राजस्थान के शुष्क इलाके में पानी को संचित करने की परम्परा उसके सामाजिक ढांचे से जुड़ी हुई है। करीब 600 गाँवों से जानकारी इकट्ठा करने के बाद पता चला कि जो भी राजस्व वसूली से जुड़ा था- चाहे वह राज्य हो, जागीदार हो या कोई और किसी ने भी लोगों के लिए जल संचय व्यवस्थाओं का निर्माण नही करवाया। पहले जिस किसी भी राजा, जागीदार या अन्य प्रमुख व्यक्ति ने पानी से जुड़ी व्यवस्थाओं का निर्माण करवाया, वे उनकी व्यक्तिगत जरूरतों को पूरा करने के लिए थीं। लोग अपनी जरूरतों का भार स्वयं ही उठाते थे। उदाहरण के तौर पर मेहरानगढ़ किले के अंदर बनी जोधपुर की रानीसर झील ऊँचे लोगों के लिए ही बनी थी, हालांकि इसके पास में स्थित पसर झील का उपयोग स्थानीय लोग किया करते थे। जोधपुर की बालसमंद झील राजाओं ने कुछ विशिष्ट कार्यों के लिए बनाई थी। इस झील के स्थानीय लोगों को पीने का पानी लेने की आज्ञा भी नहीं थी। वर्ष 1955 तक फतेहसागर और स्वरूपसागर का पानी, जिनका निर्माण स्थानीय शासकों ने करवाया था, स्थानीय लोग प्रयोग में नहीं ला सकते थे। इसके विपरीत, उदयपुर की पिछोला झील, जिसका निर्माण बंजारों ने किया था, शहर में पानी का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत था।
राजस्थान एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ साल भर बहने वाली नदियाँ नहीं हैं। यहाँ पानी से सम्बन्धित समस्याएँ कम तथा अनियमित वर्षा और नदियों में अपर्याप्त पानी को लेकर उत्पन्न होती हैं। यहाँ प्रकृति और संस्कृति एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। वर्ष 1979 और 1990 में राजस्थान के कुछ इलाकों में भारी बारिश हुई थी, जिससे लूणी नदी में बाढ़ आने से राज्य को काफी हानि पहुँची थी, परन्तु 1979 में क्षति और भी हो सकती थी, अगर स्थानीय लोगों ने संदेश देने की प्राचीन पद्धति, जिसमें ढोलों का प्रयोग किया जाता था, का सहारा न लिया होता। जिन क्षेत्रों में यह व्यवस्था लुप्त हो चुकी थी, वहाँ काफी हानि पहुँची थी।
भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में लोककथाएँ और पौराणिक गाथाएँ काफी महत्त्वपूर्ण हुआ करती हैं। राजस्थान में पानी के लगभग सभी प्राकृतिक स्रोतों जैसे झरना आदि की उत्पत्ति के बाद में पौराणिक किस्से हैं। बाणगंगा की उत्पत्ति हमेशा उन स्थानों में मानी जाती है जहाँ पांडव किसी न किसी समय रहा करते थे। माना जाता है कि अर्जुन ने धरती में तीर मारकर पानी बाहर निकाला था। जिस जगह भीम ने अपना पैर जमीन पर धंसाकर पानी के फव्वारे को बाहर निकाला था, उसे भीम गदा के नाम से जाना जाता है। शुष्क क्षेत्रों में पानी इतनी कम मात्रा में उपलब्ध होता है कि किसी भी प्राकृतिक स्रोत की पूजा तक शुरू हो जाती है। और तो और कई जगहों पर तो पानी के प्राकृतिक स्रोत तीर्थ स्थान भी बन गए हैं।
स्थानीय लोगों ने पानी के कई कृत्रिम स्रोतों का निर्माण किया है। राजस्थान में पानी के कई पारम्परिक स्त्रोत हैं, जैसे नाड़ी, तालाब, जोहड़, बंधा, सागर, समंद और सरोवर। गाँवों का कोई व्यक्ति जब नाड़ी की बात करता है, तब उसे उसके बारे में स्पष्ट जानकारी होती है (जैसे नाडी में पानी कैसे जमा होता हैं, किस तरह इसका आगोर तैयार किया जाता है)। गाँव वाला यह भी जानता है कि बांध का निर्माण किस मिट्टी से किया जाता है और निर्माण के लिए खुदाई एक विशेष तरीके से की जाती है।
कुएँ पानी के एक और महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। राजस्थान में कई प्रकार के कुएँ पाए जाते हैं। सामान्यतः किसी साधारण कुएँ का मालिक एक अकेला व्यक्ति हुआ करता है। बड़े, कुओं, जिन्हें कोहर के नाम से जाना जाता है, पर अधिकार पूरे समुदाय का होता है। इसके अतिरिक्त बावड़ी या झालरा भी हैं। बावड़ियों को धार्मिक दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण माना जाता है और इनका निर्माण पुण्य कमाने के लिए किया जाता था।
