बड़ी गाड़ी के स्वामियों को यह शायद ही मालूम हो कि इस एक गाड़ी को बनाने में करीब एक लाख लीटर पानी खर्च हो जाता है तथा उस गाड़ी में जो पेट्रोल डाला जाता है उसके प्रति लीटर के शोधन में करीब पचास लीटर पानी खप जाता है। गाड़ी में जो एयरकन्डीशन लगा हुआ है तथा घर में जो फ्रीज रखा हुआ है, दोनों से वह क्लोरो फ्लोरो कार्बन गैस निकलती है जोकि ग्रीन हाउस गैसों की श्रेणी में आती है तथा जिससे ओजोन परत का क्षरण होता है। एक आधुनिक मानव द्वारा प्रातः उठने से लेकर सायं को शयनकक्ष में कदम रखने तक पर्यावरण का कितना नुकसान किया जाता है इसके संबंध में गहराई से जान लेना चाहिए।
भारत में जैसे-जैसे गर्मी बढ़ती है उसी रफ्तार से पानी व बिजली की किल्लत भी बढ़ती है। गर्मी का बढ़ना एवं पानी व बिजली की कमी होने का प्रतिशत वर्ष-प्रतिवर्ष बढ़ता ही जा रहा है। ऐसा किसलिए हो रहा है इसका जवाब वे सब समझदार लोग जानते हैं जो दो जून की रोटी ऐसो-आराम के साथ खाते हैं। लेकिन इसके समाधान के संबंध में कभी कुछ नहीं करते हैं। आज पानी की किल्लत शहरी व ग्रामीण दोनों तरह के भारत में महसूस की जा रही है। इस किल्लत का शहरी रूप कुछ और है तथा ग्रामीण कुछ और। अधिकतर बड़े व आधुनिकता की दौड़ में प्रतिभागी बने हुए शहरों ने जमीन के नीचे का सब पानी चूस लिया है। उनकी टकटकी पड़ोसी राज्यों के पानी पर लगी हुई है। अगर पड़ोसी राज्य या शहर उसे उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु पानी न दें तो उसके निवासी प्यासे मरेंगे। ऐसा अभी तो कभी-कभी होता है लेकिन भविष्य में ऐसा रोजाना और ताल ठोक कर होगा।उस राज्य या शहर की भी अपनी जरूरतें हैं, आखिर वह किसी दूसरे को अपना पानी क्यों दें। हर किसी को सब कुछ नहीं मिलता, यह एक कड़वा सत्य है। एक शहरी जिस मौज-मस्ती व आधुनिकता की चकाचौंध में जीवन व्यतीत करता है, उस चकाचौंध से ग्रामीण महरूम रहता है। यह वही ग्रामीण है जिसके हिस्से का पानी शहरी अक्सर मांगते रहते हैं। गौरतलब है कि मुरादनगर नहर से जो पानी दिल्ली को सोनिया विहार वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट के माध्यम से दिया जाता है, उस पर पिछले दिनों दिल्ली व उत्तर प्रदेश की सरकारों के बीच काफी तनातनी बन गई थी। क्योंकि इस नहर के पानी से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान सिंचाई करते हैं। नहर से कुछ पानी लेने तक तो बात बन रही थी लेकिन जब केंद्रीय भूजल बोर्ड द्वारा एक ऐसी योजना जल संसाधन मंत्रायल के समक्ष प्रस्तुत कर दी गई जिसमें कि किसानों को सीधे-सीधे घाटा होने वाला था तो विरोध होना लाजमी था। मुरादनगर से पहले के हिस्से में गंगा नहर के दोनों ओर के केंद्रीय भूजल बोर्ड द्वारा तैयार की गई योजना के अन्तर्गत करीब आठ इंच व्यास के 300 ट्यूबवेल लगाए जाने थे।
