जल परिदृश्य के सर्वेक्षण में लेखक का कहना है कि अब तक इस दिशा में भारतीय प्रयास अधिकतर जल-स्रोतों के विकास पर ही केन्द्रित रहे हैं। जल के कुशल, न्यायोचित और निरन्तर उपयोग पर बहुत ही कम ध्यान दिया गया है। पेयजल का समाज के दुर्बल वर्गों के लिये महत्त्व, निचले स्तर पर उचित जानकारी उपलब्ध कराने में सहकारी और किसान संगठनों की भूमिका, सम्भावित दुष्प्रभावों के निवारण के लिये भूजल के अन्धाधुन्ध इस्तेमाल पर रोक और भू-सतह के जल की घटिया क्वालिटी कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिन पर तत्काल ध्यान दिया जाना जरूरी है। भारत के विकास में जल की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। मैंने पहले भी कहा है कि अब चूँकि सिंचाई योग्य भूमि में वृद्धि रुक गई है इसलिये भारतीय कृषि के विकास के लिये फसल की गहनता और बेहतर प्रौद्योगिकी ही एकमात्र साधन रह गए हैं।
दूसरी ओर, खाद्य सुरक्षा की बढ़ती आवश्यकता, भारत की कृषि सम्बन्धी घरेलू माँग में विविधता, खाद्य फसलों की तुलना में गैर-कृषि फसलों की और अनाज की फसलों के मुकाबले गैर-अनाज फसलों की बढ़ती जरूरतों के कारण माँग में वृद्धि होती रहेगी। फिर कृषि निर्यातों में भी डालर मूल्यों के हिसाब से प्रतिवर्ष 12 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हो रही है तथा यह प्रवृत्ति जारी रहेगी। इसीलिये अधिक फसल लेने तथा नई प्रौद्योगिकी अपनाने में जल ही मूलमंत्र रहेगा।
किसानों को लाभ पहुँचाने के लिये जल प्रबन्ध, सामाजिक संगठन, आर्थिक नीति और प्रौद्योगिकी में हम उतना समन्वय नहीं कर पा रहे हैं जितना किया जाना चाहिए। पेयजल और नुकसानदेह गैर-कृषि उपयोग के बारे में भी यही अनिश्चित रवैया दिखाई पड़ता है। इस दिशा में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी को महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करनी होगी।
भूमि और जल ऐसे महत्त्वपूर्ण संसाधन हैं जिन पर देश का समग्र विकास निर्भर करता है। इस संसाधनों के गहन सम्बन्ध तथा सामाजिक-पारिस्थितिकी प्रणाली के अन्य अंगों के साथ इनकी पारस्परिक निर्भरता के कारण यह और भी आवश्यक है कि किसी भी विकास प्रयास के लिये इन संसाधनों को केन्द्र बनाया जाए। जल-क्षेत्र में अब तक हमारे प्रयास आमतौर पर संसाधन विकसित करने पर ही केन्द्रित रहे हैं।
इसका कुशल, न्यायोचित और निरन्तर उपयोग सुनिश्चित करने पर बहुत ही कम ध्यान दिया गया है। भू-सतह के जलस्रोतों का निर्माण तथा सम्बद्ध सिंचाई नहरों का जाल बिछाना हमारी जल प्रबन्ध नीति का मुख्य आधार रहा है। जहाँ नहरों का पानी नहीं पहुँच सका है, वहाँ भूजल का प्रयोग सिंचाई के लिये किया गया है। एक ओर नहरों के कमान क्षेत्रों में पानी भरने और मिट्टी में नमक की मात्रा बढ़ने की समस्या सामने आ रही है तो दूसरी ओर कई इलाकों में जल-स्तर घटता जा रहा है जिससे एक असामान्य-सी स्थिति उत्पन्न हो गई है।
लगभग 85 लाख हेक्टेयर भूमि को पानी की भराई की समस्या का सामना करना पड़ रहा है और लगभग 242 विकास खण्डों में भूजल के असीमित दोहन के नुकसान भुगतने पड़ रहे हैं। हमारी ज़मीन के बड़े-बड़े टुकड़ों को भू-क्षरण और वनस्पति आवरण के टूटने की दोहरी मार झेलनी पड़ रही है। फलस्वरूप मिट्टी की उर्वरता को भारी नुकसान पहुँच रहा है। वैसे दिलचस्प बात यह है कि जो समस्याओं का रोना रोते रहते हैं उन्हें शायद ही कभी देश में उपलब्ध रचनात्मक समाधानों पर गौर किया हो।
उदाहरण के लिये कई अध्ययनों में पानी के भराव के अनेक ऐतिहासिक मामले दर्ज हैं लेकिन ‘आईजीएनपी’ के दूसरे चरण के लिये ‘वापकोस’ योजना की सफलता की, राष्ट्रीय जल प्रबन्ध परियोजना की सफलता की या फिर सरदार सरोवर परियोजना द्वारा नहर प्रणालियों के उत्कृष्ट प्रबन्ध की सफलता की कहीं भी चर्चा नहीं की गई है।
हाल ही में मेकांग बेसिन में समन्वित तकनीकी आर्थिक नियोजन का एक दिलचस्प मामला मेरी निगाह में आया है। यह मामला भारतीय तकनीकी प्रयास का सराहनीय उदाहरण भी है। अप्रैल, 1996 में मेकांग नदी आयोग और संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ने मिलकर एक विशेषज्ञ बैठक बुलाई थी जिसमें मेकांग बेसिन के लिये दीर्घावधि मूल निर्देशक योजना पर चर्चा होनी थी और इस उद्देश्य से एक कार्य योजना बनाई जानी थी।
चार देशों से नदी घाटी नियोजनकर्ताओं को जिन्हें विशिष्ट योजनाएँ तैयार करने का पर्याप्त अनुभव था, इस बैठक के लिये आमंत्रित किया गया था। इनमें एक आस्ट्रेलियाई था जिसे ‘मुरे डार्लिंग योजना’ प्रस्तुत करनी थी, दूसरा ब्राजिलियन था जिसे ‘साओ पाओलो नदी योजना’ समझानी थी और तीसरा स्पेन का एक विशेषज्ञ था जिसे ‘स्पेनिश राष्ट्रीय जल योजना’ पर चर्चा करनी थी।
जल संसाधन नियोजन के क्षेत्र में सरदार सरोवर नर्मदा योजना की अन्तरराष्ट्रीय मान्यता के मद्देनज़र इस परियोजना की प्रस्तुति के लिये मुझे बुलाया गया था। मैं इस समझौते के तीन पहलुओं की चर्चा करुँगा। पहला यह कि मेकांग नदी के देशों म्यांमार, थाईलैंड, लाओस, वियतनाम, कम्बोडिया और चीन के बीच मेकांग नदी के इस्तेमाल और विकास के बारे में 1993 में एक समझौता हुआ था।
ध्यान रहे कि मेकांग नदी को लेकर बराबर संघर्ष होते रहे हैं तथा कुछ देशों के बीच इस मामले को लेकर निकट अतीत में वास्तव में युद्ध भी हुए हैं। इस समझौते में जल-संसाधन के परिचालन और विकास के नियम मौजूद हैं। समझौते की एक दिलचस्प बात मेकांग के लोगों के जल सम्बन्धी अधिकारों की ब्यौरेवार व्याख्या है।
इसे स्पष्ट करने के लिये तीन उदाहरण पर्याप्त रहेंगे। समझौते में मेकांग बाढ़ अवधि में टोनले साप झील में विपरीत प्रवाह की न्यूनतम आवश्यकता के बारे में एक धारा है। यह एक अत्यन्त दिलचस्प प्रस्ताव है कि नहर में विपरीत प्रवाह के उच्चतम जल प्रवाह के दौर में झील के निवासियों को झील भरने के जल-सम्बन्धी अधिकार के विषय में अन्तरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त है।
कोई दो दशक पूर्व जल-संसाधनों की योजना बनाते समय बारीकियों पर इतना ध्यान देने की जरूरत नहीं समझी जाती थी। जल अधिकारों की उपेक्षा के कई उदाहरण मौजूद हैं जैसे कि गुजरात में चुन्नी काका वैध द्वारा सीपू जल अधिकारों का अत्यन्त ही न्यायसंगत मसला उठाया गया। दूसरा उदाहरण समस्या समाधान के लिये मेकांग समझौते में अपनाया गया त्रि-स्तरीय दृष्टिकोण है। उच्चतम स्तर पर आयोग में सहयोगी देशों के उप-प्रधानमंत्री जैसे उच्चस्तरीय राजनीतिज्ञ मौजूद हैं।
