चेतना वर्मा
दक्षिण कोरिया के एक धनी और गरीब परिवार पर बनी ‘पैरासाइट’ फिल्म बीते वर्ष 2019 में रिलीज हुई। 2020 में फिल्म ने ऑस्कर जीता, तो दुनिया भर का विशेष ध्यान फिल्म की तरफ आकर्षित हुआ। फिल्म में किम परिवार (चार लोगों का परिवार) को दिखाया गया है, जो छोटे, घुटन भरे और तंग सेमी-बेसमेंट-अपार्टमेंट में रहता है, जो दर्शकों के सामने उनकी तत्काल सामाजिक कमजोरियों को प्रकट करता है। कहानी के आगे बढ़ने के साथ ही धनी और विशेषाधिकार प्राप्त ‘पार्क’ परिवार (चार लोगों को परिवार) को दिखा गया है, जो एक भव्य और स्थापत्य रूप से प्रतिष्ठित विला में रहते हैं। विला देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि यहां प्रकृति की अनुकंपा बरसती और विला के हरे-भरे आंगन में सूर्य की किरणें चमकती हैं।
फिल्म उस समय के विरोधाभासों को प्रभावी ढंग से उजागर करती है, जिसमें हम रह रहे हैं, लेकिन ये लेख इस फिल्म में दिखाए गए चलचित्र संबंधी (cinematic) अनुभवों के बारे में नहीं है। यह लेख फिल्म के एक छोटे से हिस्से पर आधारित है, जो प्रभावी रूप से ये दर्शाता है कि खतरनाक घटनाएं कैसे अलग-अलग लोगों को प्रभावित करती हैं। इंटरवल के बाद, फिल्म में कुछ घंटों से लगातार हो रही बारिश को दर्शाया गया है, जो ‘किम‘ और ‘पार्क’ परिवार की पसंद के बीच गहरे सामाजिक विभाजन को उजागर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। दूसरी तरफ, पार्क परिवार की जन्मदिवस कैंपिंग पानी के ओवरफ्लो (बाढ़) के कारण बर्बाद हो गई, जबकि किम परिवार का संपूर्ण जीवन ही जलमग्न था। सुरक्षित स्थानों पर बने घरों से ढलान से नीचे की तरफ आने वाला पानी और गंदगी गरीबों की जिंदगी में दयनीय रूप से प्रवेश कर गई। अगले दृश्य में बाढ़ प्रभावित परिवारों को एक व्यायामशाला में आश्रय लेते देखा गया। यहां प्रभावितों के लिए बिस्तर, भोजन और दान किए हुए कपड़े उपलब्ध थे। आपदा अध्ययन की एक स्काॅलर होने के बावजूद भी मैं वंचितों की मद्द तो नहीं कर सकती, लेकिन फिल्म में दिखाए गए वंचितों (विपन्न लोग) और भारत के वंचितों के बीच आपदा के संदर्भ में तुलना की जा सकती है। सियोल में आपदा प्रभावितों को उपलब्ध कराया गया आश्रम, भारत में आपदा के दौरान प्रदान कराए जाने वाले आश्रय से अधिक सुखभोगी व विलासी लग रहा था।
यहां साझा की गई मेरी थीसिस के कुछ अंश ये दर्शाते हैं कि कैसे हमारी आपदा और विकास नीतियां महत्वपूर्ण समय में वंचित समुदायों को विफल करती हैं।
मालिया की न्यू रेलवे स्टेशन काॅलोनी निवासी 28 वर्षीय फातिमा (बदला हुआ नाम), बाढ के समय को स्मरण करते हुए कहती है कि ‘‘सुबह 9 बजे पानी आना शुरू हो गया था और 9 बजकर 30 मिनट पर सब कुछ बाढ़ के पानी में बह गया। हम सभी छत पर चले गए थे। इसके बाद तेज बारिश शुरू हो गई थी। कच्चे मकान पानी में बह गए थे। हमारे साभी कपड़े, भोजन और फर्नीचर को बाढ़ का पानी अपने साथ बहा ले गया था। पूरे दिन और पूरी रात हम बिना भोजन-पानी के छत पर ही खड़े रहे। तेज हवा के साथ लगातार मूसलाधार बारिश हो रही थी। ये मेरी जिंदगी का सबसे खराब समय था। सभी लोगों को इन हालातों में देखना अच्छा एहसास नहीं था। छतों पर फंसे सैंकड़ों लोग जान बनाए जाने का इंतजार कर रहे थे, लेकिन सरकार की ओर से प्रभावी रूप से आने वाली मद्द के बजाए लोगों को हमेशा की तरह खुद प्रयासों और गैर सरकार संगठनों (एनजीओ) पर ही निर्भर हो पड़ा। जिला कलेक्टर द्वारा फंसे हुए लोगों की मद्द करने लिए हैलीकाॅप्टर तैनात किया गया था, लेकिन जिन क्षेत्रों में लोगों को बचाया जाना ज्यादा आवश्यक था, वहां की भौगोलिक स्थिति के बार में जिला कलेक्टर और पायलट दोनों को ही नहीं पता