पानी के लिए जनता की पहल

केरल का ओलवान्ना गांव भारत रास्ता दिखा रहा है


ओलवान्ना


ओलवान्ना गांव भारत में केरल राज्य के उत्तरी भाग में स्थित है। अपनी साक्षरता की ऊंची दर, बेहतर स्वास्थ्य संकेतकों और मानव विकास के उच्च संकेतकों के कारण केरल को विकास का मॉडल माना जाता है। केरल सहभागिता वाली अपनी स्थानीय नियोजन प्रक्रिया के कारण भी प्रसिद्ध है जिसमें स्थानीय ग्राम सरकारें यानी पंचायतें जनता की सक्रिय भागीदारी के साथ अपनी विकास योजनाएं स्वयं तैयार करती हैं और उनका क्रियान्वयन करती हैं (जनता का योजना अभियान) । जुलाई 2003 तक केरल की 64 प्रतिशत आबादी को नल का पानी पहुंचाया गया है लेकिन अलग अलग क्षेत्रों के बीच जलापूर्ति में काफी अंतर है।

पहाड़ियां, दलदली क्षेत्र और धान के खेत ओलवन्ना की भौगोलिक संरचना बनाते हैं। गांव में एक नदी भी बहती है लेकिन उसका पानी खारा है और पीने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। कई स्थानों पर कुएं नहीं खोदे जा सकते क्योंकि नीचे कठोर चट्टानें हैं।

1990 के दशक में ओलवान्ना की जनसंख्या 45,000 थी जो 21 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में बसी थी। वहां पुरुष-स्त्री अनुपात 1000 : 1022 है यानी स्त्रियों के पक्ष में। 1990 के प्रारंभिक वर्षों में ओलवान्ना के लगभग 70 प्रतिशत परिवार पीने के पानी की कमी से परेशान थे। जिनके यहां कुंएं थे वे सौभाग्यशाली लोग भी पीने के पानी से वंचित थे क्योंकि पानी खारा था। यह लगभग पूरी तरह सूखे वाला मौसम था।

यहां राज्य सरकार की एजेंसियों द्वारा संचालित कुछ योजनाएं थीं। पैंतालीस सार्वजनिक नल थे और 42 घरों में नल लगे हुए थे। इन सार्वजनिक नलों में से 30 नल काम नहीं कर रहे थे। इसके अतिरिक्त पास के शहर के विस्तार के कारण और अधिक लोग यहां आ गये जिससे गांव में पीने के पानी का अभाव और बढ़ गया।

केरल राजनीतिक रूप से सक्रिय राज्य है। ओलवान्ना इसका अपवाद नहीं है। हर चुनाव पीने के पानी के मुद्दे पर लड़ा जाता रहा है। वादे भरपूर किये गये लेकिन कोई समाधान नहीं ढूंढा जा सका और धीरे-धीरे विभिन्न पुरवों के लोग एकजुट होने लगे।

संघर्षों की शुरुआत


संघर्ष की शुरुआत पंचायत कार्यालय के ही निकट स्थित पुरवे (वेट्टुवेदनकुन्नु) से हुई। इस पुरवे में काफी बड़ी संख्या गरीबों की है। यहां लंबे समय से पीने के पानी की बहुत कमी थी। पंचायत यहां एक कुंए से पानी देती थी लेकिन कुंए में पानी नहीं रह गया था। लोगों को, विशेषकर महिलाओं को पहाड़ी पर चढ़कर पानी लाना पड़ता था। पंचायत के निर्वाचित प्रतिनिधियों के नेतृत्व में वे जिला अधिकारियों के पास गये लेकिन यह व्यर्थ सिद्ध हुआ इसलिए खाली घड़े और बर्तन लेकर औरतों, बच्चों और पुरुषों ने जिला अधिकारि कार्यालय तक मार्च किया। अंततः इस पुरवे के लिए पीने के पानी की एक छोटी परियोजना के लिए धन आवंटित किया गया।

जनता की पहल


लाभार्थी समिति बनाने के लिए लोग एकजुट हुए। उनमें से एक ने कुएं के लिए और एक दूसरे ने पानी के तालाब के लिए जमीन दान की। लोगों की पहल और देख-रेख से योजना नियत समय के भीतर पूरी कर ली गयी। आमतौर पर ठेकेदारों द्वारा क्रियान्वित किये जाने वाले सरकारी कार्यक्रमों में ऐसी बात कभी नहीं सुनी गयी थी। परियोजना के क्रियान्वयन के अलावा लाभार्थी समिति ने जलापूर्ति के प्रबंधन की जिम्मेदारी भी खुद उठाने का फैसला किया। इसी संदर्भ में ग्राम पंचायत ने मासिक खर्चों का कुछ हिस्सा देने का फैसला किया।

