पानी की बर्बादी संकट का बड़ा कारण

 

 

वाशिंगटन स्थित अर्थ पॉलिसी इंस्टीट्यूट के जाने-माने वैज्ञानिक लेस्टर ब्राउन के मुताबिक आने वाले दिनों में भारत में जबरदस्त जल संकट आने वाला है। इसकी वजह पानी का जबरदस्त दोहन है जो पिछले बीस सालों में तेजी से बढ़ा है।यदि पानी का अपव्यय नहीं रूका तो पीने के पानी के लाले पड़ जाएंगे। देश में पानी का सर्वे कर रहे फ्रेड पियर्स के मुताबिक निम्न जल स्तर वाले इलाकों में पानी की किल्लत जबरदस्त ढंग से बढ़ रही है। यह इससे भी साबित होता है कि पिछले दस सालों में इन इलाकों में दो सौ से लेकर एक हजार मीटर तक की गहराई वाले अनगिनत कुएं खोदे जा चुके हैं जिनमें से अधिकांश सूख गए हैं या सूखने के कगार पर हैं। एक सर्वेक्षण के मुताबिक वाटर लेबल हर साल दो से छह मीटर तक नीचे जा रहा है।

ऐसे में बरसात का पानी संरक्षित कर इस आसन्न संकट से उबरा जा सकता है। केन्द्रीय मौसम विज्ञान के मुताबिक देश में सालाना औसतन 1,170 मिमी बारिश होती है- वह भी महज तीन महीने में। लेकिन इस अकूत पानी का इस्तेमाल महज बीस प्रतिशत हो पाता है और अस्सी प्रतिशत बगैर इस्तेमाल के बह जाता है। इसका खामियाजा हम हर साल पानी की बेहद कमी के रूप में भुगतते हैं।

मतलब जल संरक्षण और बेहतर इस्तेमाल से पानी के संकट से उबरा जा सकता है लेकिन बात इतनी सी नहीं है। जिन इलाकों में बरसात बहुत कम होती है, वहां तो पाताल का पानी ही एकमात्र स्रोत होता है। वहां कैसे पानी की किल्लत से उबरा जाए, इस पर गौर करने की जरूरत है। पिछले कई सालों से देश के उड़ीसा, बुंदेलखंड, राजस्थान, असम, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में पर्याप्त बारिश न होने के कारण लोगों को बड़ी परेशानी है।

सबसे त्रासद स्थिति इन इलाकों की पाताल के पानी का बहुत तेजी से नीचे की आ॓र जाना है। इसका कारण है बरसात कम होना और दूसरे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का पानी के धंधे के लिए सरकार द्वारा लाइसेंस प्राप्त होना। जो इलाके देश में आज पानी के लिए तरस रहें हैं, वहां पहले भी दो-चार साल बरसात जरूरत से कम होती रही है लेकिन पानी की जैसी तंगी आज है, ऐसी कभी नहीं रही। मतलब देशभर में पानी की समस्या के तमाम कारणों में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा धरती के पानी का अकूत दोहन भी है। यह तमाम सर्वेक्षणों से भी स्पष्ट हो गया है, जो इन इलाकों में कराए गए और कराए जा रहें हैं। ये कंपनियां बोतलबंद पानी के धंधे के अलावा कोल्ड ड्रिंक्स के लिए भी करोड़ों गैलन पानी पाताल से निकाल रहीं हैं। लेकिन सरकार व प्रशासन खामोश है।

गुजरात, असम, पश्चिमी यूपी, झारखंड और कर्नाटक के तमाम इलाकों में जहां पानी को लेकर कभी अफरा-तफरी नहीं मची, आज बहुराष्ट्रीय कंपनियों के अकूत दोहन से कुएं सूख गए हैं। लोगों को कई किमी पैदल चलकर पानी लाना पड़ता है। कई इलाकों में पानी के लिए ऊंचे दाम देने पड़ते हैं। मतलब पिछले दस-पंद्रह सालों में पैदा हुई पानी की यह किल्लत सरकार की गलत नीतियों के कारण है। इसी कारण दिल्ली, एनसीआर और पड़ोसी राज्य हरियाणा में धरती के नीचे का पानी दस से पन्द्रह फीट तक नीचे चला गया है। दिल्ली में पानी का संकट कितना गहरा है, इसे मानव विकास रिपोर्ट 2006 से समझा जा सकता है। रिपोर्ट के मुताबिक राजधानी की 84 प्रतिशत जनसंख्या मानती है कि उनके इलाके में जलापूर्ति सामान्य तरीके से नहीं होती है और तीस प्रतिशत कहते हैं कि उन्हें साफ पानी नहीं मिलता।

दिल्ली में पानी की किल्लत की एक और प्रमुख वजह है वाहनों की सफाई में पानी का बर्बादी। एक अनुमान के मुताबिक हमारे यहां कम से कम पांच करोड़ लीटर पानी कार, बस, टैक्सी और दो पहिया वाहनों की सफाई में बर्बाद हो जाता है जबकि अमेरिका जैसे देशों में जहां कारों की संख्या भारत की तुलना में कहीं ज्यादा है, कारों की सफाई में पानी का कम से कम इस्तेमाल होता है। राजधानी साहित देश के तमाम हिस्सों में पानी के बढ़ते संकट की बड़ी पानी की बर्बादी है। वैज्ञानिकों के मुताबिक यदि यही हाल रहा तो 2020 तक लोगों को पेयजल मुहैया कराना असंभव होगा। केंद्र को जल-संकट से निपटने के लिए पानी की बर्बादी रोकने के लिए कड़े कानून बनाने होंगे, साथ ही भूजल माफिया के जरिए पानी की चोरी और व्यापार रोकने के साथ बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा हो रहा दोहन भी हर हाल में रोकना होगा।

एक सच्चाई यह भी है कि पानी की बर्बादी, चोरी और अकूत दोहन न तो कानून के जरिए रोका जा सकता है और न डंडे के बल पर। इसके लिए जनजागृति सबसे कारगर हथियार है, जिसे सरकार और स्वयंसेवी संस्थाओं को मिलकर अपनाना होगा।
 

 

 

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