पानी के बोटलिंग का धन्धा अन्तत: पानी से वंचित करने का जरिया साबित हो रहा है। इसकी एक ज्वलन्त मिसाल केरल के पालक्काड जिले के प्लाचीमड़ा गाँव की है। यहाँ कोकाकोला कम्पनी ने पानी का बोटलिंग संयन्त्र लगया है। इसके लिए कम्पनी ने 300 से 600 फीट गहरे 60 बोरवेल खोदे हैं और प्रतिदिन 15 लाख लीटर पानी जमीन से खींच रही है। इससे यहाँ कुएँ, पोखर, दो बड़े जलाशय और धान के खेत सब सूख चले हैं। इससे गाँव के 300 आदिवासियों पर एक नया संकट आ गया है। ताजा खबर है कि बोतलबन्द पानी के धन्धे में कोकाकोला कम्पनी ने आखिरकार पारले कम्पनी को मात दे दी है। जुलाई, 2002 में हुए सर्वेक्षण के मुताबिक कोकाकोला इण्डिया की 'किनले’ छाप पानी की बोतलों का कुल बिक्री में हिस्सा 35.1 प्रतिशत हो गया और वह नम्बर एक पर आ गई है। पारले कम्पनी की ‘बिसलेरी' का हिस्सा 34.4 प्रतिशत रह गया है। पेप्सी कम्पनी की बोतल ‘एक्वाफिना’ की बिक्री 12.4 प्रतिशत पर तीसरे नम्बर पर है।
कोकाकोला और पेप्सी, दोनों अमेरीका की बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ हैं। शीतल पेय बेचते-बेचते उन्हें बोतलों में पानी भरकर बेचने का धन्धा बहुत फायदे का लगा और वे भारत में इस धन्धे में कूद पड़ी। उनके मुनाफों को देखकर अन्य विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की भी लार टपक रही है। हिन्दुस्तान लीवर, एवियन, गिनेस यूडीवी, शॉ वालेस आदि अनेक कम्पनियाँ भी इस धन्धे में कूद पड़ी हैं या कूदने की तैयारी कर रही हैं। ऐसी हालत में पारले की क्या औकात? रमेश चौहान ने 'बिसलेरी’ और उसके भाई ने 'बेली' छाप बोतलों में पानी भरकर खूब बेचा और खूब कमाया। लेकिन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आगे वे टिक नहीं सके। इसीलिए उन्हें शीतल पेय का अपना स्थापित धन्धा भी कोकाकोला को बेचना पड़ा। कोकाकोला ने यहाँ भी वही तरीके अपनाए हैं, जो बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ किसी देश के बाजार पर कब्जा करने के लिए अपनाती हैं - बेतहाशा विज्ञापन, आक्रामक और अनैतिक बिक्री संवर्धन, छोटी कम्पनियों का अधिग्रहण आदि। मात्र दो वर्षों में कोकाकोला ने भारत के बोतलबन्द पानी के बाजार पर वर्चस्व जमा लिया है।
बोतलबन्द पानी आज भारत में सबसे तेजी से फलता-फूलता धन्धा है। भले ही बाकी अर्थव्यवस्था में मन्दी छाई हो, सूखा पड़ा हो, भुखमरी हो, लेकिन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने अपनी कमाई का एक नया जरिया खोज लिया है। पानी भारत का, मुनाफा विदेशी कम्पनियों का। मुफ्त पानी को बोतल में बन्द करके दस रुपए में बेचने जैसा मुनाफेवाला धन्धा कोई और नहीं हो सकता। इसे ही कहते हैं व्यावसायिक बुद्धि व कौशल, जिसकी भारतवासियों में कमी है। दो वर्ष पहले 500 करोड़ रुपये की पानी की बोतलें बिक रही थीं, अब अन्दाज है कि यह बिक्री 1200 करोड़ रुपये पर पहुँच गई है। पहले इसका बाजार हर साल 100 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ रहा था, अभी भी 45 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ रहा है। जबकि भारत के औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर मात्र 3 प्रतिशत है।