वे समझौते के क्रियान्वयन में आने वाली राजनीतिक समस्याओं का समाधान करते हैं और आयोग के कामकाज की भावी रूपरेखा भी तय करते हैं। दूसरे स्तर पर आयोग में व्यापक योजनाएँ एवं नीतियाँ तैयार करने तथा कार्यक्रम सम्बन्धी ब्यौरे तैयार करने के लिये एक व्यवस्था है। तीसरे स्तर पर वे कार्यान्वयन समूह हैं जो उच्चतम स्तर पर बनाई गई योजनाओं को दूसरे स्तर पर व्यावहारिक रूप दिये जाने के बाद उनके कार्यान्वयन के लिये जिम्मेदार होते हैं।
वैसे हम लोग इन समस्याओं की पेचीदगियों में उलझ कर रह जाते हैं। जल विज्ञान का ही मामला लें। मुझे याद है कि जब मैं एपीसी का अध्यक्ष था और बाद में जब बीआईसीपी का अध्यक्ष बना तब तकनीकी मामलों में न्यायालय तथा अन्य लोगों ने स्वतंत्र तकनीकी समितियों अथवा आयोगों के निष्कर्षों पर कभी अंगुली नहीं उठाई। लेकिन आजकल केन्द्रीय जल आयोग के जल विज्ञान सम्बन्धी निष्कर्षों का सार्वजनिक चर्चाओं में जिस लापरवाही के साथ जिक्र किया जाता है, वह हैरान कर देता है।
जो लोग ‘माफ्ट’ और ‘क्यूसेक’ का अन्तर तक नहीं जानते, वे पानी की उपलब्धता या अनुपलब्धता के बारे में निश्चित फैसले सुनाते हैं जिनके कारण हजारों करोड़ों रुपए का निवेश बेकार पड़ा रह जाता है या उपलब्ध जल का उपयोग बड़ी ही बेतरतीबी से किया जाता है। ऐसे सवालों पर चर्चा के लिये तकनीकी मानक स्थापित करने में एक वैज्ञानिक बैठक की कुछ तो जिम्मेदारी होती है।
सफल नहर प्रबन्ध परियोजनाओं पर निगाह डालने से पता चलता है कि नियंत्रण एवं विनियमन प्रणालियाँ तैयार करने के लिये आर्थिक और कृषि विज्ञानी आँकड़ों का कैसे प्रयोग किया जाता है। काफी अरसे पहले मैंने प्रतिरूपण के जरिए इसका वर्णन किया था और नितिन देसाई समिति ने इसे एक नियोजन मानक के रूप में अपनाया था। फिर भी सॉफ्टवेयर प्रतिरूपण साधनों के ये मानक शायद ही कहीं दिखाई पड़ते हों।
जल संसाधन परियोजनाओं के समर्थन में सामाजिक संगठन का प्रमुख बल इस बात पर होना चाहिए कि नियोजन के सन्दर्भ में विवरण तैयार करें और लाभों का ब्यौरा बनाएँ ताकि उसमें सामाजिक सहयोग की रचनात्मक भूमिका सामने आये। अच्छी जल-संसाधन परियोजनाओं में जन-संगठनों को शामिल करना जरूरी है ताकि न केवल परियोजना की लागत का ईमानदारी से आकलन हो सके बल्कि जल-संसाधनों के विकास के लाभ ग्रामीण एवं शहरी समुदायों के स्तर पर मूर्तरूप से दिखाए जा सकें।बहुत ही कम समूह यह समझते हैं कि मृदा, जलवायु और किसान की आर्थिक प्रतिक्रियाओं के आधार पर प्रदाय प्रणालियाँ विकसित की जा सकती हैं। दिलचस्प बात यह है कि मूलतः पश्चिम में विकसित एशियाई किसान अर्थव्यवस्था के आधुनिक सिंचाई प्रणाली के डिजाइन के साथ समन्वयन के भारतीय तकनीकी प्रयास की विदेशों में सराहना हुई है।
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मेकांग बेसिन की मूल निर्देशक दीर्घावधि योजना की पहली बैठक में समापन वक्तव्य में नर्मदा के बारे में निम्नलिखित उल्लेख किया गया।
1. डा. अलघ ने इस बात का एक बहुत बढ़िया उदाहरण दिया कि कृषि से सम्बन्धित अर्थमापी मॉडलों का उपयोग बड़ी सिंचाई प्रणालियों के डिज़ाइन और प्रबन्ध में मदद के लिये किया जाता है। कैलिफोर्निया जल योजना पर अपनी प्रस्तुति में श्री हार्ट ने बताया कि कैसे शहरी अर्थमापी मॉडलों का प्रयोग शहरी जल माँगों का पूर्वानुमान लगाने में सहायक हो सकता है।
निस्सन्देह सभी प्रकार के मॉडलों में आँकड़े सही परिशुद्धता के मापक तथा सहायक सिद्ध होते हैं। लेकिन जैसा कि डॉ. लाउक्स ने बताया है कि आमतौर से उचित वातावरण वाले मॉडलों का उपयोग जल-संसाधन नियोजन के लिये आवश्यक आँकड़ों को समझने में किया जा सकता है।
संक्षेप में, कम्प्यूटर मॉडलों से जल नियोजकों और प्रबन्धकों को कम पानी और कम लागत से अधिक उपलब्धि में मदद मिलती है।
परन्तु मुरे-डार्लिंग, कैलिफोनिया और स्पैनिश योजनाओं में जल-विद्युत जलाशयों, सिंचाई प्रणालियों और नौवहन सुविधाओं के निर्माण के जरिए आर्थिक विकास को प्रोत्साहन देने की बात प्रमुख रूप से कही गई थी। हाल की नर्मदा और याग्तजे योजनाओं में ये केन्द्रीय तत्व हैं।
हमने बातचीत के जरिए गंगाजल के बँटवारे के बारे में बांग्लादेश के साथ अपनी समस्याओं को सुलझा लिया है। एक अन्य समझौते के तहत दोनों देशों को लाभ पहुँचाने वाली अन्य नदियों के जल के बँटवारे के बारे में भी व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाया जाएगा। ऊर्जा और संचार के क्षेत्र में भी संयुक्त परियोजनाओं की चर्चा है।
प्रेरित गुटों द्वारा भावनाएँ भड़काकर व्यापक सामाजिक लाभ वाली जल परियोजनाओं को रोकना आसान है। ऐसे कई उदाहरण हैं जब ऐसे समूह जल-संसाधनों के विकास की परियोजनाओं को लटकाने में कामयाब भी रहे हैं। लेकिन मैं विरोधी तथ्य भी अवश्य बताना चाहूँगा।
जल संसाधन परियोजनाओं के समर्थन में सामाजिक संगठन का प्रमुख बल इस बात पर होना चाहिए कि नियोजन के सन्दर्भ में विवरण तैयार करें और लाभों का ब्यौरा बनाएँ ताकि उसमें सामाजिक सहयोग की रचनात्मक भूमिका सामने आये। अच्छी जल-संसाधन परियोजनाओं में जन-संगठनों को शामिल करना जरूरी है ताकि न केवल परियोजना की लागत का ईमानदारी से आकलन हो सके बल्कि जल-संसाधनों के विकास के लाभ ग्रामीण एवं शहरी समुदायों के स्तर पर मूर्तरूप से दिखाए जा सकें।
तभी लोग सहयोग के लाभो को वास्तविक रूप में देख पाएँगे और उन लोगों की पहचान कर उन्हें उनके उचित स्थान पर रख सकेंगे जो शरारती तत्वों के रूप में समाज को विभाजित करते हैं। मुझे याद है कि पिछले वर्ष कावेरी नदी के जल के बँटवारे पर जब मुझे काम करने को कहा गया था तो मैंने एक बार सभी पक्षों को यह दिखा दिया था कि सामान्यतः अक्टूबर के उत्तरार्द्ध में कर्नाटक में नदी के चार जलाशयों में 3 क्यूसेक्स पानी और शामिल हो जाता है लेकिन उक्त वर्ष वास्तव में 2 क्यूसेक्स की कमी हो गई थी और 5 क्यूसेक्स पानी की कम उपलब्धता के कारण ही समस्या उत्पन्न हो रही थी।
इसका केवल एक ही समाधान था कि नुकसान को बराबर-बराबर झेला जाए। सही सोच वाले अधिकांश व्यक्ति इस समाधान से सहमत थे। अब मैं बता सकता हूँ कि वरिष्ठ अधिकारियों ने मुझे फील्ड में न जाने की सलाह दी थी लेकिन उनकी सलाह की अनदेखी करके मैंने तमिलनाडु के थंजावुर जिले में लगभग 700 कि.मी. की यात्रा की और लगभग इतनी ही दूरी मैंने कर्नाटक के उद्यान क्षेत्रों में तय की। लेकिन एक बार भी मुझे अपने काम के बारे में उल्टी प्रतिक्रिया नहीं मिली।
