पैंगोलिन की मौजूदगी से चंबल घाटी में कौतूहल

बेहद शर्मीली प्रवृति का जीव पैंगोलिन भोजन के रूप में अमूमन दीमक अथवा चीटिंयों को अपना निवाला बनाता है। इस जीव की विचित्र वनावट होती है। इसकी चमड़ी की बनावट टायल्स के छोटे सेल की मानिंद होती है। अपने भोजन की तलाश में यह यदा-कदा जमीन से बाहर भी निकल आता है। यह जीव अपने ऊपर खतरे की आशंका को भांपते हुए खुद को कुंडली मार कर छिपा लेता है, जिससे यह खतरा पहुंचाने वाले जीवों अथवा शिकारियों से खुद को बचा लेता है।

चंबल घाटी में कितने प्रकार के दुर्लभ जीव हैं इस बात की गणना तो आज तक सही ढंग नहीं हो सकी है लेकिन लुप्तप्राय प्रजाति के पैंगोलिन की खासी मौजूदगी ने इस बात को साबित कर दिया है चंबल में पैंगोलिन का भी वासस्थल है इसी वजह से यह बात भी बलवती हो चली है कि पैंगोलिन की गणना करा कर सही स्थिति का आंकलन कर लिया जाये। अजीबो-गरीब काया वाला यह जीव इटावा में पहली बार साल 1998 में देखा गया था तब काफी हडकंप मच गया था कोई इसे डायनासोर प्रजाति का जानवर तो कोई इसे खतरनाक जीव मान रहा था। खुद वन अमले ने इस जीव को सुरक्षित रखने की गरज से लखनऊ चिड़ियाघर भिजवाया था उसके बाद लगातार पैंगोलिन के निकलने का सिलसिला जारी है। इटावा के वन क्षेत्राधिकारी वी.के सिंह बताते है कि भारत में यह प्रजाति संरक्षित है क्योंकि उसे वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची प्रथम में रखा गया है। नेपाल में भी इस प्रजाति का शिकार प्रतिबंधित है।

यह बंगलादेश, चीन, भारत, म्यांमार, नेपाल, ताईवान, थाइलैंड और वियतनाम में राष्ट्रीय और उपराष्ट्रीय कानूनों से संरक्षित है। हालांकि विविध प्रकार की इसकी प्रजातियां सुरक्षित क्षेत्रों में हैं लेकिन इस प्रजाति के संरक्षण के लिए केवल सुरक्षित क्षेत्र का दर्जा काफी नहीं है। इटावा में जिस तरह से पैंगोलिन जमीन से सतह पर आ रहे उससे एक बात साफ हो चली है कि यहा पर पैंगोलिन की मौजूदगी खासी तादाद में है इसलिये इसकी गणना की अब जरुरत महसूस हो रही है। बेहद शर्मीली प्रवृति का यह जीव भोजन के रूप में अमूमन दीमक अथवा चीटिंयों को अपना निवाला बनाता है। इस जीव की विचित्र वनावट होती है। इसकी चमड़ी की बनावट टायल्स के छोटे सेल की मानिंद होती है। अपने भोजन की तलाश में यह यदा-कदा जमीन से बाहर भी निकल आता है। यह जीव अपने ऊपर खतरे की आशंका को भांपते हुए खुद को कुंडली मार कर छिपा लेता है, जिससे यह खतरा पहुंचाने वाले जीवों अथवा शिकारियों से खुद को बचा लेता है।

वन्य जीव विशेषज्ञ एवं सोसायटी फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर के सचिव डॉ. राजीव चौहान के मुताबिक वन्य जीवों के लिए यह खुशखबरी है कि चंबल घाटी में अभी तक सामने आने वाले तेंदुआ, हिरन, लकड़बग्घा, सांभर एवं अजगर जैसे ही जीवों को शहरी क्षेत्रों में विचरण करते हुए देखा गया था मगर अब यह साबित हो चुका है इस घाटी में पैंगोलिन भी बड़ी संख्या में मौजूद हैं। पैंगोलिन की काया देखकर बेशक लोग भयभीत हो जाते हों, परंतु यह इंसानों से मित्रवत व्यवहार करते हैं। शिकारी इस दुर्लभ जीव का मांस खाने के लिए शिकार करते हैं क्योंकि इसके मांस का स्वाद मांसाहारियों को खासा भाता है। इसकी चमड़ी पर लगे चत्तों को हटाकर इनका भक्षण किया जाता है। गौरतलब है कि तमाम दुर्लभ जीवों, औषधियों एवं जड़ी बूटियों वाली इस घाटी में पैंगोलिन की मौजूदगी सुखद है। तमाम विविधताओं को अपने में समाहित किए हुए चंबल घाटी में पैंगोलिन जैसे दुर्लभ जीव बहुतायत में पाए जाने की संभावनाओं को बल मिला है। जिस प्रकार से यह जीव प्राकृतिक वासस्थल जंगलों से निकल शहरी क्षेत्र में देखे गए हैं उससे इनकी अधिकता के संकेत मिल रहे हैं।

