हमें जीवित रहने के लिये जिन चीजों की आवश्यकता होती है, उनमें वायु के पश्चात जल का प्रमुख स्थान है। प्रकृति ने मानव को जितने उपहार दिए हैं, उन सभी में जल ही एक ऐसी सम्पदा है, जिसका कोई विकल्प नहीं है। जल के बिना मानव तो क्या, संभवतः किसी भी जीव का जीना कठिन है। इसलिये जल को ‘जीवन की संज्ञा’ प्रदान की गई है। यदि हम कहें कि जीवन का उद्भव ही जल से हुआ है तो कोई अतिशयोक्ति न होगी।
जल रोगकारक एवं रोगशामक दोनों ही भूमिकाओं को निभाता है। एक आकलन के अनुसार पूरे विश्व में 2.5 अरब व्यक्ति गंदे एवं अनुपयुक्त पानी से उत्पन्न रोगों की चपेट में हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रतिवेदन के अनुसार जल संक्रामक रोगों का बहुत बड़ा वाहक है तथा विकासशील देशों में अस्सी प्रतिशत से भी अधिक बीमारियाँ दूषित जल से ही होती है।
जल निश्चित तौर पर ऐसे कई रोगाणुओं और रसायनों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने का बहुत अच्छा वाहक है जो पानी के साथ हमारी आतों में पहुँचकर अनेक रोगों को उत्पन्न करता है। यूनीसेफ के अनुसार जल के माध्यम से होने वाले रोगों की चपेट में आकर असमय ही मृत्यु के मुँह में चले जाने वालों में आधी संख्या ऐसे शिशुओं की होती है जो अपना पहला जन्मदिन भी नहीं मना पाते हैं।
जल की उपलब्धता और उसकी गुणवत्ता का समान महत्त्व है क्योंकि जल की गुणवत्ता का मानव एवं पशु स्वास्थ्य, कृषि, मत्स्यपालन, उद्योग आदि से रेखीय सम्बन्ध होता है। जल की गुणवत्ता निर्धारण में इसके भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों का विशेष महत्त्व होता है।
जल के भौतिक गुणों के अन्तर्गत जल पृष्ठ, जलधारा, रंग, गंध, तापमान, प्रकाश प्रवेश, पारदर्शिता तथा तली में प्रकाश आदि का अध्ययन किया जाता है। गरम बहिः स्रोत का विसर्जन, प्राकृतिक जल में तापीय प्रदूषण उत्पन्न करता है। जलीय तापमान में वृद्धि से रासायनिक क्रियाओं की गति तीव्र हो जाती है, गैसों की विलेयता कम हो जाती है, स्वाद एवं सुगंध का प्रवर्धन होता है तथा जीवाणुओं की उपापचय क्रियाशीलता बढ़ जाती है।
जल के रासायनिक गुणों का अध्ययन भी बहुत सूचनाप्रद एवं आवश्यक होता है। रासायनिक गुण जलतंत्र के भौतिक गुणों को परिवर्तित कर देते हैं, विभिन्न प्रकार की उपापचय क्रियाओं एवं उसके वितरण को प्रभावित करते हैं, जिससे जल की रासायनिक गुणवत्ता में भी समय के साथ परिवर्तित होने की प्रवृत्ति आ जाती है।
प्राकृतिक जल में अनेक प्रकार के जीवाणु विद्यमान रहते हैं, परन्तु जब प्राकृतिक जल में मल-जल मिल जाते हैं तो अनेक जीवाणु जल में आकर मिल जाते हैं। जलापूर्ति विभाग उन जीवाणुओं के प्रति सचेत रहता है, जो स्वाद तथा गंध उत्पन्न करते हैं, जो रोग उत्पन्न करते हैं, जैसे- हैजा, मोतीझरा, पेचिश इत्यादि। इनके अतिरिक्त जल में कपड़ों पर धब्बे डालने वाले जीवाणु (लौह एवं गंधक) भी रहते हैं। जो जीवाणु रोग उत्पन्न करते हैं, वे रोगोत्पादक (Pathogenic) कहलाते हैं। जल के सूक्ष्मजीविय परीक्षण में कोलीफार्म तथा ई. कोलाई जीवाणुओं की मात्रा ज्ञात की जाती है।
