पानी बीच खगड़िया प्यासा

2007 में बाढ़ के कारण खगड़िया जिले में जल संकट
2007 में बाढ़ के कारण खगड़िया जिले में जल संकट


अनुवाद - संजय तिवारी

2007 में बाढ़ के कारण खगड़िया जिले में जल संकटखगड़िया सात नदियों की ससुराल है और ससुराल छोड़कर नदियाँ कहीं दूर न चली जाएँ इसलिये सरकारी योजनाओं ने उन्हें बाँधकर रखने की भरपूर कोशिश की है। कोसी, कमला बलान, करेश, बागमती, बूढ़ी गंडक, अधवारा समूह और गंगा। इन सात नदियों पर आठ बाँध बनाए गए हैं।

बागमती पर बना बुढ़वा बाँध और कराची बदला, कोसी पर बदला नागरपारा, गंगा पर गोगरी नारायणपुर, बूढ़ी गंडक पर बूढ़ी गंडक बाँध, कोसी पर बना कोसी बाँध और बागमती की ही एक और सहायक नदी पर बना नगर सुरक्षा बाँध।

सात नदियों पर बने आठ बाँधों के कारण खगड़िया में जल ही जीवन नहीं है, बल्कि जल में ही जीवन है। चारोंं तरफ पानी से घिरा हुआ लेकिन प्यासा। सब तरफ पानी है लेकिन पीने के लिये पानी नहीं है। जून मध्य से लेकर सितम्बर मध्य तक चारों तरफ पानी-ही-पानी होता है लेकिन पानी के बीच पीने के पानी का अकाल रहता है। जिले में पीने के पानी का मुख्य स्रोत नदियाँ और हैण्डपम्प हैं। बाढ़ के दौरान नदियाँ तो जलमग्न होती ही हैं नलकूप, हैण्डपम्प और कुएँ सब जलमग्न हो जाते हैं। नतीजा, या तो प्यासे रहिए या फिर पानी पीकर बीमार हो जाइए। पानी का बोझ कर्ज के रूप में साल-दर-साल लोगों के सिर चढ़ता जाता है।

 

 

नदी की ताकत


नदी किसी बताए हुए रास्ते पर नहीं चलती है, वह अपना रास्ता खुद बनाती है और जैसे चाहती है वैसे बहती है। इस बहाव के दौरान वह बहुत कुछ बहाकर ले आती है और बहुत कुछ बहाकर ले भी जाती है। जो बहाकर ले जाती है उसमें घर, मकान, खेत खलिहान कुछ भी हो सकते हैं लेकिन जो बहाकर लाती है वह सिर्फ गाद होती है। इस मामले में कोसी के नाम तो विश्व रिकॉर्ड ही दर्ज है। 19 क्यूबिक मीटर प्रति हेक्टेयर की दर से वह हर साल गाद लाती है और छोड़कर आगे चली जाती है।

नदी में गाद की समस्या तब से है जब से नदी है लेकिन स्थानीय लोगों ने अपने तरीके से उसका रास्ता निकाल लिया था। वह था, नदी के साथ सहजीवन। नदी में बाढ़ आती है, हर साल आती है और अपने समय पर ही आती है तो स्थानीय लोग उसी के मुताबिक अपनी जीवनशैली को ढालकर चलते हैं। जब नदी में बाढ़ आती है तो नदी को बढ़ने का पूरा रास्ता दे दिया जाता है।

आदमी नदी के रास्ते से हट जाता है और जहाँ-जहाँ तक नदी फैल सकती है फैलती जाती है। फिर जब बाढ़ का पानी आता है तो आदमी बिना खाद के सिर्फ बीज के साथ लौटता है और गाद की ताकत से अच्छी फसल ले लेता है। आदमी ने जल से जीवन के साथ-साथ जल में जीवन की कला विकसित कर ली थी। नतीजतन, स्थानीय लोगों के लिये बाढ़ कभी कोई आपदा नहीं रही। वह एक आगंतुक है जो आती है और चली जाती है। नदी जो बहाकर लाती है उसे भी स्वीकार कर लिया और जो बहाकर ले जाती है उसे भी। गाद की समस्या को उन्होंंने खेती के लिये अच्छे अवसर के रूप में तब्दील कर लिया।

