पानी को सहेजने का सवाल


भारत का भूजल बहुत तेजी से नीचे जा रहा है, यह सिलसिला बहुत पहले नहीं था।

इधर कई वर्षों से जल स्तर का गिरना लगातार जारी है। इसका मुख्य वजह भूजल का जबरदस्त दोहन और तुलनात्मक रूप से पानी का संरक्षण न हो पाना है। हमारे तालाब, झील, पोखर, बावड़ी ऐसे साधन रहे हैं। यहां बारिश का पानी इकट्ठा होकर धीरे-धीरे रिस-रिस कर भूजल के स्तर को ऊपर उठाने में सहायक होता है, लेकिन हमारे पास पानी संरक्षण के तंत्र वर्तमान में बेहतर स्थिति में नहीं हैं। पानी संरक्षण के ये परंपरागत स्रोत विकास के नाम पर कितने गायब हो गए। और अब जो बचे भी हैं, अपने लुप्त होने का इंतजार कर रहे हैं। इसका यह भी अर्थ है कि उनमें से ज्यादातर के हालात कभी अच्छे थे, अब तो कतई भी नहीं हैं। इसके चलते पानी का उचित संरक्षण नहीं हो पा रहा है, लेकिन भूजल-दोहन के मामले में भारत दुनिया में सबसे आगे हैं। इसका अनुमान लगाने का पुख्ता आधार है, विश्व बैंक की रिपोर्ट।

रिपोर्ट के मुताबिक, भारत सालाना 230 क्यूबिक किलोमीटर भूजल का दोहन करता है। भूजल के दोहन का यह आंकड़ा पूरी पृथ्वी पर कुल भूजल के दोहन का 25 फीसद से अधिक है। दरअसल, भूजल पर हमारी निर्भरता काफी है। साथ ही, जनसंख्या के बढ़ने से यह लगातार बढ़ती जा रही है। करीब 60 फीसद खेती की जरूरत तो तुरंत भूजल के इस्तेमाल से पूरी होती है। साथ ही, शहरी और ग्रामीण इलाकों को 80 फीसद पानी की जरूरत कुएं, हैंडपंप वगैरह से ही हो रही है। इस दोहन की वजह से भारत का 29 फीसद भूजल का ब्लॉक अर्द्ध खतरनाक, खतरनाक या अति दोहन का शिकार हो चुका है। इससे हालात तेजी से बिगड़ता जा रहा है। अनुमान है कि 2025 तक भारत का 60 फीसद भूजल ब्लॉक खतरे में पड़ जाएगा। भूजल का दोहन उत्तर भारत में सबसे ज्यादा हो रहा है। पंजाब, हरियाणा और राजस्थान सालाना 109 क्यूबिक किलोमीटर भूजल का दोहन कर रहे हैं। अगर पंजाब का जिक्र करें, तो सामान्य गहराई वाले 9 लाख ट्यूबवेल सूखने लगे हैं। इसके कारण संपन्न किसान 300 फुट या इससे अधिक खुदाई कर नीचे भागते पानी को थामना शुरू कर चुके हैं। ऐसे में, यह सवाल महत्वपूर्ण हो जाता है कि जिन लोगों के पास इस तरह से भूजल के दोहन का संसाधन नहीं है, वे क्या कर पाएंगे? स्वाभाविक है, इस तरह की गतिविधि के कारण समाज के भीतर असंतोष बढ़ेगा, क्योंकि यह गहराई सामान्य गहराई वाले करीब 100 ट्यूबवेल तक पानी पहुंचने ही नहीं देगा।

लाजमी है, इससे सामाजिक सौहार्द्र खत्म होगा, नतीजतन पानी को लेकर तनाव बढ़ेगा। इसलिए जरूरी है कि हम इस आ॓र अभी से संजीदगी से गौर फरमायें। दूसरा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि खेतों में सिंचाई के तरीकों को लेकर गंभीरता से विचार हो, क्योंकि भारत में उपलब्ध पानी का 80 फीसद हिस्सा खेती को चला जाता है। इसके बावजूद, यहां की 60 फीसद खेती मानसून पर निर्भर करती है। 1991-92 से 2006-2007 के दरम्यान बड़ी और मध्यम सिंचाई परियोजनाओं पर 1.3 लाख करोड़ रूपये खर्च किये गये, लेकिन सिंचित क्षेत्र में कोई खास बढ़ोत्तरी देखने को नहीं मिली। 1991-92 में नहरों द्वारा सिंचित क्षेत्र करीब एक करोड़ सतहत्तर लाख इक्यान्नबे हजार हेक्टेयर था, जो 2007-2008 में घटकर एक करोड़ पैंसठ लाख इकत्तीस हजार हेक्टेयर हो गया। यह कृषि मंत्रालय द्वारा जारी अस्थायी आंकड़ा है, इसलिए इस बात की आवश्यकता और बढ़ जाती है कि जल संरक्षण के लिए परंपरागत स्रोतों के उपयोग पर ध्यान दें।

तालाब, पोखर, बाबड़ी आदि अन्य साधनों के महत्व को समझने और उसके मुताबिक काम की गति बढ़ाने की जरूरत है। इससे नीचे जाते जल स्तर में सुधार होगा। बारिश के पानी को इकट्ठा करना बेहतर तरीका है। इसके अलावा, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सिंचाई के परंपरागत तरीके में बदलाव लायें, ताकि कम पानी में अधिक से अधिक सिंचाई संभव हो पाये। यह मुमकिन है। आस्ट्रेलिया में पिछले 20 वर्षों कृषि में पानी के खपत में 30 फीसद की कम लाने में सफलता मिली है। अगर वहां ऐसा हो सकता है, तो ऐसी संभावनाएं भारत में क्यों नहीं टटोली जा सकतीं?
 
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