पानी का पैसा

असीम मुनाफे के उपासक भारत में पानी के निजीकरण के लिए दिन रात जुटे हुए हैं और काफी तैयारियां कर ली भी गई हैं। विशेषज्ञों तथा नौकरशाही को समझाकर अपने खेमे में मिला लिया गया है। हर कोई पानी के निजीकरण के नए मंत्र का जाप करता दिखाई दे रहा है। बहती नदियों के दोनों किनारों पर उद्योगों के कालेधन को सफेद बनाने के नाम पर फार्म हाउस बन गए हैं। जिस पानी को राह चलते राहगीरों को पिलाने में अपार सुकून मिलता था उसी पानी को अब बोतल में बंद करके बेचा जा रहा है। सब एक दूसरे को पानी पिला रहे हैं। पानी बेचारा है कि पानी पानी हो रहा है। प्रस्तुत है पानी से पैसा बनाने के षड़यंत्र पर कनक तिवारी की रिपोर्ट।

अंग्रेज इस देश में लोगों की भूमि हड़पता था। जंगलों से बेदखल करता था। जल स्रोत छीनता था। आज भी वही हो रहा है। गोरे अंग्रेज चले गए हैं। काले रंगरेज उनकी जगह हैं। हजारों व्यक्तियों को विस्थापित कर कुछ सैकड़ों को समृद्ध किया जा रहा है। जल स्रोतों का पानी इकट्ठा कर उन्हें जहर उगलने वाले कारखानों के हवाले किया जा रहा है। वे पानी में रासायनिक द्रव्य मिलाकर उसे उन्हीं नदियों को वापस कर रहे हैं। अब गंगाजल तक कुछ ही दिनों में सड़ जाता है। हमारी इक्कीसवीं सदी का सबसे व्यावहारिक, उपयोगी और स्मरणीय कवि तो है रहीम जिसने ‘रहिमन पानी राखिए’ वाला कालजयी दोहा लिखा। यह सदी बूंद बूंद पानी को तरसने और सहेजने की सदी है। जल विशेषज्ञ लगातार चेतावनियां दे रहे हैं। पानी की कमी ऐसा भूकम्प है जिसके घटित होने या न होने को लेकर वैज्ञानिक निश्चित तौर पर बता रहे हैं कि देश पर पानी की महामारी या कमी का काला साया मंडरा रहा है। अंग्रेजी के विश्व कवि कॉलरिज ने समुद्र के सन्दर्भ में कहा था कि इतनी विशाल जल-राशि है, लेकिन एक बूंद पी नहीं जा सकती। भारत में इतनी विशाल प्यास है कि एक एक बूंद पी जा रही है। छत्तीसगढ़ को ही लें। वह पुराने सी.पी. एंड बरार और फिर मध्य प्रदेश का हिस्सा है। इस प्रदेश के जल कानून के अनुसार सभी प्राकृतिक जल स्रोतों नदी, झील, बहते पानी, झरने सरकार की सम्पत्ति हैं। गनीमत है कि ऐसा कोई कानून नहीं बना है जो यह टर्राए कि हवा, धरती, आकाश और अग्नि भी सरकार की तिजोरी के लायक हैं। अब मनुष्य पंच तत्वों से निर्मित नहीं है। वह मसलन छत्तीसगढ़ में चार तत्वों का पिंड है। पानी तो उसका सरकार ने उतार लिया है। सरकार जिसे चाहे पानी दे, जिसे चाहे सूखा रखे। पानी देने का अधिकार कलेक्टर, चीफ इंजीनियर वगैरह को दिया गया है। बराएनाम जल उपयोगिता समिति भी बना दी गई है जिसमें जनप्रतिनिधियों की आवाज नक्कार खाने वाली होती है।