इसलिये मैं मानता हूँ कि जल समस्या के बारे में शिक्षा और पारदर्शिता तथा समाज में रुचि उत्पन्न करने का दृष्टिकोण अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण होता है। सम्पूर्ण देश के लिये ऐसे अनुकूल परिदृश्य की रूपरेखा तैयार करने के लिये हमने एक ‘ब्लू रिबन आयोग’ स्थापित किया है जिसे निम्नलिखित कार्य सौंपे गए हैं:
क. सिंचाई, उद्योग, बाढ़-नियंत्रण, पीने तथा अन्य उपयोगों के लिये जल-संसाधनों के विकास के लिये समन्वित जल योजना तैयार करना;
ख. नदियों को आपस में जोड़कर अधिशेष जल को जलाभाव वाले बेसिनों में स्थानान्तरित करने के तरीके सुझाना;
ग. ऐसी चालू एवं नई परियोजनाओं का पता लगाना जिन्हें चरणबद्ध रूप से प्राथमिकता के आधार पर पूरा किया जा सके;
घ. जल क्षेत्र के लिये प्रौद्योगिकियों की पहचान और अन्तर-शाखा अनुसन्धान योजना का निर्धारण ताकि अधिकतम लाभ प्राप्त किये जा सकें;
ङ. जल क्षेत्र के लिये भौतिक एवं वित्तीय संसाधन पैदा करने के उपाय सुझाना;
च. कोई अन्य सम्बद्ध मसला।
मुझे विश्वास है कि यह आयोग हमारी समस्याओं के समाधान के लिये एक ढाँचा उपलब्ध कराने में काफी सहायक सिद्ध होगा।
जल अधिकार का प्रश्न एक अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण मसला है। 1987 की राष्ट्रीय जल संसाधन नीति में पेयजल को सर्वोच्च प्राथमिकता देने की बात कही गई है। फिर भी यह प्राथमिकता अभी दी नहीं जा सकी है। ऐसी कई परियोजनाएँ हैं जिनमें नहर प्रणालियों के ऊपरी हिस्सों से पानी लेकर दूरदराज के इलाकों को दिया गया है।
कुछ ऐसे मुद्दे भी उठाए गए हैं जहाँ सिंचाई परियोजनाओं के पानी का उपयोग औद्योगिक उद्देश्यों के लिये किया गया है तथा पेयजल एवं कृषि आवश्यकताओं की उपेक्षा की गई है। कुछेक मामलों में योजना बनाते समय राष्ट्रीय जल नीतियों की प्राथमिकताओं पर ध्यान नहीं दिया गया। अन्य मामलों में शक्तिशाली स्वार्थी समूह कम प्राथमिकता वाली ज़रूरतों के लिये पानी ले जाने में सफल रहे हैं। भूजल स्रोतों के प्रबन्ध के मामले में तो स्थिति और भी खराब है।
जिन लोगों के पास जल परियोजनाओं के परीक्षणों के लिये संसाधन हैं वे जल प्राप्त कर रहे हैं। जबकि दूसरे इस प्रक्रिया में मूक दर्शक मात्र बनकर रह गए हैं, जिससे तालाबों या नलकूपों में उनके अधिकार उनसे छिनते जा रहे हैं। ऐसे प्रश्न का तकनीकी उत्तर यह है कि जल स्रोत प्रबन्ध मॉडल तैयार किये जाएँ इस पर भी यदि सामुदायिक आधार पर सूचना उपलब्ध नहीं कराई जाती तथा जनसंख्या के विभिन्न वर्गों को साझेदार के रूप में अधिकार-सम्पन्न नहीं बनाया जाता तो पेयजल या अनिवार्य आहार एवं चारे की समाज की प्राथमिक जरूरतें पूरा नहीं की जा सकती।
कई ऐसे उदाहरण भी हैं जहाँ शक्तिशाली ग्रामीण समूह गाँव के तालाबों के आसपास की भूमि पर जबरन कब्जा करके वहाँ से पानी लेने पर रोक लगा देते हैं। एक बेहतर उदाहरण तटवर्ती इलाके के पानी में खारेपन का आ जाना है जहाँ नगरों द्वारा हैवी ड्यूटी पम्पों के जरिए पानी खींच लिया जाता है और ग्रामीण समुदाय के लिये समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
कई समुदायों में अब यह चर्चा चलने लगी है कि पेयजल उपलब्ध कराने के प्रयास निजी बाजारों के जरिए किये जाएँ। हाल के एक सर्वेक्षण से पता चला है कि वडोदरा शहर की 2/5 प्रतिशत से अधिक पानी की आवश्यकता निजी स्रोतों से पूरी होती है। इससे निश्चय ही यह प्रश्न उठता है कि वहाँ पानी की न्यूनतम आवश्यकता पूरी हो रही है या नहीं तथा कहीं वह कम क्रय-शक्ति वालों की पहुँच के बाहर तो नहीं है।
भूजल की अधिक सुविधाजनक स्थिति और विश्वसनीयता तथा पम्पों के विनिर्माण और गहरे कुएँ खोदने के लिये सरलता से प्रौद्योगिकी की उपलब्धता को देखते हुए उम्मीद की जाती है कि भूजल निकालने एवं उसके प्रयोग पर और अधिक जोर दिया जाएगा जिससे इस पुनरोपयोगी प्राकृतिक संसाधन की निरन्तर उपलब्धता प्रभावित होगी। भूजल के अनियंत्रित दोहन के दुष्प्रभाव हरियाणा, पंजाब, गुजरात, कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे राज्यों में पहले से ही दिखाई देने लगे हैं। तटवर्ती राज्यों में समुद्र जल के प्रवेश की समस्या इसमें और जुड़ गई है। निस्सन्देह यह सच है कि जो समर्थ हैं उन्हें पानी की कीमत देने के लिये बाध्य किया जाना चाहिए परन्तु कई बार यह मात्र पम्प के लिये ऊर्जा का उचित मूल्य देने का मामला बन जाता है। जो लोग कीमत देने में समर्थ नहीं हैं उनकी जरूरतें भी पूरी करनी हैं तथा इससे स्थानीय जल प्रणाली के प्रबन्ध का सामान्य प्रश्न पैदा होता है।
यदि इसके लिये सब्सिडी देने की आवश्यकता पड़े तो मैं यही कहूँगा कि इसे उच्च प्राथमिकता दी जाए तथा संयुक्त मोर्चा सरकार के बुनियादी न्यूनतम कार्यक्रम में इस बात पर उचित ही बल दिया गया है कि सभी समुदायों को न्यूनतम आवश्यकता के तौर पर पेयजल उपलब्ध कराया जाए। इस कार्यक्रम को जुलाई, 96 में हुए मुख्यमंत्री सम्मेलन में अन्तिम रूप दिया गया था तथा इसके उद्देश्य निम्नलिखित थे-
1. ग्रामीण और शहरी इलाकों की सुरक्षित पेयजल की 100 प्रतिशत व्यवस्था।
2. ग्रामीण और शहरी इलाकों में प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाओं की 100 प्रतिशत व्यवस्था।
3. सर्वसुलभ प्राथमिक शिक्षा।
4. आश्रयहीन सभी गरीब परिवारों को जन-आवास सहायता का प्रावधान।
5. सभी ग्रामीण ब्लाकों और शहरी मलिन बस्तियों के प्राथमिक स्कूलों और वंचित वर्गों को ‘दोपहर का भोजन’ योजना के दायरे में लाना।
6. सड़कों से न जुड़े सभी गाँवों और बस्तियों को सड़कों से जोड़ना।
7. गरीबों की ज़रूरतों पर जोर देते हुए सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सुचारू बनाना।
इन लक्ष्यों को वर्ष 2000 तक पूरा करना है लेकिन प्रत्येक राज्य को तीन लक्ष्यों पर अगले दो वर्षों में पूरी तरह ध्यान देना होगा। पेयजल एवं शिक्षा पर प्रमुख रूप से बल दिया जाएगा। हालांकि उद्देश्यों का चुनाव करने की प्रत्येक राज्य को छूट है। दिलचस्प बात यह है कि प्रौद्योगिकी इस योजना का एक महत्त्वपूर्ण अंग है।