पानी के पाउच का धन्धा इसके अतिरिक्त है, जिसमें ज्यादातर छोटे, स्थानीय व गैरकानूनी खिलाड़ी हैं। इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने माजा, फ्रूटी, रिमझिम आदि अनेक पैकेटबन्द जूस भी निकाले हैं; उनका भी धन्धा अच्छे मुनाफे में चल रहा है।
पिछले चार-पाँच सालों में पानी की बोतलों और पानी के पाउच का धन्धा अचानक कहाँ से आ गया, कैसे इतना फैल गया, यह एक रहस्य लगता है। लेकिन खोजबीन करेंगे तो इसके पीछे विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व व्यापार संगठन जैसे बड़े खिलाड़ियों की सोची-समझी योजना और नीतियाँ दिखाई देंगी। पानी के निजीकरण की एक मुहिम उन्होंने चलाई है। शहर हो या गाँव - सबको सस्ता, साफ और सुलभ पानी देना सरकार की जिम्मेदारी नहीं है - यह बात कई तरीकों से उन्होंने फैलाई है। सरकार सस्ता पानी न दे, इसके लिए अनुदान न दे, इससे सरकारों का घाटा बढ़ रहा है … ये दलीलें उन्होंने दी है। पानी के धन्धे में विदेशी पूँजी व विदेशी कम्पनियों के लिए कोई रोक-टोक नहीं होनी चाहिए, इसकी वकालत भी उन्होंने की है। भारत सरकार द्वारा घोषित नई जल-नीति भी घुमा-फिराकर इसी राह पर चल रही है।
लेकिन, पानी की बोतलों और पाउच का धन्धा बढ़ाने का श्रेय सबसे ज्यादा भारतीय रेलवे को है। रेलवे स्टेशनों पर पानी की व्यवस्था दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है। गर्मी के दिनों में स्टेशन पर रेलगाड़ी रुकने पर यात्रियों की भीड़ पानी की तलाश में इधर से उधर भागती देखी जा सकती है। कई बार तो उसी वक्त नलों में पानी बन्द हो जाता है। मजबूर होकर यात्रियों को पानी की बोतलें व पाउच खरीदने पड़ते है। बोतलबन्द पानी की कम्पनियों और रेलवे अधिकारियों के बीच सांठगांठ की सम्भावना से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है।
अपने यात्रियों को पानी उपलब्ध कराना रेलवे की जिम्मेदारी है। रेलवे चाहे तो मामूली-से अतिरिक्त खर्च और उद्यम से सभी यात्रियों को पानी उपलब्ध करा सकती है। गर्मी के दिनों में स्थानीय नागरिकों व व्यापारियों के संगठनों और समाजसेवी संस्थाओं की मदद से प्याऊ खोले जा सकते हैं। रेलगाड़ियों के डिब्बों में 25 पैसे में एक गिलास पानी देने के लिए लाइसेन्स दिए जा सकते हैं और पानी की स्वच्छता व शुद्धता पर रेलवे अधिकारी निगरानी रख सकते हैं। किन्तु इन सब विकल्पों पर विचार करने के बजाय रेल मन्त्री ने सन 2002 के बजट में स्वयं रेलवे द्वारा पानी के पाउच पैक करने की घोषणा की। नीतीश कुमार भी बोतलों और पाउच की संस्कृति को ही बढ़ावा देना चाहते हैं और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के साथ पानी के धन्धे में शामिल होना चाहते हैं।
देश की नीतियाँ बनाने वाले लोग, जो वातानुकूलित कमरों में रहते हैं, इस अहम प्रश्न को भुला देते हैं कि पैसे वाला तो बोतल या पाउच खरीदकर पानी पी लेगा, लेकिन गरीब आदमी का क्या होगा? जिसके लिए दो जून की रोटी जुटाना मुश्किल है, उसे क्या पानी भी खरीदकर पीना पड़ेगा? क्या पानी भी दूध के भाव बिकेगा? एक मध्यमवर्गीय परिवार को भी शुद्ध व साफ पानी के लिए अपने बजट का एक हिस्सा हड़पने का मौका विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को क्यों देना पड़े?
