श्रीपद्रे 70 के दशक से पानी की पत्रकारिता कर रहे हैं। 20 साल तक अदिके पत्रिका के मानद संपादक रहे। श्री पानी की रिपोर्टिंग करते हैं और लोग श्री के जरिए पानीदार भारत को समझते हैं। पत्रकारिता की पढ़ाई कहती है कि रिपोर्ट करने से पहले आपको विषय का चुनाव करना होता है। लेकिन जब आप पर्यावरण और गांव की रिपोर्टिंग करने जाते हैं तो यह सिद्धांत लागू नहीं होता। वहां आपको विषय की पहचान करनी होती है। पानी की पत्रकार श्रीपद्रे से बातचीत
क्या मुख्यधारा की पत्रकारिता पानी, पर्यावरण और गांव को वह महत्व दे रहा है जो उसकी जिम्मेदारी है?
ये ऐसे विषय हैं जिनकी रिपोर्टिंग करने के लिए आपको जमीनी स्तर पर जमकर काम करना होगा और अपनी समझ साफ रखनी होगी। अगर ऐसा नहीं है तो आप ऐसे विषयों के साथ न्याय नहीं कर सकते। इसे दुर्भाग्य ही कहिए आजकल आरामदायक कुर्सी पर बैठकर खेती-बाड़ी की रिपोर्टिंग की जाती है।
क्या इसके पीछे बाजार के ताकतों का हाथ है?
बहुत बार ऐसा होता है कि जब पत्रकार किसी जनपक्षीय मुद्दे की रिपोर्टिंग करता है तो प्रबंधन बाजार और विज्ञापन के दबाव में इस तरह की रिपोर्टिंग को दबाने की कोशिश करता है। फिर भी हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तमाम खतरों के बावजूद इस देश में सच्चाई को रिपोर्ट करने की महान परंपरा रही है। लेकिन यह सच है कि वास्तविक मुद्दों से पत्रकारों की दूरी तो बढ़ी है। संभवतः यह बाजार की चमक-दमक का नतीजा है। इससे पार पाना इतना आसान नहीं होगा।
वर्षाजल संरक्षण पर आपका काफी काम हमारे सामने है। इस बात पर इतना जोर क्यों?
आखिरकार यह विज्ञान है। यह विशेष और बहुत व्यवस्थित ज्ञान है। इस विज्ञान को समझने के लिए आपको यह समझना होगा कि वर्षा का पैटर्न क्या है, मिट्टी कैसी है, जमीन के अंदर पानी का रिसाव/भराव कैसे होता है। इसके बाद ही हम किसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं। यह कितना आसान या मुश्किल है यह इस बात से तय होता है कि जमीन कैसी है। वैद्य के पास हजार लोग पेट में तकलीफ की शिकायत लेकर आते हैं तो वह सबको एक ही औषधि तो नहीं बताता। जैसे लक्षण होते हैं वैसा उपचार किया जाता है। इसीलिए मैं वर्षा जल संचय को एक विज्ञान कहता हूं जिसे समझने के लिए समझ और धैर्य दोनों जरूरी है।
क्या आपको लगता है कि पर्यावरण को रिपोर्ट करने में मीडिया हिचकता है?
मुझे ऐसा नहीं लगता। पत्रकारिता की पढ़ाई कहती है कि रिपोर्ट करने से पहले आपको विषय का चुनाव करना होता है। लेकिन जब आप पर्यावरण और गांव की रिपोर्टिंग करने जाते हैं तो यह सिद्धांत लागू नहीं होता। वहां आपको विषय की पहचान करनी होती है। जरूरी नहीं कि आप इंटरनेट पर बैठे-बैठे भारत के गांवों में घटनेवाली घटनाओं और वहां की समस्याओं के बारे में जान ही पायें। उन्हें जानने के लिए उनके बीच जाना होगा। कई बार ऐसा होता है कि आप जो कल्पना भी नहीं कर सकते वह घटना आपके सामने होती है। अब सवाल यह है कि आप उसको रिपोर्ट कैसे करेंगे। मीडिया के अधिकांश लोग यहीं चूक जाते हैं। इसलिए मैं कहता हूं कि गांव और पर्यावरण को रिपोर्ट करना है अपनी तरह से उनके बारे में मत सोचिए, उनकी तरह से उनको देखिए।
वेस्टर्न घाट का क्या मुद्दा है?