लोग जल-संरक्षण और जल वितरण योजनाओं के लिये बेताब हैं। अब समय आ गया है जब प्रत्येक ताल्लुके में स्थानीय जल संचय व्यवस्था वाली जल विकास नीति पर अमल किया जाये। आँठवी पंचवर्षीय योजना की राष्ट्रीय जल प्रबन्ध परियोजना से यह भी सिद्ध हो गया है कि गुजरात सिंचाई प्रणाली में छोटे स्तर की नहर प्रणालियों में 3 हजार रुपये प्रति हेक्टेयर तक के निवेश से भी काफी अच्छी और अधिक उत्पादकता प्राप्त हो सकती है। नौवीं पंचवर्षीय योजना में यह लक्ष्य एक करोड़ हेक्टेयर रखा जा सकता है। प्रत्येक कृषि जलवायु क्षेत्र के लिये एक मास्टर प्लान भी बनाया गया है लेकिन इसे ब्यौरेवार बनाना और लागू करना बाकी है।
क्या किसान पानी की कीमत देगा? कुछ भी हो, यह एक सैद्धान्तिक प्रश्न है क्योंकि वास्तव में वह पानी की कीमत तो चुकाता ही है। उदाहरण के लिये मेहसाणा जिले में किये गए अध्ययनों से पता चला है कि निजी निगम अपने निवेश पर अच्छा मुनाफा कमा लेते हैं और पानी की मात्रा के हिसाब से आपूर्ति के लिये बहुत अधिक पैसा वसूलते हैं। जब बिजली उपलब्ध नहीं होती तब किसान पानी पम्प करने के लिये डीजल पर पैसा खर्च करते हैं।
यदि उसे विपरीत संकेत नहीं दिये जाते हैं तो मैं समझता हूँ कि आश्वस्त आपूर्ति के लिये किसान उचित कीमत देने को तैयार होंगे। यह अवश्य है कि रिसाव वाली सिंचाई नहर, अव्यवस्थित जलापूर्ति और बार-बार चली जाने वाली बिजली के लिये वह पैसा नहीं देगा लेकिन यदि उसकी जरूरतें पूरी होती हैं तो वह मूल्य अवश्य चुकाएगा।
मेरे विचार में ग्रामीण स्तर प्रणालियों का विकेन्द्रीकृत प्रबन्ध अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण और साथ ही व्यावहारिक भी होगा। सहकारिताएँ और निचले स्तर पर किसान संगठन इस दिशा में सफल हो सकते हैं बशर्ते कि जलापूर्ति की प्रौद्योगिकी उन्हें उपलब्ध कराई जाए और सामाजिक संगठन उन्हें प्रोत्साहन दें।
जल की बचत करने वाले यंत्रों विशेषकर ड्रिप एवं स्प्रिंकलरों के प्रसार में भारत शेष विश्व से कहीं पीछे है। कई ऐसी दिलचस्प परियोजनाएँ हैं जिनमें जल की बचत करने वाले इन यंत्रों को सिंचाई की नालियों से जोड़ा गया है। हमें लाखों हेक्टेयर भूमि पर इसकी योजना बनानी होगी। शहरी क्षेत्रों में पानी के पुनरोपयोग के कई दिलचस्प प्रयास किये गए हैं। तटवर्ती इलाकों में कई औद्योगिक परियोजनाओं में पानी का खारापन दूर करने की व्यवस्था की गई है। इन प्रयासों को व्यवहार में लाना होगा।
भूजल की अधिक सुविधाजनक स्थिति और विश्वसनीयता तथा पम्पों के विनिर्माण और गहरे कुएँ खोदने के लिये सरलता से प्रौद्योगिकी की उपलब्धता को देखते हुए उम्मीद की जाती है कि भूजल निकालने एवं उसके प्रयोग पर और अधिक जोर दिया जाएगा जिससे इस पुनरोपयोगी प्राकृतिक संसाधन की निरन्तर उपलब्धता प्रभावित होगी। भूजल के अनियंत्रित दोहन के दुष्प्रभाव हरियाणा, पंजाब, गुजरात, कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे राज्यों में पहले से ही दिखाई देने लगे हैं। तटवर्ती राज्यों में समुद्र जल के प्रवेश की समस्या इसमें और जुड़ गई है।
जल की मात्रा से गहराई से जुड़ी एक अन्य समस्या जल की गुणवत्ता की है। औद्योगिक बहिस्राव, बढ़ती जनसंख्या और तेजी से होता शहरीकरण भू-सतह के जल संसाधनों की गुणवत्ता को घटा रहे हैं। इसी प्रकार कृषि रसायनों और उर्वरकों के अन्धाधुन्ध इस्तेमाल से भूजल की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है।
इस स्थिति से एक बात तो समझ में आ गई है कि हमें एक ऐसा सम्पूर्णतावादी दृष्टिकोण अपनाना पड़ेगा जिसमें भूमि और जल-प्रबन्ध सम्पूर्ण गतिशील प्रणाली के अंगों के रूप में किया जाए। सभी जल-विज्ञानी प्रक्रियाओं को प्राकृतिक रूप से जोड़ने वाले जलसम्भर, विकास की एक तर्कसंगत इकाई के रूप में उभरे हैं।
सरकार ने ऐसे कई कदम उठाए हैं जिनके माध्यम से समन्वित दृष्टिकोण अपनाया जा सकता है। 1987 की राष्ट्रीय जल नीति और भू-उपयोग नीति की रूपरेखा का मसौदा, दोनों में ही समन्वित प्रबन्ध के महत्त्व पर बल दिया गया है। योजना आयोग द्वारा 1988 में शुरू की गई कृषि जलवायु नियोजन परियोजना इस अवधारणा को मूर्त रूप देने की दिशा में एक प्रयास था।
इस प्रकार जलवायु, भू-आकृति विज्ञान और प्रशासनिक इकाइयों के आधार पर देश को 15 कृषि जलवायु क्षेत्रों में बाँट दिया गया था। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने कृषि पारिस्थितिकी क्षेत्र बनाने की अवधारणा में मृदा सम्बन्धी आँकड़ों एवं वृद्धि अवधि को शामिल किया है। सरकार अपने विभिन्न कार्यक्रमों के जरिए जलसम्भर प्रबन्ध की अवधारणा को प्रोत्साहन दे रही है। ये कार्यक्रम जल संसाधन, कृषि, ग्रामीण क्षेत्र और रोजगार तथा पर्यावरण एवं वन मंत्रालयों द्वारा चलाए जा रहे हैं। राष्ट्रीय पेयजल मिशन ग्रामीण इलाकों में सुरक्षित पेयजल उपलब्ध कराने की दिशा में कार्य कर रहा है।
सरकार के प्रयासों को आगे बढ़ाने के लिये स्वयंसेवी संगठनों को उसमें शामिल करने एवं उन्हें प्रोत्साहित करने का एक चेतन प्रयास किया जा रहा है। विशेष तौर पर गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान में सफलता की कई कहानियाँ हैं जो जलप्रबन्ध में भागीदारी की उपादेयता को उजागर करती हैं।
रालेगाँव सिद्धि, सुखो-माजरी और पानी पंचायत कुछ मार्गदर्शी प्रयास हैं। राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद और राष्ट्रीय भूमि उपयोग एवं संरक्षण बोर्ड के माध्यम से केन्द्र और राज्य सरकारों के प्रयासों में वांछित तालमेल लाने की व्यवस्था की गई है। हालांकि ये सभी प्रयास सराहनीय हैं फिर भी विकास की वर्तमान गति के लिये इससे भी अधिक निवेश और परिणामों में शीघ्रता लाने की जरूरत है।
अनुसन्धान/शैक्षिक समुदाय को अपने प्रयासों में एकरूपता लानी होगी और ऐसे तौर-तरीके ढूँढने होंगे जिनसे लोगों की आकांक्षाओं को वैज्ञानिक समुदाय से सम्बल मिले। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग ने प्राकृतिक संसाधनों के प्रबन्ध तथा अन्य सामाजिक मुद्दों से सम्बन्धित कार्यक्रम तैयार किये हैं।
विभाग को भारतीय मौसम विभाग, भारतीय मध्यम रेंज मौसम पूर्वानुमान केन्द्र तथा भारतीय सर्वेक्षण विभाग का सहयोग मिल रहा है और इसलिये यह विभाग ऐसा समन्वयकारी ढाँचा तैयार करने की स्थिति में है जिसके अन्तर्गत विभिन्न विभाग और एजेंसियाँ जल क्षेत्र पर कार्य करें, अपनी समस्याओं पर चर्चा करें और उनके सम्भावित हल खोजें।