फिर जिसे साफ, शुद्ध और खनिज लवणों से युक्त 'मिनरल' पानी बताया जा रहा है वह कहाँ तक सच है? ज्यादातर कम्पनियाँ तो कहीं भी बोरवेल करके पानी निकाल रही हैं। अनेक बोटलिन्ग संयन्त्र बगैर उचित लाइसेन्स के डाल लिये गए हैं। मसलन, सिर्फ दिल्ली में 300 गैर-लाइसेन्सी पानी बोटलिंग संयन्त्र हैं और दिल्ली नगर निगम का कहना है कि उसने सिर्फ पाँच मिनरल वाटर निर्माताओं को लाइसेन्स दिए हैं। पानी पाउच तो एक गृह-उद्योग बन गया है जिस पर कोई निगरानी नहीं है और उसकी शुद्धता की कोई गारण्टी नहीं है।
प्रश्न और भी हैं। पहले ही प्लास्टिक व पॉलीथिन के बढ़ते हुए कचरे की समस्या गम्भीर रूप धारण कर चुकी है। पानी की बोतलों और पन्नियों के इस नए कचरे से वह और विकराल होगी। इससे देश कैसे निपटेगा?
पानी के बोटलिंग का धन्धा अन्तत: पानी से वंचित करने का जरिया साबित हो रहा है। इसकी एक ज्वलन्त मिसाल केरल के पालक्काड जिले के प्लाचीमड़ा गाँव की है। यहाँ कोकाकोला कम्पनी ने पानी का बोटलिंग संयन्त्र लगया है। इसके लिए कम्पनी ने 300 से 600 फीट गहरे 60 बोरवेल खोदे हैं और प्रतिदिन 15 लाख लीटर पानी जमीन से खींच रही है। इससे यहाँ कुएँ, पोखर, दो बड़े जलाशय और धान के खेत सब सूख चले हैं। इससे गाँव के 300 आदिवासियों पर एक नया संकट आ गया है। पानी पर गाँव के लोगों का अधिकार होगा या बहुराष्ट्रीय कम्पनी का? देर-सबेर यह प्रश्न कई जगह, अलग-अलग रूपों में उठेगा। पानी एक प्राकृतिक सम्पदा है। यदि उसका संयमित तरीके से उपयोग किया जाए तो उसकी कमी नहीं होगी। लेकिन यदि उसका बाजार बन जाए और वह देशी-विदेशी कम्पनियों के मुनाफे की चीज बन जाए तो वह आम लोगों की पहुँच से दूर होने लगेगा और उसको लेकर टकराव पैदा होगा। सरकार तो बेशर्मी से पूरी तरह विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के साथ खड़ी हो गई है; देश के जागरूक लोग किस तरफ होंगे, यह फैसला उनको करना है।
कोकाकोला और पेप्सी, दोनों अमेरीका की बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ हैं। शीतल पेय बेचते-बेचते उन्हें बोतलों में पानी भरकर बेचने का धन्धा बहुत फायदे का लगा और वे भारत में इस धन्धे में कूद पड़ी। उनके मुनाफों को देखकर अन्य विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की भी लार टपक रही है। हिन्दुस्तान लीवर, एवियन, गिनेस यूडीवी, शॉ वालेस आदि अनेक कम्पनियाँ भी इस धन्धे में कूद पड़ी हैं या कूदने की तैयारी कर रही हैं। ऐसी हालत में पारले की क्या औकात? रमेश चौहान ने 'बिसलेरी’ और उसके भाई ने 'बेली' छाप बोतलों में पानी भरकर खूब बेचा और खूब कमाया। लेकिन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आगे वे टिक नहीं सके। इसीलिए उन्हें शीतल पेय का अपना स्थापित धन्धा भी कोकाकोला को बेचना पड़ा। कोकाकोला ने यहाँ भी वही तरीके अपनाए हैं, जो बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ किसी देश के बाजार पर कब्जा करने के लिए अपनाती हैं - बेतहाशा विज्ञापन, आक्रामक और अनैतिक बिक्री संवर्धन, छोटी कम्पनियों का अधिग्रहण आदि। मात्र दो वर्षों में कोकाकोला ने भारत के बोतलबन्द पानी के बाजार पर वर्चस्व जमा लिया है।
