पानी के कारपोरेटीकरण की वैश्विक साजिश

प्रतिमत


पानी के बिना केवल मनुष्यों का ही नहीं, पशु-पक्षियों और पौधों का भी जीवन चल नहीं सकता। पानी जीवन का आवश्यक तत्व तथा अस्तित्व की पूर्व शर्त है। ऐसे में पेश की जा रही डरावनी तस्वीर लोगों को लाचार कर रही है और समस्या का जो भी समाधान सामने आता है, उसे मानने को मजबूर हो जाती है। इसी मजबूरी का लाभ उठाकर कारपोरेटों ने वैश्विक जाल फैला लिया है।

बीसवीं सदी के मध्य तक राज्य उपनिवेशवाद का कई सदियों से लम्बा दौर चला। यूरोप के कई देशों ने औद्योगिक क्रान्ति का लाभ उठाकर दुनिया के एक बड़े भाग पर अपने उपनिवेश खड़े कर लिये और वहां की स्थानीय सहज व्यवस्थाओं को ध्वस्त करते हुए अपनी शोषणकारी व्यवस्थाएं स्थापित की। दुनिया की दृष्टि यूरोकेन्द्रित (Euro centric) बन गयी। भारत जैसे अनेक उपनिवेशों ने आजादी की लम्बी लड़ाई लड़कर राज्य उपनिवेशवाद से तो मुक्ति पाली, पर वे अधिक समय तक मुक्त न रह सके। फिर से एक नये उपनिवेशवाद के हमले की गिरफ्त में वे फंस गये जिसमें उन देशों की कुछ आन्तरिक कमजोरियों ने मदद की। यह नया कारपोरेट उपनिवेशवाद मुख्यतः द्वितीय विश्व युद्ध के बाद उठ खड़ी हुई नयी वैश्विक ताकत संयुक्त राज्य अमरीका के नेतृत्व में दुनिया में फैला। इसमें अमरीका और युरोपीय संघ के अधीनस्थ वैश्विक वित्तीय एवं व्यापारिक संस्थाओं विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष (IMF) और विश्व व्यापार संगठन (WTO) ने विशेष योगदान दिया। इक्कीसवीं सदी के आते-आते कारपोरेटों ने दुनिया की अर्थ व्यवस्थाओं के साथ-साथ वहां की राजनीति पर अपना जाल बिछा लिया है। राज्य उपनिवेशवाद से मुक्ति पाने के बाद विकासशील देशों ने अपने ढंग से जो भी व्यवस्थाएं खड़ी की, कारपोरेट उन्हें तोड़कर अपने लाभ के लिए नयी व्यवस्थाएं थोप रहे हैं। यह वैश्विक स्तर पर साजिश चल रही है।

इस कारपोरेटी वैश्विक साजिश का नया शिकार पानी है। विश्व बैंक, OECD, यूनीसेफ जैसी संस्थाओं से दुनिया भर के आंकड़े इकट्ठे करके एक भयावह तस्वीर पानी के बारे में पिछले 10-15 सालों से पेश की जा रही है। कहा जा रहा है कि दुनिया में 110 करोड़ लोगों की पानी की आपूर्ति तक पहुंच नहीं है, ज्यादातर सरकारें और स्थानीय संस्थाएं धन के और उचित प्रबन्धन के अभाव में पानी की समस्या को हल नहीं कर पा रही हैं, दुनिया में स्वच्छ जल की बहुत कमी है, इक्कीसवीं सदी में विश्व युद्ध होंगे पानी के मुद्दे पर। पानी के बिना केवल मनुष्यों का ही नहीं, पशु-पक्षियों और पौधों का भी जीवन चल नहीं सकता। पानी जीवन का आवश्यक तत्व तथा अस्तित्व की पूर्व शर्त है। ऐसे में पेश की जा रही डरावनी तस्वीर लोगों को लाचार कर रही है और समस्या का जो भी समाधान सामने आता है, उसे मानने को मजबूर हो जाती है।