वेस्टर्न घाट ही नहीं, पूरा प्रदेश और पूरे देश की कृषि इस समय गंभीर संकट में है। जिस देश में खेती सबसे ज्यादा सुरक्षित जीविका का साधन था वहां अब खेती करना बड़ी चुनौती हो गयी है। लागत में बेतहाशा वृद्धि हुई है। खेती में मजदूरों की दिनों-दिन किल्लत बढ़ती जा रही है।
सरकार की सोच-समझ और योजनाओं पर आप क्या कहते हैं?
इस देश में जो राजनीतिज्ञ और नौकरशाह नीतियां बनाते हैं उनका जमीनी हकीकत से कुछ लेना-देना नहीं होता। नीतियों और वास्तविक जरूरतों में भारी अंतर है। इसके बावजूद हमारे नीतिकार कभी जमीनी हकीकतों को समझने की भी कोशिश नहीं करते। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि इतने संकटों के बावजूद दूर-दराज के इलाकों में जो किसान परंपरागत रूप से खेती कर रहे हैं वे खुश हैं। क्यों? क्योंकि उनके ऊपर योजनाओं की मार नहीं पड़ी है।
अभी हाल में ही मैं कोलार के एक दूर दराज के गांव में गया था। वहां पहुंचना भी मुश्किल क्योंकि सड़क वगैरह की कोई खास सुविधा नहीं है। इसलिए प्लानिंग कमीशनवाले लोग उन्हें अभी तक शिक्षित करने नहीं पहुंचे हैं। वहां किसी प्रकार का कोई बोरवेल नहीं है फिर भी उनको यथेष्ट पानी मिलता है। पानी की उनकी अपनी व्यवस्था है और उन्हें किसी प्रकार के प्लानिंग की जरूरत नहीं है। वे खेती से खुश हैं।
और सरकार की ऋणनीति के बारे में?
मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि किसानों को मदद करने का यह ठीक रास्ता नहीं है। हमें यह समझना होगा कि किसानों का बड़ा वर्ग जिसे सचमुच मदद की जरूरत है वह बैंकों की पहुंच से दूर है। इसके कई सारे कारण हैं। क्या उन नीतियों का ऐसे किसानों के लिए कोई मतलब रह जाता है जो बैंकों के दायरे में ही नहीं है।
किसानों की बढ़ती आत्महत्या के लिए आप किसे जिम्मेदार मानते हैं.?
कुछ घटनाओं को छोड़ दें तो सरकार की नीतियां ही किसानों के लिए पैदा हुई इस विपदा की जिम्मेदार हैं। जो सबका पेट भरता है उसके साथ हम दोयम दर्जे के नागरिक का व्यवहार करते हैं। सरकार को भूल जाईये। समाज और पत्रकार भी तो उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक ही मानती है।
तो क्या वैकल्पिक मीडिया ही अब एकमात्र रास्ता होगा?
वैकल्पिक मीडिया वह शून्य नहीं भर सकता जो मुख्यधारा की मीडिया तैयार कर रही है। ब्लाग और कम्प्यूटर कुछ हद तक इस शून्य को भर सकते हैं। मैं यह नहीं मानता कि कम्प्यूटर गरीब के आंसू नहीं पोंछ सकता। मेरा मानना है कि तकनीकि अपनेआप में सुविधा प्रदान करती है अब यह प्रयोग करनेवाले पर निर्भर करता है कि वह उसका कैसा उपयोग करता है।
अदिके पत्रिका की शुरूआत में क्या दिक्कते आयीं। उस दौर में किसानों के लिए पत्रिका निकालना कितना मुश्किल था?
खेती की पत्रकारिता करने के लिए आपकी सबसे बड़ी पूंजी है आपकी विश्वसनीयता। कारण साफ है। आप जो लिखते हैं हजारों किसान उस पर अमल करते हैं। उसे पढ़कर अपने खेतों में प्रयोग करते हैं। और जब परिणाम आता है तो आपके लिखे और परिणाम में अंतर हुआ तो आपकी विश्वनीयता पर संकट खड़ा हो जाता है। इसलिए खेती के पत्रकार को तब तक किसी रिपोर्ट या सूचना को नहीं छापना होता जब तक उस रिपोर्ट की विश्वसनीयता पूरी तरह सिद्ध न हो जाए।
फिर भी मैं मानता हूं कि खेती के रिपोर्टिंग की सबसे बड़ी समस्या यह है कि किसान लिखता नहीं और लिखनेवाला किसानी नहीं करता। यह सबसे बड़ी चुनौती है। मेरा दो दशक का अनुभव है कि किसानों से लिखवाना बहुत मुश्किल है, फिर भी असंभव नहीं।
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