पानी और कोविड महामारी

हाथ धोना अच्छी आदत
हाथ धोना अच्छी आदत

कोरोना वायरस के बढ़ते संक्रमण से पनपी आशंकाओं के दौर में बताया जा रहा है कि स्वस्थ व्यक्ति औसतन हर घंटे में बीस सेकंड तक अपने हाथ साबुन से अच्छी तरह धोए। हाथों को धोने के लिये पानी का ही इस्तेमाल होगा। हालांकि इस महामारी से मनुष्य को बचाने के लिये जागरूक लोगों के पास लगातार हाथ धोने का अलावा फिलहाल कोई विकल्प नहीं है। लेकिन यदि इस महामारी पर जल्दी ही काबू नहीं पाया गया तो यह सोचकर ही कलेजा कांप उठता है कि उन इलाकों की क्या स्थिति होगी‚ जिन इलाकों में गर्मी की आहट के साथ ही पानी की किल्लत शुरू हो जाती है।

दिन भर में औसतन पंद्रह से बीस बार बीस सैकंड तक लगातार हाथ धोने के लिये पांच सदस्यों के परिवार को करीब डेढ़ सौ लीटर पानी की आवश्यकता होती है। पिछले दिनों राजस्थान के बाड़मेर में आई उन खबरों के अनुसार कई गांव के लोगों ने कहा कि उनके पास घी तो प्रचुर मात्रा में है लेकिन पानी इतना नहीं है कि वे लगातार हाथ धोने की लक्जरी बर्दाशत कर सकें।

पहले लॉकडाउन के अंतिम दिनों में राजस्थान के ही अजमेर से खबर आई कि पानी भरने को लेकर हुए विवाद में एक व्यक्ति की जान चली गई। इस तरह के हादसे हर वर्ष उन इलाकों में देखने को पानी मिलते हैं‚ जहां गर्मी का आगमन पानी की किल्लत का पर्याय होता है। गर्मी के दिनों में देश के कई गांवों के लोग अपनी जरूरत भर पीने का पानी लेने के लिये कई किलोमीटर तक जाने को विवश होते हैं।

हालांकि इस महामारी से मनुष्यता को बचाने के लिये जागरूक लोगों के पास लगातार हाथ धोने का अलावा फिलहाल कोई विकल्प नहीं है‚ लेकिन यदि इस महामारी पर जल्दी ही काबू नहीं पाया गया तो यह सोचकर ही कलेजा कांप उठता है कि उन इलाकों की क्या स्थिति होगी‚ जिन इलाकों में गर्मी की आहट के साथ ही पानी की किल्लत शुरू हो जाती हैॽ

राष्ट्रीय सैंपल सर्विस की रिपोर्ट के अनुसार देश में करीब 21.4 प्रतिशत घरों में ही पाइप-कनेक्शन के माध्यम से जलापूर्ति होती है। आबादी का बड़ा हिस्सा अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिये या तो भूगर्भीय जल के दोहन पर निर्भर है या तालाब‚ झील‚ जोहड़‚ नदी‚ कुओं‚ बावडि़यों और टांकों जैसे जल संसाधनों पर। कुछ लोग तो इतने भी भाग्यशाली नहीं हैं कि उन्हें अपनी जरूरतें पूरी करने के लिये ऐसे किसी जल संसाधन का सहारा मिल जाए। नीति आयोग ने भी कुछ समय पहले अपनी रिपोर्ट में स्वीकार किया था कि देश की आबादी के 40 प्रतिशत हिस्से के पास 2030 तक पीने के पानी की सहज उपलब्धता नहीं रहेगी।

विकास के नाम पर पिछले कुछ वषों में जिस तरह से बड़े शहरों में तालाबों को पाटा गया है और कुंआ– बावडि़यों के अस्तित्व से खिलवाड़ किया गया है‚ उसने समाज में जलापूर्ति के संतुलन पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है। उधर नकदी फसलों के मोह और बदली हुई जीवन शैली ने भी जल संसाधनों पर अपना दबाव बनाया है।

भारत में मार्च माह के बाद अगला मानसून सक्रिय होने तक लोगों की निर्भरता जल संग्रहण के संसाधनों या भूगर्भीय जल पर बहुत बढ़ जाती है। सामान्यतः मानसून के दिनों में भारत में 40 अरब घन मीटर बरसात होती है‚ जिसमें से 11.37 अरब घन मीटर पानी का ही उपयोग सामान्य जीवनचर्या या सिंचाई आदि में हो पाता है। शेष में से 6.90 अरब घन मीटर पानी जल-संग्रहण क्षेत्रों में चला जाता है और 4.47 अरब घन मीटर पानी धरती में रिस (रिचार्ज) जाता है। धरती में रिसा पानी भूगर्भीय जल भंडारों को समृद्ध करता है। इस 4.47 अरब घन मीटर पानी में से 4.11 अरब घन मीटर पानी का ही दोहन संभव होता है। हम सामान्य से अधिक भूगर्भ जल का दोहन करने के आदी हो गये हैं और दुनिया में सर्वाधिक भूगर्भीय जल दोहन करने वाले दस देशों की सूची में हम सबसे ऊपर हैं।