यहां उस तथ्य का उल्लेख करना दिलचस्प होगा जिसने उन्हें प्रेरित किया। एक व्यक्ति स्थानीय रूप से लगायी गयी एक पाइप लाइन के जरिये अपने घर के कुंए से पास-पड़ोस को मुफ्त पानी देता आ रहा था। बाद में पड़ोस के लोग स्वेच्छा से बिजली के बिल के भुगतान में योगदान देने लगे। ये सारी बातें किसी परियोजना अथवा योजना का हिस्सा न थीं, यह तो एक व्यक्ति की अपनी उदारता थी जिसने अन्य लोगों को सहयोग देने के लिए प्रेरित किया। इससे निकटवर्ती क्षेत्रों के लोगों को भी प्रेरणा मिली जो यह बात वर्षों से देख रहे थे।

एक मॉडल बनना शुरु हुआ


वेट्टुवेदन्कुन्नु पुरवा के लोगों की सफलता ने पहलकदमियों का एक सिलसिला शुरू कर दिया। यही वह बिंदु था जहां वाम लोकतांत्रिक मोर्चे के नेतृत्व में केरल सरकार ने ‘जनता की योजना अभियान’ (योजना का विकेंद्रीकरण) को लागू करने का फैसला किया। जनता को सत्ता देने की यह एक साहसपूर्ण पहल थी। राज्य सरकार ने राज्य नियोजन लागत का 35-40 प्रतिशत स्थानीय निकायों को देने का निर्णय किया। सरकार ने जनता को जागरूक कर सक्रिय बनाने का अभियान शुरू करने का भी निर्णय किया ताकि लोग अपने क्षेत्र में विकास परियोजनाओं की योजना बनाने, उन्हें अमल में लाने और उनकी निगरानी के काम में हिस्सा लें। इस प्रकार, स्थानीय स्वशासन की इकाइयों को दी गयी धनराशि का इस्तेमाल स्थानीय आबादी की जरूरतों और सुझावों के अनुसार स्थानीय विकास के लिए किया जाना था।

ओलवान्ना सक्रिय होने लगा और लोग संगठित होने लगे। वे जानते थे कि जल परियोजनाओं के लिए धन की जरूरत है। उन्होंने विविध सरकारी तथा अन्य एजेंसियों से उपलब्ध सभी संसाधन जुटाने की कोशिश की। उन्होंने देखा कि ‘जनता की योजना अभियान’ ने एक आदर्श माहौल उपलब्ध कराया है। हर पुरवे में ‘संभावित लाभार्थियों की बैठकें ग्राम पंचायत के नेतृत्व में आयोजित की गयी और लोगों ने पीने के पानी की कमी की समस्याओं, कमी के कारणों और उनके संभावित समाधनों पर चर्चा की।’

अनेक स्थानों पर उन्होंने कुंए खोदे भी तो उन्हें अच्छा पेयजल नहीं मिला। ऐसी स्थितियों में उन्हें आदर्श जगहों पर कुएं खोदने थे, तालाब बनाने थे और फिर पंप से पानी को इन तालाबों में पहुंचाना था। वहां से वितरण पाइप बिछाये जाने थे। स्थानीय स्तर पर अनुमानित राशि तैयार की गयी। कुल खर्चं (पंचायत के सहयोग के अतिरिक्त) को परिवारों की कुल संख्या के बीच बांट दिया गया और फिर उन्होंने अपने-अपने हिस्से की राशि का किस्तों में भुगतान कर दिया। निर्धन परिवारों को उनकी क्षमता के आधार पर रियायतें दी गईं। ये फैसले समुदाय द्वारा किये गये थे।

इनमें से प्रत्येक परियोजना का प्रबंधन लाभार्थी समितियां करती हैं। लोगों ने न केवल पैसे के रूप में बल्कि शारीरिक श्रम द्वारा भी अपनी हिस्सेदारी दी। इलाके के ही एक व्यक्ति को पंप आपरेटर नियुक्त कर दिया गया। लाभार्थी समिति उसका वेतन देती है। समिति पीने के पानी की आपूर्ति की देखरेख करती है, उसके रखरखाव में जो पहल लेनी होती है, लेती है और इस बात का ध्यान रखती है कि सही समय पर मरम्मत हो जाये। वह परिवारों द्वारा पानी के इस्तेमाल को भी परिचालित करती है। हर परिवार प्रतिमाह 45-50 रुपये से भी कम खर्च करता है।