इनके माध्यम से भूजल निकालकर नहर में डाला जाना था। इन ट्यूबवेलों के माध्यम से जो भूजल नहर में डाला जाना था उसको मुरादनगर के नजदीक नहर से निकालकर एक पाइप लाइन के माध्यम से दिल्ली के सोनिया विहार वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट तक ले जाना था। अगर यह योजना अमल में आ गई होती तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान फसलों की सिंचाई हेतु भूजल के लिए तरस जाते। शुक्र है यह योजना कुछ कानूनी पचड़ों व विरोध के कारण अमल में नहीं आ सकी, अन्यथा दिल्ली व उत्तर प्रदेश के बीच झगड़ों का बढ़ना भी तय था। जाहिर है कि ये झगड़े राजनीतिक व अन्य कई रूपों में उभर कर सामने आते। अगर हम एक सम्पन्न शहरी की बात करें तो उसके पास एयरकन्डीशन युक्त लम्बी गाड़ी है, बड़ा सा घर है, बड़ी स्क्रीन वाला टेलीविजन भी है, है तो इनके पास दो दरवाजों वाला फ्रीज भी लेकिन उसमें पानी की कमी अब उस समय महसूस होने लगती है जब नगर निगम या स्थानीय निकाय सही समय पर या फिर सही गुणवत्ता का पानी उनके घरों तक नहीं पहुंचा पाता है।
हालांकि कुछ ने इसकी पूर्ति हेतु भी सबमर्सिबल पम्प घरों में लगा रखे हैं। बड़ी गाड़ी के स्वामियों को यह शायद ही मालूम हो कि इस एक गाड़ी को बनाने में करीब एक लाख लीटर पानी खर्च हो जाता है तथा उस गाड़ी में जो पेट्रोल डाला जाता है उसके प्रति लीटर के शोधन में करीब पचास लीटर पानी खप जाता है। गाड़ी में जो एयरकन्डीशन लगा हुआ है तथा घर में जो फ्रीज रखा हुआ है, दोनों से वह क्लोरो फ्लोरो कार्बन गैस निकलती है जोकि ग्रीन हाउस गैसों की श्रेणी में आती है तथा जिससे ओजोन परत का क्षरण होता है। एक आधुनिक मानव द्वारा प्रातः उठने से लेकर सायं को शयनकक्ष में कदम रखने तक पर्यावरण का कितना नुकसान किया जाता है इसके संबंध में गहराई से जान लेना चाहिए। उसकी दिनचर्या ही शौचालय से प्रारम्भ होती है जिसमें कि वह दर्जनों लीटर पानी बहा देता है। हालांकि ऐसा करने के पीछे तर्क हो सकता है कि कोई विकल्प भी तो नहीं है। उसके पश्चात् दांत साफ करने से लेकर दाढ़ी बनाने व नहाने में भी उसके द्वारा कुछ ज्यादा ही पानी बहाया जाता है। इन कार्यों का विकल्प है लेकिन अपनाए कौन? गाड़ी साफ करना, कपड़े घोना, घर की सफाई करना व अन्य दैनिक कार्यों में उसके द्वारा कुछ अधिक ही पानी की खपत की जाती है।
दिल्ली व मुम्बई जैसे बड़े शहरों में एक नया चलन चल निकला है कि अपने दफ्तर या अन्य किसी कार्य पर जाते हुए घर से ही बोतल में पानी भरकर ले जाना। शहरी बच्चों पर पहले ही बस्तों का बोझा अधिक था अब लंच बॉक्स के साथ एक लीटर पानी भी टांग दिया जाता है, क्योंकि पता है कि स्कूल में पानी नहीं मिलेगा और मिलेगा तो ठण्डा नहीं होगा या पीने में स्वादिष्ट नहीं होगा। मेरठ एक बड़ा और ऐतिहासिक शहर है। रामायण से लेकर महाभारत और आजादी की क्रांति का इतिहास यहां समाया हुआ है। वैसे तो इसे पानीदार क्षेत्र कहा जाता है लेकिन पानी की होती कमी व उसमें बढ़ते प्रदूषण के कारण अब हमें शायद अपनी विचारधारा में बदलाव लाना होगा। क्योंकि यहां आए दिन नगर निगम द्वारा सप्लाई किए जाने वाले पानी में सपोले निकलते हैं तथा रंगीन पानी आता है। मेरठ नगर निगम की तरह ही देश के अन्य निगमों का भी कमोबेश यही हाल है। लोगों को समय पर व सही गुणवत्ता का पानी न दे पाना दुर्भाग्यपूर्ण ही है।
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