पानी की उपलब्धता का अधिकार

जल प्रबंधन की समृध्द व उपयोगी प्राचीन परंपराओं वाला देश भयावह व प्राणलेवा जल संकट से जूझ रहा है। दरअसल हमारे नीति नियंताओं ने जीवनदायी जल के अनावश्यक दोहन और उसके बाजारीकरण होते जाने की कभी परवाह ही नहीं की। नतीजतन जिस जल पर मानव मात्र का मूलभूत अधिकार है इस परिप्रेक्ष्य में लोकतांत्रिक तरीके से विधायिका व कार्यपालिका की सोच ही विकसित नहीं हुई।

लेकिन अब सर्वोच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए पानी के अधिकार को जीने के अधिकार का अनिवार्य हिस्सा मानते हुए नीति-नियंताओं को यह जताने के लिए भी बाध्य होना पडा कि जो सरकार पानी जैसी मूलभूत जरूरत पूरी नहीं कर सकती उसे सत्ता में रहने का अधिकार नहीं है। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि स्वतंत्रता के छह दशक बीत जाने के बावजूद हमारे यहां ऐसी कोई जल नीति ही नहीं है जो जल के बेलगाम दोहन पर अकुंश लगाती हो और वर्षा जल के प्रबंधन के कोई दिशा-निर्देश सुनिश्चित करती हो? यह स्थिति राजनीतिक व प्रशासनिक अदूरदर्शिता की पर्याय है।संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रत्येक नागरिक को जीने के अधिकार की मान्यता दी गई है। लेकिन जीने की मूलभूत सुविधाएं क्या हों इनके औचित्य को तय करने वाले न तो बिंदु तय किए गए और न ही उन्हें बिंदूवार परिभाषित किया गया। इसलिए जल की तरह भोजन, आवास और शिक्षा जैसे जीने के बुनियादी मुद्दे पूरी तरह संवैधानिक हक हासिल कर लेने से वंचित हैं, इसी कारण न्यायालय के पास भी सत्ता को लताड़ने के अलावा किसी सरकार या अधिकारी को दण्ड देने का कोई प्रावधान नहीं है।

कोई भी सरकार ने शायद जीने के अधिकार को इसलिए भी वर्गीकरण कर परिभाषित नहीं किया, क्योंकि इसे यदि 'जीने के अधिकार' के व्यापक संदर्भ में देखा जाता है तो पानी, भोजन, शिक्षा और आवास जैसी जीवनयापन की बुनियादी जरूरतों को संवैधानिक अधिकारों में शामिल कर दिया जाएगा। फलस्वरूप सत्ता संचालकों की नीतियों को बदलने की वैधानिक मजबूरी हो जाएगी और विपक्ष भी प्राथमिकताएं बदलने की दृष्टि से सरकार को विवश करेगा। लिहाजा ऐसे दौर में भूख, कुपोषण और पानी मानवाधिकार संगठनों और समाज सेवी संस्थाओं की निगाह में हैं तब भी केन्द्र और प्रदेश की सरकारें संविधान के अनुच्छेद इक्कीस पर कोई बहस-मुवाहिशा करने की बजाय कुण्डली मारे बैठी है।

इस सबके बावजूद ऐसा नहीं है कि हवा की तरह प्रकृति की देन पानी पर हमारे नीति-नियंताओं ने कभी सोचा ही न हो। 2002 में जब अटल बिहारी वाजपेई के प्रधानमंत्रित्व में एनडीए की सरकार केन्द्र में भी तब तथाकथित जल नीति के अंतर्गत इस सरकार ने पानी के बेलगाम दोहन करने के कारोबार की छूट निजी व बहुराष्ट्रीय कंपनियों को देकर पानी से मानव समूहों के साझा हक से बेदखल कर देने का रास्ता खोल दिया। भारत में निजी स्तर पर पानी के कारोबार की शुरुआत छग में बहने वाली शिवनाथ नदी पर संयंत्र लगाकर शुरू हुई थी। इसी आधार पर हीराकुण्ड बांध का पानी किसानों से छीनकर बड़े कारखानों को देने की चाल उड़ीसा सरकार ने चली, लेकिन किसानों व आम आदमी के प्रबल विरोध के कारण यह चाल फलीभूत नहीं हो सकी।

बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भारत में पानी का व्यापार करने की छूट योरोपीयन यूनियन के दबाव में दी गई। पानी को विश्व व्यापार संगठन के दायरे में लाकर पिछले सात-आठ साल के भीतर एक-एक कर विकासशील देशों के जलस्रोत उन्मुक्त दोहन के लिए इन कंपनियों के सुपुर्द कर दिए गए। इस विकसित पश्चिमी देशों के लिए इसी योरोपीय यूनियन के पक्षपातपूर्ण मापदण्ड अपनाकर ऐसे नियम-कानून बनाए हुए हैं कि विश्व के अन्य देश पश्चिमी देशों में आकर पानी का कारोबार न कर सकें। यह यूनियन विकासशील देशों के जल को ज्यादा से ज्यादा मात्रा में बढ़ाकर देकर दोहन कर लेना चाहती है, जिससे इन देशों की अनमोल विरासत से अर्थ लाभ सहजता से कमाया जा सके। बहुराष्ट्रीय कंपनियों को यूरोपियन संघ विकासशील देशों में जल दोहन संयंत्र स्थापना के लिए आर्थिक छूट भी देता है। यह छूट 1.4 बिलियन यूरो प्रतिवर्ष है। तीसरी दुनिया के देशों की प्राकृतिक संपदा को नकदीकरण में बदलने का यह विचित्र खेल आखिर किसके हित साध रहा है? भारतीय जल को वैश्विक बाजार के हवाले कर देने का मतलब है, अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारना। क्योंकि पानी अब केवल साधारण पेयजल न रहकर विश्व बाजार में नीला सोना बन चुका है। दुनिया में जिस तेजी से आबादी बढ़ रही है और जल स्रोत घटने के साथ उनका निजीकरण भी होता जा रहा है, ऐसे में पानी को लाभ के बाजार में तब्दील करके एक बड़ी गरीब व लाचार आबादी का जीवनदायी जल से वंचित हो जाना तय है। विश्व स्तर पर पानी पर अधिकार के अभियान के पीछे फिलहाल तो अमरीका और ब्रिटेन हैं लेकिन डेढ़-दो दशक के भीतर इस कुचक्र में अनेक योरोपीय और एशियाई देशों का जुड़ना तय है। यह विडंबना हमारे ही देश में संभव है कि हम व्यापार के लिए तो पानी के असीमित दोहन का अधिकार निजी कंपनियों सहजता से दे देते हैं, लेकिन प्रकृति प्रदत्त जल पर समस्त मानव समुदाय व जीव-जगत का समान अधिकार है उसके कई अनुच्छेद इक्कीस के अंतर्गत हमारी संसद और विधानसभाओं ने आज तक तय नहीं किया कि पानी का असमान दोहन प्रतिबंधित हो और आम आदमी को उपयोग के लायक आसानी से पानी सुलभ हो। यह तय करना अब लाजिमी हो गया है कि सृष्टि की अनमोल विरासत पानी निजी कंपनियों का नहीं मानव समाज की थाती है, क्योंकि भारत समेत दुनिया के अन्य देश पानी के वास्तविक संकट से नहीं बल्कि छद्म संकट और जल प्रबंधन की गलत नीतियों के कारण जलाभाव से जूझ रहे हैं। वैसे भी जल, हवा और भोजन की उपलब्धता प्रत्येक नागरिक के जीने के बुनियादी अधिकार के नैसर्गिक दायरे में हैं इसलिए इसके व्यापार पर तो अकुंश लगना ही चाहिए।

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