हमने बरसात के जल को स्वयं में संग्रहित करने वाले परंपरागत जल-संरक्षण संसाधनों को तो विकास के नाम पर नष्ट कर दिया है। लेकिन पानी की हमारी जरूरतें लगातार बढ़ाते जा रहे हैं। स्थिति यह हो गई है कि वैश्विक स्तर पर 7600 घन लीटर प्रति व्यक्ति पानी की वार्षिक उपलब्धता के मुकाबले में हमारे पास केवल 1545 घन लीटर प्रति व्यक्ति पानी ही उपलब्ध है। पिछले 50 वर्षों में भारत में प्रतिव्यक्ति पानी की उपलब्धता में तेजी से ह्रास हुआ है। पानी की उपलब्धता में निरंतर कमी हो रही है‚ दूसरी तरफ बदली हुई जीवनशैली ने पानी के उपयोग को कई गुना बढ़ा दिया है।
 

जब सुबह हम एक कप चाय पीते हैं तो प्रत्यक्ष तौर पर तो लगभग आधा कप पानी का ही इस्तेमाल करते हैं, लेकिन जब हम दुग्ध और चाय उत्पादन आदि की संपूर्ण प्रक्रिया में खर्च होने वाले पानी को भी आनुपातिक तौर पर अपने ही उपभोग में जोड़ते हैं तो हम पाते हैं कि एक कप चाय पीने के लिये हम करीब ३५ लीटर पानी का उपयोग करते हैं।

1993 में प्रो. जॉन एलन ने बताया कि जब हम किसी वस्तु का उपयोग करते हैं तो उसके उत्पादन‚ पोषण‚ पल्ल्वन या निर्माण में होने वाले जल का उपयोग भी तो हमीं करते हैं। उन्होंने इस तरह आभासी जल (VIrtual-Water) के उपयोग को जानने के लिये कुछ सूत्र दिये। इसके अनुसार जब सुबह हम एक कप चाय पीते हैं तो प्रत्यक्ष तौर पर तो लगभग आधा कप पानी का ही इस्तेमाल करते हैं, लेकिन जब हम दुग्ध और चाय उत्पादन आदि की संपूर्ण प्रक्रिया में खर्च होने वाले पानी को भी आनुपातिक तौर पर अपने ही उपभोग में जोड़ते हैं तो हम पाते हैं कि एक कप चाय पीने के लिये हम करीब ३५ लीटर पानी का उपयोग करते हैं।

प्रो.एलन ने इस सिद्धांत को निरूपित करते हुए यह भी कहा था कि जब हम थोड़ा सा भी भोजन झूठन में छोड़ते हैं तो हम उस उर्जा‚ जल और पदार्थ का भी उपयोग करते हैं‚ जो किसी फसल को तैयार करने से लेकर भोजन बनाने तक की संपूर्ण प्रक्रिया में व्यय होती है। इसके अलावा यदि झूठन में फेंका गया भोजन किसी कचरे के ढेर में जाता है तो वह उस ग्रीन हाउस इफेक्ट को भी पैदा करता है। जिसे पर्यावरण के लिये अत्यधिक खतरनाक पाया गया है। बुजुर्ग इस सत्य को हजारों साल पहले जानते थे‚ जो उन्होंने झूठन छोड़ने को वर्जित कहा था। शास्त्रकारों ने तो पानी को भी बहुत पवित्र कहा है और इसकी प्रत्येक बूंद के अपव्यय को बुरा बताया है। पानी का पर्यायवाची नारा भी है और नारा में अयन अर्थात् अपना घर बनाने के कारण ही विष्णु का विरूद नारायण भी हुआ।

पानी में न केवल जीवन को जन्म देने की क्षमता है अपितु जीवन को बचाने का दारोमदार भी है। रहीम ने कहा था
रहीमन पानी राखिये‚ बिन पानी सब सून
पानी गये न ऊबरे– मोती‚ मानुष‚ चून ॥

फिर से इस सवाल को दोहराते हैं कि इस महामारी से मनुष्यता को बचाने के लिये जागरूक लोगों के पास लगातार हाथ धोने का अलावा फिलहाल कोई विकल्प नहीं है‚ लेकिन यदि इस महामारी पर जल्दी ही काबू नहीं पाया गया तो यह सोचकर ही कलेजा कांप उठता है कि उन इलाकों की क्या स्थिति होगी‚ जिन इलाकों में गर्मी की आहट के साथ ही पानी की किल्लत शुरू हो जाती हैॽ

 

 

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