बोतलबन्द पानी आज भारत में सबसे तेजी से फलता-फूलता धन्धा है। भले ही बाकी अर्थव्यवस्था में मन्दी छाई हो, सूखा पड़ा हो, भुखमरी हो, लेकिन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने अपनी कमाई का एक नया जरिया खोज लिया है। पानी भारत का, मुनाफा विदेशी कम्पनियों का। मुफ्त पानी को बोतल में बन्द करके दस रुपए में बेचने जैसा मुनाफेवाला धन्धा कोई और नहीं हो सकता। इसे ही कहते हैं व्यावसायिक बुद्धि व कौशल, जिसकी भारतवासियों में कमी है। दो वर्ष पहले 500 करोड़ रुपये की पानी की बोतलें बिक रही थीं, अब अन्दाज है कि यह बिक्री 1200 करोड़ रुपये पर पहुँच गई है। पहले इसका बाजार हर साल 100 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ रहा था, अभी भी 45 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ रहा है। जबकि भारत के औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर मात्र 3 प्रतिशत है।
पानी के पाउच का धन्धा इसके अतिरिक्त है, जिसमें ज्यादातर छोटे, स्थानीय व गैरकानूनी खिलाड़ी हैं। इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने माजा, फ्रूटी, रिमझिम आदि अनेक पैकेटबन्द जूस भी निकाले हैं; उनका भी धन्धा अच्छे मुनाफे में चल रहा है।
पिछले चार-पाँच सालों में पानी की बोतलों और पानी के पाउच का धन्धा अचानक कहाँ से आ गया, कैसे इतना फैल गया, यह एक रहस्य लगता है। लेकिन खोजबीन करेंगे तो इसके पीछे विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व व्यापार संगठन जैसे बड़े खिलाड़ियों की सोची-समझी योजना और नीतियाँ दिखाई देंगी। पानी के निजीकरण की एक मुहिम उन्होंने चलाई है। शहर हो या गाँव - सबको सस्ता, साफ और सुलभ पानी देना सरकार की जिम्मेदारी नहीं है - यह बात कई तरीकों से उन्होंने फैलाई है। सरकार सस्ता पानी न दे, इसके लिए अनुदान न दे, इससे सरकारों का घाटा बढ़ रहा है … ये दलीलें उन्होंने दी है। पानी के धन्धे में विदेशी पूँजी व विदेशी कम्पनियों के लिए कोई रोक-टोक नहीं होनी चाहिए, इसकी वकालत भी उन्होंने की है। भारत सरकार द्वारा घोषित नई जल-नीति भी घुमा-फिराकर इसी राह पर चल रही है।
लेकिन, पानी की बोतलों और पाउच का धन्धा बढ़ाने का श्रेय सबसे ज्यादा भारतीय रेलवे को है। रेलवे स्टेशनों पर पानी की व्यवस्था दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है। गर्मी के दिनों में स्टेशन पर रेलगाड़ी रुकने पर यात्रियों की भीड़ पानी की तलाश में इधर से उधर भागती देखी जा सकती है। कई बार तो उसी वक्त नलों में पानी बन्द हो जाता है। मजबूर होकर यात्रियों को पानी की बोतलें व पाउच खरीदने पड़ते है। बोतलबन्द पानी की कम्पनियों और रेलवे अधिकारियों के बीच सांठगांठ की सम्भावना से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है।