पैंगोलिन के बारे में अनभिज्ञ लोगों को यह किसी अजूबे से कम नजर नहीं आ रहा है। लुप्त प्राय पैंगोलिन जीव को देख करके हर किसी की रूह कांप जाती है लेकिन इसके बावजूद लोग इस पैंगोलिन को गेंद की माफिक हाथ में लेकर खेलने से कतई नहीं चूक रहे हैं उनको यह कोई जीव नहीं बल्कि एक बड़ी गेंद नुमा लग रहा है। इटावा जिले के भरथना इलाके के नगला राजा गांव में यह पैंगोलिन निकला है। पैंगोलिन निकलने के बाद इलाके में हड़कंप मच गया। इलाकाई लोगों ने डर के कारण इस पैंगोलिन को रस्सी से बांध लिया उसके बाद आई वन विभाग की टीम और सोसायटी फॉर कंजरवेशन आफ नेचर के सचिव डॉ.राजीव चौहान ने इस पैंगोलिन को अपने कब्जे में लेकर फिशर वन में छुड़वा दिया है। इटावा में पैंगोलिन करीब 2 साल बाद निकला है। इटावा में 1998 में यह जीव पहली बार निकला था। नगला राजा में रात्रि के वक्त एक घर में चींटी खाने वाले आंटइटर जानवर के निकल आने से अफरा-तफरी मच गई।

पैंगोलिनपैंगोलिनइस जंतु का भय ग्रामीणों पर इस कदर छाया रहा कि वह रात्रि भर सो नहीं सके। सुबह के वक्त वन विभाग के लोग गांव में पहुंचे तो उन्हें ग्रामीणों की गुस्सा का भी सामना करना पड़ा। हालांकि बाद में वन कर्मियों ने इस जानवर को पकड़ कर जंगल में ले जाकर छोड़ दिया। इस जीव को देखने के बाद गांव के लोग खासे दहशत में रहे वहीं शहरी और जानकार लोग पैंगोलिन को हाथों में लेकर गेंद बना करके खेलते हुये देखे जा रहे है। इस लुप्तप्राय जीव को पैंगोलिन,सल्लू सांप और आनटीटर के नाम से पुकारा जाता है। अपने शर्मीले स्वाभाव के कारण यह जीव कौतूहल का विषय बना रहता है आमतौर पर चीटियों और दीमक ही इसका मुख्य भोजन माना जाता है। इस जीव को वनविभाग ने लुप्तप्राय श्रेणी में दर्ज कर रखा है।

इस दुर्लभ जीव के बारे में कहा जाता है कि पैंगोलिन या शल्की चींटी खोर कौतुहल पैदा करने वाला प्राणी है। देश में दो तरह के पैंगोलिन पाये जाते हैं-भारतीय और चीनी। चीनी पैंगोलिन पूर्वात्तर में पाया जाता है। दुनियाभर में पैंगोलिन की सात प्रजातियां पायी जाती हैं। लेकिन वनों में पाये जाने वाले चीनी पैंगोलिन की संख्या के बारे में कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है इसके बावजूद भी दक्षिण एशियाई देशों में उनकी बहुत बड़ी मांग है। पैंगोलिन का शरीर लंबा होता है जो पूंछ की ओर पतला होता चला जाता है। दिखने में यह जीव अजीब सा दिखाई देता है। इसके शरीर पर शल्क होते हैं। ये शल्क सुरक्षा कवच का काम करते हैं। लेकिन थूथन, चेहरे, गले और पैरों के आतंरिक हिस्सों में शल्क नहीं होते । शल्क को चित्तीदार कांटे के बजाय बाल के रूप में देखा जा सकता है। हालांकि पुराने पड़ने और झड़ने के साथ ही शल्क के आकार प्रकार घटते बढ़ते रहते हैं। इनका रंग भूरे से लेकर पीला तक होता है। शरीर का शल्कमुक्त भाग सफेद, भूरे और कालापन लिए होता है पैंगोलिन रात्रिचर प्राणी होते हैं और अक्सर निर्जन स्थानों पर दिखते हैं। हालांकि ये जमीन पर पाये जाने वाला प्राणी हैं लेकिन ये चढ़ने में बड़े माहिर होते हैं। इनके अगले पैर से पेड़ पर अच्छी पकड़ होती है। पैंगोलिन चींटियों की खोज में दीवारों पर और पेड़ों पर चढ़ते हैं और इसमें पूंछ भी उनका बहुत सहयोग करती है।