इसी मजबूरी का लाभ उठाकर कारपोरेटों ने वैश्विक जाल फैला लिया है। पृथ्वी पर उपलब्ध पानी का केवल 3 फीसदी स्वच्छ है और उसका ज्यादा भाग बर्फीली चट्टानों में और भूमि के अन्दर बन्द है। केवल 0.3 फीसदी पानी मानव उपयोग के लिए उपलब्ध है। यह भी आकलन किया गया है कि दुनिया के स्तर पर प्रति व्यक्ति पानी की आपूर्ति घट रही है और वह एक तिहाई पर आ गयी है। यह पानी की कमी दुनिया के 40 फीसदी लोगों को प्रभावित करेगी और ऐसे ज्यादातर लोग ग्रामीण क्षेत्र में रहते हैं।

पानी के संकट का लाभ कारपोरेटों ने उठा लिया है। उन्होंने अपने माफिक माहौल बनाने के लिए पिछले 10-12 सालों में कई अंतरराष्ट्रीय संगठन खड़े करा लिये हैं और उनकी मदद से रिपोर्ट तैयार करायी हैं। एक संस्था है- विश्व जल मंच (World Water Forum) जिसकी सालाना बैठकें होती हैं। एक संस्था विश्व जल परिषद (World Water Council) है और तीसरी है वैश्विक जल पार्टनरशिप (Global Water Partnership) जो दुनिया को बड़े पानी के कारपोरेटों फ्रांस की विवोंदी (Vivendi), स्वेज (Suez), इंग्लैंड की टेम्सवाटर वाटर, जर्मनी की RWE जो टेम्स से साथ जुड़ गयी है, अमरीका की बैकटैल, कोकाकोला, पेप्सी कोला द्वारा विश्व बैंक के विश्व जल आयोग (World Water Commission) के साथ बनायी है। इस संस्था की तरफ से पानी के संकट पर तैयार की गयी रिपोर्टों में मुख्य रूप से इस पर जोर दिया गया है कि पानी का संकट बेहद गम्भीर है, खासतौर से तीसरी दुनिया के देशों में, सरकारों के पास इतना धन नहीं, प्रबन्धन नहीं कि वे इस संकट का सामना कर सके। इस संकट पर काबू पाने के लिए कम से कम 200 अरब डॉलर चाहिए और यह धन कारपोरेटों द्वारा ही उपलब्ध कराया जा सकता है। इसलिए पानी का निजीकरण होना चाहिए, पानी की पूरी कीमत वसूलनी चाहिए। पानी का आर्थिक मूल्य है और इसकी आर्थिक माल (economic good) की तरह पहचान बननी चाहिए। पानी पर दी जाने वाली सब्सिडियों को WTO की उन सब्सिडियों की सूची में शामिल किया जाय जिन्हें WTO अमान्य करता है।

यो तों विश्व जल मंच के पिछले सम्मेलनों में पानी के निजीकरण का मुद्दा उठाया जाता रहा था, पर 2003 के सम्मेलन में इसे विधिवत एजेंडे पर रखा गया और कहा गया कि दुनिया की जल समस्या का एकमात्र संभव समाधान पानी का निजीकरण है। कहा गया कि यह दुनिया की आमराय है। विश्व जल मंच के क्योटो सम्मेलन में पानी के निजीकरण और पानी एक आर्थिक वस्तु है, इन दो बातों पर मुहर लग गयी।

इन वैश्विक संस्थाओं के पीछे बड़े-बड़े मल्टीनेशनल कारपोरेशनों का खेल रहा है। इन कारपोरेटों का अनुमान है कि पानी का धंधा 7 ट्रिलियन (यानी 7 हजार अरब) डॉलर का है और इसके लिए उन्होंने पूरी दुनिया में अनुकूल माहौल बना लिया है। सरकारों को उनकी सीमाओं को समझाकर निजीकरण के लिए तैयार कर लिया है। विश्व बैक, मुद्राकोष और WTO इस में उनकी भरपूर मदद कर रहे हैं।

भारत में पानी का निजीकरण


भारत सरकार ने जो जल नीति तैयार की है, ताजी जलनीति 2012 का प्रारूप तैयार है, इसमें पानी के निजीकरण को सिद्धान्त के रूप में स्वीकार कर लिया गया है और पानी को एक माल (commodity) की तरह मान लिया गया है।