लेकिन नई पढ़ाई और नई समझ ऐसे नहीं चलने वाली थी। 1955 में स्थानीय लोगों के विकास के लिये जो कदम उठाए गए, उससे सब कुछ बदल गया। जो समाज सदियों से बाढ़ के बीच जीता आ रहा था उसके और नदी के बीच बाँध खड़ा कर दिया गया। सरकार ने बाढ़ को एक ‘गम्भीर समस्या’ माना और उस समस्या का समाधान तटबन्ध के रूप में निकाला।

तात्कालिक तौर पर ही सही लेकिन तटबन्ध स्थानीय लोगों का समाधान बनकर आये। अभी तक नदी को फैलने का अवसर दिया जाता था, अब नदी को बाँधकर उसे तेजी से बह जाने का मौका दिया जाने लगा। अब तक कई ऐसे शोध और अध्ययन हो चुके हैं कि नदी का फैलाव तांडव नहीं था, तटबन्ध तांडव है। तटबन्धों ने नदियों की पूरी व्यवस्था को तहस-नहस कर दिया है। तटबन्धों ने नदियों को उनकी स्वाभाविक गति से बहने पर विराम लगा दिया। तटबन्धोंं के कारण सहायक नदियों का पानी ब्लाक हो गया और अभी तक नदियाँ अपने प्राकृतिक बहाव के कारण जो गाद दूर-दराज तक फैला देती थीं वह एक सीमित इलाके में इकट्ठा होने लगा।

तटबन्धों वाले विकास ने अस्सी लाख लोगोंं को बुरी तरह से प्रभावित किया। 1984 से बाढ़ पर काम कर रहे बाढ़ मुक्ति अभियान के संयोजक दिनेश कुमार मिश्र कहते हैं, ‘मनुष्य के इस तटबन्धों वाले हस्तक्षेप ने 8.36 लाख हेक्टेयर जमीन को स्थायी रूप से पानी में डुबा दिया। यह उत्तर बिहार के कुल क्षेत्रफल का 16 फीसदी है। लेकिन इससे भी ज्यादा भयावह बात यह है कि अब सब कुछ नौकरशाहों के हाथ में है। पचास के दशक से लेकर आज तक हजारों करोड़ रुपए तटबन्धों को बनाने और उनके रख-रखाव के नाम पर खर्च किये जा चुके हैं और हालात बद-से-बदतर ही हुए हैं। अब तक स्थानीय लोग अपनी सूझ-बूझ से नदी के साथ सामंजस्य बिठाकर जी रहे थे लेकिन नौकरशाही ने पूँजी की लालच में इस सामंजस्य को तोड़ दिया। हर साल बाढ़, हर साल बजट। मानोंं बाढ़ आना अब सरकारी अधिकारियों के लिये जरूरी हो गया है। सरकार के प्रयासों ने न केवल स्थानीय लोगों को कर्ज के बोझ तले दबा दिया है बल्कि पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र को भी भारी नुकसान पहुँचा है।

 

 

 

 

पानी बीच पियासा


चारों तरफ पानी-ही-पानी लेकिन पीने का पानी नहीं। अब आदमी या तो गन्दा पानी पिये और बीमार पड़ जाये या फिर पीने लायक पानी पर इतना खर्च करे कि कर्ज में डूब जाये। जो खर्च कर सकते हैं उनके लिये तो पानी उपलब्ध भी हो जाता है लेकिन जो खर्च नहीं कर सकते वो उसी नदी का पानी पीते हैं जो अपने साथ न जाने क्या-क्या बहाकर लाती है। स्थानीय लोग मुख्य रूप से पीने के पानी के लिये चापाकल पर ही निर्भर रहते हैं।

उत्तर बिहार में 77 फीसदी लोग चापाकल से पानी पीते हैं जबकि 9 फीसदी लोग पीने के पानी के लिये कुओं पर निर्भर हैं। पूरे इलाके में या तो कुछ घरों के बीच में एक चापाकल लगा हुआ है या फिर कुछ घर ऐसे भी हैं जिनके अपने चापाकल हैं। सरकार के पास बाढ़ के वक्त पीने के पानी के लिये सिर्फ एक समाधान है, वह है चापाकल। लेकिन बाढ़ के वक्त ये चापाकल भी या तो डूब जाते हैं या फिर गाद से भर जाते हैं।

