पानी को सहेजने से मिटेगा सूखा


प्रदेश का पूरा सरकारी अमला आज किसानों के जीवन में खुशहाली लाने में पूरी तन्मयता से जुट गया है। आज समय है कि समाज के सहभाग से मनरेगा के कामों में पानी के संरक्षण पर जोर देते हुए काम किये जाएँ जिससे आने वाली पीढ़ियों को अकाल की आशंका से मुक्ति मिले। अनेक किसान बताते हैं बैंकों में कर्ज वसूली में नरमी बरतने के निर्देशों पर अमल नहीं हो पा रहा है इसके लिखित आदेश जारी होने से किसानों को बड़ी राहत मिलेगी साथ ही किसानों के अल्पकालीन ऋणों को मध्यम कालीन ऋणों में परिवर्तित करना भी किसानों के हित में एक अच्छा काम होगा।

देश, प्राकृतिक आपदाओं से जूझ रहा है। एक ओर भीषण सूखा है। वहीं दूसरी ओर बाढ़ की तबाही है। क्या हमारा देश पर्यावरण सम्मत जीवन से दूर हुआ है। बदलते मौसम और चुनौतियों से निपटने में समाज को अपने जीने के तौर-तरीकों में बदलाव की आवश्यकता है। आज सूखे पर सरकार मदद पहुँचा कर फौरी राहत तो दे सकती है मगर स्थायी समाधान तो समाज के सार्थक से ही सम्भव होगा। एक तरफ 300-400 मिलीमीटर वर्षा वाले रालेगण और हिवरे बाजार जैसे उदाहरण हमारे सामने हैं वहीं दूसरी तरफ 1000 मिली मीटर से अधिक वर्षा के बावजूद सूखे की मार झेलता छत्तीसगढ़ है। इस साल का सूखा प्रकृति की चेतावनी है हमारे लिये कि हम समाज की सुप्त चेतना को जागृत कर पानी का मोल समझते हुए धरती के पेट में पानी भरने का जतन करें। मनरेगा जैसी सरकारी योजना हमारे लिये वरदान बन सकती हैं यदि हम समाज के ज्ञान और कौशल के साथ जल संरक्षण के काम अपने हाथ में ले सकें। देश के ख्याति लब्ध पर्यावरणविद् भी हमें यही अनुभव बताते हैं।

प्रकृति के सन्देश को हमें समझना होगा


हिमालय गलतियों को अब तक क्षमा करता रहा लेकिन अब वह मारी त्रुटियों की ओर ध्यान खींच रहा है। - अनुपम मिश्र

गाँधी जी ने कभी नहीं कहा कि मैं भारत को इसलिये आजाद करना चाहता हूँ कि उसका विकास कर सकूँ। हमने विकास के नाम पर अव्यवस्था रची है। बीते दौर में तालाब, बावड़ी जैसे परम्परागत जलस्रोतों के विकास की नई योजनाओं में बहुत उपेक्षा हुई है। न सिर्फ शहरों में, बल्कि गाँवों में भी तालाबों को समतल कर मकान, दुकान बस स्टैंड बना लिये गए हैं। जो पानी यहाँ रुककर साल भर ठहरता था, उस इलाके में भूजल को ऊपर उठाता था, उसे हमने नष्ट कर दिया है। उसके बदले हमने आधुनिक ट्यूबवेल, नलकूप, हैण्डपम्प लगाकर पानी निकाला है। डालना बन्द कर दिया और निकालने की राक्षसी गति तेज कर दी। हम मानते रहे कि इस तरह सब कुछ ठीक चलता रहेगा लेकिन अब प्रकृति हमें हर साल चिट्ठी भेजकर याद दिला रही है कि हम गलती कर रहे हैं। हमें अपने किये की सजा तो भुगतनी होगी।

हमें भूलना नहीं चाहिए कि अकाल, सूखा, बाढ़, पानी की किल्लत ये सब कभी अकेले नहीं आते। अच्छे विचारों और अच्छे कामों का अभाव पहले आ जाता है। उत्तराखण्ड की त्रासदी को ही देखिए। हिमालय हमें बताना चाहता है कि पिछले 20-25 सालों में मनुष्य ने कुछ गलतियाँ की हैं, जिन्हें हिमालय ने उदारतापूर्वक क्षमा किया। उसने सिर्फ गलतियाँ बताने के लिये यह सब किया। हमें अभी भी अगर त्रासदियों को टालना है तो उन तौर-तरीकों की ओर लौटना होगा जिनके साथ लोग पहले जीते थे। प्रकृति के साथ मिलकर जीने की ओर।

परम्पराओं की ओर देखें और सीखें


गाँवों में लोगों ने कई सालों में अपना पर्यावरण तंत्र बनाया था लेकिन तेजी से उगे शहर सब बर्बाद कर रहे हैं और खामियाजा भुगत रहे हैं। - चण्डीप्रसाद भट्ट

