पानी को प्रदूषण से बचाइए

पिछले कुछ वर्षों से यह देखने में आया है कि गर्मी के चरम पर जबकि पानी की सख्त आवश्यकता होती है हमारे देश की कई नदियां सूख जाती हैं। कुएं एवं नलकूपों में पानी का स्तर इतना नीचे चला जाता है कि उसका उपयोग करना नामुमकिन हो जाता है। ऐसे में आवश्यकता है जल की महत्ता को समझने और इसके संरक्षण की ताकि हम अपने आने वाली पीढ़ी को एक खूबसूरत वातावरण प्रदान कर सकें। जरूरत है एक ऐसे कारगर कानून बनाने की जिससे नदियों को गंदगी से मुक्त किया जा सके। जब लंदन की टेम्स नदी प्रदूषण से मुक्त हो सकती है तो हमारी नदियां क्यूं नहीं?

कहते हैं कि दुनिया में अगला विश्व युद्ध पीने के पानी के लिए लड़ा जायेगा। जीने के लिए जितना भोजन आवश्यक है उतना ही पानी जरूरी है। इस धरती पर जन्म लेने वाले तकरीबन सभी जीवों के लिए यह अतिआवश्यक है। वैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी का लगभग तीन चौथाई सतह पानी से घिरा हुआ है। परंतु दैनिक जीवन में इसका कुछ ही प्रतिशत उपयोग के लायक होता है। ऐसे में अंदाजा लगाना कठिन नहीं है कि पीने के पानी की कितनी जल्दी और किस प्रकार की किल्लत हो सकती है। जल की कमी का सबसे ज्यादा नुकसान विकासशील और गरीब देशों को उठाना पड़ेगा। हमारे देश में भी पीने के पानी की समस्या कोई नई बात नहीं है। हालांकि पानी की जितनी खपत है उस अनुपात में उसके स्रोतों को संरक्षित करने की कवायद नहीं दिखती। जल संरक्षण के लिए देश में कई योजनाएं और नीतियां बनाई जाती रही हैं परंतु अब भी वास्तविकता कुछ और ही है। अकेले उत्तराखंड में 432 छोटे-बड़े बांध तो बन रहे हैं पर ग्रामीण क्षेत्रों में पारंपरिक जल स्रोतों के संवर्धन की बात कागजी साबित हो रही है।

उत्तराखंड का हिमालयी क्षेत्र देश के अधिकांश हिस्सों को पानी पहुंचाता है और खुद प्यासा रह जाता है। सरकारी परियोजनाओं में पानी को स्थानान्तरित करने की ढेरों योजनाएं रोजाना बनाई जाती हैं परंतु उसके सवंर्धन और संरक्षण की बात पर कभी गंभीरता से सोचा ही नहीं जाता है। उत्तराखंड के ऐसे कई गांव हैं जहां पीने के स्वच्छ पानी की कमी है। यहां के अधिकतर हैण्डपम्पों का पानी पीने योग्य नहीं रहता है। हैण्डपम्प से प्रदूषित पानी निकलता है जिससे लोगों के पानी के बर्तन पीले हो चुके हैं। इसका मतलब है कि बिना भूमि और पानी की जांच किये हैण्डपम्प खुदवा दिये गये। वर्ष 2009 में एक गैर सरकारी संस्था हिमालय ट्रस्ट द्वारा बागेश्वर मंडल के 20 गांवों से जांच के लिए पीने के पानी के नमूने मंगाये गये, इस जांच में 60 प्रतिशत नमूने पीने योग्य नहीं पाए गए थे, जो हालात के गंभीरता की ओर इशारा करता है।

प्रदूषित पानी पीना गांव वालों की मजबूरी है क्योंकि इसके अलावा उनके पास और कोई विकल्प भी तो नहीं है। स्वयंसेवी संगठन हिमालय स्वराज के अनिल के अनुसार प्रदूषित पानी को पीने योग्य बनाने का काम विभाग का है। यदि पेयजल विभाग हैण्डपम्पों की संख्या बढ़ाने की बजाय फिल्टर वाले दो ही हैण्डपम्प लगाए और साल में एक बार हैण्डपम्प और फिल्टर की सफाई कर दे तो गांवों में पीने के स्वच्छ पानी की इतनी किल्लत नहीं होती। प्रदूषित पानी के कारण गांव में डाइरिया और पीलिया जैसी गंभीर बीमारी का होना आम बात सी हो गई है। गांधीवादी सर्वोदयी कार्यकर्ता सदल मिश्र नम आखों से अपने गांव की पेयजल व्यवस्था की स्थिति पर दुखी हो जाते हैं और इसे प्रशासन की लापरवाही और सरकार की असफलता से ज्यादा कुछ नहीं मानते हैं। प्रदूषित जल की समस्या गांवों से अधिक शहरों में भयंकर रूप धारण करता जा रहा है।

आंकड़ों के अनुसार आधे से अधिक शहरी गरीब प्रदूषित जल का सेवन करने को मजबूर हैं क्योंकि भूजल के स्रोत अत्याधिक दोहन के कारण सूखने लगे हैं। ऐसे में साफ पानी मिलना दूभर होता जा रहा है। हालात की गंभीरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि स्वंय योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने भूजल को केंद्र और राज्य की समवर्ती सूची में लाने और उसके उपयोग पर कर लगाने की सिफारिश की थी। पिछले कुछ वर्षों से यह देखने में आया है कि गर्मी के चरम पर जबकि पानी की सख्त आवश्यकता होती है हमारे देश की कई नदियां सूख जाती हैं। कुएं एवं नलकूपों में पानी का स्तर इतना नीचे चला जाता है कि उसका उपयोग करना नामुमकिन हो जाता है। विषेशज्ञों की मानें तो इसके पीछे बढ़ता औद्योगिकीकरण सबसे अधिक जिम्मेदार है।

केंद्रीय भूजल बोर्ड का मानना है कि एक वर्ष में हम 400 अरब मीटर भूजल तक का उपयोग सीमित रखें तो इसकी भरपाई मुमकिन है। परंतु औद्योगिकीकरण के बढ़ते प्रभाव से यह सीमा के इतना पार चला जाता है जिसकी भरपाई मुश्किल हो जाती है। एक ओर जहां अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए उद्योग अत्यधिक मात्रा में भूजल का उपयोग करता है वहीं दूसरी ओर अपशिष्ट पदार्थों को नदियों में बहाकर उसे प्रदूषित करने का काम करता है। मुबंई जैसे देश के बड़े महानगर से लेकर कानपुर जैसे औद्योगिक नगरों तक में बहने वाली नदियां उद्योग के कारण किसी न किसी रूप में इतनी प्रदूषित हो चुकी हैं कि उनका उपयोग दैनिक जीवन में करना असंभव हो चुका है। वैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी पर उपलब्ध समग्र जल 2.7 प्रतिशत जल ही स्वच्छ हैं जिसमें से करीब 75 प्रतिशत ध्रुवीय क्षेत्रों में जमा हैं और 22 प्रतिशत भूजल के रूप में मौजूद हैं। शेष जल झीलों, नदियों, वायुमंडल, नमी, मृदा और वनस्पति में मौजूद है। ऐसे में आवश्यकता है जल की महत्ता को समझने और इसके संरक्षण की ताकि हम अपने आने वाली पीढ़ी को एक खूबसूरत वातावरण प्रदान कर सकें। जरूरत है एक ऐसे कारगर कानून बनाने की जिससे नदियों को गंदगी से मुक्त किया जा सके। जब लंदन की टेम्स नदी प्रदूषण से मुक्त हो सकती है तो हमारी नदियां क्यूं नहीं?

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