कई बड़े शहरों की जल वितरण व्यवस्थाओं को निजी कम्पनियों के हाथ दे दिया गया है। पूरा ढांचा बना बनाया कम्पनियों को मिल गया है, बस पानी की वसूली पानी की कीमत बढ़ाकर करने का काम कम्पनियों के हाथ में आ गया है। गुलबर्गा (कर्नाटक) के एक मित्र ने बताया कि पानी का निजीकरण हो जाने के बाद उन्हें हर महीने 3200 रु. पानी के भरने होते हैं।

कई वर्ष पहले दिल्ली के पानी का निजीकरण होने वाला था। फ्रांस की एक कम्पनी को पानी का काम दिल्ली सरकार देने वाली थी। इस आन्दोंलन ने कुछ पहल की, फिर दिल्ली जल बोर्ड के कर्मचारियों ने कई जन संगठनों के साथ मिलकर लम्बी लड़ाई लड़कर निजीकरण को रोका। अब फिर दिल्ली सरकार ने पानी के निजीकरण की घोषणा कर दी है।

निजीकरण के विरुद्ध प्रतिरोध


बडे़-बडे़ मल्टीनेशनलों की इस वैश्विक साजिश को दुनिया भर के लोग जमीन पर पसरकर मंजूर नहीं कर रहे। अनेक देशों में उनके खिलाफ बड़े-बड़े आन्दोलन चले रहे हैं, और कई जगह सफल भी हुए हैं। पहले विदेशों में चले प्रतिरोधों को देखें।

लातीनी अमरीका के देश बोलीविया में अमरीकी कम्पनी बैकटेल के खिलाफ ऐतिहासिक आन्दोलन हुआ। उस देश के नगर कोचाबाम्बा की नगरपालिका ने शहर की जलापूर्ति व्यवस्था बैकटेल को सौंप दी। बैकटेल ने पानी के दाम इतने बढ़ा दिये कि ज्यादातर लोगों को दाम देना मुश्किल हो गया। शहर के नागरिक कम्पनी के खिलाफ खड़े हो गये और इतना तेज आन्दोलन किया जिसमें एक नागरिक की मौत भी हुई, कम्पनी को भागना पड़ा।

लातीनी अमरीकी देश युरुग्वे का जल और जीवन की रक्षा के लिए राष्ट्रीय आयोग पानी के निजीकरण के खिलाफ लगातार संघर्ष कर रहा है। यह राजधानी मोंटेवीडियों और अन्य शहरों में पानी के निजीकरण को रोक रहा है। 2002 के युरुग्वे सोशल फोरम के दौरान इस आयोग ने पानी के निजीकरण के खिलाफ व्यापक समर्थन जुटा लिया और संविधान में संशोधन कराकर यह धारा जुड़वा ली कि पानी का निजीकरण नहीं होगा।

इस महाद्वीप के देश अर्जेंटीना में कई जनसंगठनों का गठबन्धन पानी की फ्रांसीसी कम्पनी स्वेज की सबसीडियरी ‘सान्ता फे की एक्वा प्रोवेंसियाल के खिलाफ संघर्ष कर रहा है। इस गठबन्धन का नाम है जल अधिकार की प्रादेशिक एसेम्बली। इसमें उपभोक्ता संघ, पर्यावरणविद तथा अन्य संगठन शामिल हैं। 1995 में इस कम्पनी को 15 शहरों की जलापूर्ति का ठेका 30 वर्ष के लिए दे दिया गया था। पिछले साल सितम्बर में इस प्रदेश में इस संगठन ने पानी के निजीकरण के खिलाफ जनमत संग्रह कराया जिसमें 1000 मतदान केन्द्र पर 7000 वालण्टियरों ने काम किया। मतसंग्रह के नतीजे गठबन्धन ने अन्य देशी-विदेशी संगठनों के साथ मिलकर गवर्नर को भेजे जिससे वे कम्पनी का ठेका रद्द करें।

नोट
इस नोट को तैयार करने में पत्रिका Combat Law के जून-जुलाई 2004 में प्रकाशित राजेन सिंह के लेख का उपयोग किया गया है।

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