एक दिन वे अपने कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति से मिलने गए, जो उन्हें बेहद स्नेह करते थे और यह सवाल उनके सामने रखा कि आखिर रासायनिक खेती में मैं कोर्इ गलती नहीं करता, विधि अनुसार खेती करता हूं, फिर क्यों उपज नहीं बढ़ती? उन्होंने जवाब दिया - रासायनिक खाद की मात्रा बढ़ाओ, उपज भी बढ़ेगी। पालेकर समझ गए कुलपति के पास उनके सवाल का जवाब नहीं है। पालेकर जी ने पूर्व में आदिवासियों के बीच एक शोध किया था । वे उनके बीच तीन सालों तक जाते रहे। जंगल की विविधता को देखा और उसका अध्ययन किया। वे यह सोचते रहे कि आखिर में कोर्इ रासायनिक खाद नहीं डालता और न ही सिंचार्इ करता, फिर जंगल हरा-भरा क्यों है?
आज किसान, खेती और गांव अभूतपूर्व संकट के दौर से गुजर रहे हैं। हरित क्रांति के साथ आए संकर बीजों की चमक अब फीकी पड़ने लगी है। अब किसान अपने आपको ठगा सा महसूस कर रहे हैं। ज्यादा लागत और कम उपज ने उनकी कमर तोड़ दी है। नौबत यहां तक आ पहुंची है कि वे अपनी जान देने पर मजबूर हैं। लेकिन कृषि वैज्ञानिक सुभाष पालेकर ने आधुनिक रासायनिक कृषि पद्धति का विकल्प पेश कर रहे हैं, जिससे न केवल किसान अपनी खेती को सुधार सकते हैं बल्कि इससे उनकी खेती व गांव आत्मनिर्भर बन सकेंगे। सुभाष पालेकर खुद किसान परिवार से हैं। बचपन से खेती से गहरा लगाव रहा। कृषि की पढ़ार्इ करने के बाद फिर वे गांव की ओर लौट आए। खेती करने लगे, जो उनको हमेशा ही भाती थी। आज वे मशहूर कृषि वैज्ञानिक हैं, जिनकी अनूठी कृषि पद्धति की चर्चा देश-दुनिया में हो रही है। पिछले कुछ सालों से पालेकर जी ने एक अनूठा अभियान चलाया हुआ है- जीरो बजट आध्यात्मिक खेती का। इस अभियान से प्रेरित होकर करीब 40 लाख किसान इस पद्धति से खेती कर रहे हैं। हाल ही में (4 से 8 सितंबर) उनका शिविर मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर में हुआ, जहां मैंने उनसे लंबी बातचीत की।शिविर में करीब दो सौ किसान थे। पालेकर जी जीरो बजट खेती के बारे में धारा प्रवाह बताते हैं। कभी ब्लैकबोर्ड पर लिखकर समझाते हैं। किसान मनोयोग से सुनकर अपनी कापी में नोट करते जाते हैं। अपने सवाल पूछते हैं। सच में हमारे देश के स्कूल ऐसे ही होने चाहिए, जहां छात्र सवाल पूछ सके। मैं इसे देखकर अभिभूत हूं, यह पालेकर जी की अनूठी पाठशाला थी। वे इसमें बताते हैं कैसे बंजर होती ज़मीन फिर से उर्वर बन सकती है। क्यों मिश्रित फसलें लगानी चाहिए। पौधों के पत्ते किस तरह सूरज की रोशनी से अपना भोजन तैयार करते हैं। क्यों सोयाबीन की खेती को फैलाया गया। हरित क्रांति से किसको फायदा हुआ, इत्यादि। किसान मंत्रमुग्ध होकर सुनते जाते हैं, उन्हें पालेकर जी बहुत उम्मीद है। वे बताते हैं कि इस अभियान को शुरू करने से पहले खुद रासायनिक खेती करते थे। उन्होंने 1972 से 1985 तक इस कृषि पद्धति से खेती की। लेकिन पूरी तरह वैज्ञानिक पद्धति से खेती करने के बाद भी उसमें उपज बढ़ने की बजाए घटती जा रही थी। चूंकि वे कृषि वैज्ञानिक थे, उनके घर उनके कृषि वैज्ञानिक मित्र आते थे, वे उनके इस बारे में बातें करते रहते थे।
एक दिन वे अपने कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति से मिलने गए, जो उन्हें बेहद स्नेह करते थे और यह सवाल उनके सामने रखा कि आखिर रासायनिक खेती में मैं कोर्इ गलती नहीं करता, विधि अनुसार खेती करता हूं, फिर क्यों उपज नहीं बढ़ती? उन्होंने जवाब दिया - रासायनिक खाद की मात्रा बढ़ाओ, उपज भी बढ़ेगी। पालेकर समझ गए कुलपति के पास उनके सवाल का जवाब नहीं है। पालेकर जी ने पूर्व में आदिवासियों के बीच एक शोध किया था । वे उनके बीच तीन सालों तक जाते रहे। जंगल की विविधता को देखा और उसका अध्ययन किया। वे यह सोचते रहे कि आखिर में कोर्इ रासायनिक खाद नहीं डालता और न ही सिंचार्इ करता, फिर जंगल हरा-भरा क्यों है?