खगड़िया जिले के चतर पंचायत के कुएँ का पुनर्निर्माण करते ग्रामीणबिहार पब्लिक हेल्थ एंड इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट ने अपने अध्ययन में पाया कि भूजल के अधिक दोहन के कारण चापाकल से निकले पानी में हैवी मेटल और बैक्टीरिया भी पाया जाता है जो सेहत के लिये हानिकारक है। बिहार के 12 जिलों में किये गए सर्वे में पाया गया कि यहाँ भूजल में औसत 500 पीपीबी आर्सेनिक मौजूद है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन कहता है कि पानी में 10 पीपीबी से अधिक आर्सेनिक सेहत के लिये नुकसानदेह है। भारत में स्वास्थ्य एजेंसियों ने पानी में आर्सेनिक की मात्रा 50 पीपीबी निर्धारित कर रखा है लेकिन उत्तर बिहार में यह निर्धारित मात्रा से भी दस गुना ज्यादा है।

इसका नतीजा यह हुआ है कि उत्तर बिहार में कुछ बीमारियों को स्थायी घर मिल गया है। पेट की बीमारी, डायरिया, डिसेंट्री, मलेरिया, फाइलेरिया, काला ज्वर, पीलिया और टायफाइड जैसी बीमारियाँ आम हैं। दुखद ये है कि इन बीमारियों का सबसे ज्यादा शिकार छोटे नवजात बच्चे होते हैं।

उत्तर बिहार में मध्य जून से आधे सितम्बर तक मानसून का मौसम रहता है। इस दौरान उत्तर बिहार में औसतन 1200 मिलीमीटर बारिश होती है। नतीजा, नदियाँ उफन पड़ती हैं। उत्तर बिहार में जहाँ मौसम इतना मेहरबान है वहीं पानी यहाँ अमीरी नहीं, गरीबी लेकर आता है। उत्तर बिहार में रहने वाली ग्रामीण आबादी देश में सबसे बड़ी ग्रामीण आबादी में से एक है, लेकिन गरीब है।

पहले मानसून का कहर फिर मानसून के बाद आने वाले बीमारियों का संकट। यहाँ जिन्दगी इन्हीं दो पाटों के बीच पिसती चली जाती है। फसलों की बर्बादी, मिट्टी का कटान और गाँवों का टापू में तब्दील हो जाना हर साल जैसे सामान्य सी बात हो। वर्ल्ड कमीशन ऑन डैम की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में बाढ़ से प्रभावित होने वाले लोगोंं में 56.6 फीसदी बिहार से हैं और बिहार में कुल बाढ़ प्रभावित लोगों में 76 फीसदी उत्तर बिहार से हैं।

 

 

 

 

मेघ पाईन अभियान


बाढ़ की इसी विभीषिका के बीच मेघ पाईन अभियान के कदम पड़ते हैं। मेघ पाईन अभियान बहुत सामान्य से तरीके से वर्षाजल को रोककर उसे पीने लायक बनाता है और यही कला लोगों को सिखाता है। मेघ पाईन अभियान का तरीका इस इलाके के लिये नया जरूर है और अब से पहले इसके बारे में लोग बिल्कुल नहीं जानते थे लेकिन तरीका सम्भावनाओं से भरा हुआ है।

मेघ पाईन अभियान स्थानीय लोगों या संस्थाओं की मदद से काम करता है और लोगोंं तक बारिश में पानी सहेजने की विधि सिखाता है।

खगड़िया में मेघ पाईन अभियान ने समता नामक गैर सरकारी संगठन के साथ तालमेल किया और पानी के प्रति जागरुकता पैदा करने के लिये गोष्ठियों और जल संवाद यात्राओं का सहारा लिया। स्थानीय लोगों ने पहले तो इसके प्रति कोई खास रुचि नहीं दिखाई लेकिन धीरे-धीरे वर्षाजल संरक्षण का महत्त्व लोगों को समझ में आने लगा।