अपने यात्रियों को पानी उपलब्ध कराना रेलवे की जिम्मेदारी है। रेलवे चाहे तो मामूली-से अतिरिक्त खर्च और उद्यम से सभी यात्रियों को पानी उपलब्ध करा सकती है। गर्मी के दिनों में स्थानीय नागरिकों व व्यापारियों के संगठनों और समाजसेवी संस्थाओं की मदद से प्याऊ खोले जा सकते हैं। रेलगाड़ियों के डिब्बों में 25 पैसे में एक गिलास पानी देने के लिए लाइसेन्स दिए जा सकते हैं और पानी की स्वच्छता व शुद्धता पर रेलवे अधिकारी निगरानी रख सकते हैं। किन्तु इन सब विकल्पों पर विचार करने के बजाय रेल मन्त्री ने सन 2002 के बजट में स्वयं रेलवे द्वारा पानी के पाउच पैक करने की घोषणा की। नीतीश कुमार भी बोतलों और पाउच की संस्कृति को ही बढ़ावा देना चाहते हैं और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के साथ पानी के धन्धे में शामिल होना चाहते हैं।
देश की नीतियाँ बनाने वाले लोग, जो वातानुकूलित कमरों में रहते हैं, इस अहम प्रश्न को भुला देते हैं कि पैसे वाला तो बोतल या पाउच खरीदकर पानी पी लेगा, लेकिन गरीब आदमी का क्या होगा? जिसके लिए दो जून की रोटी जुटाना मुश्किल है, उसे क्या पानी भी खरीदकर पीना पड़ेगा? क्या पानी भी दूध के भाव बिकेगा? एक मध्यमवर्गीय परिवार को भी शुद्ध व साफ पानी के लिए अपने बजट का एक हिस्सा हड़पने का मौका विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को क्यों देना पड़े?
फिर जिसे साफ, शुद्ध और खनिज लवणों से युक्त 'मिनरल' पानी बताया जा रहा है वह कहाँ तक सच है? ज्यादातर कम्पनियाँ तो कहीं भी बोरवेल करके पानी निकाल रही हैं। अनेक बोटलिन्ग संयन्त्र बगैर उचित लाइसेन्स के डाल लिये गए हैं। मसलन, सिर्फ दिल्ली में 300 गैर-लाइसेन्सी पानी बोटलिंग संयन्त्र हैं और दिल्ली नगर निगम का कहना है कि उसने सिर्फ पाँच मिनरल वाटर निर्माताओं को लाइसेन्स दिए हैं। पानी पाउच तो एक गृह-उद्योग बन गया है जिस पर कोई निगरानी नहीं है और उसकी शुद्धता की कोई गारण्टी नहीं है।
प्रश्न और भी हैं। पहले ही प्लास्टिक व पॉलीथिन के बढ़ते हुए कचरे की समस्या गम्भीर रूप धारण कर चुकी है। पानी की बोतलों और पन्नियों के इस नए कचरे से वह और विकराल होगी। इससे देश कैसे निपटेगा?
पानी के बोटलिंग का धन्धा अन्तत: पानी से वंचित करने का जरिया साबित हो रहा है। इसकी एक ज्वलन्त मिसाल केरल के पालक्काड जिले के प्लाचीमड़ा गाँव की है। यहाँ कोकाकोला कम्पनी ने पानी का बोटलिंग संयन्त्र लगया है। इसके लिए कम्पनी ने 300 से 600 फीट गहरे 60 बोरवेल खोदे हैं और प्रतिदिन 15 लाख लीटर पानी जमीन से खींच रही है। इससे यहाँ कुएँ, पोखर, दो बड़े जलाशय और धान के खेत सब सूख चले हैं। इससे गाँव के 300 आदिवासियों पर एक नया संकट आ गया है। पानी पर गाँव के लोगों का अधिकार होगा या बहुराष्ट्रीय कम्पनी का? देर-सबेर यह प्रश्न कई जगह, अलग-अलग रूपों में उठेगा। पानी एक प्राकृतिक सम्पदा है। यदि उसका संयमित तरीके से उपयोग किया जाए तो उसकी कमी नहीं होगी। लेकिन यदि उसका बाजार बन जाए और वह देशी-विदेशी कम्पनियों के मुनाफे की चीज बन जाए तो वह आम लोगों की पहुँच से दूर होने लगेगा और उसको लेकर टकराव पैदा होगा। सरकार तो बेशर्मी से पूरी तरह विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के साथ खड़ी हो गई है; देश के जागरूक लोग किस तरफ होंगे, यह फैसला उनको करना है।
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