वर्ष 1988 से 1994 के बीच अपने खेत में खेती के प्रयोग किए। वे अमरावती, महाराष्ट्र से हैं। इस प्रयोग में काफी खर्च आया। यहां तक कि पत्नी के गहने-जेवर भी बेचने पड़े। इस बीच वे अपने प्रयोगों के बारे में समाचार पत्रों व पत्र-पत्रिकाओं में लिखने लगे। धीरे-धीरे उनके प्रयोगों की चर्चा होने लगी और उन्हें काफी सराहना मिली। इस बीच वे पुणे में बलिराजा नाम की पत्रिका से जुड़ गए, जहां से उनकी कृषि पद्धति का प्रचार-प्रसार हुआ। यहां वे वर्ष 1996 से 1998 तक रहे। लेकिन किसानों के बीच जाकर उन्हें इस अभियान से जोड़ने की छटपटाहट के कारण वे जल्द ही वहां से पुन: गांव में आ गए।
और इसके बाद किसानों के बीच जा जाकर उन्हें जीरो बजट आध्यात्मिक कृषि के बारे में बताने लगे। उनके लिए शिविर करने लगे। उनके अनुसार अब तक 40 किसानों ने इस पद्धति को अपना लिया है। उन्होंने इस काम को आगे बढ़ाने के लिए यह तय किया कि वे किसानों के लिए आयोजित किसी भी शिविर में कोर्इ मानदेय नहीं लेंगे और दूसरा खुद से किसी के पास जाकर इसका प्रचार नहीं करेंगे। अगर हां किसान चाहेंगे तो वहां जाकर शिविर करेंगे। इस तरह से यह सिलसिला शुरू हुआ, जो अब निरंतर जारी है।
पालेकर कहते हैं कि हम धरती माता से लेने के बाद उसके स्वास्थ्य के बारे में भी सोचें। यानी बंजर होती ज़मीन को कैसे उर्वर बनाएँ, इस पर सोचना जरूरी है। उपज के लिए मित्र जीवाणुओं की संख्या बढ़ाना चाहिए। खेतों में नमी बनी रहे, इसके लिए ही सिंचार्इ करें। हरी खाद लगाएं। देसी बीजों से ही खेती करें। इसके लिए बीजोपचार विधि अपनाएं। फसलों में विविधता जरूरी है। मिश्रित खेती करें। द्विदली फसलों के साथ एकदली फसलें लगाएं। खेत में आच्छादन करें, यानी खेत को ढककर रखें। खेत को कृषि अवशेष ठंडल व खरपतवार से ढक देना चाहिए। खेत को ढंकने से सूक्ष्म जीवाणु, केंचुआ, कीड़े-मकोड़े पैदा हो जाते हैं और ज़मीन को छिद्रित, पोला और पानीदार बनाते हैं। इससे नमी भी बनी रहती है।खेत का ढकाव एक ओर जहां ज़मीन में जल संरक्षण करता है। यहां के उथले कुओं का जल स्तर बढ़ता है। वहीं दूसरी ओर फसल को कीट प्रकोप से बचाता है क्योंकि वहां अनेक फसल के कीटों के दुश्मन निवास करते हैं। जिससे रोग लगते ही नहीं है। इसी प्रकार रासायनिक खाद की जगह देशी गाय के गोबर-गोमूत्र से बने जीवामृत व अमृतपानी का उपयोग करें। यह उसी प्रकार काम करता है जैसे दूध को जमाने के लिए दही। इससे भूमि में उपज बढ़ाने में सहायक जीवाणुओं की संख्या बढ़ेगी और उपज बढ़ेगी। एक गाय के गोबर- गोमूत्र से 30 एकड़ तक की खेती हो सकती है।
कुल मिलाकर, इस जीरो बजट खेती से भूमि और पर्यावरण का संरक्षण होगा। जैव विविधता बढ़ेगी, पक्षियों की संख्या बढ़ेगी भूमि में उत्तरोतर उपजाऊपन बढ़ेगा। किसानों को उपज का ऊंचा दाम मिलेगा और जो आज ग्लोबल वार्मिंग हो रही है, जिसमें रासायनिक खेती का योगदान बहुत है, उससे निजात मिल सकेगी। किसान और गांव आत्मनिर्भर बनेंगे और खुशहाल होंगे।
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