जल-संरक्षण की सीख हमारे यहाँ परम्परा से ही दी जाती रही है। जिस समाज को हम कम पढ़ा-लिखा समझते हैं, वह कहीं ज्यादा बेहतर पानी की समझ रखता आया है। बांज-बुरांश के जंगल बचाने की मुहिम में गुणवत्तायुक्त पानी बचाने की आमजन की गहरी समझ देखी जा सकती है। पेड़ बचाने के साथ जलस्रोतों के संवर्धन की परम्परा अनूठी है। एक बार मैंने दिल्ली के कुछ स्कूली बच्चों से पूछा, ‘पानी कहाँ से आता है?’ उनका उत्तर था, ‘नल से,’ ‘नल में कहाँ से आता है,’ तो आगे बोले, ‘ट्यूबवेल से।’ कुछ ने कहा, ‘हैण्डपम्प से,’ तो कुछ बच्चे नदी की बात भी करने लगे। बात सिर्फ बच्चों की नहीं थी। मैंने कुछ युवाओं और सामान्य लोगों से भी यही सवाल किया, तो उन सबका जवाब यही था, लेकिन मध्य हिमालय की पहाड़ियों में अपने पशुओं के लिये घास काटने वाली ‘घसियारी’ महिलाएँ, जो अपढ़ या बहुत कम पढ़ी-लिखी हैं, उनकी पानी की समझ शहरी समाज से भिन्न है। वे इसे प्रकृति से जोड़कर देखती हैं। जंगल के बीच एकान्त में पक्षियों की कलरव ध्वनि के साथ उनका यह गढ़वाली ‘बाजूबन्द’ गीत गूँजता है-
“भुजेल, बड़ियों कु ठंडू पाणी पीजा छैला बांज की जड्यो कु...।” मेरे प्रिय हमजोलिया पेठ की बड़ियों का स्वाद तो लाजवाब होता है, किन्तु उससे भी लाजवाब स्वाद तो बांज की जड़ों के पानी में है। इसी तरह ल्यो ठंडो पाणी बांज की जड़ी को, ल्यो ठंडो पाणी जेठ-बैशाख।
‘चिपको आन्दोलन’ के सुप्रसिद्ध लोक कवि धनश्याम शैला ने भी लिखा और गाया- “ईं बांज बुरांश सि कुलैकी डालि, न काटा-न काटा यों रखा जग्वाली, पात्यों म छ दूध की जड़ियों म पाणी...यों बांज बुरांश कु यो ठंडो पाणी...” अर्थात बांज-बुरांश के जंगल न काटें। इन्हें बचाकर, संरक्षित करें। इनकी पत्तियों को जब पशु खाते हैं, दूध मिलता है, किन्तु उससे भी बढ़कर इनकी जड़ों से ठंडा पानी मिलता है। पहाड़ों में अब भले ही गाँव-गाँव या घर-घर में नलों द्वारा पानी आ गया है, किन्तु पुराने समय में गाँव वहीं बसे जहाँ पानी के स्रोत थे।
बांज, मध्य और उच्च हिमालय में 4000 फुट से 8500 फुट की ऊँचाई तक प्राकृतिक रूप से उगने वाला सदाबहार पेड़ है। बांज चीड़ के पेड़ की तरह एकल नहीं उगता, अपितु बांज का जोरदार मिश्रित समाज है। बांज के साथ बुरांश, काफल, किनगोड़, अंयार, खाकसी, रुईंस सहित सैकड़ों तरह की लता, बेल, घासें व झाड़ियाँ उगती हैं। जहाँ बांज का जंगल होगा निश्चित बात है कि उसके जलागम के नीचे पानी का स्रोत जरूर होगा, यह पानी इतना स्वादिष्ट और पाचक होता है कि एक बार यदि किसी ने पी लिया, तो जिन्दगी में कभी भूल नहीं सकता।
बांज के साथ पानी देने वाले अन्य पेड़-पौधों की पहचान भी पारखियों ने की है, जिनमें मुख्य रूप से वनखड़िक, उतीस, हिंसर, काफल, कुंजा-जंगली गुलाब, बेडू आदि हैं। जलस्रोत सिर्फ जलस्रोत नहीं हैं, अपितु धरती के गर्भ से निकलने वाले जल को अनेक रूपों में अनेक नामों से जाना जाता है। धारा, नौला, सेल्वाणी, मगरा, कुण्ड, कुआँ, ताल (तालाब), चाल-खाल (पोखर), रौ, छड़ा (झरना), गाड-गधेरा (छोटी नदियाँ व सामान्य बड़ी नदियाँ), सबकी अलग-अलग पहचान है।