आमतौर पर ग्रामीण इलाकों के घरों में पानी के इन्तजाम का काम महिलाओं के जिम्मे होता है। छतर पंचायत के दिघनी गाँव में भी महिलाओं के ही जिम्मे यह काम था कि वो खाना बनाने और पीने के पानी का इन्तजाम करें। छतर पंचायत में हर साल बागमती का प्रवेश होता है और बागमती बिना तांडव किये वापस नहीं लौटती है। मेघ पाईन अभियान ने यहाँ काम किया और महिलाओं को बारिश के दिनों में पानी के संरक्षण की विधि सिखाई। गाँव पंचायत की गीता देवी और मनकी देवी का कहना है कि हमें भरोसा है कि यह पानी उन्हें गंडमाला नहीं होगा। इस तरीके ने हमें काफी राहत दी है।

वाहेला खातून मेघ पाईन अभियान की कार्यकर्ता हैं। वो लोगोंं को बारिश के दिनों में पानी बचाने का तरीका सिखाती हैं। पहले तो लोगों ने उनसे सीखने की बजाय उनका विरोध किया और कोई रुचि नहीं दिखाई लेकिन बाद में जब लोगों ने उनसे सीखा और उन्हें उसके फायदे मिलने लगे तो ग्रामीण लोग उन्हें प्यार से वर्षा रानी बुलाने लगे। वाहेला खातून कहती हैं, “लोगों ने उसी पानी से खिचड़ी बनाकर खाया और हमें भी खिलाया।”

मेघ पाईन अभियान के फील्ड एसोशिएट नरेन्द्र सिंह बताते हैं कि एक बार चौटम ब्लॉक में स्थानीय लोगों को इकट्ठा किया गया। वहाँ पीने के पानी के बारे में बात हुई। बातचीत के दौरान स्थानीय लोगों को यह बात समझ में आई कि पीने के पानी का स्वास्थ्य से कितना गहरा रिश्ता जुड़ा हुआ है। उस बैठक के दौरान पीने के पानी के प्रदूषण और उससे जुड़ी हुई बीमारियों के बारे में चर्चा हुई। यहाँ हमने उन्हें पीने के पानी की शुद्धता के महत्त्व को समझाया। इससे पहले पीने वाले पानी की शुद्धता को लेकर किसी को कोई अन्दाज नहीं था, लेकिन अब लोग सार्वजनिक बैठकों में इसके महत्त्व को स्वीकार करने लगे थे। यह हमारी बहुत बड़ी सफलता थी।

स्थानीय मैथिल भाषा में मेघ पाईन का मतलब होता है बारिश का पानी। मेघ पाईन अभियान का मतलब बारिश से मिलने वाले पानी का अभियान। इस अभियान के तहत वर्षाजल के सुरक्षित इस्तेमाल की विधि सिखाई जाती है। मेघ पाईन अभियान लोगों को बताता है कि कैसे वर्षाजल को पीने योग्य या घरेलू कामकाज के लिये सुरक्षित तरीके से इस्तेमाल किया जा सकता है। संक्रमित भूजल से होने वाली बीमारियों के बारे में लोगों को जागरूक किया जाता है। सामुदायिक स्तर पर पानी के प्रबन्धन को प्रोत्साहित किया जाता है। बाढ़ प्रभावित इलाकों में स्वच्छता के लिये नई तकनीकी के इस्तेमाल के बारे में बताया जाता है और खेती के लिये ऐसी तकनीकों पर चर्चा की जाती है जिससे बाढ़ के प्रभाव से होने वाला नुकसान कम-से-कम हो।

मेघ पाईन अभियान इस वक्त बिहार के पाँच जिलों में चल रहा है। ये जिले हैं, सुपौल, सहरसा, खगड़िया, मधुबनी और पश्चिमी चम्पारण। इन पाँच जिलों में मेघ पाईन अभियान पाँच स्थानीय संगठनों के साथ जुड़ा हुआ है। ये संगठन हैं, ग्रामशील, कोसी सेवा सदन, घोघरदीघा प्रखण्ड स्वराज्य विकास संघ, समता और वाटर एक्शन। मेघ पाईन अभियान को शुरू से ही बंगलौर की दातव्य संस्था अर्घ्यम मदद कर रही है।