था। मालिया में ( वर्ष 2018) एक गैर सरकारी संगठन की फील्ड पर्यवेक्षक सुप्रिया जडेजा (बदला हुआ नाम) ने कहा कि वे चाहते थे कि हम उन प्रभावित इलाकों और गांवों का नक्शा तैयार करें, जहां लोग फंसे हुए थे। उनका आइडिया था कि नक्शे की एक तस्वीर खींचकर पायलट को भेजी जाए। लोगों को बचाने के लिए एक बार पहले भी हेलीकाॅप्टर ने क्षेत्र का दौरा किया था, लेकिन पायलट को प्रभावित क्षेत्रों के बारे में नहीं पता था और न ही ये पता था कि किन क्षेत्रों से प्रभावितों को रेस्क्यु करना है। इसका उनके पास कोई सुराग भी नहीं था। यहां तक कि कलेक्टर को भी ये नहीं पता था कि रिखडिया घर और कोबा घर कहां स्थित हैं।
मालिया क्षेत्र में एनडीआरएफ के हेलीकाॅप्टर द्वारा कुल 11 लोगों को रेस्क्यु कर बचाया गया था।
22 जुलाई को काफी तेजी बारिश हो रही थी। इस दौरान लोग अपनी छतों पर फंसे हुए थे। इस दिन पूर्व संध्या पर राहत अभियान चलाया गया, लेकिन लोगों ने राहत अभियान की सराहना नहीं की। हेलकाॅप्टर से राहत के तौर पर गिराई गई खाद्य सामग्रियों को गांठिया और बूंदी थी, जो कि एक प्रकार का हल्का स्थानीय नाश्ता है। जिन लोगों ने सुबह से कुछ नहीं खाया था, वे पानी में गिर रहे खाने के पैकेटों को पकड़ने की बहुत कोशिश कर रहे थे। लोग सहाय महसूस कर रहे थे और उन्हें ये भी नहीं पता था कि अगला भोजन कब मिलेगा, इसलिए उन्हें उन्हीं पैकेटों से भोजन करना पड़ा। यह सरकार और समुदायों के बीच अविश्वास को दर्शाता था।
मालिया शहर के न्यू रेलवे स्टेशन काॅलोनी की रहने वाली फातिमा ने बताया कि हमारे पास भोजन और पानी नहीं था। यहां तक कि बारिश से खुद को बचाने के लिए भी हमारे पास कुछ नहीं था। इसी तरह से पूरा दिन निकल गया था। हर तरफ केवल पानी ही था, इसलिए सीढ़ियों से नीचे जाने को विकल्प भी नहीं था। हम सभी छत पर इंतजार कर रहे थे। मदद के लिए प्रार्थना कर रहे थे। इतना समय बीत जाने के बाद हम सभी ने उम्मीद लगभग खो ही दी थी, लेकिन शाम के पांच बजे एक हैलीकाॅप्टर आया और हमारे खाने के लिए भोजन के पैकेट छोड़ने लगा। हांलाकि, वे जो भी भोजन के पैकेट फेंक रहे थे, वह छत पर खड़े लोगों तक पहुंचने के बजाए पानी में जा रहा था, लेकिन लोग भूख से इतने व्याकुल थे कि लाठी की मदद से पैकेटों को पानी से निकाल रहे थे। बाहर निकालने के बाद पता चला कि पैकेटे के अंदर पानी भर गया है, लेकिन बच्चे इतने ज्यादा भूखे थें कि उन्होंने पानी भरे पैकेट वाले भोजन को ही खा लिया। फातिमा ने बताया कि जिन 400-500 घरों में पानी भर गया था, उनमें से किसी के पास भी भोजन या पानी नहीं था। सब कुछ इतनी तेजी से हुआ कि किसी को भी कुछ भी इकट्ठा करने का मौका नहीं मिला। घर में जो कुछ भी था, वह नष्ट हो गया था।
आपदाओं के दौरान यह केवल मार्जिनलाइज्ड ग्रुप के जीवन के लिए ही खतरा नहीं है, बल्कि उनकी गरीमा के लिए भी खतरा है, जिसके साथ अथाॅरिटी समझौता कर लेती है। इस दौरान पीड़ित लोगों को भोजन प्रदान करना और आश्रय की कल्पना करना एक एहसान के रूप में की जाती है, न कि उनके अधिकार और राज्य की जिम्मेदारी के रूप में।
1 जून 2016 को भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश की पहली राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना जारी की थी। आपदा के नुकसान को कम करने के लिए वैश्विक ढांचे के आधार पर, आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिए सेंदाई फ्रेमवर्क, इस डीएम योजना का उद्देश्य सिर्फ भारत आपदा को लचीला बनाना नहीं है, बल्कि जीवन और संपत्ति के नुकसान को काफी कम करना है। प्रारंभिक चेतावनी, प्रभावी संचार, स्वास्थ्य देखभाल, परिवहन, ईंधन, बचाव अभियान, निकासी आदि योजना