दिन के समय ये बिलों में छिपे होते हैं। इन बिलों के मुंह भुरभुरी मिट्टी से ढक़े होते हैं इनके बिल करीब छह मीटर तक लंबे होते हैं। ये बिल जहां चट्टानी स्थलों पर डेढ से पौने दो मीटर तक लंबे होते हैं, वहीं भुरभुरी मिट्टी वाले स्थानों पर यह छह मीटर तक लंबे होते हैं। पैंगोलिन का पिछला हिस्सा चापाकार होता है और कभी-कभी वे पिछले पैरों पर खड़े हो जाते हैं। पैंगोलिन के दांत नहीं होते। पैंगोलिन अपनी रक्षा के लिए बॉल के आकार में लुढ़कता है। इसकी मांसपेशियां इतनी मजबूत होती हैं कि लिपटे हुए पैंगोलिन को सीधा करना बड़ा कठिन होता है। कोई मजबूत मांस भक्षी ही इनका शिकार कर सकता है। तथाकथित औषधि उद्देश्यों के लिए पैंगोलिन को मार डालने और उसके पर्यावास को नष्ट करने से उसकी संख्या काफी घट गयी है।

पैंगोलिन की अधिकतर आबादी खतरे में है। एशियाई पैंगोलिन घटते जा रहे हैं, क्योंकि लगातार इनके पर्यावास खत्म होते जा रहे हैं और इनकी त्वचा और शल्क के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और मांस के लिए इनका शिकार किया जाता है। दुनिया के कई हिस्सों में पारंपरिक औषधियों के निर्माण के लिए शल्क की काफी मांग होती है। कहा जाता है कि पैंगोलिन का मांस अस्थमा के इलाज और रक्त परिसंचरण बढ़ाने में कारगर होता है।पैंगोलिन की आंखें छोटी होती है और पलकें मोटी होती हैं। पैरों में पांच अंगुलियां होती हैं। पिछला पैर अगले पैर की तुलना में बड़ा और मोटा होता है। जीभ करीब 25 सेंटीमीटर तक होती है और वह आसानी से अपने शिकार को अपनी जीभ पर चिपका लेती है। कपाल वृताकार या शंक्वाकार होता है । मादा पैंगोलिन की छाती में दो स्तन होते हैं। पैंगोलिन अपने खाद्य आदत के प्रति विशेष रूप से ढले होते हैं। वे दीमकों और चीटिंयों के घोंसले को खोदकर उसके अंडे, दीमक और चींटी खाते हैं। वे उनकी सूघंने की शक्ति बहुत तीव्र होती है और घोंसले पर हमला करने से पहले वह उसका अच्छी तरह पता लगा लेते हैं। वे हमला करने के कुछ देर के अंदर ही घोंसले के सभी जीवों को चट कर जाते हैं। पैंगोलिन को बड़ी दीमक या चींटी के बजाय उनके अंडे अधिक पंसदे हैं। चूंकि उन्हें दांत नहीं होते, इसलिए ये अंडे सीधे उनके पेट में चले जाते हैं।

भारतीय पैंगोलिन पूरे मैदानी भाग और हिमालय के दक्षिणी भाग से लेकर कन्याकुमारी तक छिटपुट पाया जाता है। यह पाकिस्तान और श्रीलंका में भी पाया जाता है। भारतीय पैंगोलिन विविध प्रकार के उष्णकटिबंधीय जंगलों में पाया जाता है। यह भी देखा गया है कि पैंगोलिन मानव पर्यावास के समीप ऊसर भूमि में पाया जाता है। पैंगोलिन डरपोक होते हैं और किसी को हानि नहीं पहुंचाते। वे अपनी रक्षा के लिए अपना सिर पेट में छिपा लेते हैं और पूरे शरीर को चक्र की तरह मोड़ लेते हैं ताकि शरीर के संवदेनशील हिस्से सुरक्षित रहें। मलद्वार वाले हिस्से से कुछ खास प्रकार का द्रव छोड़ना सुरक्षा का उसका दूसरा उपाय है। नर और मादा पैंगोलिन एक ही बिल में रहते हैं लेकिन उनकी प्रजनन क्रिया के बारे में ज्यादा कुछ ज्ञात नहीं है।

पैंगोलिन की अधिकतर आबादी खतरे में है। एशियाई पैंगोलिन घटते जा रहे हैं, क्योंकि लगातार इनके पर्यावास खत्म होते जा रहे हैं और इनकी त्वचा और शल्क के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और मांस के लिए इनका शिकार किया जाता है। दुनिया के कई हिस्सों में पारंपरिक औषधियों के निर्माण के लिए शल्क की काफी मांग होती है। कहा जाता है कि पैंगोलिन का मांस अस्थमा के इलाज और रक्त परिसंचरण बढ़ाने में कारगर होता है। इस बात के प्रमाण मिले हैं कि पैंगोलिन परिवर्तित पर्यावास में अपने को अनुकूल ढालने में समर्थ होते हैं बशर्ते कि वहां दीमक और चींटियां पर्याप्त मात्रा में हों और कोई उन्हें मारे नहीं। कुछ जनजातीय समुदाय जहां बड़े चाव से पैंगोलिन का मांस खाते हैं वहीं उनके शल्क और त्वचा का अंतर्राष्ट्रीय व्यापार होता है। लगातार पसरते खेत और कीटनाशकों के बढ़ते प्रयोग के चलते भी पैंगोलिन की संख्या घटती जा रही है। पैंगोलिन की दोनों प्रजातियों को आईयूसीएन द्वारा संकटापन्न प्रजातियां की सूची में रखा गया है।

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