लेकिन मेघ पाईन अभियान बाहर से फंड लेकर काम करने की बजाय स्थानीय लोगों के स्वयं सक्षम होने की वकालत करती है। मेघ पाईन अभियान का मानना है कि इस तरह से काम करने से लोग अपने बारे में खुद निर्णय लेने में सक्षम हो जाते हैं।

स्वदेशी निर्मित फिल्टरअभियान लोगों को सक्षम बनाने की दिशा में ही काम कर रहा है। वह चाहता है कि लोग खुद अपनी जरूरतों को अपने ही संसाधनों से पूरा करने में समर्थ हों। इस काम में बाहर से किसी प्रकार की तकनीकी या पूँजी की मदद लेने की बजाय स्थानीय तकनीकी और स्थानीय संसाधनों के इस्तेमाल पर ही जोर दिया जाता है। इसीलिये मेघ पाईन अभियान न तो धन वितरण करता है और न ही बाहर से लाई गई कोई तकनीकी यहाँ लोगों को देता है। वर्षाजल के संरक्षण और उसकी शुद्धता के लिये स्थानीय संसाधन और तकनीकी के ही इस्तेमाल को प्रोत्साहित करता है।

एक दशक से भी अधिक समय से उत्तर बिहार में सक्रिय मेघ पाईन अभियान का मानना है कि अब देश के दूसरे कई हिस्सों में भी वर्षाजल का इस्तेमाल शुरू हो गया है जो प्रकृति द्वारा दिया गया शुद्धतम उपहार है। उत्तर बिहार में लोगों के साथ मिलकर मेघ पाईन अभियान भूजल, पीने के पानी की गुणवत्ता, खेती के लिये पानी और सबसे बढ़कर समाज के लिये पानी का महत्त्व समझा रहा है।

महिषी उत्तरी पंचायत सहित आसपास की पाँच पंचायतों में महज दो प्रतिशत लोगों के पास पीने का शुद्ध पानी उपलब्ध था। यहाँ भूजल में लौह अयस्क की मात्रा इतनी ज्यादा थी कि लोगों के दाँत काले पड़ जाते थे। लेकिन जब मेघ पाईन अभियान के पवन कुमार बिन्द यहाँ काम करने पहुँचे तो पहले उनका विरोध ही हुआ। लोगोंं ने उनकी बात नहीं सुनी। जब उनके साथ आये कार्यकर्ताओं ने खुद वर्षाजल को लोगों को पीकर दिखाया तब लोगों को थोड़ा यकीन होना शुरू हुआ।

मेघ पाईन अभियान से जुड़े रहे आदित्य झा कहते हैं, “जब लोगोंं को महसूस हुआ कि वर्षाजल का पानी पीने से पेट की बीमारियों में काफी कमी आई है तो धीरे-धीरे लोगों का रुझान अपने आप हमारी तरफ बढ़ गया।” सहरसा में ही मेघ पाईन अभियान की कार्यकर्ता कुमकुम देवी बताती हैं, “तिलहर पंचायत में जब लोगों को अनुभव हुआ कि वर्षाजल दूषित नहीं है, बल्कि वह भूजल दूषित है जिसे चापाकल के जरिए निकालकर वो लोग पीते हैं तब उन्होंने मेघ पाईन अभियान को महत्त्व देना शुरू कर दिया।”

सुपौल जिले में बलवा पंचायत के मेघ पाईन अभियान के कार्यकर्ता देवेन्द्र मिश्रा बताते हैं कि महिलाओं ने हमें सबसे ज्यादा सहयोग किया क्योंकि यह महिलाएँ ही होती हैं जो दूर तक जाकर पीने के पानी का इन्तजाम करती हैं। अब जब उन्हें घरेलू काम-काज के लिये उन्हें घर में ही पानी मिलने लगा तो उन्होंने तुरन्त इसे स्वीकार कर लिया।

मेघ पाईन अभियान अब उत्तर बिहार में एक आन्दोलन की शक्ल ले चुका है। पेड़ों पर, दीवारों पर बच्चों की मंडलियों के जरिए वर्षाजल के जरिए पानी की प्यास बुझाने का महत्त्व समझाया जा रहा है। शायद अब उन्हें जल के बीच रहकर प्यासा न रहना पड़े।

 

 

 

 

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