हमारी कृषि का इतिहास कोई आठ हजार साल पुराना माना जाता है और यह आम विश्वास है कि हजारों साल तक बादलों पर निर्भर रहने के बाद जब हमारे पूर्वजों ने सिंचाई की शुरूआत की, तो पानी को बरतने में वैसा ही संयम अपनाया जैसा कि जीवन के अन्य क्षेत्रों में पानी को लेकर था। औद्योगिक सभ्यता के साथ ही पानी के इस्तेमाल में किया जाने वाला संयम टूटने लगा और हम देखते हैं कि नदी का नल में रूपांतरण पानी की बर्बादी का सबब बनता चला गया। जब तक पानी को खींचना, ढोना या लाना पड़ता था, तब तक आमतौर पर उसके बरतने में संयम था। जिस क्षण टोंटी अस्तित्व में आई, जल का महत्व घटने लगा। क्या दिन में एक बार भी आप पानी के बारे में सोचते हैं? हम लोग नौकरी-धंधे की, ब्याह-शादी की, हारी-बीमारी की बात करते हैं। बुद्धिजीवी लोग सांप्रदायिकता, जातिवाद, भ्रष्टाचार, लोकतंत्र, सुशासन, राष्ट्रवाद,राष्ट्र-राज्य वगैरह-वगैरह की बात करते हैं। सेमिनारवादी ह्यूमन राइट्स, जेंडर, लिटरेसी, एड्स और डेवलपमेंट पर बात करते हैं, पर हमारे दैनिक सरोकार में पानी की चर्चा प्राय: नहीं होती। कवि और पेंटर्स पानी और प्रकृति के चित्र बनाते हैं, लेकिन कवि रघुवीर सहाय या पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र या राजेंद्र सिंह जैसे लोग बहुत कम हैं, जो साफ पानी के लिए आवाज उठाते हैं। हम यह मानकर चलते हैं कि साफ पानी देना सरकार का काम है। नलों में पानी नहीं आता या प्रदूषित पानी आता है, तो हम ठीक ही सरकार को कोसते हैं, लेकिन पानी की अहमियत को प्रायः नहीं पहचानते। पानी के साथ हम शहरियों का जो बर्ताव है या जिस तरह हम पानी बरतते हैं, उससे साफ है कि हम उसकी अहमियत को नहीं पहचानते।
एक बार जरा यह कल्पना कीजिए कि आपको बिल्कुल बिना पानी के रहना पड़े। सुबह आप उठें तो ब्रश करने के लिए पानी न हो, न फ्लश के लिए, न नहाने के लिए, न चौका-बर्तन के लिए, न भोजन बनाने के लिए और न पीने के लिए। आप कितने दिन पानी के बिना रह सकते हैं? एक दिन, दो दिन या ज्यादा से ज्यादा एक हफ्ता जैसे मछली पानी के बिना जिंदा नहीं रह सकती वैसे ही आपका जीवन भी पानी के बिना असंभव है। बड़े अर्थों में आप भी जल के प्राणी है। आप जल में नहीं रहते, लेकिन जल आपमें रहता है। आपके शरीर में लगभग 70 प्रतिशत पानी है। आपके दिमाग में 75 प्रतिशत पानी है। यह पानी ही शरीर के तापमान को स्थिर रखता है और प्रोटीन आदि को कोशिकाओं तक ले जाता है। शरीर में पानी की कमी मौत तक का कारण बन जाती है। पानी ही पृथ्वी के वातावरण को संतुलित रखता है। यह गर्मी को सोख लेता है और समुद्री लहरों तथा पर्यावरणीय वाष्प के जरिए उसे ग्लोब के चारों ओर बिखेरता रहता है।
पेड़ों में 75 प्रतिशत तक पानी होता है। पहाड़ और पत्थर पानी की ही संतानें हैं। देखा जाए तो हमारी पृथ्वी सबसे पहले पानी है। अथाह और विशाल पानी का यह विराट पात्र तमाम प्रकृति और जीवन को अपने अंक में संभाले, आग के एक गोले की अरबों वर्षों से परिक्रमा कर रहा है। अंतरिक्ष में पानी की खोज का काम अभी बिल्कुल शैशव अवस्था में है, लेकिन इसमें जरा-सा भी संदेह नहीं कि कल्पनातीत ब्रह्मांड में अगर सचमुच कहीं जीवन है, तो वहां पानी भी अवश्य होना चाहिए। हमारी पृथ्वी पर दो-तिहाई हिस्से में पानी है और इस पानी ने ही हमारे महाद्वीप रचे हैं। पानी ने ही प्राकृतिक सुषमा को रचा है।