लाभार्थी समिति की वार्षिक आम सभा हर साल होती है और उसमें लेखापरीक्षण कराया गया हिसाब प्रस्तुत किया जाता है। नये पदाधिकारी भी चुने जाते हैं। यह उल्लेखनीय है कि नियोजन, आकलन और क्रियान्वयन की जिम्मेदारियां स्थानीय जनता की हैं जो अपने बीच से ही इन कामों को करने में दक्ष लोग तलाश लेती है। वास्तव में, उनकी एक रिपोर्ट कहती है कि उन्होंने अब तक किसी इंजीनियर अथवा तकनीकी विशेषज्ञ से मदद नहीं मांगी है और उन्हें अपनी खुद की तकनीकी में अब तक कोई समस्या महसूस नहीं हुईं है।

ओलवान्ना गांव में अब कुल 60 नयी पेयजल योजनाएं हैं जिनमें से 34 में ग्राम पंचायत और उससे संबंधित एजेंसियां सहायता देती हैं, 26 पूरी तरह से जनता की पहल का परिणाम हैं। ये सभी मिलकर गांव की आधी आबादी को पानी प्रदान करती हैं।

सर्वेक्षण


पूरी स्थिति का हिसाब-किताब करने पर हम देखते हैं कि स्थानीय पंचायत के जुड़ाव और राज्य सरकार के समर्थन से जनता द्वारा की गयी पहल से ओलवान्ना में पीने के पानी की कमी का मुद्दा काफी हद तक हल कर लिया गया। इसके अतिरिक्त, धर्म, जाति, आर्थिक हैसियत अथवा राजनीतिक संबद्धता से ऊपर उठकर जनता के सभी वर्गों ने इस उद्यम में भागीदारी की और ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहां निर्धन व्यक्तियों को समुदाय के समृद्ध व्यक्ति द्वारा सहायता दी गयी। काफी हद तक जनता की एकता सुदृढ़ हुई और इसके साथ ही इसने ऐसे विकास हस्तक्षेपों में जनता की भागीदारी की जरूरत भी उजागर की। इस सबसे भी अधिक, ओलवान्ना पहल से स्त्रियों के तमाम बोझों में से वह एक बोझ कम हो गया जिसे जीवन भर ढोने को वे लंबे समय से मजबूर थीं।

ओलवान्ना मॉडल से कुछ महत्वपूर्ण बातें सीखी जा सकती हैं। यह विकासात्मक गतिविधियों को लागू किये जाने में अधिक विकेंद्रीकरण की जरूरत पर जोर देता है। ओलवान्ना ने निःसंदेह यह सिद्ध कर दिया है कि बड़ी महाकाय परियोजनाओं के बजाय छोटे जल स्रोतों वाली छोटी परियोजनाएं आदर्श हैं। ऐसी योजनाएं स्थानीय कौशल, हुनर और सामर्थ्य के आधार पर तैयार की जा सकती हैं। यदि योजनाएं उन्हें लागू करने के लिए जरूरी संसाधनों सहित स्थानीय जनता को हस्तांतरित कर दी जायें तो जनता में सब काम अपने आप कर लेने की क्षमता है। केंद्रीकृत एजेंसी के आने की स्थिति में लागत बढ़ जाती है। अनेक स्थितियों में अनुभव यही रहा है कि ऐसी परियोजनाएं अपेक्षित परिणाम दे पाने में असफल रहती हैं। ऐसी स्थितियों में उनका टिकाऊपन भी एक मुद्दा है।

ओलवान्ना मॉडल के विश्लेषण से पता चलता है कि राज्य द्वारा संचालित महाकाय परियोजनाओं की तुलना में यहां प्रबंधन की लागत कहीं कम है। यदि अधिकार दिये जायें तो स्थानीय समुदाय स्थानीय संसाधन भी लगाने को तैयार रहता है। इसमें पूंजी और आवर्ती खर्चे शामिल हैं। परियोजनाओं का स्वामित्व उन्हें संतोष प्रदान करता है जिसके कारण वे जल योजनाओं की उचित देखभाल और रख-रखाव करते हैं। इससे परियोजना ठप नहीं होने पाती, चलती रहती है।