देश में जल की पूजा, विष्णु के नाम से होती है, यहाँ विष्णु पूजा के साथ नए जीवन के रूप में भी जल को देखा जाता है। जब दाम्पत्य जीवन की डोर बँधती है, तब वर-वधू के जीवन की नई शुरुआत होती है, नई-नवेली दुल्हन घर पर आती है, तो वह सबसे पहले धारा पूजने गाँव के पनघट पर जाती है। धारे की पूजा की जाती है, उसे तिलक करके मिठाई आदि समर्पित की जाती है, तत्पश्चात दुल्हन धारे से तांबे की नई गगरी पर पानी भरकर, सिर पर रखकर लाती है। परिजन लोटे को दुल्हन या गगरी के चारों ओर घुमाकर पहले भगवान विष्णु को जल चढ़ाते हैं, फिर बारी-बारी से सब ताजा जल पीते हैं।
पानी के संरक्षण के साथ-साथ पानी और पेड़ों के संवर्द्धन की अनूठी नई परम्परा भी उत्तराखण्ड में 1995 में ‘मैती आन्दोलन’ से शुरू हुई। ‘मैती’ का अर्थ है विवाहित बेटी के परिजन। चमोली जिले के ग्वालदन से इस आन्दोलन की शुरुआत हुई। ‘मैती’ आन्दोलन के प्रेरणा स्रोत तत्कालीन जीव विज्ञान के प्रवक्ता कल्याण सिंह रावत हैं, जिन्होंने विवाह-शादियों में नव दम्पतियों को शादी की यादगार में पेड़ लगाने की प्रेरणा दी।
कई जगह दूल्हे के घर-गाँव व पानी के स्रोत आदि के आसपास पेड़ लगाए गए, यह आन्दोलन स्वतः स्फूर्त रूप से आगे बढ़ता गया और देश-विदेश में मशहूर हो गया। इसी तरह पौड़ी के दूधातोली इलाके में सचिदानंद भारती ने वर्षाजल के संग्रहण की चाल-खाल (तालाब) की पुरानी परम्परा को आन्दोलन की तरह आगे बढ़ाया। यह अभियान ‘पाणी राखो’ के नाम से मशहूर हो रहा है।
कुछ लोग ‘चिपको आन्दोलन’ को सिर्फ पेड़ बचाने के आन्दोलन के रूप में पहचानते हैं, किन्तु इस आन्दोलन का यह नारा आन्दोलन की व्यापकता प्रस्तुत करता है-
क्या हैं जंगल के उपकार-मिट्टी, पानी और बयार।
मिट्टी, पानी और बयार-जिंदा रहने का आधार।
आस्था का पानी कहाँ से आता है
एक बार हमारे इलाके में कुछ महीने का अवर्षण पड़ा। फसलें सूखने लगीं, लोग चिन्तित हुए, आपत में अपनी कुल देवी श्री सुरकंडा देवी के मन्दिर में ढोल-नगाड़े के साथ सारे गाँव के लोग पहुँचे, मैं भी साथ था, तब मेरी उम्र 15-16 साल के आसपास थी, मैंने सुना था, देवी माँगने पर बारिश देती है, किन्तु आसमान साफ था, बारिश कैसे होगी? मैं समझ नहीं पा रहा था, रात को गाँव के लोगों ने मन्दिर के पास सूखा तालाब खोदा और देवी का आह्वान किया- भगवती तू हमारी इष्ट देवी है, हमारी फसलें सूख गई हैं, पानी की बूँद पीने के लिये नहीं है, मन्दिर की मरम्मत कैसे होगी? जब तक बारिश नहीं होगी हम घर नहीं जाएँगे।
रात को ढोल-नगाड़े नबत-मंडण के बाद सब सो गए। रात को अचानक बादल कब घिरे? कुछ पता नहीं, किन्तु जब आसमान में जोर की बिजली कड़की, जोर की गर्जना हुई, तो हम जाग गए। जोरदार नहीं, बहुत जोरदार बारिश हुई। बनाया गया सूखा तालाब पानी से भर गया, मन्दिर की अन्दर की टंकियाँ भी लबालब भर गईं, गाँव के लोगों ने मन्दिर की मरम्मत की और खुशी-खुशी से देवी के जयकारे लगाकर घर लौटे, खेत हरे-भरे हुए कूल (नहरों) में पानी आ गया।
(लेखक प्रसिद्ध पर्यावरणविद हैं)
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Post By: RuralWater