जब हम प्रकृति का ध्यान करते हैं, तो हमारी आंखों के सामने जंगल, नदी, पहाड़, समुद्र, पशु-पक्षी, ताल-तलैया के दृश्य साकार हो जाते हैं। हम पहाड़ से निकलती किसी नदी की कल्पना में खो जाते हैं। प्रकृति की हमारी कल्पना में पानी जरूर आता है, जबकि जीवन की कल्पना में पानी उस शिद्दत के साथ नहीं आता। हवा की तरह पानी को हमने अपने इतने करीब माना हुआ है कि उसका अलग से ध्यान ही नहीं आता। जैसे हमारा होना हमारे दिल के धड़कनें और दिमाग के सतत चलने का बोध-भर नहीं होता और होता है तो वह अवचेतन में रहता है, उसी तरह हम अपने होने की जरूरी शर्त के रूप में पानी को कब याद रख पाते हैं? हमें कब याद रहता है कि हमारे शरीर में जो खून दौड़ रहा है, उसे प्रयोगशाला में नहीं बनाया जा सकता, लेकिन -अपने शरीर से निकलती खून की एक बूंद भी हमें भयभीत कर देती है। पानी को भी किसी प्रयोगशाला में नहीं बनाया जा सकता, लेकिन पानी की बर्बादी करते हुए हमें प्रायः कोई अपराध-बोध नहीं होता।
पता नहीं, कोई ईश्वर है भी या नहीं, लेकिन पानी किसी भी ईश्वर से कम नहीं है हमारे जन्म लेने से मृत्यु तक पानी सदा हवा की तरह हमारे साथ-साथ रहता है। वह हमें पालता-पोसता और हमारी हिफाज़त करता है। हमारी भावनाएं संवेदनाएं, ज्ञान और सोच को पानी उसी तरह रचता है, जैसे उसने पहाड़ों और नदियों को, सागरों और महासागरों को, वर्षा-वनों को, रंग-बिरंगी चिड़ियों और मछलियों को और तमाम जीव-जगत को रचा है। हमारी भौतिक उन्नति का, हमारी कलाओं और संगीत का, हमारी समूची सभ्यता का, हमारे सौंदर्य और सौंदर्य-बोध का सारा दारोमदार पानी पर ही टिका है। इसलिए हिंदू सहित कई सभ्यताओं ने पानी को देवता का स्थान दिया है। हमारे पूर्वज पानी के महत्व को हमसे कहीं ज्यादा और अच्छी तरह समझते थे। उनके पानी के बरतने में एक संयम था, क्योंकि वे जानते थे कि पानी के बिना नदी-घाटी और नदी-तट की सभ्यताएं विलुप्त हो जाती हैं।
हमारी कृषि का इतिहास कोई आठ हजार साल पुराना माना जाता है और यह आम विश्वास है कि हजारों साल तक बादलों पर निर्भर रहने के बाद जब हमारे पूर्वजों ने सिंचाई की शुरूआत की, तो पानी को बरतने में वैसा ही संयम अपनाया जैसा कि जीवन के अन्य क्षेत्रों में पानी को लेकर था। औद्योगिक सभ्यता के साथ ही पानी के इस्तेमाल में किया जाने वाला संयम टूटने लगा और हम देखते हैं कि नदी का नल में रूपांतरण पानी की बर्बादी का सबब बनता चला गया। जब तक पानी को खींचना, ढोना या लाना पड़ता था, तब तक आमतौर पर उसके बरतने में संयम था। जिस क्षण टोंटी अस्तित्व में आई, जल का महत्व घटने लगा। निश्चय ही कुओं, तालाबों, नदियों, बावड़ियों के मुकाबले टोंटी का आविष्कार एक प्रगतिवादी घटना है, जिसने मनुष्य जीवन को आसान, साफ-सुथरा और स्वस्थ्य बनाया है, लेकिन भारत जैसे देश में पानी को लेकर ऐसी गैरबराबरी पैदा की गई है कि एक तरफ सचमुच पानी बेकार बह रहा है तो दूसरी तरफ, एक बड़ी आबादी को बरतने के लिए तो क्या, पीने के लिए भी साफ पानी मयस्सर नहीं है।