जल-संसाधनों के इष्टतम प्रबन्ध और राष्ट्र को संयुक्त खाद्य सुरक्षा प्रदान करने की चुनौती का सामना करने के लिये ऐसे समन्वित प्रयासों की जरूरत है। जल ही जीवन है और इसका उपयोग प्यास बुझाने और विवादों को शान्त करने के लिये किया जाना चाहिए।
(लेखक ऊर्जा, विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी राज्यमंत्री हैं।)
दूसरी ओर, खाद्य सुरक्षा की बढ़ती आवश्यकता, भारत की कृषि सम्बन्धी घरेलू माँग में विविधता, खाद्य फसलों की तुलना में गैर-कृषि फसलों की और अनाज की फसलों के मुकाबले गैर-अनाज फसलों की बढ़ती जरूरतों के कारण माँग में वृद्धि होती रहेगी। फिर कृषि निर्यातों में भी डालर मूल्यों के हिसाब से प्रतिवर्ष 12 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हो रही है तथा यह प्रवृत्ति जारी रहेगी। इसीलिये अधिक फसल लेने तथा नई प्रौद्योगिकी अपनाने में जल ही मूलमंत्र रहेगा।
किसानों को लाभ पहुँचाने के लिये जल प्रबन्ध, सामाजिक संगठन, आर्थिक नीति और प्रौद्योगिकी में हम उतना समन्वय नहीं कर पा रहे हैं जितना किया जाना चाहिए। पेयजल और नुकसानदेह गैर-कृषि उपयोग के बारे में भी यही अनिश्चित रवैया दिखाई पड़ता है। इस दिशा में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी को महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करनी होगी।
भूमि और जल ऐसे महत्त्वपूर्ण संसाधन हैं जिन पर देश का समग्र विकास निर्भर करता है। इस संसाधनों के गहन सम्बन्ध तथा सामाजिक-पारिस्थितिकी प्रणाली के अन्य अंगों के साथ इनकी पारस्परिक निर्भरता के कारण यह और भी आवश्यक है कि किसी भी विकास प्रयास के लिये इन संसाधनों को केन्द्र बनाया जाए। जल-क्षेत्र में अब तक हमारे प्रयास आमतौर पर संसाधन विकसित करने पर ही केन्द्रित रहे हैं।
इसका कुशल, न्यायोचित और निरन्तर उपयोग सुनिश्चित करने पर बहुत ही कम ध्यान दिया गया है। भू-सतह के जलस्रोतों का निर्माण तथा सम्बद्ध सिंचाई नहरों का जाल बिछाना हमारी जल प्रबन्ध नीति का मुख्य आधार रहा है। जहाँ नहरों का पानी नहीं पहुँच सका है, वहाँ भूजल का प्रयोग सिंचाई के लिये किया गया है। एक ओर नहरों के कमान क्षेत्रों में पानी भरने और मिट्टी में नमक की मात्रा बढ़ने की समस्या सामने आ रही है तो दूसरी ओर कई इलाकों में जल-स्तर घटता जा रहा है जिससे एक असामान्य-सी स्थिति उत्पन्न हो गई है।
लगभग 85 लाख हेक्टेयर भूमि को पानी की भराई की समस्या का सामना करना पड़ रहा है और लगभग 242 विकास खण्डों में भूजल के असीमित दोहन के नुकसान भुगतने पड़ रहे हैं। हमारी ज़मीन के बड़े-बड़े टुकड़ों को भू-क्षरण और वनस्पति आवरण के टूटने की दोहरी मार झेलनी पड़ रही है। फलस्वरूप मिट्टी की उर्वरता को भारी नुकसान पहुँच रहा है। वैसे दिलचस्प बात यह है कि जो समस्याओं का रोना रोते रहते हैं उन्हें शायद ही कभी देश में उपलब्ध रचनात्मक समाधानों पर गौर किया हो।
उदाहरण के लिये कई अध्ययनों में पानी के भराव के अनेक ऐतिहासिक मामले दर्ज हैं लेकिन ‘आईजीएनपी’ के दूसरे चरण के लिये ‘वापकोस’ योजना की सफलता की, राष्ट्रीय जल प्रबन्ध परियोजना की सफलता की या फिर सरदार सरोवर परियोजना द्वारा नहर प्रणालियों के उत्कृष्ट प्रबन्ध की सफलता की कहीं भी चर्चा नहीं की गई है।
हाल ही में मेकांग बेसिन में समन्वित तकनीकी आर्थिक नियोजन का एक दिलचस्प मामला मेरी निगाह में आया है। यह मामला भारतीय तकनीकी प्रयास का सराहनीय उदाहरण भी है। अप्रैल, 1996 में मेकांग नदी आयोग और संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ने मिलकर एक विशेषज्ञ बैठक बुलाई थी जिसमें मेकांग बेसिन के लिये दीर्घावधि मूल निर्देशक योजना पर चर्चा होनी थी और इस उद्देश्य से एक कार्य योजना बनाई जानी थी।
चार देशों से नदी घाटी नियोजनकर्ताओं को जिन्हें विशिष्ट योजनाएँ तैयार करने का पर्याप्त अनुभव था, इस बैठक के लिये आमंत्रित किया गया था। इनमें एक आस्ट्रेलियाई था जिसे ‘मुरे डार्लिंग योजना’ प्रस्तुत करनी थी, दूसरा ब्राजिलियन था जिसे ‘साओ पाओलो नदी योजना’ समझानी थी और तीसरा स्पेन का एक विशेषज्ञ था जिसे ‘स्पेनिश राष्ट्रीय जल योजना’ पर चर्चा करनी थी।
जल संसाधन नियोजन के क्षेत्र में सरदार सरोवर नर्मदा योजना की अन्तरराष्ट्रीय मान्यता के मद्देनज़र इस परियोजना की प्रस्तुति के लिये मुझे बुलाया गया था। मैं इस समझौते के तीन पहलुओं की चर्चा करुँगा। पहला यह कि मेकांग नदी के देशों म्यांमार, थाईलैंड, लाओस, वियतनाम, कम्बोडिया और चीन के बीच मेकांग नदी के इस्तेमाल और विकास के बारे में 1993 में एक समझौता हुआ था।
ध्यान रहे कि मेकांग नदी को लेकर बराबर संघर्ष होते रहे हैं तथा कुछ देशों के बीच इस मामले को लेकर निकट अतीत में वास्तव में युद्ध भी हुए हैं। इस समझौते में जल-संसाधन के परिचालन और विकास के नियम मौजूद हैं। समझौते की एक दिलचस्प बात मेकांग के लोगों के जल सम्बन्धी अधिकारों की ब्यौरेवार व्याख्या है।
इसे स्पष्ट करने के लिये तीन उदाहरण पर्याप्त रहेंगे। समझौते में मेकांग बाढ़ अवधि में टोनले साप झील में विपरीत प्रवाह की न्यूनतम आवश्यकता के बारे में एक धारा है। यह एक अत्यन्त दिलचस्प प्रस्ताव है कि नहर में विपरीत प्रवाह के उच्चतम जल प्रवाह के दौर में झील के निवासियों को झील भरने के जल-सम्बन्धी अधिकार के विषय में अन्तरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त है।
कोई दो दशक पूर्व जल-संसाधनों की योजना बनाते समय बारीकियों पर इतना ध्यान देने की जरूरत नहीं समझी जाती थी। जल अधिकारों की उपेक्षा के कई उदाहरण मौजूद हैं जैसे कि गुजरात में चुन्नी काका वैध द्वारा सीपू जल अधिकारों का अत्यन्त ही न्यायसंगत मसला उठाया गया। दूसरा उदाहरण समस्या समाधान के लिये मेकांग समझौते में अपनाया गया त्रि-स्तरीय दृष्टिकोण है। उच्चतम स्तर पर आयोग में सहयोगी देशों के उप-प्रधानमंत्री जैसे उच्चस्तरीय राजनीतिज्ञ मौजूद हैं।
वे समझौते के क्रियान्वयन में आने वाली राजनीतिक समस्याओं का समाधान करते हैं और आयोग के कामकाज की भावी रूपरेखा भी तय करते हैं। दूसरे स्तर पर आयोग में व्यापक योजनाएँ एवं नीतियाँ तैयार करने तथा कार्यक्रम सम्बन्धी ब्यौरे तैयार करने के लिये एक व्यवस्था है। तीसरे स्तर पर वे कार्यान्वयन समूह हैं जो उच्चतम स्तर पर बनाई गई योजनाओं को दूसरे स्तर पर व्यावहारिक रूप दिये जाने के बाद उनके कार्यान्वयन के लिये जिम्मेदार होते हैं।