द्वारा पहचानी जाने वाली प्रमुख गतिविधियों में शामिल हैं। आपदा के दौरान उत्तरदायी एजेंसियों को इन सभी गतिविधियों को जांचने की आवश्यकता होती है, लेकिन 2017 में आई बाढ़ के मामले में यह सभी पूरी तरह से गायब थे। कोई भी यह समझ सकता है कि वर्ष 1986 के सूखे और 2001 के दौरान भुज में आए भूंकप में डीएम एक्ट, नीतियां, मानक संचालन दिर्शानिर्देश और प्लान लागू ही नहीं हुए थे। लेकिन बाढ़ के लिए जबावदेह एजेंसियों/अधिकारियों द्वारा प्रतिक्रिया और राहत केंद्रित दृष्टिकोण ही अपनाया गया था। यहां तक कि समन्वय पूरी तरह से गायब था।
मालिया की वुमन कम्युनिटी लीटर ने बताया था (मई 2018) कि बाढ़ से पहले हमें प्रशासन से कोई सूचना नहीं मिली थी। आधी रात को ही एक घोषणा की गई थी, जिसमें बताया गया कि बाढ़ की तीव्रता के बारे में जानकारी का अभाव है। किसी भी स्तर पर ये नहीं बताया कि बाढ़ से बचने के लिए लोगों को क्या करना चाहिए और क्या नहीं। उन्होंने बताया कि बचाव अभियानों में समन्वय का अभाव था और महिलाओं, बच्चों, दिव्यागों और बुजुर्गों की विशिष्टि आवश्यकताओं को ध्यान में नहीं रखा गया था। वो वास्तव में बचाव कार्य नहीं था, बल्कि सरकार की छवि को बचाने के लिए किया जा रहा कार्य था। आपदा प्रबंधन से अधिक ये मलिया में अधिकारियों द्वारा छवि प्रबंधन अभ्यास था।
गुजरात में आई बाढ़ तो सिर्फ एक उदाहरण है कि कैसे भारत का आपदा प्रबंधन हमारे समाज में मौजूद असमानताओं को बढ़ाता है। हालिया उदाहरण बिहार बाढ़ का है, जिसने 2019 में पूर्वी भारतीय शहर पटना को बुरी तरह से प्रभावित किया था। आपदा प्रक्रिया और राहत कार्य में शामिल एक बड़े संगठन के साथ काम करने वाले एक आपदा प्रबंधन पेशेवर ने अपना अनुभव साझा करते हुए कहा कि अमीर और गरीब जैसे उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, डाॅक्टर, राजनीतिक नेताओं और गरीब बस्तियों सहित उच्च प्रोफाइल के लोग समान रूप से फंसे हुए थे, लेकिन 2019 में पटना शहर में आने वाले शहरी बाढ़ राहत वितरण कार्यक्रमों में स्पष्ट रूप से असमानताएं थीं। राहत कार्यक्रम सरकारी और गैर सरकारी दोनों संगठनों द्वारा वीआईपी लेन पर अधिक केंद्रित थे। गरीबों के प्रति असंवेदनशील और पक्षपाती प्रकृति को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता था। बिहार बाढ़ के दौरान लोग अपना सब कुछ खो चुके थे। वे घुटनों तक चढ़ आए पानी में खड़े होकर राहत की प्रतीक्षा कर रहे थे, लेकिन जब राहत ट्रक/ट्रैक्टर स्लम क्षेत्रों से गुजरने लगे तो लोगों को पीछे धकेल दिया गया और राहत सामग्री तक पहुंचने से पहले रोक दिया गया।
दरअसल, सबसे नीचे के तबके के लोगों को हर दिन अपनी कमजोरियों का सामना करना पड़ता है और विनाशकारी घटनाओं के समय उन्हें पीछे धकेल दिया जाता है। वे नई कमजोरियों (जैसे स्वास्थ्य, वित्त, संपत्ति का नुकसान) के संपर्क में आते हैं, जिनसे उबरने का कोई साधन नहीं है। कोई भी उन्हें आपदाओं का सामना करने के लिए तैयार नहीं करता है। कोई भी उन्हें आपदाओं से निपटने में मदद नहीं करता है। उनकी बात ही कोई नहीं करता है। इस लेख ने समस्या के केवल एक ही हिस्से को छुआ है। लिंग, वर्ग, जाति, शहरी-ग्रामीण विभाजन के बारे में बात करने के लिए बहुत कुछ है। अगर कभी पैरासाइट फिल्म भारतीय संदर्भ में फिल्माई गई हो, तो ऐसे लोग शहरी भखंड में उद्यम शायद न करें। क्योंकि उन तक किसी प्रकार की मदद पहुंचने से पहले ही वे एक छत पर फंस जाएंगे।
(लेखिका चेतना वर्मा ने मुंबई के टीआईएसएस से आपदा प्रबंधन में एमएससी की है और 8 वर्षों से डेवलपमेंट पत्रकार के तौर पर काम कर रही हैं।)
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