सूखाग्रस्त इलाकों में पानी की इस कदर किल्लत है कि ग्रामीण बच्चों को टब, चिलमची या लोहे की बड़ी-सी परात में नहलाते हैं, ताकि पानी बर्बाद न हो। यह इस्तेमाल किया हुआ पानी वे अपने पालतू पशुओं को पिलाते हैं। नागरी सभ्यता नदियों, तालाबों, बावड़ियों और कुओं आदि को निगल गई है। छोटे शहरों तक में जोहड़ों और तालाबों को पाटकर वहां बस्तियां बसा दी गई हैं, गाँवों के जोहड़ों को भी शहरों की गंदगी की हवा लग गई है। वे इस्तेमाल करने लायक जलस्रोत नहीं रह गए हैं। ऐसे में भारत का भला तभी होगा, जब हम इन तमाम पुराने जलस्रोतों में नया जीवन डालें। बारिश के पानी को गाँवों और शहरों में सभी जगह इकट्ठा किया जाए। वनों को उजाड़ने से रोका जाए और ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाए जाएं। यह एक ऐसा निवेश है, जो हमारे वर्तमान और भविष्य दोनों को सुधारेगा और मनुष्यता के काम आएगा।
यों सारी पृथ्वी पानी से पटी है, पर दुनिया का 97 प्रतिशत पानी खारा है। इसका कोई इस्तेमाल नहीं है। समुद्री जल को पेयजल में बदलने के जो तरीके हैं, वे बेहद महंगे हैं। संसार का दो प्रतिशत जल ही मनुष्य की ज़रूरतों के लिए उपलब्ध हैं। इसी जल के बूते पर हमारी कृषि-व्यवस्था चलती है। इसी जल से उद्योग चल रहे हैं और निर्माण-कार्य हो रहे हैं, बिजली बन रही है और यही जल समाज और व्यक्ति के लिए उपलब्ध है। जल नष्ट नहीं होता। उसकी आपस में जुड़ी एक सघन प्रणाली है। समुद्र ही बादल बनता है और सर्वत्र बरसकर धरती को न केवल भिगोता है, बल्कि ज़मीन में जमा भी होता रहता है। धरती पर जो भी हम उड़ेलते हैं या आकाश से जो भी बरसता है, वह पानी के एक प्राकृतिक चक्र में समा जाता है। इसलिए विज्ञानी कहते हैं कि हमारी पृथ्वी पर आज भी उतना ही पानी है, जो उसकी उत्पत्ति के समय था। वह न बढ़ा है और न घटा है। उसे तमाम मनुष्यों, जानवरों, चिड़ियों, पेड़ों और वनस्पतियों ने बरता है। इसलिए इस पानी में, जो आपकी टोंटी से आ रहा है, यह संभव है उसी पानी के मॉलिक्यूल (अणु) हों जो करोड़ों साल पहले किसी डायनासोर ने पिया हो।
कोई कवि जब अपनी कल्पना में लिखता है कि इस पानी में शताब्दियों पुरानी चिड़िया की प्रतिध्वनि है, तो वह वैज्ञानिक सच के बहुत करीब होता है। पानी सबका है। पानी को लेकर सारा हाहाकार आज इसलिए है कि उसे हम न केवल मनुष्यता की, बल्कि समूची प्रकृति की साझा पूँजी नहीं मान रहे हैं। प्रेमचंद की कहानी ‘ठाकुर का कुआं’ की तरह हम यह पानी किसी के साथ शेयर नहीं करना चाहते। हम अपनी नदी का पानी किसी दूसरे देश को तो क्या, अपने पड़ोसी राज्यों तक को नहीं देना चाहते। जिस तरह हवा पर सबका बराबर का हक है, उसी तरह पानी भी सभी मनुष्यों और प्राणियों की साझा संपत्ति है। उसके उपयोग में हम संयम बरतें और उसे मिल-बांटकर बरतें, इसी में विवेक और न्याय है। जिस तेजी से हमारी आबादी बढ़ रही है और उसके साथ ही पानी का अंधाधुंध इस्तेमाल, उसके कारण बहुत जल्दी पानी और भी कम पड़ने लगेगा। इसलिए अभी से हम दो बातें सीखना शुरू करें- पानी सबका है और हमें उतना ही पानी इस्तेमाल करना चाहिए जितने में बस हमारा काम चल जाए। उसे आज से ही बचाना शुरू कीजिए, क्योंकि यह बचत आप अपने बच्चों के लिए कर रहे हैं।