राजस्थान के मरुक्षेत्र में से कुछ को पार के नाम से जाना जाता है। पार ऐसी जगह होती है जहाँ बहता हुआ पानी एक जगह जमान होकर धरती में रिसकर उसके अन्दर चला जाता है। गाँववालों को इस बात की जानकारी रहती है कि अगर ऐसे स्थानों पर कुओं की खुदाई की जाए तो मीठा पानी प्राप्त किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, यहाँ उगे पेड़-पौधों से भी गाँववाले पार का पता लगा लेते हैं। इन कुओं को बेरी के नाम से जाना जाता है। ये बेरियाँ इंसानों और पालतू जानवरों, दोनों ही के लिए पीने का पानी उपलब्ध कराती हैं। इसके अतिरिक्त इन बरियों की खुदाई सूखी झीलों और नदियों की तलहट पर भी की जाती थी। जय सिंधी पाकिस्तान सीमा के निकट स्थित एक गाँव है। यहाँ पिछले कई वर्षों से वर्षा नहीं हुई है। इस गाँव में भेड़ों की कुल संख्या 30,000 से भी ज्यादा है। चूँकि इस गाँव में पार की व्यवस्था काफी अच्छी है, इसलिए इन भेड़ों को घास अथवा पानी के लिए इधर-उधर भटकना नहीं पड़ता।
राजस्थान के लोग पारम्परिक तौर पर राज्य को दो हिस्सों में बांटते हैं। एक, जिसमें पालर पानी मिलता है और दूसरा, जहाँ वाकर पानी प्राप्त होता है। वर्षा से प्राप्त जल ही पालर जह है, जो प्राकृतिक पानी का सबसे शुद्ध रूप है और जिसे टांका में तीन से पाँच वर्ष तक के लिए जमा किया जा सकता है। वाकर भूजल को कहते हैं। इसमें कई प्रकार के तत्व मिले होते हैं। पालर पानी में उगने वाली फसलें वाकर पानी में उगने वाली फसलों से बिल्कुल भिन्न होती है। इसके अतिरिक्त इनको रोपने का समय और सिंचाई की व्यवस्था भी एक-दूसरे से अलग होती है।
राजस्थान के लोगों को अपनी जमीन से सम्बन्धित बातों को भी अच्छी जानकरी होती है और वे भिन्न प्रकार की मिट्टी को स्थानीय नाम भी देते हैं। उदाहरण के तौर पर कुओं की खुदाई करने वाले मजदूर विभिन्न मिट्टी की परतों को अलग-अलग नाम देते हैं और उन्हें यह भी पता होता है कि किसी एक विशेष प्रकार की मिट्टी के नीचे पानी मिलेगा अथवा नहीं। कुओं की खुदाई करने वाले अलग मजूदर रहते हैं।
राज्य के कुछ कुओं, जिन्हें सागर का कुआं के नाम से जाना जाता है, में पानी अत्यधिक मात्रा में उपलब्ध होता है। ये कुएँ करीब 60 मी. गहरे होते हैं, और कभी भी नहीं सूखते। इनमें पानी काफी शुद्ध रहता है। बोरुंदा गाँव में ऐसे करीब 60 कुएँ हैं। इनमें 300 हार्स पावर के इंजन लगे हुए हैं जो 100 से भी ज्यादा एकड़ जमीन की सिंचाई करते हैं।
लोगों के अन्य प्रकार के कुओं को अलग-अलग नाम दिए हैं, जैसे सीर का कुआं, साजय का कुआं या झरारे का कुआं। साजय का कुआं में पानी भूतल के भंडार से प्राप्त किया जाता है, जो रिस-रिसकर जमीन के अन्दर जमा हो गया है। सीर का कुआं में जमीन के अन्दर स्थित जलभर कुएँ में आकर खुलता है। विभिन्न प्रकार के कुओं से अलग-अलग प्रकार की फसलों की खेती की जाती है। जमीन को मापने के लिए पारम्परिक पावंड़ा या पगों का सहारा लिया जाता था। कभी-कभी हाथों से माप भी की जाती थी। कुओं की गहराई को बताने के लिए लोग ’60 पुरुष है’ कहा करते थे। नदियों के पानी को समय के हिसाब से मापा जाता था, जैसे तीन महीने या छह महीने का पानी आदि।
राजस्थान में पानी शुरू से ही सुंदर और कलात्मक चीजों से जुड़ा था। कुम्हार पीने के पानी के बर्तन काफी लगन और मेहनत से तैयार करते थे। फारसी चक्र, जिसे चड़स के नाम से जाना जाता था, को तैयार करने के लिए सबसे उत्तम चमड़े का प्रयोग किया जाता था। इसमें करीब 360 अलग-अलग प्रकार के जोड़ हुआ करते थे।