वैसे हम लोग इन समस्याओं की पेचीदगियों में उलझ कर रह जाते हैं। जल विज्ञान का ही मामला लें। मुझे याद है कि जब मैं एपीसी का अध्यक्ष था और बाद में जब बीआईसीपी का अध्यक्ष बना तब तकनीकी मामलों में न्यायालय तथा अन्य लोगों ने स्वतंत्र तकनीकी समितियों अथवा आयोगों के निष्कर्षों पर कभी अंगुली नहीं उठाई। लेकिन आजकल केन्द्रीय जल आयोग के जल विज्ञान सम्बन्धी निष्कर्षों का सार्वजनिक चर्चाओं में जिस लापरवाही के साथ जिक्र किया जाता है, वह हैरान कर देता है।
जो लोग ‘माफ्ट’ और ‘क्यूसेक’ का अन्तर तक नहीं जानते, वे पानी की उपलब्धता या अनुपलब्धता के बारे में निश्चित फैसले सुनाते हैं जिनके कारण हजारों करोड़ों रुपए का निवेश बेकार पड़ा रह जाता है या उपलब्ध जल का उपयोग बड़ी ही बेतरतीबी से किया जाता है। ऐसे सवालों पर चर्चा के लिये तकनीकी मानक स्थापित करने में एक वैज्ञानिक बैठक की कुछ तो जिम्मेदारी होती है।
सफल नहर प्रबन्ध परियोजनाओं पर निगाह डालने से पता चलता है कि नियंत्रण एवं विनियमन प्रणालियाँ तैयार करने के लिये आर्थिक और कृषि विज्ञानी आँकड़ों का कैसे प्रयोग किया जाता है। काफी अरसे पहले मैंने प्रतिरूपण के जरिए इसका वर्णन किया था और नितिन देसाई समिति ने इसे एक नियोजन मानक के रूप में अपनाया था। फिर भी सॉफ्टवेयर प्रतिरूपण साधनों के ये मानक शायद ही कहीं दिखाई पड़ते हों।
जल संसाधन परियोजनाओं के समर्थन में सामाजिक संगठन का प्रमुख बल इस बात पर होना चाहिए कि नियोजन के सन्दर्भ में विवरण तैयार करें और लाभों का ब्यौरा बनाएँ ताकि उसमें सामाजिक सहयोग की रचनात्मक भूमिका सामने आये। अच्छी जल-संसाधन परियोजनाओं में जन-संगठनों को शामिल करना जरूरी है ताकि न केवल परियोजना की लागत का ईमानदारी से आकलन हो सके बल्कि जल-संसाधनों के विकास के लाभ ग्रामीण एवं शहरी समुदायों के स्तर पर मूर्तरूप से दिखाए जा सकें।बहुत ही कम समूह यह समझते हैं कि मृदा, जलवायु और किसान की आर्थिक प्रतिक्रियाओं के आधार पर प्रदाय प्रणालियाँ विकसित की जा सकती हैं। दिलचस्प बात यह है कि मूलतः पश्चिम में विकसित एशियाई किसान अर्थव्यवस्था के आधुनिक सिंचाई प्रणाली के डिजाइन के साथ समन्वयन के भारतीय तकनीकी प्रयास की विदेशों में सराहना हुई है।
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मेकांग बेसिन की मूल निर्देशक दीर्घावधि योजना की पहली बैठक में समापन वक्तव्य में नर्मदा के बारे में निम्नलिखित उल्लेख किया गया।
1. डा. अलघ ने इस बात का एक बहुत बढ़िया उदाहरण दिया कि कृषि से सम्बन्धित अर्थमापी मॉडलों का उपयोग बड़ी सिंचाई प्रणालियों के डिज़ाइन और प्रबन्ध में मदद के लिये किया जाता है। कैलिफोर्निया जल योजना पर अपनी प्रस्तुति में श्री हार्ट ने बताया कि कैसे शहरी अर्थमापी मॉडलों का प्रयोग शहरी जल माँगों का पूर्वानुमान लगाने में सहायक हो सकता है।
निस्सन्देह सभी प्रकार के मॉडलों में आँकड़े सही परिशुद्धता के मापक तथा सहायक सिद्ध होते हैं। लेकिन जैसा कि डॉ. लाउक्स ने बताया है कि आमतौर से उचित वातावरण वाले मॉडलों का उपयोग जल-संसाधन नियोजन के लिये आवश्यक आँकड़ों को समझने में किया जा सकता है।
संक्षेप में, कम्प्यूटर मॉडलों से जल नियोजकों और प्रबन्धकों को कम पानी और कम लागत से अधिक उपलब्धि में मदद मिलती है।
परन्तु मुरे-डार्लिंग, कैलिफोनिया और स्पैनिश योजनाओं में जल-विद्युत जलाशयों, सिंचाई प्रणालियों और नौवहन सुविधाओं के निर्माण के जरिए आर्थिक विकास को प्रोत्साहन देने की बात प्रमुख रूप से कही गई थी। हाल की नर्मदा और याग्तजे योजनाओं में ये केन्द्रीय तत्व हैं।
पानी का बँटवारा
हमने बातचीत के जरिए गंगाजल के बँटवारे के बारे में बांग्लादेश के साथ अपनी समस्याओं को सुलझा लिया है। एक अन्य समझौते के तहत दोनों देशों को लाभ पहुँचाने वाली अन्य नदियों के जल के बँटवारे के बारे में भी व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाया जाएगा। ऊर्जा और संचार के क्षेत्र में भी संयुक्त परियोजनाओं की चर्चा है।
प्रेरित गुटों द्वारा भावनाएँ भड़काकर व्यापक सामाजिक लाभ वाली जल परियोजनाओं को रोकना आसान है। ऐसे कई उदाहरण हैं जब ऐसे समूह जल-संसाधनों के विकास की परियोजनाओं को लटकाने में कामयाब भी रहे हैं। लेकिन मैं विरोधी तथ्य भी अवश्य बताना चाहूँगा।
जल संसाधन परियोजनाओं के समर्थन में सामाजिक संगठन का प्रमुख बल इस बात पर होना चाहिए कि नियोजन के सन्दर्भ में विवरण तैयार करें और लाभों का ब्यौरा बनाएँ ताकि उसमें सामाजिक सहयोग की रचनात्मक भूमिका सामने आये। अच्छी जल-संसाधन परियोजनाओं में जन-संगठनों को शामिल करना जरूरी है ताकि न केवल परियोजना की लागत का ईमानदारी से आकलन हो सके बल्कि जल-संसाधनों के विकास के लाभ ग्रामीण एवं शहरी समुदायों के स्तर पर मूर्तरूप से दिखाए जा सकें।
तभी लोग सहयोग के लाभो को वास्तविक रूप में देख पाएँगे और उन लोगों की पहचान कर उन्हें उनके उचित स्थान पर रख सकेंगे जो शरारती तत्वों के रूप में समाज को विभाजित करते हैं। मुझे याद है कि पिछले वर्ष कावेरी नदी के जल के बँटवारे पर जब मुझे काम करने को कहा गया था तो मैंने एक बार सभी पक्षों को यह दिखा दिया था कि सामान्यतः अक्टूबर के उत्तरार्द्ध में कर्नाटक में नदी के चार जलाशयों में 3 क्यूसेक्स पानी और शामिल हो जाता है लेकिन उक्त वर्ष वास्तव में 2 क्यूसेक्स की कमी हो गई थी और 5 क्यूसेक्स पानी की कम उपलब्धता के कारण ही समस्या उत्पन्न हो रही थी।
इसका केवल एक ही समाधान था कि नुकसान को बराबर-बराबर झेला जाए। सही सोच वाले अधिकांश व्यक्ति इस समाधान से सहमत थे। अब मैं बता सकता हूँ कि वरिष्ठ अधिकारियों ने मुझे फील्ड में न जाने की सलाह दी थी लेकिन उनकी सलाह की अनदेखी करके मैंने तमिलनाडु के थंजावुर जिले में लगभग 700 कि.मी. की यात्रा की और लगभग इतनी ही दूरी मैंने कर्नाटक के उद्यान क्षेत्रों में तय की। लेकिन एक बार भी मुझे अपने काम के बारे में उल्टी प्रतिक्रिया नहीं मिली।
इसलिये मैं मानता हूँ कि जल समस्या के बारे में शिक्षा और पारदर्शिता तथा समाज में रुचि उत्पन्न करने का दृष्टिकोण अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण होता है। सम्पूर्ण देश के लिये ऐसे अनुकूल परिदृश्य की रूपरेखा तैयार करने के लिये हमने एक ‘ब्लू रिबन आयोग’ स्थापित किया है जिसे निम्नलिखित कार्य सौंपे गए हैं:
क. सिंचाई, उद्योग, बाढ़-नियंत्रण, पीने तथा अन्य उपयोगों के लिये जल-संसाधनों के विकास के लिये समन्वित जल योजना तैयार करना;
ख. नदियों को आपस में जोड़कर अधिशेष जल को जलाभाव वाले बेसिनों में स्थानान्तरित करने के तरीके सुझाना;
ग. ऐसी चालू एवं नई परियोजनाओं का पता लगाना जिन्हें चरणबद्ध रूप से प्राथमिकता के आधार पर पूरा किया जा सके;
घ. जल क्षेत्र के लिये प्रौद्योगिकियों की पहचान और अन्तर-शाखा अनुसन्धान योजना का निर्धारण ताकि अधिकतम लाभ प्राप्त किये जा सकें;
ङ. जल क्षेत्र के लिये भौतिक एवं वित्तीय संसाधन पैदा करने के उपाय सुझाना;
च. कोई अन्य सम्बद्ध मसला।
मुझे विश्वास है कि यह आयोग हमारी समस्याओं के समाधान के लिये एक ढाँचा उपलब्ध कराने में काफी सहायक सिद्ध होगा।
जल अधिकार
जल अधिकार का प्रश्न एक अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण मसला है। 1987 की राष्ट्रीय जल संसाधन नीति में पेयजल को सर्वोच्च प्राथमिकता देने की बात कही गई है। फिर भी यह प्राथमिकता अभी दी नहीं जा सकी है। ऐसी कई परियोजनाएँ हैं जिनमें नहर प्रणालियों के ऊपरी हिस्सों से पानी लेकर दूरदराज के इलाकों को दिया गया है।
कुछ ऐसे मुद्दे भी उठाए गए हैं जहाँ सिंचाई परियोजनाओं के पानी का उपयोग औद्योगिक उद्देश्यों के लिये किया गया है तथा पेयजल एवं कृषि आवश्यकताओं की उपेक्षा की गई है। कुछेक मामलों में योजना बनाते समय राष्ट्रीय जल नीतियों की प्राथमिकताओं पर ध्यान नहीं दिया गया। अन्य मामलों में शक्तिशाली स्वार्थी समूह कम प्राथमिकता वाली ज़रूरतों के लिये पानी ले जाने में सफल रहे हैं। भूजल स्रोतों के प्रबन्ध के मामले में तो स्थिति और भी खराब है।
जिन लोगों के पास जल परियोजनाओं के परीक्षणों के लिये संसाधन हैं वे जल प्राप्त कर रहे हैं। जबकि दूसरे इस प्रक्रिया में मूक दर्शक मात्र बनकर रह गए हैं, जिससे तालाबों या नलकूपों में उनके अधिकार उनसे छिनते जा रहे हैं। ऐसे प्रश्न का तकनीकी उत्तर यह है कि जल स्रोत प्रबन्ध मॉडल तैयार किये जाएँ इस पर भी यदि सामुदायिक आधार पर सूचना उपलब्ध नहीं कराई जाती तथा जनसंख्या के विभिन्न वर्गों को साझेदार के रूप में अधिकार-सम्पन्न नहीं बनाया जाता तो पेयजल या अनिवार्य आहार एवं चारे की समाज की प्राथमिक जरूरतें पूरा नहीं की जा सकती।
कई ऐसे उदाहरण भी हैं जहाँ शक्तिशाली ग्रामीण समूह गाँव के तालाबों के आसपास की भूमि पर जबरन कब्जा करके वहाँ से पानी लेने पर रोक लगा देते हैं। एक बेहतर उदाहरण तटवर्ती इलाके के पानी में खारेपन का आ जाना है जहाँ नगरों द्वारा हैवी ड्यूटी पम्पों के जरिए पानी खींच लिया जाता है और ग्रामीण समुदाय के लिये समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
कई समुदायों में अब यह चर्चा चलने लगी है कि पेयजल उपलब्ध कराने के प्रयास निजी बाजारों के जरिए किये जाएँ। हाल के एक सर्वेक्षण से पता चला है कि वडोदरा शहर की 2/5 प्रतिशत से अधिक पानी की आवश्यकता निजी स्रोतों से पूरी होती है। इससे निश्चय ही यह प्रश्न उठता है कि वहाँ पानी की न्यूनतम आवश्यकता पूरी हो रही है या नहीं तथा कहीं वह कम क्रय-शक्ति वालों की पहुँच के बाहर तो नहीं है।
भूजल की अधिक सुविधाजनक स्थिति और विश्वसनीयता तथा पम्पों के विनिर्माण और गहरे कुएँ खोदने के लिये सरलता से प्रौद्योगिकी की उपलब्धता को देखते हुए उम्मीद की जाती है कि भूजल निकालने एवं उसके प्रयोग पर और अधिक जोर दिया जाएगा जिससे इस पुनरोपयोगी प्राकृतिक संसाधन की निरन्तर उपलब्धता प्रभावित होगी। भूजल के अनियंत्रित दोहन के दुष्प्रभाव हरियाणा, पंजाब, गुजरात, कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे राज्यों में पहले से ही दिखाई देने लगे हैं। तटवर्ती राज्यों में समुद्र जल के प्रवेश की समस्या इसमें और जुड़ गई है। निस्सन्देह यह सच है कि जो समर्थ हैं उन्हें पानी की कीमत देने के लिये बाध्य किया जाना चाहिए परन्तु कई बार यह मात्र पम्प के लिये ऊर्जा का उचित मूल्य देने का मामला बन जाता है। जो लोग कीमत देने में समर्थ नहीं हैं उनकी जरूरतें भी पूरी करनी हैं तथा इससे स्थानीय जल प्रणाली के प्रबन्ध का सामान्य प्रश्न पैदा होता है।
यदि इसके लिये सब्सिडी देने की आवश्यकता पड़े तो मैं यही कहूँगा कि इसे उच्च प्राथमिकता दी जाए तथा संयुक्त मोर्चा सरकार के बुनियादी न्यूनतम कार्यक्रम में इस बात पर उचित ही बल दिया गया है कि सभी समुदायों को न्यूनतम आवश्यकता के तौर पर पेयजल उपलब्ध कराया जाए। इस कार्यक्रम को जुलाई, 96 में हुए मुख्यमंत्री सम्मेलन में अन्तिम रूप दिया गया था तथा इसके उद्देश्य निम्नलिखित थे-
1. ग्रामीण और शहरी इलाकों की सुरक्षित पेयजल की 100 प्रतिशत व्यवस्था।
2. ग्रामीण और शहरी इलाकों में प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाओं की 100 प्रतिशत व्यवस्था।
3. सर्वसुलभ प्राथमिक शिक्षा।
4. आश्रयहीन सभी गरीब परिवारों को जन-आवास सहायता का प्रावधान।
5. सभी ग्रामीण ब्लाकों और शहरी मलिन बस्तियों के प्राथमिक स्कूलों और वंचित वर्गों को ‘दोपहर का भोजन’ योजना के दायरे में लाना।
6. सड़कों से न जुड़े सभी गाँवों और बस्तियों को सड़कों से जोड़ना।
7. गरीबों की ज़रूरतों पर जोर देते हुए सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सुचारू बनाना।
इन लक्ष्यों को वर्ष 2000 तक पूरा करना है लेकिन प्रत्येक राज्य को तीन लक्ष्यों पर अगले दो वर्षों में पूरी तरह ध्यान देना होगा। पेयजल एवं शिक्षा पर प्रमुख रूप से बल दिया जाएगा। हालांकि उद्देश्यों का चुनाव करने की प्रत्येक राज्य को छूट है। दिलचस्प बात यह है कि प्रौद्योगिकी इस योजना का एक महत्त्वपूर्ण अंग है।
उचित समय
लोग जल-संरक्षण और जल वितरण योजनाओं के लिये बेताब हैं। अब समय आ गया है जब प्रत्येक ताल्लुके में स्थानीय जल संचय व्यवस्था वाली जल विकास नीति पर अमल किया जाये। आँठवी पंचवर्षीय योजना की राष्ट्रीय जल प्रबन्ध परियोजना से यह भी सिद्ध हो गया है कि गुजरात सिंचाई प्रणाली में छोटे स्तर की नहर प्रणालियों में 3 हजार रुपये प्रति हेक्टेयर तक के निवेश से भी काफी अच्छी और अधिक उत्पादकता प्राप्त हो सकती है। नौवीं पंचवर्षीय योजना में यह लक्ष्य एक करोड़ हेक्टेयर रखा जा सकता है। प्रत्येक कृषि जलवायु क्षेत्र के लिये एक मास्टर प्लान भी बनाया गया है लेकिन इसे ब्यौरेवार बनाना और लागू करना बाकी है।