ओलवान्ना यह साफ तौर पर प्रदर्शित करता है कि स्थानीय जनता ऐसी परियोजनाओं के अधिकांश तकनीकी मुद्दों को खुद संभाल सकती है। इस स्वामित्व के कारण पानी के दुरुपयोग पर भी रोक लगती है और जल साक्षरता में वृद्धि होती है। जैसे-जैसे लोग समझते हैं कि पानी उनका है, वे ही पानी के मालिक हैं, वैसे-वैसे उन्हें वह ताकत मिलती है जिससे वे पानी का बेजा इस्तेमाल करने वालों की लॉबी से संघर्ष करते हैं।

शहरी क्षेत्रों ने अब तक ऐसे काम नहीं किये हैं। लेकिन थोड़े बड़े केंद्रों में भी जनता की पहलकदमियों के जरिये पीने के पानी का प्रबंधन संभव है। स्वच्छता के मामले में भी अनेक नगरपालिकाओं में ऐसी ही पहलें की जा रही है जो इस बात का स्पष्ट संकेत है कि पीने के पानी में ऐसी पहल संभव है और व्यावहारिक हैं। पीने के पानी संबंधी सरकारी कार्यक्रमों ने धीरे-धीरे ओलवान्ना से सबक सीखे। ओलवान्ना के उदाहरण ने काफी हद तक सरकार की पेयजल पहलों को एक शक्ल देने में मदद दी है।

ओलवान्ना और इस तरह के अन्य माडल निश्चय ही यह सुझाते है कि विफल होते राज्य संचालित माडलों और निजीकरण को जनता के स्वामित्व वाले माडलों से अपदस्थ किया जा सकता है। इस संदर्भ में यह अंतर उल्लेखनीय है कि यहां राज्य पीने का पानी प्रदान करने से वास्तव में बच नहीं रहा है बल्कि वह जनता को अपनी पेयजल परियोजनाओं का स्वामी बनने में सहायता दे रहा है और ग्राम पंचायतों को समर्थन और सहायता देकर वह उनकी मदद कर रहा है।

बाधाएं और खतरे


एक बार जनता की ऐसी पहलकदमियां जब सफल हो जाती हैं तब हम देखते हैं कि विविध एजेंसियां उन विचारों में पैठ जाती हैं और उन्हें अपने लाभ के लिए फिर से नयी दिशा देती हैं। विश्व बैंक जैसी आर्थिक सहायता देने वाली अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों के बारे में यह बात विशेष रूप से सत्य है जिन्होंने राज्य में पेय जल परियोजनाओं को धन देना प्रारंभ किया है। जहां ओलवान्ना पहल जनता का आंदोलन था, उसका स्वामित्व जनता का था और उसे स्थानीय तथा राज्य की सरकार का समर्थन प्राप्त था वहीं ऐसी वित्तपोषित पहलें अन्य एजेंसियों द्वारा नियंत्रित होती हैं। यद्यपि ओलवान्ना पहल ऐसी परियोजनाओं की रूपरेखा को काफी हद तक प्रभावित कर सकी थी फिर भी राज्य की जनता पर लाद दिया गया ऋण आबादी पर एक बोझ बन सकता है।

ऐसी परियोजनाएं अधिक खर्चीली होती हैं क्योंकि उनमें तकनीकी विशेषता, प्रबंधन संरचनाओं और ऐसी तमाम चीजों की ऊंची लागतें जुड़ जाती हैं। दूसरी ओर, ओलवान्ना मॉडल दिखाता है कि कैसे स्थानीय लोग स्थानीय विशेषज्ञता के साथ कम लागत में ऐसी परियोजनाएं तैयार कर सकते हैं। इन परियोजनाओं के चलते रहने की संभावना भी अधिक होती है। अंतर्राष्ट्रीय धन देने वाली एजेंसियां सरकारों को प्रभावित करती हैं ताकि राज्य स्वयं सेवाएं प्रदान करने के बजाय उन्हें उपलब्ध कराने के नाम पर पेयजल जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों से हट जाये। ओलवान्ना के मामले में राज्य स्थानीय स्वशासी इकाइयों-ग्राम पंचायतों-को धनराशि हस्तांतरित कर वास्तव में सरकार को जनता के और करीब लाया है। धनराशि प्रदान करने के साथ-साथ वह लोगों को यह अवसर भी प्रदान करता है कि वे अपने फैसले खुद करें। इस प्रकार यह एक सशक्तीकरण प्रक्रिया बन जाती है जिसमें राज्य भी एक प्रमुख भूमिका निभाता है।