आपको पानी का हर घूंट पीते हुए यह ध्यान आना चाहिए कि आप खुशनसीब हैं, क्योंकि दुनिया की एक अरब आबादी को आज भी पीने का साफ पानी मयस्सर नहीं है। कल्पना कीजिए कि आप इस एक अरब में से एक हैं- दूषित पानी पीने के लिए शापित। तब कैसा होगा जीवन आपका? या फिर पानी की बूंद के लिए तरस रहे हैं आप कल्पना कीजिए वह पल कैसा होगा? क्या सोच रहे, क्या भोग रहे होंगे आप? जिस तरह हम पानी की बर्बादी कर रहे हैं, उससे तो यही समझ आता है कि पानी की साझा संपत्ति की परिकल्पना हम कर ही नहीं पा रहे। जरूरी है इस बात को समझना क्योंकि सवाल पूरी मनुष्यता के जीवन का है। पानी पर सोचना जब हमारी आदत में शामिल होगा, तो संभव है हम उसका मूल्य समझेंगे और उसके बंटवारे में होने वाले किसी भी अन्याय को कभी मंजूर नहीं करेंगे।
एक बार जरा यह कल्पना कीजिए कि आपको बिल्कुल बिना पानी के रहना पड़े। सुबह आप उठें तो ब्रश करने के लिए पानी न हो, न फ्लश के लिए, न नहाने के लिए, न चौका-बर्तन के लिए, न भोजन बनाने के लिए और न पीने के लिए। आप कितने दिन पानी के बिना रह सकते हैं? एक दिन, दो दिन या ज्यादा से ज्यादा एक हफ्ता जैसे मछली पानी के बिना जिंदा नहीं रह सकती वैसे ही आपका जीवन भी पानी के बिना असंभव है। बड़े अर्थों में आप भी जल के प्राणी है। आप जल में नहीं रहते, लेकिन जल आपमें रहता है। आपके शरीर में लगभग 70 प्रतिशत पानी है। आपके दिमाग में 75 प्रतिशत पानी है। यह पानी ही शरीर के तापमान को स्थिर रखता है और प्रोटीन आदि को कोशिकाओं तक ले जाता है। शरीर में पानी की कमी मौत तक का कारण बन जाती है। पानी ही पृथ्वी के वातावरण को संतुलित रखता है। यह गर्मी को सोख लेता है और समुद्री लहरों तथा पर्यावरणीय वाष्प के जरिए उसे ग्लोब के चारों ओर बिखेरता रहता है।
पेड़ों में 75 प्रतिशत तक पानी होता है। पहाड़ और पत्थर पानी की ही संतानें हैं। देखा जाए तो हमारी पृथ्वी सबसे पहले पानी है। अथाह और विशाल पानी का यह विराट पात्र तमाम प्रकृति और जीवन को अपने अंक में संभाले, आग के एक गोले की अरबों वर्षों से परिक्रमा कर रहा है। अंतरिक्ष में पानी की खोज का काम अभी बिल्कुल शैशव अवस्था में है, लेकिन इसमें जरा-सा भी संदेह नहीं कि कल्पनातीत ब्रह्मांड में अगर सचमुच कहीं जीवन है, तो वहां पानी भी अवश्य होना चाहिए। हमारी पृथ्वी पर दो-तिहाई हिस्से में पानी है और इस पानी ने ही हमारे महाद्वीप रचे हैं। पानी ने ही प्राकृतिक सुषमा को रचा है।
जब हम प्रकृति का ध्यान करते हैं, तो हमारी आंखों के सामने जंगल, नदी, पहाड़, समुद्र, पशु-पक्षी, ताल-तलैया के दृश्य साकार हो जाते हैं। हम पहाड़ से निकलती किसी नदी की कल्पना में खो जाते हैं। प्रकृति की हमारी कल्पना में पानी जरूर आता है, जबकि जीवन की कल्पना में पानी उस शिद्दत के साथ नहीं आता। हवा की तरह पानी को हमने अपने इतने करीब माना हुआ है कि उसका अलग से ध्यान ही नहीं आता। जैसे हमारा होना हमारे दिल के धड़कनें और दिमाग के सतत चलने का बोध-भर नहीं होता और होता है तो वह अवचेतन में रहता है, उसी तरह हम अपने होने की जरूरी शर्त के रूप में पानी को कब याद रख पाते हैं? हमें कब याद रहता है कि हमारे शरीर में जो खून दौड़ रहा है, उसे प्रयोगशाला में नहीं बनाया जा सकता, लेकिन -अपने शरीर से निकलती खून की एक बूंद भी हमें भयभीत कर देती है। पानी को भी किसी प्रयोगशाला में नहीं बनाया जा सकता, लेकिन पानी की बर्बादी करते हुए हमें प्रायः कोई अपराध-बोध नहीं होता।
