बीस साल पहले 23 साल का एक नौजवान इन्दौर से अपनी जेब में सेंधवा के सरकारी कॉलेज में प्रोफेसर का नियुक्ति पत्र लेकर रवाना होता है।
नाम है - श्री तपन भट्टाचार्य।
वहाँ पहुँचकर इस युवक ने कॉलेज में अध्यापन शुरू कर दिया। घर-परिवार से दूर होने के कारण इनके सामने अहम प्रश्न था- बचे हुए समय में क्या करें? कभी सेंधवा के पुरातन किले की दीवार पर अकेले तफरीह कर आये, कभी देवझिरी में वृक्षों की छाँह में सुस्ता आये, तो कभी बिना किसी काम के निवाली रोड स्थित घट्टियाँ-पट्टियाँ तक घूम आये। लेकिन इनकी जिन्दगी के असली मकसद की ‘फ्रीक्वेन्सी’ इन सब स्थानों से कहाँ मेल खा रही थी। एक दिन सुबह कॉलेज के अपने कुछ विद्यार्थियों के साथ अपना सही मुकाम खोजते-खोजते, तपन सेंधवा से 15 किमी दूर बड़गाँव पहुँच गये। वहाँ जतनसिंह नाम के उस ग्रामीण से मुलाकात हुई जो गाँव में अपना प्रभाव रखता था।
बातचीत के बाद तीन-चार दिनों ही में वहाँ अपनी तरह का अनोखा स्कूल शुरू करवा, वे पढ़ाने के बाद शेष समय में नियमित रूप से साइकिल से आकर यहाँ करीब चार-पाँच गाँव के एकत्रित हुए बच्चों को तालीम देने लगे। ये बच्चे चरवाही करने के साथ-साथ अपने प्रिय प्रोफेसर के पास शिक्षा लेने में जुट जाते। 20 बच्चों से शुरू हुआ यह सफर चन्द दिनों बाद 200 बच्चों तक पहुँच गया। यहाँ प्रतिदिन श्रमदान, सर्वधर्म, प्रार्थना, अंक व अक्षर ज्ञान और खेलकूद के साथ बच्चों को ऐसा आकर्षण पैदा हुआ कि वे यहाँ रमने लगे। इस निःस्वार्थ प्रोफेसर को वन-विभाग ने पढ़ाने की जगह के लिये अपनी नर्सरी का बड़ा आँगन दे दिया। इसी दौरान यहाँ एकल नाले की खुदवाई भी इन्हीं बच्चों के माध्यम से तपन ने करवाई।
बचपन में ‘कुछ अलग करने का’ सपना तपन को बड़गाँव में पहली सीढ़ी के रूप में नजर आया। उन्हें लगा कि कॉलेज की प्रोफेसरी में वह उस समाज की रचना कहाँ कर पायेंगे जिसकी आज उनके जैसे युवकों को जरूरत है। यहाँ तो चंद घंटों की नौकरी के बाद अच्छा-खासा वेतन मिलेगा और भलीभाँति अपने परिवार का भरण-पोषण भी होता रहेगा। लेकिन इसमें समाज का असली सृजन कहाँ है! सो आव देखा न ताव, तपन सरकारी नौकरी को अलविदा कह गाँवों की पगडंडियों और खेतों की मेड़ों की ओर निकल पड़े।
तपन की बड़गाँव की इस तालिम का पहला असर तो यह हुआ कि आस-पास के गाँव में स्कूलों में एकाएक बच्चों की उपस्थिति बढ़ने लगी। गाँव के लोग इन सरकारी स्कूलों की पढ़ाई के बारे में पूछने लगे। और सुखद परिणाम तब नजर आया जब बड़गाँव के उस बिना नाम वाले स्कूल के करीब 60 फीसदी चरवाहे बच्चे कॉलेजों की दहलीज तक कदम रखने लगे।
सेंधवा छोड़ने के बाद तपन का पड़ाव महू के छप्पन गाँव में रहा। यहाँ ग्रामीणों में स्वास्थ्य जागरुकता को अपना लक्ष्य बनाया। इसके बाद धार जिले के नालछा के करीब दस गाँव में तपन ऐसे रच-बस गये मानों हर घर इनका अपना घर है।
सेंधवा के बड़गाँव में नाले की खुदाई के दौरान पहली बरसात बाद भरा पानी तपन के जेहन में एक आधार बन चुका था। जब नालछा ब्लॉक के नरसिंहमाल, कालीकिराय, खेड़ी, अम्बाझिरी, कुंजराखोदरा, खेजल्यापुरा, भड़क्या, गोलपुरा और नवलपुरा की पगडंडियों पर घूमते-घूमते उन्हें लगा गाँवों में विकास के लिये सबसे पहली जरूरत पानी और मिट्टी का संरक्षण ही है।
एक दोपहर नरसिंहमाल गाँव की इस दृष्टि के साथ संरचना देखी तो साफ नजर आया कि इनके खेतों की मिट्टी, पानी के साथ बहकर खाइयों में चली जाती है। सारी जमीन पथरीली हो रही है। चन्द दिनों के बाद ही यह पूरी तरह से अनुपजाऊ हो जायेगी। तब इनके गाँव की जीवनरेखा का क्या होगा? यही हालत कमोबेश सभी गाँवों की थी। तपन ने इन गाँवों के समाज को साथ लेकर ‘कासा परियोजना’ की मदद से गाँव-गाँव, खेत-खेत ‘मेड़बन्दी’ का महाअभियान शुरू किया। लाखों टन उपजाऊ मिट्टी इन मेड़ बन्दियों की वजह से खाइयों में जाने से बचा ली। इन गाँवों के समाज को पहली बार लगा यह जीन्स व खादी का कुरते पहनने वाला शहरी बाबू हमारी फसलों की उत्पादन की बढ़ोत्तरी में किस तरह मददगार साबित हो रहा है। तपन और उनकी टीम मेड़बन्दी के उस ओर आदिवासियों को ले जाकर जमा मिट्टी और नमी दिखाते हुए बताती कि सोचिये - ‘यदि ये पत्थर जमा नहीं होते तो खाइयों की ओर वाली पथरीली जमीन और हमारे खेतों में क्या अन्तर रहता…?’