मरुप्रदेश में प्रसिद्ध एक गाना समद उझालों में एक धार्मिक कृत्य का वर्णन है जिसमें एक औरत नाड़ी से कई टागरी (मिट्टी से भरी बाल्टी) खोदकर निकालने और किसी पाल पर रखने का प्रण करती है। अपना व्रत (प्रण) पूरा करने के पश्चात वह अपने भाई की प्रतीक्षा करती है जो कपड़ों के भेंट लाकर इस धार्मिक कृत्य को पूरा करेगा। जब उसका भाई काफी समय प्रतीक्षा करने के बाद भी नहीं आता है, तब वह नदी में चलना शुरू कर देती है। उसका भाई उसके डूबने के तुरंत बाद ही वहाँ पहुँचता है। इस गाने को सावन (मानसून) के महीने में गाया जाता है। और यह नाड़ियों और तालाबों से गाद को निकालने में समाज की जिम्मेदारी को भली-भांति दर्शाता है।
जोधपुरः जरूरत भर की यारी
वर्ष 1985 में जोधपुर में बीसवीं शताब्दी का सबसे भयंकर अकाल पड़ा था। इस विपत्ति से निबटने के लिए सरकार पूरे शहर को ही खाली करने पर विचार कर रही थी। इस दौरान, बावड़ी, जो शहर में पानी की आपूर्ति काने के प्रमुख पारम्परिक स्रोत थे, पर कोई ध्यान नहीं दिया गया।
1985 के संकट ने शहर की पानी व्यवस्था को बनाए रखने में इन बावड़ियों के महत्व को उजागर किया। शहर की नगरपालिका के अफसरों ने चाँद और जलप बावड़ियों को साफ करवाया और उनसे प्राप्त पानी को शहर में बांटा। यहाँ के स्थानीय युवकों ने टापी बावड़ी को भी साफ कराने की सोची थी। यह बावड़ी शहर के कचरे से भरी पड़ी थी। टापी बावड़ी के निकट स्थित भीमजी का मोहल्ला के निवासी शिवराम पुरोहित ने इन युवकों को 75 मी. लम्बे, 12 मी. चौड़े और 75 मी. गहरे इस पानी के स्रोत को साफ करने के लिए उत्साहित किया। पुरोहित को टापी सफाई अभियान समिति का खजांची बनाया गया। वह, 1000 रुपए दान में देने वाले पहले व्यक्ति थे। इन रुपयों को सफाई में लगे नौजवानों को चाय-पानी पहुँचाने के काम में खर्च किया गया। जिला कलेक्टर ने भी इस कार्य के लिए 12,000 रुपए का योगदान दिया।
इसके अतिरिक्त घर-घर जाकर 7,500 रुपए भी एकत्रित किए गए। जमा हुए कचरे को हटाने के लिए करीब 200 ट्रकों की आवश्यकता थी। हालांकि फेड ने सफाई के काम के लिए कुछ भी धन उपलब्ध नहीं कराया, पर सफाई का काम पूरा होते ही उसने पानी की सप्लाई के एक पम्प इसर स्थान पर लगवा दिया। इस बावड़ी से शहर को प्रतिदिन 2.3 लाख गैलन पानी उपलब्ध कराया जा सका। पुरोहित बताते हैं कि नल का पानी आने से बावड़ी की उपेक्षा शुरू हुई। यह अफवाह भी उड़ी कि दुश्मनों ने इसके पानी में तेजाब डाल दिया है। कहा गया कि जो औरतें पानी भरने गई, उनके पैरों के गहने काले पड़ गए।
वर्ष 1989 में जिस वर्ष वर्षा काफी अच्छी हुई थी, बावड़ी की फिर से उपेक्षा की गई। पुरोहित के अनुसार, कुओं में तैरने के लिए कूदते बच्चों या इसमें पत्थर फेंकने वाले बच्चों पर कड़ी निगाह रखना एक कठिन काम है। इसके अतिरिक्त, लोगों ने इस कुएँ को शवदाह के बाद नहाने के काम में लाना भी शुरू कर दिया है। चूँकि कुआं एक सामाजिक स्थल है, इसलिए लोगों को इसका गलत कार्यों के लिए उपयोग करने से रोकना भी एक कठिन काम है। इस समस्या को सुलझाने के लिए पुरोहित ने अपने पैसे से एक चोटा होज और नहाने के लिए एक बंद स्थान का निर्माण करवाया है, जिससे लोग कुएँ के पास न जाएं। लोगों को स्मरणशक्ति काफी कमजोर है, और वे वर्ष 1985 में आए संकट को भूल चुके हैं। शायद इसी तरह के एक अन्य अकाल से ही वे बावड़ियों की महत्ता को फिर से समझने लगेंगे। आज, जोधपुर के कुछ ही लोग बावड़ियों की महत्व को अच्छी तरह समझ पा रहे हैं।
(बूदों की संस्कृति पुस्तक से साभार)
/articles/paanai-eka-saamaajaika-saetau