पता नहीं, कोई ईश्वर है भी या नहीं, लेकिन पानी किसी भी ईश्वर से कम नहीं है हमारे जन्म लेने से मृत्यु तक पानी सदा हवा की तरह हमारे साथ-साथ रहता है। वह हमें पालता-पोसता और हमारी हिफाज़त करता है। हमारी भावनाएं संवेदनाएं, ज्ञान और सोच को पानी उसी तरह रचता है, जैसे उसने पहाड़ों और नदियों को, सागरों और महासागरों को, वर्षा-वनों को, रंग-बिरंगी चिड़ियों और मछलियों को और तमाम जीव-जगत को रचा है। हमारी भौतिक उन्नति का, हमारी कलाओं और संगीत का, हमारी समूची सभ्यता का, हमारे सौंदर्य और सौंदर्य-बोध का सारा दारोमदार पानी पर ही टिका है। इसलिए हिंदू सहित कई सभ्यताओं ने पानी को देवता का स्थान दिया है। हमारे पूर्वज पानी के महत्व को हमसे कहीं ज्यादा और अच्छी तरह समझते थे। उनके पानी के बरतने में एक संयम था, क्योंकि वे जानते थे कि पानी के बिना नदी-घाटी और नदी-तट की सभ्यताएं विलुप्त हो जाती हैं।
हमारी कृषि का इतिहास कोई आठ हजार साल पुराना माना जाता है और यह आम विश्वास है कि हजारों साल तक बादलों पर निर्भर रहने के बाद जब हमारे पूर्वजों ने सिंचाई की शुरूआत की, तो पानी को बरतने में वैसा ही संयम अपनाया जैसा कि जीवन के अन्य क्षेत्रों में पानी को लेकर था। औद्योगिक सभ्यता के साथ ही पानी के इस्तेमाल में किया जाने वाला संयम टूटने लगा और हम देखते हैं कि नदी का नल में रूपांतरण पानी की बर्बादी का सबब बनता चला गया। जब तक पानी को खींचना, ढोना या लाना पड़ता था, तब तक आमतौर पर उसके बरतने में संयम था। जिस क्षण टोंटी अस्तित्व में आई, जल का महत्व घटने लगा। निश्चय ही कुओं, तालाबों, नदियों, बावड़ियों के मुकाबले टोंटी का आविष्कार एक प्रगतिवादी घटना है, जिसने मनुष्य जीवन को आसान, साफ-सुथरा और स्वस्थ्य बनाया है, लेकिन भारत जैसे देश में पानी को लेकर ऐसी गैरबराबरी पैदा की गई है कि एक तरफ सचमुच पानी बेकार बह रहा है तो दूसरी तरफ, एक बड़ी आबादी को बरतने के लिए तो क्या, पीने के लिए भी साफ पानी मयस्सर नहीं है।
सूखाग्रस्त इलाकों में पानी की इस कदर किल्लत है कि ग्रामीण बच्चों को टब, चिलमची या लोहे की बड़ी-सी परात में नहलाते हैं, ताकि पानी बर्बाद न हो। यह इस्तेमाल किया हुआ पानी वे अपने पालतू पशुओं को पिलाते हैं। नागरी सभ्यता नदियों, तालाबों, बावड़ियों और कुओं आदि को निगल गई है। छोटे शहरों तक में जोहड़ों और तालाबों को पाटकर वहां बस्तियां बसा दी गई हैं, गाँवों के जोहड़ों को भी शहरों की गंदगी की हवा लग गई है। वे इस्तेमाल करने लायक जलस्रोत नहीं रह गए हैं। ऐसे में भारत का भला तभी होगा, जब हम इन तमाम पुराने जलस्रोतों में नया जीवन डालें। बारिश के पानी को गाँवों और शहरों में सभी जगह इकट्ठा किया जाए। वनों को उजाड़ने से रोका जाए और ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाए जाएं। यह एक ऐसा निवेश है, जो हमारे वर्तमान और भविष्य दोनों को सुधारेगा और मनुष्यता के काम आएगा।