क्या किसान पानी की कीमत देगा? कुछ भी हो, यह एक सैद्धान्तिक प्रश्न है क्योंकि वास्तव में वह पानी की कीमत तो चुकाता ही है। उदाहरण के लिये मेहसाणा जिले में किये गए अध्ययनों से पता चला है कि निजी निगम अपने निवेश पर अच्छा मुनाफा कमा लेते हैं और पानी की मात्रा के हिसाब से आपूर्ति के लिये बहुत अधिक पैसा वसूलते हैं। जब बिजली उपलब्ध नहीं होती तब किसान पानी पम्प करने के लिये डीजल पर पैसा खर्च करते हैं।
यदि उसे विपरीत संकेत नहीं दिये जाते हैं तो मैं समझता हूँ कि आश्वस्त आपूर्ति के लिये किसान उचित कीमत देने को तैयार होंगे। यह अवश्य है कि रिसाव वाली सिंचाई नहर, अव्यवस्थित जलापूर्ति और बार-बार चली जाने वाली बिजली के लिये वह पैसा नहीं देगा लेकिन यदि उसकी जरूरतें पूरी होती हैं तो वह मूल्य अवश्य चुकाएगा।
मेरे विचार में ग्रामीण स्तर प्रणालियों का विकेन्द्रीकृत प्रबन्ध अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण और साथ ही व्यावहारिक भी होगा। सहकारिताएँ और निचले स्तर पर किसान संगठन इस दिशा में सफल हो सकते हैं बशर्ते कि जलापूर्ति की प्रौद्योगिकी उन्हें उपलब्ध कराई जाए और सामाजिक संगठन उन्हें प्रोत्साहन दें।
जल की बचत करने वाले यंत्रों विशेषकर ड्रिप एवं स्प्रिंकलरों के प्रसार में भारत शेष विश्व से कहीं पीछे है। कई ऐसी दिलचस्प परियोजनाएँ हैं जिनमें जल की बचत करने वाले इन यंत्रों को सिंचाई की नालियों से जोड़ा गया है। हमें लाखों हेक्टेयर भूमि पर इसकी योजना बनानी होगी। शहरी क्षेत्रों में पानी के पुनरोपयोग के कई दिलचस्प प्रयास किये गए हैं। तटवर्ती इलाकों में कई औद्योगिक परियोजनाओं में पानी का खारापन दूर करने की व्यवस्था की गई है। इन प्रयासों को व्यवहार में लाना होगा।
भूजल की अधिक सुविधाजनक स्थिति और विश्वसनीयता तथा पम्पों के विनिर्माण और गहरे कुएँ खोदने के लिये सरलता से प्रौद्योगिकी की उपलब्धता को देखते हुए उम्मीद की जाती है कि भूजल निकालने एवं उसके प्रयोग पर और अधिक जोर दिया जाएगा जिससे इस पुनरोपयोगी प्राकृतिक संसाधन की निरन्तर उपलब्धता प्रभावित होगी। भूजल के अनियंत्रित दोहन के दुष्प्रभाव हरियाणा, पंजाब, गुजरात, कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे राज्यों में पहले से ही दिखाई देने लगे हैं। तटवर्ती राज्यों में समुद्र जल के प्रवेश की समस्या इसमें और जुड़ गई है।
जल की मात्रा से गहराई से जुड़ी एक अन्य समस्या जल की गुणवत्ता की है। औद्योगिक बहिस्राव, बढ़ती जनसंख्या और तेजी से होता शहरीकरण भू-सतह के जल संसाधनों की गुणवत्ता को घटा रहे हैं। इसी प्रकार कृषि रसायनों और उर्वरकों के अन्धाधुन्ध इस्तेमाल से भूजल की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है।
इस स्थिति से एक बात तो समझ में आ गई है कि हमें एक ऐसा सम्पूर्णतावादी दृष्टिकोण अपनाना पड़ेगा जिसमें भूमि और जल-प्रबन्ध सम्पूर्ण गतिशील प्रणाली के अंगों के रूप में किया जाए। सभी जल-विज्ञानी प्रक्रियाओं को प्राकृतिक रूप से जोड़ने वाले जलसम्भर, विकास की एक तर्कसंगत इकाई के रूप में उभरे हैं।
निष्कर्ष
सरकार ने ऐसे कई कदम उठाए हैं जिनके माध्यम से समन्वित दृष्टिकोण अपनाया जा सकता है। 1987 की राष्ट्रीय जल नीति और भू-उपयोग नीति की रूपरेखा का मसौदा, दोनों में ही समन्वित प्रबन्ध के महत्त्व पर बल दिया गया है। योजना आयोग द्वारा 1988 में शुरू की गई कृषि जलवायु नियोजन परियोजना इस अवधारणा को मूर्त रूप देने की दिशा में एक प्रयास था।
इस प्रकार जलवायु, भू-आकृति विज्ञान और प्रशासनिक इकाइयों के आधार पर देश को 15 कृषि जलवायु क्षेत्रों में बाँट दिया गया था। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने कृषि पारिस्थितिकी क्षेत्र बनाने की अवधारणा में मृदा सम्बन्धी आँकड़ों एवं वृद्धि अवधि को शामिल किया है। सरकार अपने विभिन्न कार्यक्रमों के जरिए जलसम्भर प्रबन्ध की अवधारणा को प्रोत्साहन दे रही है। ये कार्यक्रम जल संसाधन, कृषि, ग्रामीण क्षेत्र और रोजगार तथा पर्यावरण एवं वन मंत्रालयों द्वारा चलाए जा रहे हैं। राष्ट्रीय पेयजल मिशन ग्रामीण इलाकों में सुरक्षित पेयजल उपलब्ध कराने की दिशा में कार्य कर रहा है।
सरकार के प्रयासों को आगे बढ़ाने के लिये स्वयंसेवी संगठनों को उसमें शामिल करने एवं उन्हें प्रोत्साहित करने का एक चेतन प्रयास किया जा रहा है। विशेष तौर पर गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान में सफलता की कई कहानियाँ हैं जो जलप्रबन्ध में भागीदारी की उपादेयता को उजागर करती हैं।
रालेगाँव सिद्धि, सुखो-माजरी और पानी पंचायत कुछ मार्गदर्शी प्रयास हैं। राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद और राष्ट्रीय भूमि उपयोग एवं संरक्षण बोर्ड के माध्यम से केन्द्र और राज्य सरकारों के प्रयासों में वांछित तालमेल लाने की व्यवस्था की गई है। हालांकि ये सभी प्रयास सराहनीय हैं फिर भी विकास की वर्तमान गति के लिये इससे भी अधिक निवेश और परिणामों में शीघ्रता लाने की जरूरत है।
अनुसन्धान/शैक्षिक समुदाय को अपने प्रयासों में एकरूपता लानी होगी और ऐसे तौर-तरीके ढूँढने होंगे जिनसे लोगों की आकांक्षाओं को वैज्ञानिक समुदाय से सम्बल मिले। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग ने प्राकृतिक संसाधनों के प्रबन्ध तथा अन्य सामाजिक मुद्दों से सम्बन्धित कार्यक्रम तैयार किये हैं।
विभाग को भारतीय मौसम विभाग, भारतीय मध्यम रेंज मौसम पूर्वानुमान केन्द्र तथा भारतीय सर्वेक्षण विभाग का सहयोग मिल रहा है और इसलिये यह विभाग ऐसा समन्वयकारी ढाँचा तैयार करने की स्थिति में है जिसके अन्तर्गत विभिन्न विभाग और एजेंसियाँ जल क्षेत्र पर कार्य करें, अपनी समस्याओं पर चर्चा करें और उनके सम्भावित हल खोजें।
जल-संसाधनों के इष्टतम प्रबन्ध और राष्ट्र को संयुक्त खाद्य सुरक्षा प्रदान करने की चुनौती का सामना करने के लिये ऐसे समन्वित प्रयासों की जरूरत है। जल ही जीवन है और इसका उपयोग प्यास बुझाने और विवादों को शान्त करने के लिये किया जाना चाहिए।
(लेखक ऊर्जा, विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी राज्यमंत्री हैं।)
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