था की है लेकिन असंतुलन महाराष्ट्र में नजर आता है जहाँ इसका केवल 16 प्रतिशत सिंचाई योग्य है। अब सालाना उत्पादन को देखिएः चीन में 480 मिलियन (48 करोड़) टन, भारत में 190 एम टी (19 करोड़) और महाराष्ट्र में 14 एम टी (एक करोड़ चालीस लाख) हमारे पास जल सुरक्षा राज्यों में होने के बावजूद गन्ने का उत्पादन चीन में 8 मिलियन (अस्सी लाख) टन, 15 एम टी (एक करोड़ पचास लाख), भारत में 15 एम टी और 5 एम टी (पचास लाख) यानी कुल राष्ट्रीय उत्पादन का 30 प्रतिशत महाराष्ट्र में फिर भी चीन में गरीबी 7 प्रतिशत जबकि भारत और महाराष्ट्र में यह 50 प्रतिशत पर जूझ रही है।
अंत में मैं कहूँगा कि सामर्थ्यशील समुदाय द्वारा ग्रामीण विकास जरूरी है, भारत के लोगों का जीवन स्तर सुधारने के लिये। हमें सक्रिय होकर सम्बन्धित मुद्दों और चुनौतियों का हल करना चाहिए। यदि विकास के सामूहिक प्रयासों को सरकार और लोगों के बीच में क्रियान्वित किया जाए तो गम्भीर बदलाव की संभावनाएँ हैं।
25 अगस्त, 2001
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