देश के जल विशेषज्ञ अनिल अग्रवाल, अनुपम मिश्र, राजेन्द्र सिंह, मेधा पाटकर, अरुंधति रॉय वगैरह बूंद-बूंद पानी के लिए क्षण-क्षण संघर्ष कर रहे हैं। ये हमारी सदी के भगीरथ हैं। गंगा पर लेकिन सरकार का कब्जा है। वह भगीरथ का इतिहास दुबारा नहीं लिखने देगी। भगीरथ बड़े नहीं हैं। बड़ी है सरकार। यह जुमला हमने अंग्रेजों से सीखा है। पानी को कैद करने वाला कानून अंग्रेजों ने ही तो बनाया है। संविधान के साठ वर्ष बाद भी हम उस कानून को बंदरिया के बच्चे की तरह छाती से चिपटाए बैठे हैं। मुख्यमंत्री और सिंचाई मंत्री लाट साहबों की भूमिका का अनन्तकालीन रिहर्सल कर रहे हैं। बेचारा पानी है कि उसकी सांस्कृतिक, पारम्परिक, प्राकृतिक अस्मिता का अंत हो रहा है।

मध्य प्रदेश के संविदी मुख्यमंत्री गोविन्द नारायण सिंह ने मजाक के लहजे में गम्भीर बात कही थी कि हम मध्य प्रदेश के लोगों की नर्मदा, महानदी, सोन, बेतवा, ताप्ती वगैरह बेटियां हैं। हम इन्हें पाल पोसकर बड़ा करते हैं। फिर ये ससुराल चली जाती हैं और सास ससुर की सेवा करती हैं। उनका इशारा गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और ओडिशा वगैरह में बनने वाले बांधों की तरफ था। उन्हें यह बात भी मालूम रही होगी कि मुख्यमंत्री के रूप में कुछ अरसा वे ऐसे बाप भी रहे हैं जिनकी इन बेटियों को मुस्लिम व्यक्तिगत कानून की बेटियों से भी कम अधिकार रहे हैं। हमारी बेचारी नदियां सरकार से पूछे बिना कुछ भी नहीं कर सकतीं। नदियों के किनारे देश का सांस्कृतिक इतिहास लिखा गया है। उस परम्परा तक को ब्रिटिश कानूनों ने बांध दिया है।

संयोग से हम आजाद हो गए। मशक्कत से हमारे देशभक्तों ने संविधान रचा। उन्होंने अनुच्छेद 39 (ख) और (ग) में लिखा, ‘‘राज्य अपनी नीति का, इस प्रकार संचालन करेगा कि सुनिश्चित रूप से समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार बंटा हो जिससे सामूहिक हित का सर्वोत्तम रूप से साधन हो और आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले जिससे धन और उत्पादन-साधनों का सर्वसाधारण के लिए अहितकारी संकेद्रण न हो। ‘‘ इस महान उद्घोषणा के रहते हुए भी अंग्रेजी कानून रघुवीर यादव की फिल्म ‘मैसी साहब’ की तरह पानी को सरकार का बंधक बनाए रखने का ऐलान किए जा रहा है।

पेयजल की समस्या इस सदी की सबसे बड़ी चुनौती है। लेकिन किसी भी सरकार ने जनता को साफ और पर्याप्त पेयजल मुहैया कराने के अधिकार को संविधान के मूलभूत अधिकारों में शामिल कराने की पहल नहीं की है। भगवान भला करे हमारे उच्चतम न्यायाधीशों कृष्णा अय्यर, पी.एन. भगवती, कुलदीप सिंह, चिनप्पा रेड्डी वगैरह का जिन्होंने प्राकृतिक संसाधनों वाले उपरोक्त प्रावधान को अनुच्छेद 21 के जीने के अधिकार से जोड़ दिया है। सरकारों ने तो शहरी क्षेत्रों में नगरपालिक संस्थाओं पर छोड़ दिया कि वे जनता को पानी पिलाएं। सरकार ने इनकी और पंचायतों वगैरह की आर्थिक नकेल अपने हाथ में रखी है। इन संस्थाओं में धन की कमी है। सरकारों की नीयत में कमी है। सब एक दूसरे को पानी पिला रहे हैं। पानी बेचारा है कि पानी पानी हो रहा है। इन संस्थाओं को पानी की खेप अमूमन मिलती है किसी बांध या बराज से। कलेक्टर और सिंचाई महकमा थोक में पानी को अपनी कैद से मुक्त करते हैं। वह बूंद-बूंद जनता के घरों तक दस्तक देता है।