प्रदूषित पानी से होने वाले प्रमुख रोग हैं- पोलियो, संक्रामक यकृत शोध, टायफाइड, पेचिश, कृमि, अतिसार, मियादी बुखार, एंटरिक बीमारियाँ तथा नेत्र रोग।
जल में घुले मुख्य रासायनिक अवयवों की अधिकता से होने वाले रोगों को सारणी-1 में दर्शाया गया है।
जल में घुले रासायनिक अवयवों की अधिकता का स्वास्थ्य पर प्रभाव | |||
क्र.सं. | रासायनिक अवयव (मिग्रा/लीटर) | सीमाएं | स्वास्थ्य पर प्रभाव |
1 | कुल घुलनशील ठोस | 500-200 | अरुचिकर स्वाद, आतों में जलन, दस्तावर। |
2 | क्लोराइड | 250-1000 | हृदय एवं गुर्दे की बीमारियों से ग्रसित व्यक्तियों के लिये हानिकारक। |
3 | कुल कठोरता | 300-600 | जलापूर्ति तंत्रों में परतों का जमना, साबुन की अधिक खपत, धमनियों में कैल्शियम का जमना, मूत्र तंत्र में पथरी का बनना, पित्ताशय में रोग आदि। |
4 | मैग्नीशियम | 30-150 | इसके लवणों से बहुमूत्र व दस्त की संभावना। |
5 | कैल्शियम | 75-200 | इसकी अधिकता से पथरी की संभावना तथा कमी से अस्थियों में विकार। |
6 | सल्फेट | 200-400 | आँतों में जलन, मैग्नीशियम की अधिकता से दस्तावर। |
7 | नाइट्रेट | 45-100 | अधिक मात्रा में होने से नवजात शिशुओं में मेथोमोग्लोबिनिमिया रोग, आँतों का कैंसर तथा मवेशी भी दुष्प्रभावित। |
8 | प्लोराइड | 1.0-1.5 | अधिकता से दंतक्षरण तथा हड्डियों में विकृतियाँ। |
9 | आयरन (लौह) | 0.3-1.0 | कड़वा स्वाद। |
10 | बोरॉन | 1-5 | घबराहट, हाथ-पैरों में कंपन, केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र पर दुष्प्रभाव। |
11 | लैड | 0.05 | मुँह व आँतों में जलन, उदर पीड़ा, लकवा, नेत्र रोग, रक्त की कमी तथा स्मृति विक्षेप। |
12 | आर्सेनिक | 0.05 | त्वचा रोग एवं रक्त परिसंचरण तंत्र में समस्या। |
13 | कीटनाशक | 0.001 | शरीर की प्रतिरक्षण क्षमता में कमी, कैंसरकारी तथा तंत्रिका तंत्र दुष्प्रभावित। |
जल में रोग निवारण शक्ति
हमारे शरीर का निर्माण करने वाले पंच महाभूतों में दूसरा प्रमुख तत्व जल है। शरीर का 65 से 70 प्रतिशत भाग जल तत्व से ही बना हुआ है। ऊपर से ठोस और स्थूल दिखाई देने वाले शरीर का गठन करने का कार्य भी जल ही करता है। पंच महाभूतों में से पृथ्वी या मिट्टी से प्राप्त खनिजों से भौतिक शरीर के निर्माण की प्रक्रिया भी जल तत्व के सहयोग से ही सम्पन्न होती है। इस कारण विचारकों ने जल को जीवन का पर्याय माना है। अतः शरीर को स्वस्थ और ऊर्जावान बनाए रखने के लिये जल तत्व का उचित संघटन बना रहना अति आवश्यक है। आयुर्वेद में जल को सभी रोगों के निवारण की औषधि कहा गया है। आयुर्वेद के अनुसार जल से हम कुछ प्रकार के रसों का अलग-अलग स्वाद ले सकते है।
1. मधुर रस से हमारी आँखे चमक उठती हैं,
2. अम्ल रस से हम कंठ सहलाते हैं,
3. लवण रस से हम भोजन का रसास्वादन करते हैं,
4. कटु, तिफ्त एवं कषाय रस अरूचिकर होता है।