यों सारी पृथ्वी पानी से पटी है, पर दुनिया का 97 प्रतिशत पानी खारा है। इसका कोई इस्तेमाल नहीं है। समुद्री जल को पेयजल में बदलने के जो तरीके हैं, वे बेहद महंगे हैं। संसार का दो प्रतिशत जल ही मनुष्य की ज़रूरतों के लिए उपलब्ध हैं। इसी जल के बूते पर हमारी कृषि-व्यवस्था चलती है। इसी जल से उद्योग चल रहे हैं और निर्माण-कार्य हो रहे हैं, बिजली बन रही है और यही जल समाज और व्यक्ति के लिए उपलब्ध है। जल नष्ट नहीं होता। उसकी आपस में जुड़ी एक सघन प्रणाली है। समुद्र ही बादल बनता है और सर्वत्र बरसकर धरती को न केवल भिगोता है, बल्कि ज़मीन में जमा भी होता रहता है। धरती पर जो भी हम उड़ेलते हैं या आकाश से जो भी बरसता है, वह पानी के एक प्राकृतिक चक्र में समा जाता है। इसलिए विज्ञानी कहते हैं कि हमारी पृथ्वी पर आज भी उतना ही पानी है, जो उसकी उत्पत्ति के समय था। वह न बढ़ा है और न घटा है। उसे तमाम मनुष्यों, जानवरों, चिड़ियों, पेड़ों और वनस्पतियों ने बरता है। इसलिए इस पानी में, जो आपकी टोंटी से आ रहा है, यह संभव है उसी पानी के मॉलिक्यूल (अणु) हों जो करोड़ों साल पहले किसी डायनासोर ने पिया हो।
कोई कवि जब अपनी कल्पना में लिखता है कि इस पानी में शताब्दियों पुरानी चिड़िया की प्रतिध्वनि है, तो वह वैज्ञानिक सच के बहुत करीब होता है। पानी सबका है। पानी को लेकर सारा हाहाकार आज इसलिए है कि उसे हम न केवल मनुष्यता की, बल्कि समूची प्रकृति की साझा पूँजी नहीं मान रहे हैं। प्रेमचंद की कहानी ‘ठाकुर का कुआं’ की तरह हम यह पानी किसी के साथ शेयर नहीं करना चाहते। हम अपनी नदी का पानी किसी दूसरे देश को तो क्या, अपने पड़ोसी राज्यों तक को नहीं देना चाहते। जिस तरह हवा पर सबका बराबर का हक है, उसी तरह पानी भी सभी मनुष्यों और प्राणियों की साझा संपत्ति है। उसके उपयोग में हम संयम बरतें और उसे मिल-बांटकर बरतें, इसी में विवेक और न्याय है। जिस तेजी से हमारी आबादी बढ़ रही है और उसके साथ ही पानी का अंधाधुंध इस्तेमाल, उसके कारण बहुत जल्दी पानी और भी कम पड़ने लगेगा। इसलिए अभी से हम दो बातें सीखना शुरू करें- पानी सबका है और हमें उतना ही पानी इस्तेमाल करना चाहिए जितने में बस हमारा काम चल जाए। उसे आज से ही बचाना शुरू कीजिए, क्योंकि यह बचत आप अपने बच्चों के लिए कर रहे हैं।
आपको पानी का हर घूंट पीते हुए यह ध्यान आना चाहिए कि आप खुशनसीब हैं, क्योंकि दुनिया की एक अरब आबादी को आज भी पीने का साफ पानी मयस्सर नहीं है। कल्पना कीजिए कि आप इस एक अरब में से एक हैं- दूषित पानी पीने के लिए शापित। तब कैसा होगा जीवन आपका? या फिर पानी की बूंद के लिए तरस रहे हैं आप कल्पना कीजिए वह पल कैसा होगा? क्या सोच रहे, क्या भोग रहे होंगे आप? जिस तरह हम पानी की बर्बादी कर रहे हैं, उससे तो यही समझ आता है कि पानी की साझा संपत्ति की परिकल्पना हम कर ही नहीं पा रहे। जरूरी है इस बात को समझना क्योंकि सवाल पूरी मनुष्यता के जीवन का है। पानी पर सोचना जब हमारी आदत में शामिल होगा, तो संभव है हम उसका मूल्य समझेंगे और उसके बंटवारे में होने वाले किसी भी अन्याय को कभी मंजूर नहीं करेंगे।
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