निश्चय ही, पीने के पानी के क्षेत्र में स्थानीय लोग भी ऐसी जन पहलों की राह में अड़ंगे लगाने में प्रमुख भूमिका अदा करते हैं। कई अन्य पंचायतों में अनेक लाभार्थी समितियों के लिए इंजीनियर-ठेकेदार गठबंधन ने समस्याएं खड़ी की हैं। स्थानीय लोगों की विशेषज्ञता पर सवाल खड़े कर, धन देने में देरी कर, परियोजनाओं की समय पर संपुष्टि न कर तथा सरकार में केंद्रीकृत एजेंसियों की सहमति से समानांतर परियोजनाएं और योजनाएं शुरू कर वे स्थानीय लाभार्थी समितियों को हतोत्साहित करते हैं। ऐसी स्थितियों में राज्य भी एक सक्रिय भूमिका निभाने में असफल रहता है। भूमंडलीकरण और निजीकरण के संदर्भ में, जहां राज्यों को ऐसे सामाजिक क्षेत्रों से हटने को कहा जाता है और फिर ये क्षेत्र बाजार के लिए खोल दिये जाते हैं, यह बात विशेष रूप से महत्वपूर्ण है।

एक अन्य प्रमुख मुद्दा जो सामने आ रहा है वह बहुराष्ट्रीय कंपनियों और पराराष्ट्रीयों का है जो जल संसाधनों के दोहन का प्रयास कर रही हैं। इन बहुराष्ट्रीय राक्षसों के विरुद्ध राज्य में कुछ प्रमुख संघर्ष जारी हैं। शीतल पेयों, कोला और मिनरल वाटर के नाम पर ये कंपनियां गांवों के जल संसाधनों पर कब्जा कर लेती हैं और इस प्रकार उनका अधिकतम दोहन करती हैं। ऐसी ताकतों और ऐसे दोहन का मुकाबला करने के लिए विश्वव्यापी एकजुटता की जरूरत है।

आज जबकि राज्य वित्तीय संकट में है, ऋण देने वाली एजेंसियां सरकार की नीतियों को प्रभावित करने का प्रयास कर रही हैं। यह स्थिति भूमंडलीकरण के संदर्भ में विशेषकर और बदतर हुई है। राष्ट्रीय सरकार से मिलने वाली अधिकांश सहायता ऐसे ‘सुधरों’ से जोड़ी जा रही है वास्तव में जिनका परिणाम है ‘सेवा क्षेत्रों से सरकार का हटना’। इस प्रकार राज्य के सामने इसके अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं है कि वह ऐसे निर्देशों का पालन करे जो अपने सार रूप में निजीकरण है। सेवा क्षेत्र में केरल के इतिहास को देखते हुए, जहां राज्य ने स्वास्थ्य, शिक्षा, पेयजल और इस तरह के अन्य क्षेत्रों में सदैव सेवाएं प्रदान की हैं, यह केरल के लिए एक पीछे हटने वाला पतनोन्मुख कदम है। राज्य की जो भी उपलब्धियां हैं वे इन्हीं हस्तक्षेपों के जरिये हासिल हुई हैं।

ओलवान्ना पीने के पानी के क्षेत्र में संपूर्ण निजीकरण के विरुद्ध एक प्रमुख हथियार था। जब विश्वबैंक ने पेयजल पहलों की रूपरेखा बनाये जाने को समर्थन दिया तब ओलवान्ना मॉडल जनता और तब वामपंथी दलों द्वारा शासित सरकार के लिए यह दिखाने में सुविधाजनक बना कि जनता की पहलकदमियां संभव हैं। ‘जन योजना अभियान’ के जरिये व्यापक रूप से जनता की सक्रियता ने विश्व बैंक निर्देशित परियोजना बनाने वालों की ओर से आने वाले मूल प्रस्ताव की गलतियां ठीक करने के लिए जरूरी अतिरिक्त समर्थन प्रदान किया। इस प्रकार ओलवान्ना से कुछ महत्वपूर्ण सबक सीखने के बाद विश्वबैंक माडल को फिर से गढ़ा गया। हालांकि ओलवान्ना का उदाहरण अब कुछ हलका हो चला है फिर भी ओलवान्ना मॉडल को एक बड़े पैमाने पर इस हद तक स्वीकार किया गया कि विश्व बैंक से सहायता प्राप्त एक परियोजना में भी पीने का पानी जनता के स्वामित्व के अंतर्गत है।

जॉय इलामन केरल (भारत) में एस डी सी-कैप डेक (प्रोग्राम ऑन कैपेसिटी डेवलपमेंट फॉर डिसेंट्रलाइजेशन) के मुख्य कार्यक्रम समन्वयक हैं।

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