महर्षि चरक के अनुसार रसों में सबसे कल्याणकारी रस ही जल हैं। हमारे वैदिक ग्रंथों तथा आयुर्वेद में भी जल को अन्न की अपेक्षा श्रेष्ठ माना गया है। वस्तुतः जल अपने आप में शक्ति भी है और विनाश का स्रोत भी और साथ ही यह एक आश्चर्यजनक रसायन भी है।
जल के चिकित्सकीय गुण
वस्तुतः जल शरीर में तीन कार्य करता है- पृथ्वी से आवश्यक तत्वों को अपने अंदर घोलकर शरीर में लाता है, अपनी गतिशीलता के गुण के कारण उन पदार्थों को शरीर के अंगों तक पहुँचाकर उनका पोषण करता है तथा विभिन्न प्रक्रियाओं के कारण शरीर से जो दूषित पदार्थ निकलते हैं, उन्हें पुनः अपने अंदर घोलकर शरीर के बाहर निकाल देता है। इस प्रकार जल शरीर को पोषित करके उसे स्वस्थ बनाता है और दूषित पदार्थों को शरीर से बाहर निकालकर उसे निरोग रखता है। जल चिकित्सा इसी सिद्धान्त पर आधारित है।
जल के चिकित्सकीय गुणों को भारत के तत्वदर्शी, ऋषियों ने अति प्राचीनकाल में ही पहचान लिया था। सृष्टि के आदि ग्रंथ ऋग्वेद के सूक्त तथा उपनिषदों, पुराणों आदि में वर्णित आख्यान में इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि जल चिकित्सा की पद्धति जनमानस के लिये अत्यन्त प्राचीन है।
जल चिकित्सा
1. शरीर के किसी अंग पर मोच आने की दशा में उस अंग को लगभग आधे घंटे पानी में डुबोकर रखना चाहिए क्योंकि मोच आने पर आंतरिक रक्त स्राव होता है। उस अंग का तापमान पानी द्वारा कम कर देने से रक्त स्राव कम पड़ जाता है।
2. गले को अंदर से साफ करने में पानी की अहम भूमिका होती है। अतः गुनगुने पानी से खाँसी तथा जलन कम होती है।
3. जुकाम के कारण यदि नाक बंद हो जाए तो उबले हुए पानी में विक्स डालकर नाक से भाप लेने पर नाक खुल जाती है।
4. ठंडे पानी का गुण है कि यह रक्त के बहाव को धीमा कर देता है। अतः गर्मियों में जब नाक से रक्त निकले तो सिर को नीचा करके ठंडा पानी डालने से रक्त प्रवाह बंद हो जाता है।
5. दस्त हो जाने पर शरीर में पानी के सोडियम लवण की भी कमी हो जाती है। इसके लिये पानी में एक छोटी चम्मच चीनी तथा एक चौथाई नमक डालकर बार-बार लेते रहना चाहिए। इससे ऊर्जा मिलती है तथा लवण की भी आपूर्ति होती है।
6. यदि आँख में कोई रसायन गिर जाए तो उसे तत्काल ठंडे पानी से धोना चाहिए। इससे रसायन जल में घुलकर बाहर आ जाता है तथा आँख में यदि धूल का कण या मच्छर किसी कारणवश गिर जाए तो हमें आँख को मलना नहीं चाहिए। वरन ठंडे पानी से धो लेना चाहिए।
7. अजीर्ण होने पर जल का उपयोग औषधि रूप में होता है और जीर्ण में बलप्रद होता है। इसी प्रकार आधे भोजन के बीच जल अमृत का कार्य करता है तथा भोजन के तत्काल पश्चात जल विष का कार्य करता है।
अतः जल की गुणवत्ता का हमारे स्वास्थ्य से सीधा सम्बन्ध है तथा प्रत्येक नागरिक को जल की गुणवत्ता के बारे में एवं इसके संरक्षण के बारे में जानकारी होना आवश्यक है।
संपर्क : डाॅ.डी.डी. ओझा, वरिष्ठ वैज्ञानिक एवं विज्ञान लेखक ‘गुरूकृपा’, ब्रहमपुरी, हजारी चबूतरा, जोधपुर-342001, मो.: 09414478564
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