उत्तराखण्ड में भयानक त्रासदी हमने देखी और अब चेन्नई में बाढ़। इस तरह की घटनाएँ रातों-रात नहीं होती। उत्तराखण्ड में अगर त्रासदी आई तो यह समझना होगा कि वहाँ देवदार वृक्ष काटे गए और पहाड़ों को डायनामाइट से उड़ाया गया और यह सब विकास के नाम पर किया गया। स्थानीय अखबारों की आवाज अधिकारियों के कानों तक पहुँचती ही नहीं है और फिर बड़ी तबाही से सभी की नींद उड़ जाती है। इन बड़े हादसों को देखकर हमें भविष्य के लिहाज से तैयारी की जरूरत है। हमें उस रास्ते पर थोड़ा सोचने की जरूरत है जिस पर अभी हम चल रहे हैं। मुझे लगता हमें पेड़ बचाने और पेड़ लगाने की जरूरत है जिसे हम भूल गए हैं। गढ़वाल में तो पीढ़ियों की परम्परा रही है जिसे लोग आगे बढ़ाते रहे हैं। वे पेड़ लगाकर जलवायु परिवर्तन से निपटते रहे हैं। उदाहरण के लिये गढ़वाल में गन्दगी नदी में न मिले इसके लिये ड्रेनेज सिस्टम विकसित किया गया है। अब यहाँ बहुत से ऐसे शहरी इलाके उग आये हैं जो इन परम्परागत नियमों को नहीं मानते और तब बाढ़ की स्थिति बनती है। मनुष्य का लालच ही बाढ़ की वजह है। हम अगर प्रकृति का ख्याल रखेंगे तो प्रकृति भी हमारा ख्याल रखेगी। हमें अपने जीने के तौर-तरीकों में थोड़ा बदलाव करना ही होगा। सरकारें करें या न करें लेकिन अगर लोग अपने स्तर पर थोड़ा भी ध्यान दें तो हम बड़ा फर्क पैदा कर सकते हैं।

उन गाँवों से सीखें जिन्होंने नदियाँ बचार्इं


धरती को हम जितना देते हैं वह उससे ज्यादा हमें लौटाती है। जब हम उसका ख्याल नहीं रखेंगे तो वह हमारा ख्याल कैसे रखेगी। - राजेंद्र सिंह

हमारा समाज बहुत रचनात्मक समुदाय है। उसमें सामाजिक बदलाव लाने की अद्भुत क्षमता है। इस ज्ञान के सहारे हम बड़ी-से-बड़ी आपदाओं का सामना करने में सक्षम हैं। राजस्थान में तो हमने इसी ज्ञान के सहारे नदियों को पुनर्जीवित किया है। आसमान से गिरने वाली बूँदों को थामकर उन्हें धरती में उतारा है। यहाँ के समाज ने धीरे-धीरे काम किया और उनके नतीजे हासिल हुए। राजस्थान के गाँवों की सफल कहानियाँ उनके लिये है जो इस तरह का काम करना चाहते हैं। जो अपने पर्यावरण को बेहतर बनाना चाहते हैं। समाज में भाषणों के जरिए कोई बदलाव नहीं आता, उसके लिये जमीनी स्तर पर काम करना पड़ता है, जैसा राजस्थान के गाँवों में किया गया। भारत के शहरों और गाँवों दोनों ही जगहों पर इस समय अपने पर्यावरण की चिन्ता की जरूरत नजर आती है। शहरों को इस समय उन गाँवों से सीखने की जरूरत है जिन्होंने अपना पर्यावरण, अपनी नदियों और अपनी जमीनों को बचाने की लड़ाई लड़ी है। मुझे 1993 का एक वाकया याद आता है जब मैं धन्ना गुज्जर से बात कर रहा था। वह एक सीधा-साधा ग्रामीण था। उसने मुझे कहा, भाई राजेंद्र, आप पानी के लिये काम कर रहे हैं। पानी से ही धरती माँ का पेट भरता है। उस दिन जब उसका पेट भर जाएगा तो हमारी नदियों में भी पानी आ जाएगा। धरती बहुत दयालु है वह पानी को छुपाकर नहीं रखती। हम उसे जो भी देंगे वह हमें वही चीज वापस लौटाती है। जो वह हमें लौटाती है उसी से हमारा पेट भरता है और हमारी खेती फलती-फूलती है। कुछ समय बाद जब मैं जल वैज्ञानिकों से मिला तो उन्होंने भी मुझे इसी तरह की सलाह दी।

छत्तीसगढ़ राज्य में पहली बार पड़े भीषण अकाल से निपटने सरकार की सजगता और संवेदनशीलता निश्चित रूप से आम किसानों के लिये सुखद है। अपनी चौथी पारी की तैयारी का आगाज करते हुए रमन सिंह के लिये यह सूखा एक बड़ी चुनौती के रूप में सामने आया है लेकिन आम आदमी को यह पूरा भरोसा है कि उनके मुखिया इस संकट की घड़ी में अपने धैर्य और प्रबन्धन कौशल के साथ इस विभीषिका से छत्तीसगढ़ को उबारेंगे। प्रदेश का पूरा सरकारी अमला आज किसानों के जीवन में खुशहाली लाने में पूरी तन्मयता से जुट गया है। आज समय है कि समाज के सहभाग से मनरेगा के कामों में पानी के संरक्षण पर जोर देते हुए काम किये जाएँ जिससे आने वाली पीढ़ियों को अकाल की आशंका से मुक्ति मिले। अनेक किसान बताते हैं बैंकों में कर्ज वसूली में नरमी बरतने के निर्देशों पर अमल नहीं हो पा रहा है इसके लिखित आदेश जारी होने से किसानों को बड़ी राहत मिलेगी साथ ही किसानों के अल्पकालीन ऋणों को मध्यम कालीन ऋणों में परिवर्तित करना भी किसानों के हित में एक अच्छा काम होगा। आज अकाल की भीषणता का अन्दाजा शायद न लगे लेकिन अप्रैल-मई माह में पशुओं के चारे, निस्तार का पानी और पेयजल की कमी जैसे आसन्न पर भी सरकार की नजर होनी चाहिए। तब हमारा किसान और आम आदमी खुशहाल होगा।

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