सिंचाई के कथित ‘जनहित’ के नाम पर बांध बनते हैं। हजारों गरीबों के घर उजाड़े जाते हैं। थोड़े से बड़े किसानों की सीलिंग कानून को अंगूठा दिखाती भूमियां सिंचाई के पानी से तृप्त होती हैं। ये वही कुलाक लॉबी के सदस्य हैं जो सिंचाई और बिजली के शुल्क के लगातार बकायादार बने हुए हैं। अफसर वसूली नहीं कर पाते क्योंकि नौकरी में तबादला जो होता है। बहती नदियों के दोनों किनारों पर उद्योगों के कालेधन को सफेद बनाने के नाम पर फार्म हाउस बन गए हैं। नदी के किनारे गहरे ट्यूबवेल लगे हैं। फार्म हाउस में सुन्दरियों के तन, नेता के मन और उद्योगपतियों के धन की आर्द्रता है। आसपास के किसानों के खेत, कुंए, पम्प सूख चले हैं। संविधान और कानून चौकीदारी कर रहे हैं।

गांवों में तो हालत और पतली है। इस देश की तीन चौथाई आबादी के लिए पेयजल की घर-घर दस्तक देने की कोई योजना नहीं है। मंत्री पंचायत राज अधिनियम की धारा 54 पढ़कर नहीं सुनाते जिसमें साफ लिखा है कि राज्य सरकार का यह दायित्व है कि वह जल निकास, जल संकर्मों, जल प्रदाय के स्रोतों का अनुरक्षण करने तथा जल के उपयोग का विनियमन करने के लिए ग्राम पंचायतों को तत्काल अधिकार दे। बनने को पंचायतें बन गई हैं, लेकिन पंचायत अब भी नौकरशाही कर रही हैं। पंचायत कानून की देह से बैताल बार बार उड़कर पेड़ पर जा बैठता है। जनता विक्रमादित्य है जो व्यवस्थाओं की लाश अपने कांधे पर ढोए चली जा रही है।

अंग्रेज इस देश में लोगों की भूमि हड़पता था। जंगलों से बेदखल करता था। जल स्रोत छीनता था। आज भी वही हो रहा है। गोरे अंग्रेज चले गए हैं। काले रंगरेज उनकी जगह हैं। हजारों व्यक्तियों को विस्थापित कर कुछ सैकड़ों को समृद्ध किया जा रहा है। जल स्रोतों का पानी इकट्ठा कर उन्हें जहर उगलने वाले कारखानों के हवाले किया जा रहा है। वे पानी में रासायनिक द्रव्य मिलाकर उसे उन्हीं नदियों को वापस कर रहे हैं। अब गंगाजल तक कुछ ही दिनों में सड़ जाता है। श्यामली यमुना काली पड़ गई है। बेतवा वह तवा है जिस पर मदिरा की रोटी सेंकी जा रही है। क्षिप्रा में ट्यूबवेल से पानी डालकर कुम्भ स्नान करवाया जा रहा है। हसदो, खारून, अरपा वाष्पीकृत रेत की ममतामयी गोदें बन गई हैं। अब तो मुक्ति भी सम्भव नहीं है। अस्थि विर्सजन के लिए कुछ तो पानी चाहिए। बेचारे पानी को बोतल में जिन्न की तरह बन्द करके बेचा जा रहा है। सच है, रहीम ही इक्कीसवीं सदी के कवि हैं। वे पानीदार मनुष्यों की तलाश के कवि हैं।

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