इस समय हम धार से नालछा रोड पर चलते हुए लुन्हेरा फाटे के आगे जीरापुर गाँव से पान्डुरवाल पहुँचते हैं। यहाँ हमारी मुलाकात अम्बाराम, दयाराम और गाँव के शेष समाज से होती है। यहाँ इन्होंने एक ‘पानी का मन्दिर’ बनाया है। वर्षों से यहाँ एक नाला चौमासे में बहता था और चला जाता था। गाँव में गरीबी व्याप्त थी। यह गरीबी आर्थिक और सामाजिक सरोकार के अलावा पानी की कुछ ज्यादा ही चिन्ताजनक थी। खेतों की बात तो छोड़िये गाँव के समाज को ही पानी के लिये न जाने कहाँ-कहाँ भटकना पड़ता था। मवेशियों को पानी पिलाने 10 किमी दूर ले जाना पड़ता था।
एक दोपहर तपन ने गाँव के समाज की बैठक बुलाई और पूछा - ‘आप लोग पंचायत भवन के लिये सरकार को ज्ञापन देते हैं?’
जवाब आया - हाँ।
दूसरा प्रश्न - ‘आप लोग स्कूल भवन के लिये सरकार को ज्ञापन देते हैं?’
सभी बोले - ‘हाँ।’
तीसरा प्रश्न - ‘आप लोग अपने गाँव के देवता के मन्दिर के लिये भी क्या सरकार को ज्ञापन देते हैं?’
समाज एकदम तीखे स्वर में बोला - “आप कैसी बातें करते हैं? हम मन्दिर के क्यों ज्ञापन देंगे? यह तो अपना खुद का काम है।”
तपन और उनकी टीम ने कहा- हम गाँव में एक नया मन्दिर बनाने जा रहे हैं इसे आपलोग ही बनायेंगे। ये पानी का मन्दिर है। कुछ ही देर बाद समाज का ये काफिला उन स्थानों को खोजने निकल पड़ा। जहाँ पानी रोका जा सकता था। ‘कासा परियोजना’ के तहत ही अनाज के बदले इन गाँवों में तालाब और तलैया यानी पानी के मन्दिर बन गये। न कोई मेट, न कोई सुपरवाइजर न कोई इंजीनियर। यहाँ का ग्रामीण समाज एक साथ इन सभी किरदारों को निभाने लगा। नालों पर बने इन तालाबों की पाल पर मिट्टी की पीचिंग के लिये महिलायें दूर-दूर से घड़े भरकर पानी लाती रहीं। यह दृश्य ऐसा लग रहा था मानों इन मन्दिरों का अभिषेक हो रहा हो। यह तालाब एक नाले को रोककर बनाया गया है। गाँव के दयाराम और अम्बाराम बता रहे थे- “इस नाले का नाम नागझिरी है। ऐसी किंवदन्ती है कि यह नाला मांडव के राजा ने तैयार करवाया था। किसी जमाने में यहाँ एक बड़ा नाग निकला था। इसलिये इसका नाम ‘नागझिरी’ पड़ा है।” कभी सूखी लकीर की शक्ल ले चुका यह नाला इस तालाब के कारण जिन्दा रहने लगा है। इसके नीचे की तरफ के कूप भी रिचार्ज हो गये हैं। यही कहानी हमने समीपस्थ गामदा में भी देखी। इस गाँव में भी इससे पहले पानी रोकने का कोई स्थान नहीं था। लाचार लोगों के बारे में कहा जाता है - एक तरफ खाई तो दूसरी ओर कुआँ। लेकिन गामदा में तो दोनों तरफ खाई है। एक ओर भेरुघाट तथा दूसरी ओर कुंडी।
सारा पानी इन्हीं खाइयों से निकलकर गाँव की समृद्धि को दूर से ही अलविदा कह जाता था। इस गाँव में मेड़बन्दी का विस्तार करने के साथ पानी रोकने में भी स्थानीय समाज में व्यापक जागृति आई।
किसी जमाने में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर रहे तपनजी की कहानी का यही पड़ाव नहीं है। हमने इनके साथ दूसरी यात्राएँ भी कीं। धार जिले के ही बदनावर में ‘डेनिडा परियोजना’ की मदद से तपन ने यहाँ के करीब 40 गाँवों में जल-जागृति अभियान छेड़ रखा है। बदनावर क्षेत्र में हमने स्वतंत्रता संग्राम सेनानी फुलजी बा को आजादी के बाद दूसरी लड़ाई लड़ते देखा था। वे निजी व्यय से तमाम से तमाम जल संरचनाएँ तैयार कर सूखे को उल्टे पाँव लौटने को विवश कर रहे थे। इसके बाद हमने तपनजी को इसी क्षेत्र के अनेक गाँवों में पानी की बूँदों को सहेजने के अभियान में जुटे हुए देखा। हनायतपुरा, डेरका, चुलाचुली, बाबड़िया, अजंनखेड़ी, तिखीपाड़ा, हनमंतया, हरकाक्षर, बामनिया, रुफी, गोंदीखेड़ा, डेलची, तुरलीपाड़ा और खेरमाल के समाज में हमने इस बात के दर्शन किये कि थोड़ी पहल की जाये तो पानी के लिये समाज किस तरह आगे आता है। इन गाँवों में कहीं तालाब तो कहीं छोटी तलैया तो अनेक खेतों में डबरा-डबरी जैसी जल संरचनाएँ तैयार हो चुकी हैं। भले ही थोड़ा-सा ही सही, पानी रुकने का असर समाज अपने खेतों में देख रहा है। तपन कहते हैं - मिट्टी और बूँदों के संरक्षण के साथ पानी आन्दोलन में जागा समाज अपनी ताकत समझने लगा है।
आर्थिक चक्र में बदलाव के साथ-साथ सामाजिक जीवन भी बदल रहा है। आदिवासी समाज की जागृति देखते ही बनती है। महिलाएँ अब हर काम के लिये आगे आ रही हैं। इनके बचत समूह बदनावर के गाँवों में धूम मचाए हुए हैं। नालछा और बदनावर के इन गाँवों में पानी रोककर बदलाव लाने की पहल कर रहे तपन भट्टाचार्य अपने अनुभव हमारे साथ कुछ यूँ बाँटते हैं : “पानी और मिट्टी- इनका संरक्षण ही वह प्रमुख कार्य है जो किसानों के जीवन में पूर्ण बदलाव लाता है। इसे समग्र विकास का आधार भी कहा जा सकता है। यदि समाज की सहभागिता से यह कार्य हो तो इसके सामाजिक और आर्थिक अन्तर देखने को मिलेंगे। यहाँ तक कि इस माध्यम से नई और अच्छी परम्पराओं की भी गाँवों में शुरुआत हो जाती है। यदि मुझसे कोई यह कहे कि किसी गाँव के सम्पूर्ण विकास का एक्शन प्लान क्या हो सकता है तो मैं सबसे पहले उन्हें गाँव में आने वाली बरसात की बूँदों को यहीं रुकने की बात कहूँगा। हमारा जीवन जमीन से जुड़ा हुआ है। जमीन और जीवन के बीच की आत्मा पानी ही है।”
तपनजी अपने अनुभवों का निचोड़ निम्न बिन्दुओं में व्यक्त करते हैं :
1. विकास की हर प्रक्रिया में समाज की भागीदारी जरूरी है।
2. ग्रामीण परम्परागत ज्ञान और तकनीक आज भी सर्वश्रेष्ठ है। इसकी लागत भी कम होती है। ये तकनीक ग्रामीण जन आसानी से समझ जाते हैं।
3. विकास के नियोजन में स्थानीय समाज की प्राथमिकताओं का ख्याल रखा जाना अति आवश्यक है।
4. विकास करने वाले कार्य के पूर्व समाज को विश्वास में लेकर पारदर्शी पद्धति से चर्चा अवश्य करें।
5. ग्रामीण समाज में उनकी मिल्कियत और अपनापन की भावना पैदा करने वाला विकास टिकाऊ, कम लागत वाला और रख-रखाव की ज्यादा परेशानियों से मुक्त होता है।
अब आप सुनाइये! किसी जमाने में प्रोफेसर रहे तपन भट्टाचार्य के साथ इन गाँवों की यात्रा आपको कैसी लगी?
सोचिये, क्या जीवन की बदली धारा, संतोष के महासागर के आनन्द से मेल करा देती है।
...इन गाँवों की पगडंडियों पर तपन भट्टाचार्य के चेहरे का सुकून हमें तो यही आभास दे रहा है।
गाँवों में थमी बूँदों के साथ यह यात्रा बार-बार उन लोगों की याद दिलाती रही जो तपनजी को कॉलेज की प्रोफेसरी के साथ बड़गाँव की नर्सरी में ले गये थे।
बूँदों की मनुहार (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) |
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